श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित जिस यति प्रतिक्रमण का पाठ हम साधुवर्ग हर पन्द्रह दिनों में करते हैं उसमें स्पष्ट कहा है कि-
सुदं मे आउस्संतो ! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण
समणाणं पंचमहव्वदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि।
तं जहा-पढमे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं ।
हे आयुष्मन्त भव्यों ! मैंने (गौतम स्वामी ने) इस भरत क्षेत्र में होने वाले श्रमण भगवान, महति महावीर की दिव्यध्वनि में सुना है कि पांच महाव्रत आदि श्रमणों के लिए समीचीन धर्म हैं, उनका उन्होंने उपदेश दिया है। उसमें सर्वप्रथम प्राणी हिंसा से विरत होना यह अहिंसा महाव्रत है।
उसी प्रकार से श्रावक और क्षुल्लक (ऐलक) तक के उपासकों के लिए भी कहा है कि-
हे आयुष्मंत भव्यों! मैंने (गौतम ने) श्रमण भगवान, महति महावीर के द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म को सुना है। जो कि पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप है और श्रावक-श्राविकाओं तथा क्षुल्लक क्षुल्लिकाओं के लिए कहा गया है ।
इन पांच अणुव्रत आदि धर्मों में सर्वप्रथम अहिंसा अणुव्रत है जो कि दया ही है। पुन: चार शिक्षाव्रत में जो अतिथिसंविभाग व्रत है, वह चार प्रकार के दानरूप हैं तथा सामायिक व्रत में अरहंत, सिद्ध, आचार्य आदि नवदेवताओं की भक्ति का ही विधान है। सामायिक और अतिथिसंविभाग व्रतों में ही जिनपूजा एवं गुरुपूजा का, उनकी भक्ति का विधान है। पुन: ये दया, दान, पूजा और भक्ति धर्म क्यों नहीं हैं। अवश्य हैं पुनश्च-
अहिंसा परमो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय:
ये पंक्तियां भी आचार्यों की ही हैं तो फिर दया को धर्म न कहना ये कहां की बुद्धिमानी है ? आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव की भाषा में जीवदया ऐसे ही श्रीकुंदकुंददेव ने चारित्रपाहुड़ में कहा है कि-
पांच अणुव्रत आदि बारहव्रतों का वर्णन करके कहते हैं कि इस प्रकार से श्रावकधर्म स्वरूप श्रावक आचरण तो कहा, यह कला सहित अर्थात् एकदेश है। अब निष्फल अर्थात् परिपूर्ण यति धर्मरूप संयमचरण को कहूँगा ।
दया से विशुद्ध धर्म, सर्व परिग्रह रहित दीक्षा, और मोहादि दोष रहित देव ये तीनों भव्य जीवों के उदय को करने वाले हैं।। ये तो सिर्फ गौतम स्वामी और कुंदकुंददेव के दो चार वाक्य ही यहाँ बताए गए हैं, ऐसे हजारों वाक्य जैन ग्रन्थों में भरे पड़े हैं।।
जीवदया का एक उदाहरण दया के उदाहरण में श्रीजीवंधर स्वामी का उदाहरण द्रष्टव्य है- किसी समय एक तपस्वी महात्मा भूख से पीड़ित हुए नगर के निकटवर्ती एक बगीचे में पहुँचे। वहाँ पर बहुत से बच्चे खेल रहे थे, उन सभी में एक बालक सभी बालकों में अधिक तेजस्वी दिख रहा था। साधु ने उससे पूछा-
नगर कितनी दूर है ? बालक ने कहा-बालकों की क्रीड़ा को देखकर कौन ऐसा वृद्ध है कि जो अनुमान न लगा ले कि नगर इस बगीचे के निकट ही है। अरे धुयें को देखकर कौन पुरुष अग्नि का अनुमान नहीं लगाता है और ठंडी वायु के आने पर कौन यह नहीं जान लेता कि यहीं कहीं पर जल भरा हुआ है ।
इत्यादि मधुर वचनों से और उसके सुन्दर रूप से साधु ने यह समझ लिया कि यह कोई होनहार महापुरुष है और बालक ने भी साधु के शरीर को देखकर यह समझ लिया कि इन महात्मा को भोजन कराना चाहिए अत: वे उन महात्मा को लेकर घर आ पहुँचे और अपने रसोइये से बोले कि इन्हें भोजन करा दीजिए। रसोइये ने एक तरफ साधु के लिए आसन लगा दिया और सामने ही एक तरफ उस बालक के लिए भी भोजन परोस दिया ।
