चन्दनामती- पूज्य माताजी! मैं आपसे जिनेन्द्र पूजा से संबंधित कुछ जानकारी लेकर श्रद्धालुभक्तों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी ठीक है, पूछो।
चन्दनामती- आगम के अनुसार पूजा की सही विधि क्या है? कृपया बताने का कष्ट करें।
श्री ज्ञानमती माताजी- पूजा विधि के परिज्ञान हेतु श्रावकों को श्रावकचार ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। जैसे उमास्वामी श्रावकाचार में आचार्यश्री उमास्वामी ने पूजा विधि बहुत अच्छी तरह बतलाई है-
आह्वाननं च प्रथमं, तत: संस्थापनम् परम्।
सन्निधीकरणं कृत्वा, पूजनं तदनन्तरम्।।१४७।।
ततो विसर्जनं कार्यं, तत: क्षमापणा मता।
पंचोपचारोपचिति:, कर्तव्याहर्निशं जनै:।।१४८।।
देखो! इन श्लोकों में स्पष्ट कहा है कि पूजा में सर्वप्रथम आह्वान, स्थापन और सन्निधीकरण करके अष्टद्रव्य से पूजन करें, पुन: विसर्जन करें। इस प्रकार प्रतिदिन पंचोपचारी पूजा करनी चाहिए। भगवान का अभिषेक पूजा के पहले किया जाता है अर्थात् अभिषेकपूर्वक पूजन करने से षट्प्रकारी पूजा हो जाती है।
चन्दनामती – लेकिन कुछ लोग यह कहते हैं कि जब भगवान की प्रतिमा सामने विराजमान ही है तो उनकी स्थापना चावलों से करने की क्या जरूरत है?
श्री ज्ञानमती माताजी – पूजा तो किसी न किसी भगवान के सामने ही मंदिर में की जाती है। घर में बैठकर फोटो आदि के सामने द्रव्य चढ़ाने से पूजा नहीं होती है। इसी उमास्वामी श्रावकाचार में पृष्ठ नं. ५९ पर इस विषय पर विशेष खुलासा भी है- ‘‘पूजा करने के पहले आह्वानन, स्थापन, सन्निधीकरण अवश्य करना चाहिए। जो लोग आह्वानन नहीं करते हैं वे गहरी भूल करते हैं। ऐसे लोग कहते हैं कि जब भगवान की प्रतिमा सामने विराजमान हैं तब फिर आह्वानन करने की क्या आवश्यकता है परन्तु ऐसे लोग आह्वानन का अर्थ नहीं समझते हैं। जैन शास्त्रों में एक स्थापना निक्षेप माना है। साकार या निराकार पदार्थ में किसी के गुण का आरोपण करना स्थापना निक्षेप है, जैसे सामने की विराजमान प्रतिमा में किसी तीर्थंकर की स्थापना है परन्तु आह्वानन स्थापन में जो स्थापना है वह स्थापना निक्षेप नहीं है, वह तो पूजा का एक अंग है। जैसे किसी बड़े आदमी या छोटे आदमी को बुलाते हैं और वह बुलाया हुआ व्यक्ति जब सामने आ जाता है, तो उसके आदर-सत्कार के लिए कहा जाता है कि आइए साहब! अच्छे तो हैं आइए! यहाँ बैठिए। इस प्रकार कहना आदर सत्कार का एक अंग है। उसी प्रकार आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण भी पूजा या आदर सत्कार के अंग हैं। यदि बुलाने वाला मनुष्य आए हुए अतिथि को आइए, बैठिए इत्यादि वचन न कहे तो वह आया हुआ व्यक्ति अपना अनादर समझता है। उसी प्रकार यदि पूजा के पहले आह्वानन स्थापन न किया जाए, तो वह भी एक प्रकार से भगवान का अनादर समझना चाहिए। आह्वानन स्थापन का अर्थ भी ‘आइए यहाँ विराजिए’ यही होता है और इसीलिए वह पूजा का अंग माना जाता है। प्राचीन एवं अर्वाचीन जितनी भी पूजाएँ हैं उन सबमें आह्वानन, स्थापन है इसलिए पूजा में आह्वानन, स्थापन न करना पूजा शास्त्र के विपरीत चलना है।’’
चन्दनामती – आजकल श्रावकों की पूजा पद्धति में बहुत विवाद चलता है, इस विषय में आपका क्या अभिमत है?
