(१) प्रात:कालीन चर्या(१) जल्दी सोने से एवं जल्दी उठने से मानव स्वस्थ, सबल, सम्पन्न, सही जीवन जीने वाला होता है अत: सूर्य—अस्त के २—३ घण्टे के बाद सोना चाहिए एवं सूर्य उदय के १—२ घण्टे पहले जाग जाना चाहिए।
(२) सोने की पद्धति सोने के पहले हाथ, पैर, मुँह धोकर कुल्ला कर साफ कपड़े से पोछकर सोना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर शिर करके सोने से दु:स्वप्न (बुरे स्वप्न) आते हैं, रोग होता है, बुद्धि कम होती है, अत: इस दिशा की ओर शिर करके नहीं सोना चाहिए सोने से पूर्व अच्छे चिन्तन, भगवान् का स्मरण करते हुए पहले शवासन में कुछ समय (२—३ मिनिट) फिर दाएँ करवट (४—५ मिनट) तथा अन्त में बाएँ करवट सोना चाहिए। अधिक मुलायम (नरम) गद्देदार, मोटे गद्दे में सोने से रीढ़ की हड्डी टेढ़ी हो जाती है, तन्त्रिका—तन्त्र के ऊपर खराब प्रभाव पड़ता है, अनेक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती है अत: कम गद्देदार, साफ कन्था (गोदड़ी/कथड़ी,) चटाई आदि में तकिया के ऊपर शिर रखकर सोना चाहिए। तकिया इतना ही मोटा होना चाहिए जिससे शरीर के भाग से शिर थोड़ा ही ऊपर रहे। सोते समय हाथ छाती के ऊपर रखने से श्वास क्रिया, रक्तसंचालन आदि में बाधा पहँुचती है जिससे दु:स्वप्न आते हैं, खर्राटे की आवाज आती है, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या होती है अत: छाती पर न हाथ रखकर सोना चाहिए न ही छाती के बल औंधा (उल्टा) होकर कर सोना चाहिए। सिर (मँुह) को ढाँककर सोने से प्राणवायु पर्याप्त नहीं मिलती, चेहरा और फटते है; इसलिए सिर ढाँककर नहीं सोना चाहिए। सोने में जीवन के १/३ भाग समय खर्च होता है और सोने से स्वास्थ्य लाभ, बुद्धि एवं स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है, थकान—चिन्ता दूर होकर ताजगी— स्फूर्ति आती है अत: शयन (सोने) का कक्ष साफ, प्रदूषणों से रहित, शान्त, सुगन्धित, सुन्दर, हवादार होना चाहिए। सोते समय अधिक समय अधिक प्रकाश होने से सुखप्रद एवं गहरी नींद नहीं आती है, उत्तेजना (आवेग) आती है, दृष्टि शक्ति मन्द पड़ती है अत: अन्धेरा या कम प्रकाश में सोना चाहिए। सोने से पूर्व मल—मूत्र के वेग से निवृत्त होकर सोना चाहिए। गर्मी के दिनों में खुले आकाश में स्वच्छ स्थान पर सोना चाहिए।
(३) सोकर उठने की प्रक्रिया सोकर उठने के लिए बायें करवट नीचे करके धीरे से शान्ति से उठना चाहिए। फिर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके भगवान् का स्मरण करके, विश्व मंगल की कामना करनी चाहिए तथा अपना महान् उद्देश्य के बारे में विचार करके दैनिक कत्र्तव्य की योजनाएँ प्राथमिकता के आधार पर निर्णय करके अगले कार्य के लिए तैयार होना चाहिए। नासिका (नाक) के जिस स्वर में श्वास क्रिया उस समय चल रही हो उस भाग के पैर को पहले जमीन में रख करके शय्या को झाड़कर तह लगाकर व्यवस्थित रखकर आगे की क्रिया करनी चाहिए।
(४) शरीर—सफाई की क्रिया ऊपर की क्रिया के बाद प्रासुक—थंडा—साफ पानी से मुख भरकर दोनों आँखों को खोलकर १५—२० बार धीरे से आँखों में छींटा लगाना चाहिए, फिर मुख का पानी निकाल देना चाहिए। इसके बाद निर्जीव, शान्त, एकान्त, साफ जगह में दिन में हो तो उत्तर दिशा की ओर और रात हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके गाय दोहने की मुद्रा (आसन) में बैठकर मौनपूर्वक दांतों को परस्पर सटाकर (दोनों दन्त पंक्ति को हल्का सा दबाव देकर) मूल—मूत्र त्याग करना चाहिए। मल—मूत्र त्याग में अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए, मल त्याग में अधिक दबाव डालने से भगन्दर रोग होने की संभावना होती है। शारीरिक मल वेग (मल, मूत्र, खांसी, छींक, जम्भाई, अधोवायु, आँसु आदि) को न रोकना चाहिए, न ही अधिक दबाव देकर निकालना चाहिए। मल—मूत्रादि त्याग के बाद साफ मिट्टी (पत्थर) के ढेले से गुदा द्वार के मल को साफ करके पुन: स्वच्छ (साफ) पानी से ४—५ बार स्वच्छ मिट्टी या राख से धोना चाहिए, मूत्रद्वार को पानी से स्वच्छता से धोना चाहिए। मल—मूत्र त्याग के समय छोटे, हल्के, ढीले वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए। जिस वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए। जिस वस्त्र को पहिनकर मल त्याग किया जाता है उस वस्त्र से भोजन, अध्ययन, पूजन आदि नहीं करना चाहिए तथा मल त्याग के बाद उस वस्त्र को धोकर साफ करना चाहिए।