उस समय उस रसोइये ने घर में पांच सौ बालकों के लिए और बहुत से लोगों के लिए भोजन बनाया हुआ था। सो रसोइया भी साधु को परोसता गया और साधु भोजन करता ही चला गया। वह बालक बड़े आश्चर्य से उस साधु को देख रहा था और उसके हृदय में करुणा का सागर उमड़ता ही चला आ रहा था। अत: उसने स्वयं भोजन करना शुरू नहीं किया। मात्र वह अतिशय करुणा से एकटक उस साधु को देखता ही रह गया। ‘हां उस समय यदि और कोई साधारण बालक होता तो या तो उसकी इस क्षुधा को देखकर हँसने लगता या गुस्सा करने लगता कि आखिर हम सभी लोग क्या खायेंगे ?’ किन्तु वह बालक अंत में अपने हाथ में लिए हुए चावल के ग्रास को जिसे कि अभी मुंह में नहीं रखा था, बस वह देखने में स्वयं खाना भूल ही गया था, उस ग्रास को बहुत ही आदर के साथ उस महात्मा को दे दिया। महात्मा ने जैसे ही उस एक ग्रास चावल को खाया कि उसका पेट उसी क्षण भर गया। उसी क्षण साधु को परम तृप्ति हो गई और तब वह अपनी पहले की प्रवृत्ति से अत्यधिक लज्जा को प्राप्त हुआ ।
श्री वादीभसूरि कहते हैं कि ‘उस समय साधु की बीमारी के क्षय का समय आ पहुँचा था, अथवा उनकी दया का माहात्म्य था अथवा वह कार्य ही वैसा होने वाला था कि जिससे जीवंधर कुमार के हाथ के एक ग्रास के खाने से ही साधु की भस्मक व्याधि शान्त हो गई ।
यद्यपि रोग के क्षय में अंतरंग कारण कर्मों की मंदता है फिर भी बहिरंग कारण तो औषधि या बाह्य वस्तुयें ही हुआ करती हैं अत: यहाँ पर जीवंधर की दया को बलवान् बहिरंग कारण मानना ही पड़ेगा।
जीवंधर स्वामी के जीवन की एक और घटना किसी समय जीवंधर कुमार एक वन से निकले। उस समय वहाँ भयंकर अग्नि जल रही थी। तमाम हाथी आदि प्राणी झुलस रहे थे, तमाम पशु-पक्षी इधर-उधर भाग रहे थे। उन हाथी आदि जीवों को देखकर उनका हृदय दया के अधीन हो गया, उन्हें इतना दु:ख हुआ कि मानों वह उपद्रव उनके शरीर पर ही हो रहा हो। उस समय उन्होंने उपद्रव को दूर करने के लिए हृदय में श्रीजिनेन्द्रदेव के चरणों को विराजमान करके क्षण भर खड़े होकर ध्यान किया कि तत्क्षण ही आकाश में मेघों की गर्जना शुरू हो गई और मूसलाधार पानी बरसने लगा१। यह उस समय जीवंधर की करुणा का ही प्रभाव था अथवा करुणा बुद्धि से रक्षा हेतु किया गया जिनेन्द्रदेव का जो स्मरण था उसी का ही वह प्रभाव था । ऐसे ही एक समय जीवंधर कुमार वनक्रीड़ा के लिए गये हुए थे। वहां पर मरणासन्न एक कुत्ते को देखकर अपार दया के सागर जीवंधर कुमार ने उसके कान में पंच नमस्कार मंत्र सुनाया। यद्यपि वह कुत्ता उस समय उस महामंत्र को कान से ही सुन रहा था, मन से नहीं, तो भी उसका कुछ क्लेश कम हो गया और मंत्र सुनते-सुनते ही उसके प्राण निकल गये। मरकर के वह कुत्ता उस मंत्र के प्रभाव से देवपर्याय में सुदर्शन नाम का यक्षपति हो गया। इस यक्षेन्द्र ने जीवन भर जीवंधर का उपकार करके अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है ।
निष्कर्ष
निष्कर्ष यह निकला कि जब तद्भव मोक्षगामी ऐसे जीवंधर स्वामी ने भी इस प्रकार से दया को धर्म माना था और महामुनि भी अपनी सारी प्रवृत्ति दयाधर्म को पूर्णतया पालन करने के लिए ही संयमित रखते हैं पुन: हम और आप जैसे लोगों के लिए तो यह दया ही परमधर्म है और उसका यथाशक्ति पालन करना भी परम कर्त्तव्य है । दयाधर्म को पालन करने के लिए सर्वप्रथम अष्टमूलगुण धारण करना चाहिए ।
मद्य, मांस और मधु का त्याग, पाँच उदम्बर फलों का त्याग, रात्रि में भोजन का त्याग, जल छानकर पीना, किसी जीव की हिंसा नहीं करना और देवदर्शन करना ये आठ मूलगुण हैं । आजकल लोग रात्रि में अन्न नहीं खाते हैं किन्तु कलाकंद, आलू की टिकिया आदि खाते रहते हैं सो यह क्या है ?
बात यह है कि रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना उत्तम मार्ग है किन्तु यदि आप सभी कुछ नहीं छोड़ सकते तो जितना भी छोड़ दो उतना ही अच्छा है। कुछ मर्यादा तो बनेगी, धीरे-धीरे सब कुछ छोड़ने की भावना बन जायेगी किन्तु आलू आदि जमीकंद पदार्थ तो सर्वथा ही अभक्ष्य हैं, इनका त्याग करना ही उत्तम है । इसलिए श्रावकों को गुरु के चरणसान्निध्य में अष्टमूलगुण पालन करने का नियम अवश्य लेना चाहिए ।