श्री ज्ञानमती माताजी- बात यह है कि इस युग में आगम-जिनवाणी ही हम सबके लिए आधार है, उसके अनुसार यदि श्रावक और साधु क्रियाएँ करें तो कभी विवाद की स्थिति ही नहीं आ सकती है। जैसे-रयणसार, वसुनन्दि श्रावकाचार, उमास्वामी श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि श्रावकाचार ग्रंथों में ही पूजा पद्धति का वर्णन है। इनका स्वाध्याय श्रावकों को अवश्य करना चाहिए।
चन्दनामती- क्या मुनि एवं आर्यिका आदि भी श्रावकों को पूजा का उपदेश दे सकते हैं? मैंने तो पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में पढ़ा है कि मुनि को मुनिधर्म का उपदेश ही देना चाहिए। यदि वे पहले गृहस्थधर्म का उपदेश देते हैं, तो दोष के भागी होते हैं।
श्री ज्ञानमती माताजी- पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में आचार्यश्री अमृतचन्द्र जी ने यह श्लोक कहा है-
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति:।
तस्य भगवत्प्रवचने, प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।
अर्थात् जो साधु अपने पास आए हुए भव्य श्रावक को पहले यति-मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है वह जिनागम के अनुसार प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसका अभिप्राय यही खोला है कि यदि आगन्तुक भक्तश्रावक मुनिधर्म ग्रहण करने में सक्षम है तो पहले श्रावक धर्म का उपदेश देने से वह वहीं तक सीमित रह जावेगा। जैसे ग्राहक के आने पर दुकानदार पहले तो अच्छा कीमती माल दिखाता है, तब ग्राहक यदि अर्थ सम्पन्न है तो ऊँची वस्तु खरीद लेता है अन्यथा उससे कम कीमत का माल दिखाने का अभिप्राय व्यक्त करता है, तब दुकानदार उसे दूसरा कम कीमत वाला माल दिखाकर संतुष्ट करता है। ठीक इसी प्रकार मुनि को तो श्रावक के लिए पहले मुनिधर्म का ही उपदेश देना चाहिए यदि वह गृहस्थ उसे धारण करने में असमर्थता व्यक्त करता है तो बाद में उसके लिए श्रावक धर्म का उपदेश देना चाहिए। जैसा कि पद्मपुराण के अनुसार अयोध्या के राजा श्री रामचन्द्र के भाई भरत के लिए ‘‘द्युति’’ नामक जैनाचार्य ने गृहस्थ धर्म का उपदेश देते हुए कहा था कि ‘‘हे भरत! गृहस्थ धर्म भी मुनिधर्म का लघुभ्राता है।’’ यहाँ तो केवल सबसे पहले अपने पास आए हुए श्रावक को उपदेश देने का क्रम बताया है, जिसका रहस्य तुमने समझ ही लिया है। आगे एक प्रमाण मैं प्रवचनसार का बताती हूँ उसमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती आचार्यों के लिए जिनेन्द्रपूजा के उपदेश का अधिकार बताया है।
दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागाणं, जिणिन्द पूजोवदेसो य।।२४८।।
अर्थात् दर्शन और ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोषण करना तथा जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना, यह सब सरागी मुनि-शुभोपयोगी मुनियों की चर्या है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुन्दकुन्दाचार्य की दृष्टि में मुनियों के द्वारा दान पूजा आदि का उपदेश देना दोषास्पद नहीं है। किन्तु उपदेश पूर्वाचार्यों की परम्परानुसार ही देना चाहिए, अपने मन से या प्रान्तीय परम्परा के हठाग्रह से युक्त होकर आगम का अपलाप नहीं करना चाहिए। देखो! मैना सुन्दरी ने मुनिराज के उपदेश से ही सिद्धचक्र आराधना करके अपने पति एवं समस्त कुष्टियों का कुष्ट रोग दूर किया था। ऐसे कई उदाहरण ग्रंथों में मिलते हैं।