(५) मुखशुद्धि (दाँत साफ करना) — शौचादि क्रिया के बाद नीम,देशी बबूल,करंज अपामार्ग आदि की नरम लकड़ी के दन्तवन से मुखशुद्धि करना चाहिए। दांतून के एक भाग को दांत से चिबाकर मृदु, बारीक, रेशेदार बनाकर दोनों दन्त पंक्ति को ऊपर—नाीचे और अगल—बगल तथा अन्दर—बाहर से थोड़ा रगड़कर दबाव देकर साफ करना चाहिए। मध्य—मध्य में पानी से फुल्ला कर साफ करते रहना चाहिए। पूरा साफ होने के बाद दातनू को दो भाग में फाड़कर जीभ को साफ करना चाहिए फिर अनेक बार (६—७ बार) कुल्ला करके पूरा मुख साफ करना चाहिए। इससे मुख रोग, दाँत रोग नहीं होते हैं, बदबू नहीं आती है, भूख लगती है, भोजन अच्छा लगता है, दाँत मोेतीके जैसे चमकते हैं, जिससे सुन्दरता बढ़ती है। अधिकांश टूथ पेस्ट में हड् डी के अंश, हानिकारक रसायन आदि होने तथा प्लास्टिक के ब्रश भी दाँत के लिए हानिकारक होने से इन सबका प्रयोग स्वास्थ्य, अहिंसा, पर्यावरण सुरक्षा आदि के प्रतिकूल हैं, अत: इन सबका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(६) नाक शुद्धि — यदि जलनेती , सूत्रनेती आदि यौगिक—ाqक्रया आती है तो अति उत्तम है, नहीं तो प्रासुक, स्वच्छ, थंडा पानी अंजुलि में लेकर नाक के दोनों नथुनों से धीरेधीरे से खींचना चाहिए फिर उस पानी को निकाल देना चाहिए। ऐसा ७—८ बार करना चाहिए। इससे नाक साफ होता है, नाक से बदबू नहीं आती है, साइनस आदि रोग नहीं होते हैं स्मरण शक्ति बढ़ती है, सिरदर्द नहीं होता, नाक में पपड़ी नहीं जमती है, खुजली नहीं आती है।
(७) स्नान क्रिया (नहाना) छना हुआ प्रासुक, शुद्ध थंडा पानी से शरीर को मोटा साफ, सूती तोलिया (टॉवेल) से रगड़—रगड़कर स्नान करना चाहिए। हिंसात्मक, हानिकारक रसायन से युक्त,रोगकारक साबुन, शैम्पू, आदि का प्रयोग नहीं करके मुलतानी मिट्टी, सिकाकाई, बेसन, घर के शुद्ध शाकाहारी चीजों का ही प्रयोग करना चाहिए। अनावश्यक अधिक पानी का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। गरम पानी से स्नान करने से तैलग्रन्थी सुख जाती है जिससे चमड़ी (चर्म) खुरदरी, बेजान हो जाती है, सर्दी के समय अधिक सर्दी लगती है, नजला—खाँसी—जुकाम हो जाती है, भूख कम लगती है, ताजगी—स्फूर्ति कम आती है। यदि सर्दी के दिनों में गरम पानी प्रयोग करना चाहिए। तो कुनकुना पानी प्रयोग करना चाहिए किन्तु शिर में गरम पानी प्रयोग करना चाहिए। शिर में गरम पानी प्रयोग करने से दृष्टिशक्ति कम होती है, स्नायुतंत्र दुर्बल होता है, सिरदर्द होने की संभावना रहती है, नजला—खाँसी—जुकाम भी हो सकती है। स्नान के बाद साफ तौलिया से रगड़कर शिर, शरीर पोछ लेना चाहिए। व्यायाम, चलकर आने के बाद शारीरिक श्रम के बाद शरीर में पसीना है तो स्नान नहीं करना चाहिए, हाथ—पैर—मुँह धोना चाहिए। शरीर थंडा होने के बाद पसीना सूख जाने के बाद, थकान कम होने के बाद ही स्नानादि करना चाहिए, अन्यथा नजला—खाँसी—जुकाम—बुखार—शिरदर्द, दृष्टिशक्ति की मन्दता आदि सामान्य रोग से लेकर भयंकर रोग भी संभव है। स्नान के पहले शरीर अधिक गन्दा नहीं हो तो पूर्ण शरीर एवं शिर में तिल्ली आदि के शुद्ध तैल से मालिश करके स्नान करना चाहिए।
(८) प्रात:भ्रमण, व्यायाम, योगासन, प्राणायाम प्रात:काल वातावरण स्वच्छ, शान्त प्रदूषण रहित होने से तथा उपर्युक्त क्रियाओं से शरीर शुद्ध एवं हल्का होने से प्रात:काल एकान्त, प्राकृतिक वातावरण में भ्रमण करना चाहिए जिससे शारीरिक संचालन, रक्तशुद्धि, प्राणवायु का अधिक ग्रहण एवं अशुद्ध वायु का शरीर से निष्कासन हो जाता है। इसके कारण शरीर स्वस्थ, सबल, कार्यक्षम, स्फूर्तीला लचीला, सुन्दर बनता है और बुढापे के लक्षण शीघ्र प्रकट नहीं होते हैं। अशुद्ध प्रदूषित , गन्दे, बदबूदार, तंग, वायु एवं सूर्य किरण संचार से रहित, कोलाहल से युक्त स्थान में उपर्युक्त व्यायाम आदि नहीं करना चाहिए इससे उपर्युक्त लाभ के बदले हानि होने की संभावना अधिक है। शरीर की शक्ति के अनुसार व्यायाम आदि करना चाहिए, अधिक करने से हानि होने की संभावना है। धीरे—धीरे अभ्यास करते हुए व्यायाम आदि को बढ़ाना चाहिए, व्यायाम करते समय मँुह से श्वास नहीं लेना चाहिए। कोई —कोई मल—मूत्र विसर्जन के बाद उपर्युक्त व्यायाम आदि क्रिया करते हैं। उसके बाद विश्रामादि करके स्नानादि क्रिया करते हैं। स्नानादि क्रिया करने बाद यदि व्यायाम करना है तो विश्राम करके पसीना सूखने के बाद पुन: सामान्य स्नान, शरीर शुद्धि आदि क्रिया करनी चाहिए। गर्मी में २—३ बाद स्नान करने से गर्मी कम लगती है, शरीर से बदबू नहीं आती है, घमौरियाँ, शिरदर्द, चक्कर आना, भूख नहीं लगना आदि समस्या कम होती है।
