जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव, जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव।
गुरुवर की सत्संग सभा में, मछुवारा आया प्रवचन सुनने।
गुरुदर्शन का भाव था उसमें, माँगा आशीर्वाद था उसने।।
बोला मैं पापी गुरुदेव, जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव -२।।१।।
गुरुवचनों की महिमा निराली, निकट जो आता जाता न खाली।
कितनों की गुरु ने विपदा टाली, धीवर की क्या कहूँ कहानी।।
देख रहा वह मुनि का तेज, जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव।।२।।
गुरु ने दिव्यज्ञान से जाना, धीवर की किस्मत पहचाना।
छोटा सा इक नियम दे दिया, उसका बेड़ा पार कर दिया।।
भवदधितारक हैं गुरुदेव, जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव।।३।।
क्या था नियम यह सुन लो भाई, पहली मछली जो जाल में आई।
उसको प्राणदान दे देना, कुछ तो पुण्य अर्जित कर लेना।।
धर्म अहिंसा है सबसे श्रेष्ठ, जय गुरुदेव बोलो जय जय गुरुदेव।।४।।
आगे क्या होता है ?
बन्धुओं! अब आप आगे जानिए कि वह धीवर अर्थात् मछुवारा चलता है अपने काम के लिए। जीवन में पहली बार किसी महात्मा गुरुदेव से कोई नियम-व्रत ग्रहण किया अत: वह बड़ा खुश था और उस व्रत को दृढ़तापूर्वक पालन करने की भावना से गुरुचरणों में बारम्बार नमन करके जाल अपने कंधे पर रखकर चल पड़ा प्रतिदिन की तरह नदी की ओर-
तर्ज -मेरा जूता है जापानी…..
डाला जाल नदी के अंदर, आई मोटी मछली फंसकर,
मछुवारे की परीक्षा होगी दृढ़ता कितनी उसके अंदर।।डाला…
नियम याद कर उसने मछली, छोड़ दिया पानी में…..छोड़ दिया पानी में।
बांध दिया कपड़े की चिंदी, ताकि पहचानूँ मैं …ताकि पहचानूँ मैं।।
आई पाँच बार वह मछली,जीवनदान दिया धीवर ने,
मछुवारे की परीक्षा होगी, दृढ़ता कितनी उसके अंदर।।१।।
आया खाली हाथ वो जब, पत्नी ने घर से निकाल दिया ….पत्नी ने …।
सो गया पेड़ के नीचे धीवर, सर्प ने उसको काट लिया ….सर्प ने….।।
घंटा नाम की पत्नी उसकी, प्रात: पति को देख बिलखती,
मछुवारे की परीक्षा होगी, दृढ़ता कितनी उसके अंदर।।२।।
मरकर धीवर उसी नगर के, इक श्रावक के घर जन्मा ….इक श्रावक ..।
पाँच बार अपने जीवन में,प्राण घात से बचा था।…..प्राणघात से …।।
अतिशयकारी धर्म अहिंसा, यह है इक मानव का किस्सा,
मछुवारे की परीक्षा होगी, दृढ़ता उसमें आई कितनी।।३।।
देखो ! उस धीवर ने अगले जन्म में किस प्रकार से जीवदया के फल को प्राप्त किया।
तर्ज -एक था बुल ….
एक बार की बात है भाई ! इक बालक का जन्म हुआ।
जीवदया के फलस्वरूप में,जीवन उसका धन्य हुआ।।एक….
