जैन समाज में पूजा पद्धति के बारे में वर्तमान समय में चल रही निरर्थक भ्रांतियों के बारे में आगमोक्त स्पष्टीकरण एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत आलेख में प्रदान किया गया है। सम्पादक – पैरों पर चंदनादि के टीके लगाते हैं तो आप उसका निषेध क्यों करते हो ? शब्द की व्युत्पत्ति और परम्परा का ज्ञान आपने चरणों में चंदन लगाने का निषेध किया जबकि जयधवलाकार ने चंदन लगाना कथंचित् स्वीकार किया है। यथा—‘छुहावण’
अर्थ — चन्दन लगाना। छुहावण शब्द संस्कृत शब्द से तद्भव हुआ। ‘शुभावन’ से ‘छुहावण’बना है। शुभ यानि सुगन्धित वृक्ष, अवन यानि नीचे लगाना अर्थात् सुगन्धित चन्दन को भगवान के चरणों में लगाना और वही अभिषेक के बाद वह धुल जाता है जो गन्धोदक कहलाता है। शब्दों की व्युत्पत्ति और परम्परा से आये आचार्यों के ग्रंथ जब तक हम नहीं पढ़ेंगे तब तक कोई भी बात स्पष्ट नहीं होगी। जैसे ‘पूजा’ शब्द मूल में ‘पूजे’ शब्द था जो कि देशी (द्रविड़) शब्द है। पूया शब्द महाराष्ट्री प्राकृत शब्द है। पू का अर्थ फूल और ‘जे’ का अर्थ चढ़ाना। सामान्यत: पहले फूल चढ़ाने की पद्धति थी। कुन्दकुन्दाचार्य ने भी ‘पूज्जमि’ शब्द का प्रयोग किया है। संस्कृत में ‘पूजा’ शब्द है जो कि अष्टद्रव्यादि से अर्चना के भाव दर्शाता है। ‘चरू—बलि—पुप्फ—गंध—धूव—दीवादीिंह सगभत्तिपगासो अच्चण णाम।’
अर्थ — चरू बलि, अर्चना, पुष्प, फल, गंध, धूप और दीप (जल, अक्षत) आदि को से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना है। ‘पूजन’ का प्राकृत में ‘पूयण’ शब्द बनता है। इसका अर्थ इस प्रकार है— ‘गन्धामाल्याऽऽदिभिरभ्यर्चने।गंध शब्द का अर्थ चन्दन है और उससे मिश्रित जल गंधोदक कहलाता है। यथा—
शास्त्रों में जिनेन्द्र भगवान के चरणों का गंधोदक लगाने का बहुत महत्व है। पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ज्ञानपीठ पूजांजलि का सम्पादन करते हुए लघु अभिषेक पाठ में लिखा है—
अर्थ — हे जिन! आपके स्नपन का गन्धोदक मुक्तिलक्ष्मीरूपी वनिता के कर के उदक के समान है, पुण्यरूपी अंकुर को उत्पन्न कराने वाला है, नागेन्द्र, देवेन्द्र और चक्रवर्ती के राज्य के अभिषेक के जल के समान है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी लता की वृद्धि का सम्पादक है तथा र्कीित, लक्ष्मी और जय का साधक है। उपर्युक्त श्लोक को पढ़कर गन्धोदक ग्रहण करना चाहिए। गन्धोदक लगाने का स्थान
भाले नेत्रयुगे च मूर्धनि तथा सर्वेर्जनैर्धार्यताम्।।
अर्थ —भगवान के चरण में चढ़ाये हुए सुगन्धित जल अरिहंत भगवान के पवित्र चरण के स्पर्श होने से पवित्र हो जाते हैं। अतएव देवेन्द्रादि के भी ललाट, मस्तक, नेत्र में धारण करने योग्य है। उनके स्पर्श करने मात्र से ही पूर्व में अनेक जन पवित्र हो चुके हैं। इसलिए उन गंधोदक आदि को भव्य जीव सदा ललाट, नयनद्वय व मस्तक में सदाकाल भक्ति से धारण करे। जिनेन्द्र भक्ति एवं गंधोदक का महत्व—
‘यदीय पादाम्बुजभक्तिशीकर: सुरासुरधीश पदाय जायते।’
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का एक बूंद गंधोदक जो भक्ति से लगता है, वह इन्द्रधरणेन्द्र आदि की पदवी को पाता है। जिनेन्द्र भक्ति एवं गंधोदक लगाने का फल मैना सुन्दरी ने पाया था।
‘श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी। फल पायो मैना रानी।।’‘
जैसे मंत्रनिमित्तकरि जलादिकविषै रोगादिक दूरि करने की शक्ति हो है।
सुन्दर पुष्प सुगन्धित जल की वर्षा— ‘‘मन्दार—सुन्दर—नमेरू—सुपारिजात, सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा।