(९) पोषाक पहनना स्नान के बाद स्वच्छ, सूखा, धुला हुआ सूती वस्त्र पहनना चाहिए। भारत एक गरम प्रधान, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक देश होने के कारण शर्दी के दिनों को छोड़कर अन्य दिनों में सफेद या हल्का रंग के ढीले सूती वस्त्र पहनना चाहिए। शर्दी के दिनों में मोटा, रंगीन, चुस्त वस्त्र भी योग्य हो सकता है किन्तु चर्म, रेशम, रोमज (ऊनी) पक्षी के पर (पंख) से निर्मित तथा और भी हिंसाकार, पर्यावरण प्रदूषक, अशालीन, अभद्र भद्दे, उत्तेजक, सज्जन लोगों के लिए अयोग्य, काम—उत्तेजक, अद्र्धनग्नकारक वस्त्र तथा टाई अयोग्य है। छोटे बच्चों के लिस सूट, बूट, टाई, चुस्त पोषाक आदि जो रक्त संचालन, शरीर की वृद्धि, सूर्य किरण एवं वायु संचार, खेलने, कूदने, चलने, दौड़ने, सोने, बैठने, उठने के लिए अयोग्य है उसे भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। पॉलिस्टर आदि कृत्रिम वस्त्र एवं कृत्रिम रंग के रंगाये गए वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। भारतीय प्राचीन हस्तनिर्मित सूती वस्त्र, धोती, दुपट्टा, साड़ी पगड़ी आदि अहिंसक, स्वाथ्यकर, पर्यावरण सुरक्षक आदि होने से आधुनिक कृत्रिम, हिंसाकारक, अस्वास्थ्यकर, अश्लील भद्दे पोषक से श्रेष्ठ है।
(१०) आध्यात्मिक—साधना उपरोक्त प्राय: सम्पूर्ण क्रियाएँ मुख्यत: शरीर की शुद्धि, स्वस्थता के लिए हैं। परन्तु मानव केवल भौतिक हड्डी—मांस—चर्म का शरीर नहीं है। शरीर तो केवल आधार है। मानव शरीर से भी अधिक इन्द्रिय—मन—आत्मामय है। अतएव इन सबको भी स्वस्थ, सबल, सक्रिय बनाना शरीर को स्वस्थ, सबल, सक्रिय बनाने से भी अधिक से अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतएव इन सबके लिए आध्यात्मिक साधना की अनिवार्यता है। इसके लिए प्रशान्त, एकान्त, स्वच्छ पवित्र, धार्मिक स्थल, वन, उपवन, गृह आदि में भगवान् की प्रार्थना, पूजा आराधना के माध्यम से स्वयं को शान्त, पवित्र, समताभावी, उदार, सहिष्णु, अहिंसक सत्यप्रेमी, न्यायशील, परोपकारी, सेवाभावी बनाने की भावना भानी चाहिए। इन सब भावनाओं की वृद्धि के लिए आध्यात्मिक, नैतिक साहित्य महानपुरूषों की जीवनी आदि का भी अध्ययन करना चाहिए।
(११) अतिथि सेवा— आध्यात्मिक साधना में रत साधु—सन्त से ज्ञानार्जन करना चाहिए, प्रवचन सुनना चाहिए। उनके लिए योग्य पद्धति से आहारदान, औषधदान ज्ञानोपकरण दान, वसतिकादान करना चाहिए। घर में आए हुए अतिथि, गरीब असहाय, विकलांग, रोगी, दुर्बल, वृद्ध आदि की भी यथायोग्य व्यवस्था भोजन औषधि देकर करना चाहिए। माता—पिता, दादा, रोगी, वृद्ध आदि का भी मान—सम्मान—प्रणाम आदि करके उनके भोजन आदि के बाद गृहपालित पशु—पक्षी को भी भोजन देना चाहिए। इसके बाद भाई—बन्धु—सपरिवार मिलकर भोजन करना चाहिए। इससे भाव पवित्र, प्रसन्न, सन्तोष, तृप्त होता है, पुण्य बन्ध होता है, रोग दूर होते हैं, स्वास्थ्य लाभ होता है। इसके साथ—साथ दुसरे लोग भी स्वस्थ सन्तोष होते हैं, आर्शीवाद देते हैं, सहयोग—सम्मान देते हैं, प्रशंसा करते हैं, इन सब कारणों से प्रेम, सौहार्द संगठन बनता है।
(१२) योग्य भोजन पद्धति प्रात:कालीन क्रिया से लेकर अतिथि सेवा के लिए जो शारीरिक श्रम हुआ उसके लिए जो ऊर्जा उपयोग/व्यय हुआ उसकी पूर्ति के लिए तथा शरीर को स्वस्थ,सबल, क्रियाशील बनाकर धर्म की साधना, कत्र्तव्य की पालना के लिए भोजन—पानी की भी आवश्यकता होती है। भोजन के पहले हाथ, पैर मँुह धोकर कुल्ला करके स्वच्छ, पवित्र, शान्त, प्रदूषण से रहित, सूर्य प्रकाश से युक्त, हवादार स्थान में पाटा, चटाई आदि आसान में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके सुखासन में पालथी मारकर बैठना चाहिए। लकड़ी, कोयला की ईंधन से स्वच्छ मिट्टी, पीतल आदि ढके हुए बर्तन में सही बना हुआ, न्याय से उपार्जित,शुद्ध शाकाहार को पीतल, कांसा आदि स्वच्छ बर्तन में उचित रीति से परोसा हुआ भोजन निम्न पद्धति से खाना चाहिए।