इक श्रावक परदेश चले, पुत्री की सुरक्षा इच्छा से।
अपनी गर्भवती पत्नी को,मित्र के घर में रक्खा है।।
वहाँ जन्म लेते ही पुत्र पर, संकट घोर उत्पन्न हुआ।।
एक बार….।।१।।
श्रेष्ठी श्री गुणपाल विशाला-नगरी से कौशाम्बी चले।
अपने मित्र श्रीदत्त के घर, पत्नी धनश्री को छोड़ चले।
कुटिल मित्र ने उसके सुत को, इक चांडाल को सौंप दिया।।
एक बार की…।।२।।
मुनि से सुना श्रीदत्त ने था, यह पुत्र राजश्रेष्ठी होगा।
इसीलिए ईर्ष्या में उसके, घात का भाव किया होगा।।
किंतु बंधुवर उस बालक का, कैसा जागृत पुण्य हुआ।।
एक बार कि …।।३।।
तो देखिए आगे क्या होता है ? अर्थात् चाण्डाल को तो श्रेष्ठी श्रीदत्त से स्वर्ण मुद्राओं की थैली मिली थी बालक को मौत के घाट उतारने के लिए, किंतु जब वह उसे लेकर जंगल में पहुँचता है तो भोले-भाले सुकुमार बालक को देखकर उसे दया आ जाती है वह उसे पेड़ के नीचे लिटा देता है और सोचता है कि सेठ जी न जाने क्यों इसे मारना चाहते हैं? जो भी हो, मैं तो अपने हाथ से इस मासूम को नहीं मारूँगा। इस घने जंगल में कोई न कोई शेर, चीता, अजगर आकर अपने आप इसे खा जायेगा।
वह चांडाल अपने घर चला जाता है और बालक सबसे अनभिज्ञ वहाँ पड़ा किलकारियां भर रहा है।तभी इन्द्रदत्त नाम का एक व्यापारी (श्रीदत्त का बहनोई) वहाँ बच्चों की भीड़-भाड़ देखकर पहुँचता है और सुन्दर बालक को उठाकर लाकर अपनी पत्नीr राधा सेठानी (जो पुत्रहीन थी) को देता है।उसके गूढ़ गर्भ था, ऐसा कहकर इन्द्रदत्त सेठ ने पुत्र जन्म का उत्सव मनाया तो अपने सेठ श्रीदत्त को भी बुलाया। सेठ इस बालक को देखकर सोचता है कि कहीं चांडाल ने मुझे धोखा तो नहीं दिया है, ऐसी आशंका से इन्द्रदत्त से श्रीदत्त ने कहा कि बड़े सौभाग्य से मेरी बहन पुत्रवती हो पाई है अत: मै चाहता हूँ कि मेरे भांजे का लालन -पालन थोड़े दिन मेरे घर में हो।वह बहन को घर ले गया और उस बालक को पुन: मारने हेतु एक बधिक को बुलाकर धन देकर बालक को चतुराईपूर्वक मारने हेतु दे दिया। वह भी बालक को नदी किनारे ले जाकर पेड़ों के झुण्ड में छोड़ देता है तभी एक गाय व्ाहाँ आ जाती है, फिर क्या रोमांचक घटना घटती है-
तर्ज – मै चन्दन बनकर …..
गइया ने दूध झराया, बालक के पुण्य उदय से।
मइया बन दूध पिलाया, बालक के पुण्य उदय से।गइया ने..।।
यह पुण्य का अतिशय समझो, इक गाय स्वयं आ पहुँची।
शिशु के ही मुँह में उसके, स्तन से धारा झरती।।
इक व्यापारी भी आया, बालक के पुण्य उदय से।।१।।
गोविन्द नाम का ग्वाला, सब ग्वालों का मालिक है।
बच्चों कि भीड़ में जाकर, देखा वहाँ इक बालक है।।
शिशु को गोदी में उठाया, बालक के पुण्य उदय से,
गइया ने दूध झराया, बालक के पुण्य उदय से।।२।।
लाकर पत्नी को सौंपा,बोला कुलतिलक है तेरा।