चन्दनामती- पूजा करने वालों को मुख्यरूप से किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
श्री ज्ञानमती माताजी – सबसे पहले तो पूजक के लिए उमास्वामी आचार्य ने निर्देश दिया है कि ‘‘खण्डितवस्त्र (वस्त्र का टुकड़ा), गला हुआ वस्त्र, फटा हुआ वस्त्र और मैला वस्त्र पहन कर दान, पूजा, जप, होम और स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसे वस्त्र पहनकर किया गया दान-पूजन आदि सब निष्फल हो जाता है।’’ दूसरी बात शुद्ध जल से अष्टद्रव्य धोकर पूजन करनी चाहिए। तभी अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। आठों द्रव्यों में से किसी भी द्रव्य के चढ़ाने में हिंसा या सावद्य की कल्पना नहीं करनी चाहिए क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि-‘जिस वायु से पर्वत के समान बड़े-बड़े हाथी उड़ जाते हैं उस वायु के सामने क्या डांस, मच्छर टिक सकते हैं? कभी नहीं। उसी प्रकार जिस पूजा से जन्म-जन्मान्तर के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं उस पूजा से क्या उसी से उत्पन्न होने वाली थोड़ी सी हिंसा नष्ट नहीं होगी? अवश्य होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। मेरा तो कहना यही है कि उत्तम कुल में जन्म लेकर जब तक साधु बनने की शक्ति नहीं है, तब तक श्रावक-श्राविकाओं को खूब दान पूजा कर करके पुण्यार्जन करना चाहिए। तीसरी बात पूजकों के लिए यह है कि अपने शरीर को शुद्ध करने के लिए भगवान् का गन्धोदक लेना चाहिए, चन्दन से तिलक लगाना चाहिए और सन्तति की वृद्धि के लिए शेषाक्षत ले लेना चाहिए।
चन्दनामती- शेषाक्षत किसे कहते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- पूजा करने के बाद बचे हुए अक्षतों को शेषाक्षत कहते हैं। पूजा के बाद उन अक्षतों को मस्तक पर लगाना चाहिए। आजकल इसकी परम्परा नहीं है किन्तु शास्त्रों में ऐसा उल्लेख आया है कि सुलोचना अपने पिता के पास शेषाक्षत लेकर गई थी। इसकी जगह वर्तमान में यह परम्परा देखी है कि ठोना में जो स्थापना के चावल या लौंग होते हैं उन्हें लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं, लेकिन इसका आगम में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। इस शेषाक्षत वाले प्रकरण से मुझे तो यही समझ में आता है कि जैसे चौके में साधुओं को आहार देने के पश्चात् थाली में बचे हुए भोजन को लोग पवित्र प्रसाद मानकर खाते और खिलाते हैं उसी प्रकार जिन द्रव्यों से भगवान् की पूजा की गई है उन बचे हुए चावल आदि को शेषाक्षत-पवित्र मानकर उन्हें मस्तक पर चढ़ाने का उल्लेख है। ऐसा ही मेरे गुरु आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज भी कई बार कहा करते थे।
चन्दनामती- आज आपसे चर्चा करने में यह निष्कर्ष निकला कि पूजा के प्रारंभ में स्थापना करना अति आवश्यक है क्योंकि आगम का विधान है।
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, यह तो मैंने जो कुछ भी बताया है श्रावकाचारों के आधार से ही है, मेरे मन का कुछ नहीं है। आह्वानन, स्थापन और सन्निधीकरण करने की भी अपनी एक विधि होती है, उसे उमास्वामी श्रावकाचार में देखना चाहिए, जहाँ पूजन संबंधी अन्य और भी निर्देश आचार्यश्री ने दिये हैं।
चन्दनामती- वंदामि माताजी! इस विषय को मैं यही विराम देती हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके द्वारा प्रतिपादित पूजन पद्धति के विषय से श्रावक-श्राविकाएं अवश्य लाभ प्राप्त करेंगे। पुन:-पुन: आपके श्रीचरणों में वंदामि।