भोजन क्रम
भोजन ग्रहण के पहले पवित्र, शान्त भाव से भगवान् का स्मरण करके मौन धारणा करना चाहिए। पहले थोड़ा सा पानी या दूध या पेय पीना चाहिए। पहले ही अधिक पानी पीने से अग्निमांद्य होता है अत: कम पीना चाहिए। इसके बाद मधुर , गरिष्ठ—भारी, दूध—घी से निर्मित मिष्ठान्न (हलुआ, खीर, रसगुल्ला, जलेबी, गुलाब जामुन, लड् डू, पेड़ा मावा, मालपूआ) खाना चाहिए। इसके साथ—साथ नमकीन अनुपान—स्वाद के लिए लेना चाहिए, मिष्ठान्न के मध्य—मध्य में अनुपान रूप से दूध लेना चाहिए। इसके बाद सूखा मेवा (बादाम, मुनक्का, काजू किशमिश, अखरोट तिलगुजा, खजूर, खारक, मूंगफली आदि) लेना चाहिए। इसके मध्य—मध्य में पानी नहीं लेना चाहिए। आवश्यकतानुसार भोजन के आदि मध्य, अन्त में लेने वाली औषधि भी अनुपान के साथ लेना चाहिए। इसके बाद रोटी, पराठा, पुड़ी आदि को दाल, हरी सब्जी आदि के साथ लेना चाहिए। इसके मध्य—मध्य में थोड़ा—थोड़ा पानी धीरे—धीरे पीना चाहिए। हर ग्रास को दाँत की संख्या ३२ प्रमाण से चबाना चाहिए जिससे ठोस भोजन भी पीसकर लार के मिश्रण से तरल जैसे बन जाए। संक्षिप्त में कहें तो पानी को खाना चाहिए ओर ठोस भोजन को पीना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि पानी को धीरे—धीरे चबा—चबा कर पीना चाहिए और ठोस भोजन को इतना चबाना चाहिए कि पानी जैसे पीने योग्य बन जाए। मध्य—मध्य में स्वाद परिवर्तन के लिए एवं अनुमान के लिए नमकीन, पापड़ पकौड़ी समोसा आदि लेना चाहिए। अन्त में घी, मीठा आदि से रहित सादा, हल्का भात, दलिया, खिचड़ी के साथ दाल—सब्जी आदि लेना चाहिए।
फलक्रम
वैसे तो फल आदि को अलग से ही लेना चाहिए तथा एक बार में एक ही प्रकार के फल लेना चाहिए परन्तु एक साथ अनेक प्रकार के फल लेना है तो पहले मीठा तथा गरिष्ठ यथा, आम, केला फिर सेव, अंगुर, चीकू पपीता आदि फिर नांरगी, सन्तरा, नासपाती, अनानास आदि तथा अन्त में ककड़ी आदि । मीठा आम को घी दूध के साथ, केला को दूध ओर इलायची के साथ लेना चाहिए। कच्चा नारियल की गरी खाकर उसका पानी चाहिए। किसी भी प्रकार के फल या फल रस के साथ या आगे—पीछे पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे गला खराब हो जाता है, खाँसी—जुकाम हो जाता है। जिस व्यक्ति को भोजन के साथ—साथ भी फल, फलरस लेना है तो उसे भोजन के प्रथम भाग में मीठा आम, केला तथा भोजन के मध्य में सेव, अंगूर आदि तथा भोजन के अन्त में ककड़ी लेना चाहिए।
अनुपान एवं विरुद्ध आहार
दूध के साथ मीठी अनुपान है तो खट्टी चीज, नमक, हरी पत्ती की चटनी, सब्जी आदि विरुद्ध आहार है। फल के आगे—पीछे पानी विरुद्ध आहार है। गरम भोजन, पानी के आगे—पीछे थंडा भोजन—पानी विरुद्ध आहार है। एक प्रकार की तरल वस्तु के बाद फिर अन्य प्रकार की तरल वस्तु लेना अयोग्य है। यथा पानी के बाद नारियल का पानी या थंडाई अथवा अन्य रस आदि। एक बार कोई तरल वस्तु लेने के बाद रोटी आदि लेकर फिर अन्य तरल वस्तु लेना चाहिए। नहीं तो पेट का एक भाग फूल जाएगा, भोजन सही नहीं होगा तथा सही नहीं पचेगा। भोजन के अन्त में मीठी सौंफ, इलायची आदि मुखशुद्धिकारक लेना चाहिए और पानी आदि पेय पीना चाहिए।
भोजन के बाद की क्रिया
भोजन के बाद बेसन से हाथ धोकर अच्छी तरह से ६ से ७ बार कुल्ला करना चाहिए और दाँत में फसे हुए भोजन के अंश को दाँत साफ करने वाली नीम आदि की शली (तीली) से सही रूप से साफ करना चाहिए। नहीं तो भोजन के अंश सड़ने से अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु—रोगाणु लाखों करोड़ों की संख्या से उत्पन्न होते है जिससे मुख से भंयकर बदबू आती है दाँत पीले पड़ जाते हैं, दाँत पीले पड़ जाते हैं, दाँत के ऊपर पपड़ी पड़ जाती है, कीड़े उत्पन्न होते हैं, पायरिया—दन्तक्षय आदि रोग होते हैं, पीव , दूषित खून निकलता है। यह सब भोजन, पानी के साथ पेट में जाकर विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं। इन सब कारणों से मुख की सुन्दरता कम होती है, दूसरे लोग (बदबू के कारण) पास में रहना, बातें पसन्द नहीं करते हैं। दाँतों को साफ, मजबूत करने के लिए मुखरोग से बचने के लिये, मुख को सुगन्धित करने के लिय शुद्ध दन्तमंजन या हल्दी±सेंधानमक±लौंगचूर्ण अथवा मीठी सौंफ इलायची आदि का भी प्रयोग करके सही रूप से दाँतों को साफ करके ६—७ बार कुल्ला करना चाहिए। दोनों हथेलियों को रगड़कर दोनों आँख तथा चेहरा पर हथेलियों को फैरना चाहिए। इससे दृष्टिदोष दूर होते हैं, चेहरे में फुन्सी नहीं होती है, चेहरा चमकता है।
