—शंभु छंद—
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, श्री अर जिनवर को नित्य नमूँ।
श्री ऋषभदेव से महावीर तक, चौबिस जिनवर को प्रणमूँ।।
श्री सरस्वती माँ को वंदूं, श्री गौतमगणधर को प्रणमूँ।
आचार्य उपाध्याय साधु परम-गुरुओं को पुन: पुन: प्रणमूँ।।१।।
श्री मूलसंघ में कुंदकुंद, आम्नाय सरस्वति गच्छ कहा।
विख्यात बलात्कारगण से, गुरु परम्परा से मान्य रहा।।
इसमें अगणित आचार्य हुए, इन सबको वंदन मेरा है।
सब परम्परा सूरी-मुनि को, नितप्रति अभिनंदन मेरा है।।२।।
बीसवीं सदी में प्रथम सूरि, चारित्रचक्रवर्ती गुरुवर।
श्री शांतिसागराचार्य हुए, उन पट्टाचार्य वीरसागर।।
इनसे महाव्रत दीक्षा लेकर, मैं नाम ‘ज्ञानमति’ प्राप्त किया।
जिनदेव शास्त्र गुरु की भक्ती से ज्ञानामृत का लाभ लिया।।३।।
वीराब्द पचीस शतक अड़ता-लिस धनतेरस की तिथि शुभ में।
यह ‘जिनेन्द्रभक्ति संग्रह’ तृतीय-भाग संकलित किया मैंने।
जिनवर, गणधर, गुरुवर दिव्य-ध्वनि आदिक स्तुति मनहारी हैं।
जिनदेव, शास्त्र, गुरु की भक्ति, शिव सुख को देने वाली है।।४।।
यह ग्रंथ सदा ही इस भू पर, सबको पुण्यामृत देवेगा।
जब तक जग में रवि, शशि तब तक, भव्यों को अमृत देवेगा।।
यह जिनभक्ती के सारों में, भी सार सौख्यकारी होवे।
यह सर्व अमंगल दोष हरे, वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ कर देवे।।५।।