गन्धोद—बिन्दु—शुभ—मन्द—मरूत्—प्रपाता, दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा।।’’
अर्थ — हे भगवन् ! आपके समवसरण में जब देवगण आकाश से मन्दार, सुन्दर नमेरू, परिजात सन्तानक आदि, दिव्य वृक्षों के सुन्दर पुष्प और सुगन्धित जल (गंधोदक) की वर्षा करते हैं, तब मन्द—मन्द पवन के झोकों से हिलोरे खाते वे ऐसे भव्य प्रतीत होते हैं, मानो आपके श्रीमुख से वचनरूपी दिव्य पुष्प ही बरस रहे हों। यह पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य का वर्णन है। आजकल लोग १३ पंथ, २० पंथ तथा तारण पंथ आदि में ही उलझ गए। जबकि शास्त्रों में पंथों का नहीं परम्परा से आए हुए जिनागम का वर्णन है। शास्त्र प्रारम्भ करने के पहले ‘परम्पराचार्यगुरवे नम:’ कहते हैं। इसक मतलब यह है जो गुरु परम्परा से ज्ञान आ रहा है वही हमारे लिए आगम चक्षु है। जिसे परम्परा का भी ज्ञान नहीं उसे आचार्यों ने इस प्रकार कहा है—
‘‘स्वजातिपूर्वजानांतु यो न जानाति सम्भवम्। स भवेत् पुंश्चलीपुत्रसदृश: पित्रवेदक:।।’’
अपने पूर्वजों के भाषा और संस्कृति विषय में जो विद्वान् जानकारी नहीं रखता वह उस कुलटा पुत्र के समान है, जिसे पिता के विषय में पता नहीं। अर्थात् अतीत ही वर्तमान का सांस्कृतिक आधार है। उस अतीत को न जानने वाला अपनी प्राचीन निधि के परिज्ञान बिना निराधार सदृश है। स्वजाति समुत्पन्न पूर्वज ही वह रत्नकोष हैं, जिन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त कर मनुष्य वास्तविक संस्कृति सम्पन्नता का अधिकारी होता है। गृहस्थों के लिए जिनपूजा प्रधान धर्म है। यद्यपि इसमें जल, गंध, पुष्पादि के माध्यम से पंचपरमेष्ठी की प्रतिमाओं का ही आश्रय लिया जाता है, पर वहाँ भी भाव ही प्रधान होते हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। वास्तव में जल, गंधादि चढ़ाना धर्म नहीं है वरन् चढ़ाते समय जो आनंद आता है वह धर्म है। कहा भी है—
अर्थ — केवल जल, गंध, अक्षत, पुष्प, चरू, द्वीप, धूप और फल तथा जप, स्तवन, भजन, शब्दात्मक गुणकीर्तन आदि आलंबन है, स्वयं धर्म नहीं। वस्तुत: शुद्ध भाव ही धर्म का हेतु है। इसलिए शुद्ध भाव के विषय में ही प्रयत्नवान् होना चाहिये।
‘पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एव हि। क्षित्यादिरिव धान्यस्य किन्तु भावस्य कारणम्।।
अर्थ — केवल पुष्पादि अष्टद्रव्य चढ़ाना वगैरह क्रियाकाण्ड और आहारादि दान स्वयं धर्म नहीं है किन्तु जैसे खेती (बीज, पानी, खाद व हल) वगैरह धान्य की उत्पत्ति में निमित्त साधन है वैसे ही पुष्पादि चढ़ाना ये चीजें शुभोपयोग के प्रबल साधन है। प्रस्तुत लेख का सारांश यह है कि प्राकृत, अपभ्रंश भाषा के तत्सम, तद्भव देशी आदि शब्दों का गूढ अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। शब्द सम्पत्ति के बिना लेखक / लेखिका बनना असम्भव है। यदि किसी शास्त्र को पढ़कर के उसमें अपना अभिप्राय लिखें तो वह आगम के अनुसार होना चाहिए उसे ही शास्त्रों में भाष्य कहा है। यथा—
अर्थ —सूत्र (आगम—परगामन) को अनुसरण करने वाले पदों के द्वारा सूत्र का अर्थ बताया जाए तथा अपने पदों का भी व्याख्यान किया जाए, उसे भाष्यवेत्ताओं ने ‘भाष्य’ रूप से जाना है।
संदर्भ
१. सर्वज्ञ प्रणीत जैन भूगोल, डॉ. श्रीमती उज्जवलता दिनेशचंद्र शहा, पृष्ठ ९९
२. जयधवला, भाग १, १/८२, पृष्ठ १००
३. छक्खंडागम, बंध, ३/४२ पृष्ठ ९२
४. ‘बलिर्मस्तकस्योपरितनभागेनावतरणं क्रियेऽहमिति तस्य योगिन:’ परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेव टीक, २/१६०