भोजन की सामग्री
मानव प्राकृतिक रूप शाकाहारी, उन्नत आध्यात्मिक प्राणी होने से उसका भोजन पेय की सामग्री भी उसके अनुसार होना स्वाभाविक है। अत: मनुष्य शुद्ध, जीवों से रहित—प्रासुक, मर्यादित—ताजा, पौष्टिक, सात्विक, सरस, सुगन्धित, प्रिय, प्राकृतिक अनाज, दाल, फल, सब्जी, मेवा, दूध, घी, फलरस, हरीपत्ती, पानी, थंडाई, शरबत आदि का सेवन करना चाहिए। रोगकारक, बुद्धि को कम करने योग्य खट्टी चीज (आंवला, नीबू को छोड़कर) लालमिर्च, वेसन उड़द मक्का, तेल, गंवार की फली, टिंडूरी, कद्दू, खसारी दाल आदि सेवन नहीं करना चाहिए या कम से कम सेवन करना चाहिए। बाजार की बनी हुई किसी भी प्रकार की चीज नहीं खाना चाहिए। नमक, चीनी कमसे कम प्रयोग करना चाहिए। महीन पीसा हुआ आटा, मैदा, मसाला प्रयोग नहीं करना चाहिए। भारतीय प्राचीन पद्धति से बनी हुई भोजन सामग्री सुस्वादु, पौष्टिक स्वास्थ्यप्रद, गुणकारी, सुगन्धित,देखने में सुन्दर, आयुर्वेदिक—वैज्ञानिक, भारतीय भूगोल—जलवायु—संस्कृति के अनुकूल होने से भारतीय देशी घर में बने हुए भोजन, पेय ही योग्य है। मांस, मछली, अण्डा, शराब बिड़ी सिगरेट, तम्बाकू, तम्बाखू से बनी हुई हर चीज, गुटखा, गांजा, भांग चरस आदि, कोकाकोला आदि बाजारू शीतल पेय आदि हिंसाकारक, रोगकारक पर्यावरण प्रदूषक, अर्थव्ययकारी, दुर्घटणाकारक, बुद्धि नाशक होने से कभी भी सेवन योग्य नहीं है। भोजन के बाद भगवान् का स्मरण करके उठना चाहिए और १०० कदम धीरे—धीरे चलना चाहिए। फिर मूत्र त्याग करना चाहिए। थोड़ा विश्राम के लिए एवं भोजन सही पचने के लिए श्वासन में १—२ मिनट, दाएँ करवट २—३ मिनट एवं बाएँ करवट में ४—५ मिनट विश्राम करना चाहिए।
(१३) शरीर के शेष कुछ अवयवों की सफाई हाथों की अंगुलियों के नाखूनों की कटाई एवं सफाई अति आवश्यक है, नहीं तो नाखूनों में गन्दगी जमी रहती है और उनमें अनेक प्रकार के जीवाणु लाखों—करोड़ों में होते हैं। हथेलियों में भी करोड़ों के जीवाणु होते हैं। इसलिए भी इसे भी हर काम के आगे—पीछे राख, बेसन, साफ मिट्टी, अहिंसक साबुन आदि से साफ करते रहना चाहिए। विशेष करके भोजन के पहले एवं बाद में तो अवश्य अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। नाखून न बड़ा रखना चाहिए। न ही नेल पॉलिश, लिपिस्टिक आदि लगाना चाहिए। नहीं तो भोजन के समय करोड़ो जीवाणु गन्दगी, नेलपालिश में मिलाए गए पशु—पक्षी के खून हानिकारक रसायन पेट मेें जाने से हिंसा होती है, मांस खाने का दोष लगाकर विभिन्न रोग होत हैं। पैर की अंगुलियों के भी नाखून की कटाई—सफाई करते रहना चाहिए तथा पैरों को साफ रखना चाहिए। बाहर से आने के बाद पहले जूते , मोजा, निकालकर पैर, हाथ, मुख धोकर, वस्त्र बदलकर घर में प्रवेश करना चाहिए। संभव हो तो स्नान करना चाहिए। सूर्य अस्त के समय कान में तिल्ली आदि के तैल डालना चाहिए और सुबह रूई को शिली में लपेटकर उससे धीरे से कान साफ करना चाहिए जिससे कान में रोग नहीं होते हैं, बहरापन नहीं आता है। वस्त्र, घर, घर के परिसर, बर्तन आदि की सफाई— वस्त्रादि की सफाई के लिए भी छना हुआ साफ पानी का ही प्रयोग करना चाहिए। सफाई करने की साबुन, सर्पक, सोड़ा आदि भी अहिंसक एवं हानिकारक रसायन आदि से रहित होना चाहिए। सफाई से वस्तु आदि साफ, सुन्दर, चमकदार, जीवाणु—रोगाणु—सूक्ष्मजीव—जन्तु, मच्छर, मक्खी, खटमल से रहित, अधिक समय टिकाऊ वाला होती है और स्वास्थ्य अच्छा रहता है, रोग नहीं होते है; बदबू नहीं फैलती है, पर्यावरण स्वच्छ रहता है तथा अस्वस्थता से इन सबके विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसा ही घर, घर के परिसर, बर्तन, प्रयोग में आने वाले हर उपकरण, आंगन घर के पास के रास्ता—रोड, कुआं, तालाब, नदी, नाला, बगीचा आदि की भी यथायोग्य सफाई होनी चाहिए। क्योंकि इन सबका भी प्रभाव स्वयं के ऊपर, परिवार के ऊपर, समाज आदि पर पड़ता है। ।।— दोपहर (मध्यान्ह) की क्रियाएँ