सीने से लगा सेठानी, बोली यह पुत्र है मेरा।।
इक माँ ने प्यार लुटाया, बालक के पुण्य उदय से।।गइया ने।।३।।
सेठानी सुनंदा जी का, हर रोम – रोम पुलकित है।
धनकीर्ति नाम दे करके, सबका मन रोमांचित है।
सुख सम्पति उसने पाया, बालक के पुण्य उदय से।
गइया ने दूध झराया, बालक के पुण्य उदय से।।४।।
एक दिन की बात है-विशाला नगरी के राजश्रेष्ठी श्रीदत्त जी गोविन्द ग्वाले के यहाँ खूब सारा घी लेने के लिए पहुँच गए।वे ग्वालों के अधिपति गोविन्द जी से घी का भाव समझ रहे थे तभी १६ वर्षीय बालक धनकीर्ति वहाँ आ गया। सेठ ने उसके बारे में गोविन्द से पूछा तो गोविन्द ने सेठ को सच्चा-सच्चा किस्सा सुनाकर कहा कि मुझे तो इसे परमात्मा ने दिया है।
सेठजी ! जब से यह मेरे घर में आया है मेरे घर में तो छप्पर फाड़कर लक्ष्मी भर रही है।
सेठ जी पुन: उसे मारने के लिए षड्यंत्र बनाकर गोविन्द से कहते हैं कि मेरा बहुत जरूरी सामान घर भेजना है सो इस बालक के साथ भेज दो। गोविन्द ने मान लिया और सेठजी ने एक कागज में अपने पुत्र के नाम पत्र में कुछ लिखकर कि इसे पहुँचते ही जान से मार देना और उस अनपढ़ बालक के गले में बाँधकर भेज दिया।फिर क्या होता है?-
तर्ज ….दीदी तेरा देवर दीवाना ……
चला बालक अनपढ़ वो भोला, लेकर हाथ में खाने का इक झोला।
धनकीर्ति जब थक गया चलते -चलते,
जंगल में इक पेड़ के नीचे सोया।
वहाँ एक वेश्या ने आ पत्र बदला,
धनकीर्ति था अपने सपनों में खोया।।
उठा चल दिया फिर वो भोला, लेकर हाथ में खाने का इक झोला।।१।।
\
श्रीदत्त श्रेष्ठी के घर पहँुचा जब वह,
खत देखकर वह बहुत खुश हुई थी।।
अपनी सुता श्रीमती ब्याह दो,
इसके संग यह समाचार पढ़ खुश हुई थी।।
देखा सुन्दर वर कैसा भोला, लेकर हाथ में खाने का इक झोला।।२।।
श्रीदत्त के सुत महाबल ने अपनी,
बहन श्रीमती का ब्याह रचाया।
कन्या ने सर्वांग सुंदर पति को पा,
अपने पिता के चयन को सराहा।।
पिता आये आश्चर्य घोला, लेकर हाथ में खाने का इक झोला।।३।।
प्रिय बंधुओं एवं बहनों ! देखिए, संसार में यह कैसा कर्मों का खेल रहा है।सेठ श्रीदत्त जो राजश्रेष्ठी है, वह यह नहीं चाहता है कि यह धनकीर्ति कभी राजश्रेष्ठी बने, इसलिए वह निमित्तज्ञानी मुनिराज के भी शब्दों को झूठा कर देना चाहता था और धनकीर्ति को बार -बार जान से मारने का प्रयास कर रहा था किंतु आप जानते हैं कि-
‘‘जाको राखे साईंयां, मार सके ना कोय’’
श्रीदत्त बड़े आश्चर्यचकित हैं कि मैंने तो मारने के लिए पुत्र के पास भेजा था और पुत्र ने तो श्रीमती का विवाह ही इसके साथ कर दिया। अब तो यह मेरा दामाद बन गया है। फिर भी मुझे तो इसे मारना ही है, क्योंकि यह मेरा प्रतिद्वंदी बनने वाला है।
तर्ज …..कांची ओ कांची रे —-
चाहे जो हो जाए मुझको तो निश्चित, धनकीर्ति को है मारना।हो ….
