जिन—अभिषेक और जिनपूजा, मंदिर की आध्यात्मिक प्रयोगशाला के दो जीवंत प्रयोग हैं। भगवान की भव्य प्रतिमा को निमित्त बनाकर उनके जलाभिषेक से स्वयं को परमपद में अभिषिक्त करना अभिषेक का प्रमुख उद्देश्य है। पूजा, जिन—अभिषेकपूर्वक ही संपन्न होती है, ऐसा हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा श्रावक को उपदेश दिया गया है। पूजा के प्रारंभ में किन्हीं तीर्थंकर की प्रतिमा के सामने पीले चांवलों द्वारा भगवान के स्वरूप को दृष्टि के समक्ष लाने का प्रयास करना आव्हानन है। उनके स्वरूप को हृदय में विराजमान करना स्थापना है, और हृदय में विराजे भगवान के स्वरूप के साथ एकाकार होना सन्निधिकरण है। द्रव्य पूजा का अर्थ सिर्पâ इतना नहीं है कि अष्ट द्रव्य र्अिपत कर दिए और न ही भाव—पूजा का यह अर्थ है कि पुस्तक में लिखी पूजा को पढ़ लिया। पूजा तो गहरी आत्मीयता के क्षण हैं। वीतरागता से अनुराग और गहरी तल्लीनता के साथ श्रेष्ठ द्रव्यों को सर्मिपत करना एवं अपने अहंकार और ममत्व भाव को विर्सिजत करते जाना ही सच्ची पूजा है। साधुजन निष्परिग्रही हैं इसलिए उनके द्वारा की जाने वाली पूजा / भक्ति में द्रव्य का आलंबन नहीं होता लेकिन परिग्रही गृहस्थ के लिए परिग्रह के प्रति ममत्वभाव के परित्याग के प्रतीक रूप श्रेष्ठ अष्ट द्रव्य का विसर्जन अनिवार्य है। पूजा हमारी आंतरिक पवित्रता के लिए है। इसलिए पूजा के क्षणों में और पूजा के उपरांत सारे दिन पवित्रता बनी रहे, ऐसी कोशिश हमारी होना चाहिए। पूजा और अभिषेक जिनत्व के अत्यन्त सामीप्य का एक अवसर है। इसलिए निरन्तर इंद्रिय और मन को जीतने का प्रयास करना और जिनत्व के समीप पहुँचना हमारा कर्तव्य है। पूजा, भगवान की सेवा है जिसका लक्ष्य आत्मप्राप्ति है; इसलिए आचार्य समंतभद्र स्वामी ने पूजा को वैयावृत्य में शामिल किया है। पूजा अतिथि का स्वागत है, इसलिए आचार्य रविषेण स्वामी ने इसे अतिथि संविभाग के अंतर्गत रखा है। पूज, ध्यान भी है। तभी तो भावसंग्रह में आचार्य ने इसे पदस्थ ध्यान में शामिल किया है। पूजा आत्मान्वेषण की प्रक्रिया है। इसे स्वाध्याय भी कहा है। जिन—पूजा से लाभान्वित होने में हमें कसर नहीं रखनी चाहिए; पूरा लाभ लेने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। पूजा के आठ द्रव्य अहं के विसर्जन और हमारे आत्म—विकास की भावना के प्रतीक हैं। मानिए, ये अपनी तरफ आने के आठ कदम हैं। भगवान के श्री चरणों मेंं जल र्अिपत करके हमें जन्म—मरण से मुक्त होने की भावना रखनी चाहिए कि हमारा भव—आताप मिटे, चंदन शीतलता का प्रतीक है और भव—भव की तपन का कारण हमारी आत्मदर्शन से विमुखता है; इसलिए आत्मदर्शन में सहायक भगवान के दर्शन और उनकी वाणी—रूपी शीतल चंदन के द्वारा हम अपना भव आताप मिटाने का प्रयास करें। चंदन हमें संदेश भी देता है कि हम उसकी तरह सभी के प्रति शीतलता और सौहार्द से भरकर जिएँ। सभी की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर सभी को सहानुभूति दें। अक्षत का अर्पण हम अखंड अविनाशी सुख पाने की भावना से करें। चावल या अक्षत की अखंडता और उज्जवलता हमारे जीवन में अविनश्वर और उज्ज्वल सुख का अहसास कराए। हम कर्मजनित, दु:खमिति और नश्वर सांसारिक सुख पाकर गाफिल न हों। समत्व रखें। जीवन और जगत को उसकी समग्रता