मुनिराजों से सुना है कि एक परावर्तन काल में ४८ मनुष्य भव मिलते हैं। जिनमें सोलह पुरुष के सोलह स्त्री के और सोलह नपुंसक के होते हैं। इनमें अनेक भव गरीबी बिमारी और तीव्र कषायमय होते है। केवल आठ भव ही ऐसे होते हैं। जिनमें मंद कषाय का उदय होता है। अर्थांत शुभोदय—पुण्योदय रहता है। आजीविकादि की विशेष चिंता नहीं होती ऐसे उदय से हित अहित का विवेक कर सकते हैं। जैन धर्म अनुयायी हो सकते है शाकाहारी, रात्रि भोजन के त्यागी, न्याय नीति के पालक—श्रावक होकर जीवन सुखमय धर्ममय व्यतीत कर सकते हैं। पुण्योदय से हम जैनी है। जैनाचार भी पालते हैं। तो जैन धर्म की वास्तविकता भी जानना चाहिए। जिन मंदिर नव देवताओं में एक है जिसके शिखर के दर्शन मात्र से अनादि के कर्मों के बंधन में शिथिलता आ जाती है। परिणामों विशुद्धता आ जाती है। कषाय की मंदता हो जाती है। जिन मंदिर साक्षात् तीर्थंकर का समवशरण है और जिन प्रतिमा साक्षात् तीर्थंकर भगवान। समवसरण की विभूति और समवशरण की महिमा अचिंत है करोंड़ो जिव्हाऐं जिसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक जिन मंदिर नगरों शहरों कस्बों ग्रामों से अलग पर्वतों और एकांत स्थानों में बनाए जाते थे। श्रावकों को जब भक्ति के भाव आते तब वे नगरों से बाहर निकलकर नगरों से बाहर निकलकर—पसीना बहाकर पैदल चलकर जिनमंदिर में प्रसन्न चित्त पहुँचकर शुद्धि—विशुद्धि सहित प्रवेश कर श्री जिनराज प्रभु की भक्ति—पूजन बहुत ही उत्साह से करते थे। जिससे पुण्यानुबन्धी पुण्य बंधता था जिसका फल सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन का अर्थ भव के नाश का काल आ गया है। सम्यग्दृष्टि श्रावक संसार शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनिपना धारण कर तप कर सदा के लिए सिद्धशिला पर विराजमान सदाकाल अनंतकाल को सुखी हो जाता है। प्रथमानुयोग में ऐसे ही महापुरुषों का जीवन चरित्र हम लोगों की प्रेरणा के लिए उपलब्ध हैं जिसका स्वाध्याय और अनुसरण करना चाहिए। आचार्य श्री पद्मनन्दि जी ने पंचविशंतिका ग्रंथ में लिखा है।
यत्र श्रावक लोक एष वसति स्यात्तत्र चैत्यलयो,
यस्मिन्सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वर्तते।
वहाँ जिन मंदिर होता है और जहाँ जिनमंदिर होता है। वहाँ यतिश्वरों निवास करते है और यतीश्वरों का सान्निध्य पाकर पापों का क्षय होता है। पापों का क्षय से स्वर्ग—मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए जिन भक्त बड़ी भक्ति और उत्साह से सुंदर से सुंदर निज मंदिरों के निर्माण कराते है तथा पंचकल्याणक के भव्य आयोजन और गजरथ प्रवर्तन कर जैनधर्म की महान् प्रभावना करते हैं। अब समय बदल गया है। जिन मंदिर पर्वतों और एकान्त स्थानों से उतरकर चलकर नगरों के मध्य में आ गए हैं। जिन मंदिर अब धन वैभव से सम्पन्न हो गए हैं। श्रावकों को भक्तों अष्टद्रव्य की व्यवस्था, पूजन की अष्टद्रव्य से सजी थाली की व्यवस्था, धुले (शुद्ध) वस्त्रों की व्यवस्था स्वयं देने लगे हैं। जिन मंदिर व्यवस्था के चुनाव होने लगे हैंं समय से धुलने और बंद होने लगे है। सोचिए इस तरह की व्यवस्था सुविधाऐं लेने—देने में भगवान् के समीप रहने का समय कम हो जाता है। भक्तिभाव में कमी आ जाती है इसलिए हो सके तो श्रावकों पूजन आदि की व्यवस्था अर्थात् अष्टदृव्य लाना, जल भरना अष्ट द्रव्य बनाना आदि। स्वयं करना चाहिए। इन कार्यों के करने से भक्ति भाव बढ़ते है कषाय की मंदता होती है पुण्य का संचय होता है। जिन मंदिर नगरों के मध्य आ गए इसलिए विचार कीजिए हम जाने अनजाने जिनालयों और जिनालयों में विराजमान पंच परमेष्ठी भगवंतो की विराधना और अविनय तो नहीं कर रहे जैसे— जन मंदिर की दीवार से लगा हुआ हमारा आवास हो, बेड़रूम लगा हो, या बाथरूम हो, हमारे घर की नालियों का निकास जिनमंदिर की तरह हो, जिन मंदिर से सुंदर हमारा घर हो, जिन मंदिर के नीचे हमारा निवास हो, तो निश्चित ही हम जिनमंदिर की विराधना के भागीदार होकर पाप बाँध रहे हैं। इसी तरह श्री जी का स्पर्श कर, अभिषेक कर अन्याय पूर्वक अनैतिक कार्य कर रहे है। तो विराधना कर रहे हैं। इसलिए हमें जैनधर्म के अनुरूप सभी कार्य सोच विचार कर विवेकपूर्ण करना चाहिए। हिंसादि का व्यापार, व्यवसाय नहीं करना चाहिए। क्योंकि हम जैनी है, हमें नव देवताओं की विनय करना चाहिए और पापो से विरक्त होकर दुर्लभ मानव को सफल बनाना चाहिए।