पुत्री मेरी भले हो जाए विधवा, मुझको तो इसे है मारना।।हो ….।
कुबुद्धि लगाई उसने सोचा मन में,
कहा धनकीर्ति से बेटा मंदिर में जाओ।
कुलदेवी के पास पहली रात्रि में ही,
उड़द के कौवे की बलि जाकर चढ़ाओ।।
धनकीर्ति चला जब, पथ में मिला महाबल,
बोला तुम्हारा यह काम ना।।हो।।१।।
मंदिर में पहले से ही चांडाल बिठाया,
उसने पुत्र महाबल को मार गिराया।
प्रात: सेठ ने जब समाचार जाना,
धनकीर्ति का पुण्य उसने है माना।।
पुत्र का वियोग सहा, पत्नी विशाखा से कहा,
कुछ भी हो है इसको मारना।।हो।।२।।
बोली विशाखा मैं अब उपाय करूँगी,
इसे मारने का प्रयास करूँगी।
विष मिलाकर सुन्दर स्वच्छ लड्डू बनाये,
पति के लिए काले-काले बनाये।।
पुन: पुत्री से कहा, पति को इसे देना खिला।
काले लड्डू पिता को खिलाना।।हो …।।३।।
पुन: देखो क्या होता है ?माँ तो पुत्री को समझाकर मंदिर चली जाती है किंतु पुत्री श्रीमती सोचती है कि माँ ने तो दामाद के सत्कार के लिए अच्छे-अच्छे लड्डू बनाकर रखे हैं किंतु मेरा यह कर्तव्य नहीं है कि मैं पिताजी को काले- काले लड्डू खिलाऊँ और पति को अच्छे-अच्छे खिलाऊँ अत: उसने पहले पिताजी को अच्छे लड्डू खाने को दिए, जिसे वे खाकर सदा-सदा के लिए मूर्छित हो जाते हैं। श्रीमती और धनकीर्ति यह दृश्य देखकर बहुत घबरा जाते हैं। पिताजी पिताजी….कहकर जोर-जोर से रोने लगते हैं। इतने में माँ विशाखा भी मंदिर से वापस आती है और वहाँ का दृश्य देखकर सब कुछ समझकर अपनी पुत्री श्रीमती को संक्षेप में पूरी घटना बताकर उसे अखंड सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद प्रदान किया।
तर्ज -झिलमिल सितारों का …….
युग -युग जिए मेरी रानी बेटी, तेरी है सचमुच किस्मत अनोखी।
भाग्यवती तू बनी है पाकर पति धनकीर्ति।।युग -युग ….।।टेक।।
देख लिया सच्चे मुनियों के, वचन सदा सच होते हैं।
उन्हें चुनौती देने वाले, मेरे पति सम होते हैं।।
लेकिन न उनकी हुई इच्छापूर्ती, तेरी है सचमुच किस्मत अनोखी।।१।।
तू अखंड सौभाग्यवती बन, सुख समृद्धि को प्राप्त करे।
मै भी विष का लड्डू खाकर, चली किये का फल चखने।
तेरा पति बनेगा अब राजश्रेष्ठी, तेरी है सचमुच किस्मत अनोखी।।२।।
मेरी प्यारी माँ! पिताजी! यह सब क्या हो रहा है …आदि कहती हुई श्रीमती विलाप करती है, किसी तरह धनकीर्ति समझा -बुझाकर शांत करते हैं और सास -ससुर का अंतिम संस्कार करते हैं।
धनकीर्ति अब उज्जैनी नगरी में वैश्यों का स्वामी बन जाता है और सुखपूर्वक गृहस्थधर्म का संचालन करते हुए अपना जीवनयापन करता है।
पुन: एक दिन विशाला नगरी के राजा विश्वम्भर धनकीर्ति की यशगाथा सुनकर उन्हें राजश्रेष्ठी पद पर नियुक्त करके अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर देते हैं।
धीरे – धीरे नगर में यह चर्चा फ़ैल जाती है कि धनकीर्ति श्रेष्ठी गुणपाल और धनश्री के पुत्र हैं,सेठ गुणपाल जी कौशाम्बी में यह समाचार जानकर पुत्र से मिलने आ जाते हैं और पूरे परिवार का मिलन हो जाता है। पुन: एक दिन नगर के उद्यान में पधारे महामुनिराज के पास जाकर उन्हें नमन कर पूछते हैं-
जय मुनिराज बोलो जय – जय मुनिराज …..।
गुरु चरणों में नमन है, हम आये गुरु तेरी शरण हैं।
धनकीर्ति करते चिंतन है, गुरु से करें हम एक प्रश्न है।
मुझ अपमृत्यु टली क्यों गुरुराज, बोलो जय मुनिराज बोलो जय जय मुनिराज।।१।।
तब मुनिराज कहते हैं-
दिव्यज्ञानी मुनि समझ गए सब, बोले बात सुनो भव्यात्मन् !