में देखें और जिएँ। यही संदेश हम चावल—अक्षत से लें। पुष्प र्अिपत करते समय काम—वासना से मुक्त होने की भावना रखनी चाहिए। असल में, पुष्प को काम—वासना का प्रतीक माना गया है। उसे काम—शर भी कहा गया है। वह हमें मोहित करता है; इसलिए काम, क्रोध और मोह पर विजय पाने वाले आप्त भगवान जिनेन्द्र के श्री चरणों में पुष्प चुढ़ाना स्वयं को मोह—मुक्त करने का प्रयास है। पुष्प हमें यह संदेश भी देता है कि उसका जीवन दो दिन का है, फिर उसे मुरझा जाना है, टूटकर गिर जाना है। हमारा जीवन भी दो दिन का ही है। फिर यह देह टूटकर गिर जाएगी। इसलिए समय रहते वासनाओं से मुक्त होने का प्रयास करें। स्वभाव में रहने की कोशिश करें। नैवेद्य र्अिपत करते हुए हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हमारी भव—भव की भूख मिट जाए। इसलिए यह नैवेद्य भगवान के चरणों में अर्पित करके उनकी भक्ति से हम अपनी भव—भव की भूख मिटाने का भाव करता है। नैवेद्य से यह संदेश भी हम लें कि खाद्य पदार्थों के प्रति आसक्ति कम करना और उसे योग्य पात्र को दे देना ही श्रेयस्कर है। दीप र्अिपत करते समय हमारी भावना मोह के सघन अंधकार से निकल कर आत्म—प्रकाश में पहुँचने की हो। दीप प्रतीक है, प्रकाश का। वह बाह्य स्थूल पदार्थों को प्रकाशित करता है। इसे हम अपने आंतरिक सूक्ष्म जगत को पाने के लिए माध्यम बनाएँ। वैâवल्य ज्योति पाने का प्रयास करें। दीप—स्व प्रकाशक है। हम उससे स्वयं को स्व पर प्रकाशी बनाने का संदेश लें। जहाँ भी रहें वहाँ रोशनी बिखेरें। हमारे इस शरीर रूपी माटी के दीपक में प्राणी मात्र के प्रति स्नेह कभी कम न हो और भगवान के नाम की लौं निरन्तर जलती रहे। धूप अर्पित करते हुए हमारी भावना अपने समस्त कर्मों को नष्ट करने की हो। जैसे अग्नि में धूप जलकर नष्ट होती जाती है और हवाओं में खुशबू भरती जाती है ऐसे ही तप और अग्नि में हमारे सारे कर्म जलते जाए और आत्म—सुरभि सब और फैलती जाए। जलती हुई धूप से हम एक संदेश और लें कि धूप की सुगंध जैसे अमीर—गरीब या छोटे बड़े का भेद नहीं करती और सभी के पास समान भाव में पहुँचती है ऐसे ही हम भी अपने जीवन में भेदभाव छोड़कर सर्वप्रेम और सर्वमैत्री की सुगंध पैâलाते रहें। फल र्अिपत करें इस भावना से कि हमें मोक्षफल प्राप्त हो। हमें जानना चाहिए कि संसार में सिवाय कर्मफल भोगने के हम कुछ और नहीं कर पा रहे है।। अपने अनंतबल को हम प्रकट करें और मोक्षफल पाएँ। साथ ही फल चढ़ाकर एक संदेश और हम लें कि सांसारिक फल की आकांक्षा व्यर्थ है, क्योंकि वह कर्माति है। हम जो करें अच्छा ही करें और अनासक्त भाव से कर्तव्य मान कर करें। कर्तव्य के अहंकार से मुक्त रहें। अष्ट द्रव्यों की समष्टि ही अघ्र्य है। अघ्र्य का अर्थ मूल्यवान भी होता है। तब अघ्र्य र्अिपत करके हमारी भावना अनघ्र्य यानि अमूल्य पद को पाने की रहे। आत्मोपलब्धि ही अमूल्य है वही हमारा प्राप्तव्य है। उसे ही पाने के लिए हमारे सारे प्रयास हों। अघ्र्य से यह संदेश भी हमें ले लेना चाहिए कि यहाँ जिन चीजों को हमने मूल्य दिया है, मूल्यवान माना है, वास्तव में वे सभी शाश्वत और मूल्यवान नहीं है। अमूल्य निधि हमारी परमात्मदश ही है। हमारा विनम्र प्रयास स्वयं को भगवान के चरणों में सर्मिपत करके अविनश्वर परमात्म पद पाने का होना चाहिए।