(१४) विद्यार्जन, जीविका उपार्जन यदि विद्यार्थी हो तो विद्यार्जन के लिए शिक्षक हो तो विद्या प्रदान के लिए व्यापारी, कृषक को कृषि, सेवा क्षेत्र के सेवा के लिए जाना चाहिए। अपने कार्यों को समय पर, ईमानदारी से, अनुशासन, शालीनता, कत्र्तव्यनिष्ठा से सत्य—अहिंसा—अचौर्य—निर्लोभता—शील—संयम से युक्त होकर करना चाहिए। इससे अपना—अपना कार्य अच्छा होता है, मन को शान्ति मिलती है, प्रगति—स्मृध्दि होती है, दूसरों को भी लाभ पहँुचता है, देश का विकास होता है।
(१५) यातायात के नियम यातायात के नियम स्वेच्छा से पालन करना चाहिए। कम दूरी (कुछ किलोमीटर होने पर पैदल ही आना जाना चाहिए। इससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है, दुर्घटना—हिंसा—प्रदूषण—धन व्यय नहीं होता है या कम से कम होता है। दूरी कुछ ज्यादा (६—७ कि.मी.से से ज्यादा) होने पर साईकिल का विकल्प चुन सकते हैं। इससे पैदल चलने के लाभ कुछ कम होते है परन्तु, अन्य यान—वाहन से होने वाली हानियों से कम हानि होती है। अन्य यान—वाहनों से तो अत्यधिक दुर्घटना, हिंसा, धनव्यय, प्रदूषण आदि होते हैं। यातायात में भी अनुशासन, संयम, धैर्य, नियम, शालीनता अहिंसा परोपकार, मर्यादा आदि का पालन करना चाहिए। मद्यपान, धूम्रपान, तम्बाखू आदि सेवन करके या करते हुए जाना—आना नहीं करना चाहिए।रास्ते में गन्दगी नहीं फैलाना चाहिए, शोर—शराबा, अश्लील कार्य, गुण्डा—गर्दी, हड़ताल तोड़—फोंड़, आगजनी आदि नहीं करना चाहिए। इससे स्वयं की, दूसरों की, राष्ट्र की हानि होती है, स्वयं के साथ—साथ राष्ट्र का नाम बदनाम होता है।
(१६) सार्वजनिक कार्यक्रम के नियम मानव एक सामाजिक, धार्मिक, गुणग्राहक प्राणी होने से वह विभिन्न प्रकार से सार्वजनिक कार्यक्रमों का आयोजन करता है तथा आयोजनों में भी भाग लेता। ऐसे कार्यक्रम में विभिन्न प्रकार के अधिक लोग भाग लेना के कारण वहाँ अधिक अनुशासन, समय के अनुसार कार्यक्रम, संयम, धैर्य, शालीनता, मौन, मान—मर्यादा आदि की आवश्यकता होती हैं। वहाँ पर बच्चों, वृद्ध रोगी, विकलांग दुर्बल, महिला, गुरुजन, गणीजनों की सुविधा व्यवस्था पहले से अच्छी तरह से होना चाहिए। वहाँ पर धूम्रपान, नशीली वस्तुओं का सेवन, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, शोरगुल गन्दगी फैलाना, प्रदूषण करना आदि का पूर्णत: कड़ाई से निषेध होना चाहिए। यह सब नियम सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक (विधानसभा, राज्य सभा, संसद में भी) शैक्षणिक, व्यापारिक, कला—सांस्कृतिक, कानूनी, मृत्यु विवाह, मेला, त्यौहार, जुलूस, नृत्य नाटक आदि सब में होना चाहिए। किसी भी सत्ता—सम्पत्ति—प्रसिद्धि—पद उपाधि वालों को भी छूट नहीं होना चाहिए।
(१७) सन्ध्या पूर्व के कार्यक्रम सूर्य अस्त के पहले द्वितीय बार भोजन पूर्ण हो जाना चाहिए। क्योंकि रात को सोने के २—३ घण्टे पहले भोजन करनेसे भोजन सही पचता है, पेट में गैस नहीं बनती है, स्वास्थ्य सही रहता है, नींद अच्छी आती है, दिन में सूर्य किरण के कारण कीट—पतंग का संचार कम होता है, विटामिन टी बनता है किन्तु सूर्य किरण के आभाव से कीट—पतंगों का संचार अधिक होने से (बिजली के प्रकाश से तो रात को अधिक कीट—पतंग आकर्षित होकर भोजन में भी गिरते हैं। उनका भोजन के माध्यम से पेट में में जाना स्वाभाविक है जिससे हिंसा होती है, मांस भक्षण का दोष लगता है, विभिन्न रोग भी होते हैं। भोजन के बाद स्वच्छ, शान्त प्रदूषण रहित, प्राकृतिक वातावरण में भ्रमण (टहलने) के लिए जाना चाहिए। ज्यादा व्यायाम, शरीरिक परिश्रम आदि नहीं करना चाहिए। परिवारजन, मित्रों से मिलकर सुख—दु:खों के बारे में पूछना चाहिए। और उसमें सहभागी बनना चाहिए। बच्चों के साथ मनोरंजन भी करना चाहिए। बच्चों को स्कूल कॉलेज की पढ़ाई के साथ—साथ धार्मिक, नैतिक, सेवा परोपकार, राष्ट्रभक्ति, पशु—पक्षी से प्रेम, पर्यावरण की सुरक्षा, रोगी—असहाय—विकलांग—वृक्ष आदि की सेवा तथा सहयोग, गुरुजन, गुणीजन की भक्ति—सेवा—व्यवस्था आदि की शिक्षा देकर प्रेरित करना चाहिए तथा स्वयं भी इन महान् कार्यों को करते हुए आदर्श की स्थापना करते हुए उनसे भी करवाना चाहिए। इससे बच्चे ज्ञानी, गुणी, महान् सुखी, प्रसन्न, उन्नत बनते हैं।