पूर्व जन्म में तू धीवर था, प्रवचन सुना था इक मुनिवर का।।
दया धर्म से किया सनाथ, जय मुनिराज बोलो जय जय मुनिराज।।२।।
पूर्व भवों की कथा सुनाई, तूने मछली को छोड़ा भाई।
मछली वही वेश्या बन आई, उसने तेरी जान बचाई।।
जीवदया का है इतिहास, जय मुनिराज बोलो जय जय मुनिराज।।३।।
धीवर पत्नी घंटा थी जो, वह बोली थी व्रत लूँ मैं भी वो।
आगे भी यह मेरा पति होवे, कूद चिता में प्राण वो खोवे।।
वो ही तेरी श्रीमती है आज, जय मुनिराज बोलो जय जय मुनिराज।।४।।
सुनो चंदनामती व्रत महिमा,यह है अहिंसा धर्म की गरिमा।
पांच बार मछली को बचाया, पांच बार उसने जीवन पाया।।
फिर पायेगा वह शिवसाम्राज्य,जय मुनिराज बोलो जय जय मुनिराज।।५
बंधुओं !दिव्यज्ञानी मुनिराज के मुख से अपने पूर्व भव का वृतांत एवं अहिंसा-जीवदया का माहात्म्य सुनकर श्रेष्ठी धनकीर्ति को संसार से वैराग्य हो जाता है और वे अपनी दोनों पत्नियों को समझा- बुझाकर जैनेश्वरी मुनि दीक्षा धारण कर लेते हैं, उनके साथ श्रीमती भी केशलोंच करके आर्यिका दीक्षा ले लेती है।
प्यारे भाइयों एवं बहनों ! इस ऐतिहासिक सत्य कथानक को मैंने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ”आराधना कथा कोष” के आधार से लिखित ‘जीवनदान’ नामक पुस्तक के अंशों को लेकर ”काव्य कथानक” के रूप में प्रस्तुत किया है।इसके द्वारा आप सभी जीवदया का संकल्प लेकर अहिंसा धर्म का पालन करें, यही मंगल प्रेरणा है।
-सामूहिक गीत –
तर्ज—काली तेरी चोटी……
अहिंसा प्रधान मेरी इण्डिया महान है।
इण्डिया में जन्मे महावीर और राम हैं।
यहाँ की पवित्र माटी बनी चन्दन, उसे करो सब नमन।। टेक.।।
जहाँ कभी बहती थी दूध की नदियाँ।
वहाँ अब करुणा की माँग करे दुनिया।।
अत्याचार पशुओं पे होगा कब खतम, उसे करो सब नमन।।१।।
प्रभु महावीर का अमर संदेश है।
लिव एण्ड लेट लिव का दिया उपदेश है।।
मानवों की मानवता की यही पहचान है।
जाने जो पराए को भी निज के समान है।।
तभी अहिंसा का होगा सच्चा पालन, उसे करो सब नमन।।२।।
अहिंसा के द्वारा ही इण्डिया प्रâी हुई।
ब्रिटिश गवर्नमेंट की जब इतिश्री हुई।।
चाहे हों पुराण या कुरान सभी कहते।
अहिंसा के पावन सूत्र सब में हैं रहते।।
यही मेरे देश की कहानी है पुरानी।
अहिंसक देशप्रेमियों की ये निशानी।।
‘चंदनामती’ यह देश मेरा ऋषियों का चमन, उसे करो सब नमन।।३।।