जीवंधरकुमारोऽपि, मित्रै–र्द्रष्टुमयादमूम्।
नवापगाजलक्रीड़ां, लोको ह्यभिनवप्रियः।।३।।
अर्थ–नवीन वस्तु से प्रेम करना प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव ही है, तदनुसार जीवंधर भी इस नूतन जल-क्रीड़ा को देखने का लालसी हो मित्रों के साथ क्रीडास्थल पर पहुँचा।।३।।
अवधिषु–र्द्विजास्तत्र, हविर्दूषित-भाषणम्।
क्रूराः किं किं न कुर्वन्ति, कर्मधर्मपराङ्मुखाः।।४।।
अर्थ–धर्मशून्यजन किसी भी खोटे कार्य को करते हुए नहीं सकुचते हैं, तदनुसार क्रीडादर्शनार्थ नदी पर पहुँचकर जीवन्धर ने वहाँ प्रारब्ध हवन की सामग्री को उच्छिष्ट (जूठा) कर देने के कारण ब्राह्मणों के द्वारा अधमरे किये गए कुत्ते को देखा।।४।।
तद्व्यथां वीक्ष्यमाणोऽयं, कुमारो विषसाद सः।
तद्धि कारूण्यमन्येषां, स्वस्येव व्यसने व्यथा२।।६।।
अर्थ–अपने ऊपर किसी आपत्ति के आ जाने पर मनुष्य जिस प्रकार दुखी होता है, उसी प्रकार दूसरे पर आई हुई आपत्ति को भी अपनी आपत्ति समान जान, तदनुसार दुख का अनुभव करना ही दयालुता है अतः दयालु जीवंधर भी उस कुत्ते के मरणकालिक छटपटाने के दुख को देखकर बहुत दुखी हुए।।६।।
परलोकार्थ–मस्यायं, पञ्चमंत्र–मुपादिशत्।
निर्वाणपथपान्थानां–पाथेयं तद्धि किम्परैः३।।८।।
अर्थ–जिस प्रकार पथिक को यात्रा में कलेवा सहायक होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने वालों को णमोकार मंत्र भी सहायक (द्वार) है अतएव जीवंधर ने भी कुत्ते को परभव में मोक्षमार्ग बनाने रूप सुधारार्थ उसे मरते समय णमोकार मंत्र सुनाया।।८।।
यक्षेन्द्रोऽजनि यक्षोऽय–महो मंत्रस्य शक्तितः।
कालायसं हि कल्याणं, कल्पते रसयोगतः।।९।।
अर्थ–जिस प्रकार रसायन के संयोग से तुच्छ लोहा भी स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार अंत समय में णमोकार मंत्र के श्रवण से कुत्ता भी अग्रिम पर्याय में यक्षों का अधिपति हो गया।।९।।
मरणक्षणलब्धेन, येन श्वा देवताजनि।
पञ्चमंत्रपदं जप्य-मिदं केन न धीमता१।।१०।।
अर्थ–केवल मृत्यु के समय में जिस मंत्र के श्रवण से कुत्ता भी मर करके देव हुआ, उसके जीवन में अनेक बार जपने से तो अपूर्व फल की प्राप्ति हो सकती है अतएव आत्महितैषियों का कर्तव्य है कि वे इस णमोकार मंत्र का सदा जाप करें।।१०।।