(१८) संन्ध्या कालीन कार्यक्रम सन्ध्या (शाम) को भोजन, अध्ययन (पढ़ाई), शयन आदि नहीं करना चाहिए। इस समय भजन, कीर्तन, आरती, जप, ध्यान, सांस्कृतिक कार्यक्रम स्वस्थ—शालीन मनोरंजन, कथा वाचन—श्रवण आदि करना चाहिए तथा दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिए। इससे मन प्रसन्न होता है, थकान दूर होती है, धार्मिक—सांस्कृतिक—सामजिक जागृति होती है, मेल—ामिलाप बढ़ने से प्रेम—संगठन बढ़ता है, अश्लील—हिंसात्मक—हुल्लड़ टी.वी. सिनेमा, नाटक क्लब, मनोरंजन के कार्यक्रम में लोग कम भाग लेते हैं— आकर्षण घटता है; अच्छे काम में भाग लेने वाले उस समय में गलत काम से दूर रहते हैं। इससे भारतीय प्रचीन कला— संस्कृति जीवित रहती है, उसका प्रचार—प्रचार होता है। ।।।— रात्रिकालीन चर्या
(१९) रात्रि के प्रथम प्रहर के कार्यक्रम रात्रि के प्रथम—स्कूल—कॉलेज में पढ़ाये विषयों को दोहराना तथा गृहकार्य करने के साथ—साथ धार्मिक नैतिक आदि साहित्यों का अध्ययन, धार्मिक प्रवचन—प्रश्नमंच—शास्त्र स्वाध्याय—तात्त्विक चर्चा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि में भाग लेना, साधु—सन्त—गुरुजन—माता—वृद्धजनों के तेल आदि मालिस के द्वारा सेवा—वैयावृत्ति करना, सामाजिक—धार्मिक—मीटिंग (बैठक)—सम्मेलन—सभा आदि में भाग लेना करना चाहिए। अनावश्यक रूप से रात को इधर—उधर घूमना नहीं देखना चाहिए। गन्दे अश्लील—िंहसात्मक सिनेमा, टी. वी. थियेटर मनोरंजन के कार्यक्रम आदि नहीं देखना चाहिए, क्लब आदि में नही जाना चाहिए। वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, जुआ, शिकार, मद्यपान, मांसभक्षण, नशीली वस्तुओं का सेवन, चोरी, अनैतिक कार्य लड़ाई— झगड़ा गप्पे लगाना आदि कुछ लोग विशेषत: रात को करते हैं जो सर्वथा अयोग्य है, निन्दनीय है, असामाजिक है, अनैतिक है, अकरणीय है, पापात्मक है।
(२०) रात्रि के द्वितीय प्रहर के कार्य—सोना— सोने के पहले ढीले एवं कम वस्त्र पहनना चाहिए तथा हाथ पैर, मँुह धोकर, कुल्ल करके (सम्भव हो तो स्नान करके ) बिस्तर को साफ करके साफ जगह में बिछाना चाहिए। मच्छर हो तो मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए। पूर्व में वर्णित सोने की पद्धति के अनुसार गहरी—सुख निद्रा लेकर प्रात:काल (ब्राह्ममुहुर्त में ) जागकर अपनी आदर्श दैनिक चर्या पुन: प्रारम्भ करनी चाहिए। ऐसी दिनचर्या से शरीर—इन्द्रियाँ— मन—आत्मा स्वस्थ, सबल— सक्रिय रहते हैंं, हर कार्य सुचारू रूप से होते हैं, जीवन आदर्श—उन्नत—शान्तिमय—प्रगतिशील बनता है।
व्यवस्थित दैनिक चर्या से लाभ
व्यवस्थित, सन्तुलित, अनुशासित, क्रमबद्ध, समयानुकूल, प्राथमिकता के अनुसार सन्तुलित, समतापूर्ण, तनावरहित, एकाग्रता से ध्यानपूर्वक, रूचि सहित उत्तम कार्य करने से कार्य सही होता है, प्रसन्नता होती है, सन्तुष्टि—तृप्ति का अनुभव होता है, गौरव अनुभव होता है, दूसरे लोग प्रशंसा करते हैं जिससे थकान, खेद पश्चाताप, खिन्नता के अभाव के साथ—साथ समय—श्रम—साधन—धन आदि की भी हानि नहीं होती है। इससे विपरीत अव्यवस्थित आदि से सहित असन्तुलित आदि से युक्त होकर काम करने से काम सही नहीं होता है, प्रसन्नता आदि नहीं होती है जिससे थकान आदि अनुभव होती है तथा समय आदि का दुरुपयोग होता है। इसलिए व्यवस्थित आदि विशेषताओं से युक्त होकर अधिक भी कठिन काम प्रचुर मात्रा में करने वाले महापुरुष जल्दी थकते नहीं है। क्योंकि उनकी उर्जा का अपव्यय व्यस्थित आदि विशेषताओं के कारण नहीं होता है। जिस प्रकार कि लक्ष्यहीन गति केवल भटकाव है उसी प्रकार अव्यवस्थित दैनिक चर्या भी समय—अभाव, थकान, असफलता, रोग, चिन्ता, खीज आदि समस्या की जननी है। अनेक व्यक्ति ‘‘काम कौड़ी का नहीं और फुरसत मिनट की नहीं’’ को चरितार्थ करते हैं। महान कार्य करने के लिए किसी महापुरुष ने कहा भी हैं— शुरु में वह कीजिए जो आवश्यक, फिर वह जो संभव है और अचानक आप पायेंगे कि आप तो वह कर रहे हैं जो असंभव की श्रेणी में आता है।
द्धितीय—कक्षा
आदर्श जीवन चर्यादेश — विदेशों के धर्म दर्शन, डार्वितन के विकासवाद, आधुनिक जीव विज्ञान—प्राणी विज्ञान, जैन जीव विज्ञान—कर्म सिद्धान्त—गुण स्थान (जैन आध्यात्मिक क्रम विकास सिद्धान्त), पुराण, विश्व इतिहास से ज्ञान होता है कि मानव जीवन, विश्व में सर्वश्रेष्ठ जीवन है इन सब विशेषताओं से युक्त मानव जीवन होते हुए भी मानव जीवन केवल दुर्लभता से ही प्राप्त नहीं होता है परन्तु मानव जीवन का सदुपयोग दुर्लभ ही मानव कर पाते हैं। क्योंकि दुर्लभ ही मानव आदर्श जीवन चर्या को जानते हैं, मानते हैं, अपनाते हैं। इसलिए दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त करके भी अधिकांश मानव दुर्दशामय जीवन जीकर दुर्गति को प्राप्त करते हैं। अतएव मैं (आ. कनकनन्दी) देश—विदेशों के प्राचीन एवं आधुनिक ज्ञान—विज्ञान—आध्यात्मिक ग्रन्थों के साथ—साथ मेरे अनुभूत कुछ आदर्श जीवन चर्या का दिग्दर्शन निम्न में कर रहा हूँ। सविस्तार परिज्ञान के लिए मेरी (१) संस्कार (२) मानव इतिहास एवं मानव विज्ञान (३) तत्वानुचिन्तन (४) सूक्ष्मजीव विज्ञान से शुद्ध जीव विज्ञान आदि कृतियों का अध्ययन करें। मैं यहाँ संक्षिप्तत: मानव जीवन को (१) शिशु जीवन चर्या (२) विद्यार्थी जीवन चर्या (३) गृहस्थ जीवन चर्या (४) सामाजिक जीवन चर्या (५) राष्ट्रीय जीवन चर्या (६) वैश्विक जीवन चर्या (७) आध्यात्मिक जीवन चर्या रूप में विभक्त करके उस सम्बन्धी प्रकाश डाल रहा हूँ।
शिशु जीवन चर्या
I गर्भस्थ शिशु की जीवन चर्या— जिस प्रकार कि योग्य बीज, अनुकूल जलवायु मृदा, सूर्यकिरण, समय आदि के सहयोगी निमित्तों को प्राप्त करके अंकुर से क्रम विकास करता हुआ वृक्ष—फल—फूल—बीज रूप से परिणमन करता है उसी प्रकार मानव जीवन भी पूर्वार्जित कर्मों को लेकर माता के गर्भ के गर्भ में आकर गर्भस्थ शिशु अवस्था से लेकर ६—७ वर्ष की शिशु अवस्था तक प्राय: मानव जीवन असहाय/दुर्बल/परावलम्बी होने से माता—पिता—परिवारजनों का कत्र्तव्यों होता है कि उसका लालन—पालन—संरक्षण—सम्वद्र्धन—संस्कार—निर्वहण सही रूप से करें। गर्भाधान क्रिया से पूर्व ही माता— पिता—परिवारजनों को शिशु के योग्य सुसंस्कार, वातावरण बनावें जैसा कि कृषक खेती में बीज बोने के पहिले से ही खेत को योग्य बनाता है। वे स्वयं सुसंंस्कारित, सदाचारी, आदर्श बनें। केवल कामावेश के कारण शिशु का जन्म होकर धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष के आदर्श से शिशु का जन्म तथा लालन—पालन आदि हो। । एतदर्थ माता—पिता को भाव—व्यवहार में गर्भाधान क्रिया के पूर्व ही यथायोग्य चारों पुरुषार्थ को अपनाना चाहिए। उनके भाव—व्यवहार में शालीन, शान्त, समता, समन्वय, प्रेम, सौहाद्र्र, धैर्य, क्षमा, सहिष्णुता धार्मिक, आध्यात्मिक आदि गुण होना चाहिए तथा वातावरण भी शान्त, स्वच्छ, प्रदूषण रहित, मंगलमय गाना—संगीत—भजन से युक्त होना चाहिए। यह सब शिशु रूपी बीज के लिए योग्य खाद, पानी आदि के समान है। इन सबका प्रभाव गर्भस्थ शिशु के ऊपर भी पड़ता है। इसके साथ—साथ माता—पिता मद्य, मांस, नशीली वस्तु आदि का सेवन भी कदापि न करें। विशेषत: माता सुस्वादु, पौष्टिक, मधुर, स्निग्ध, सुगन्धित प्रिय भोजन करें तथा चटपटा—मसालेदार, नमकीन, खट्टी आदि वस्तुओं का सेवन न करे और श्रंगार, विकथा, तनाव, क्रोध ईष्या, क्रूरता, हिंसा, भय, चिन्ता, संक्लेश, अतिश्रम, अतिजागरण, खोटाभाव, अश्लील, कुशीलभाव—व्यवहार—वर्तन—कथन न करे, इस प्रकार के टी.वी.प्रोग्राम सिनेमा, नाटक आदि न देखे। छोटे शिशु—जन्म के बाद छोटे शिशु की स्वस्च्छता सही करें। प्रसूति गृह शिशु पालन गृह भी स्वच्छ, शान्त प्रदूषणों से रहित, प्रकाश युक्त, हवादार हो। शिशु का बिस्तर, वस्त्र आदि भी स्वच्छ,हल्का हो। शिशु को अधिक पोषाक न पहनावे, न ही मोटा पोषाक पहनावे। प्राचीन शास्त्रों में वर्णन नहीं पाया जाता है कि श्रीराम, कृष्ण आदि बाल्यकाल से ही पूरे शरीर को ढकने वाले पोषाक पहने थे जैसा कि अभी के शिशु जीन्स के सूट, पैंट, कोट, टाई, मोजा जूता पहनते हैं। अधिक पोषाक पहनने से शिशु को सूर्य किरण पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता है जिससे शिशु वायु के शरीर में विटामिन ‘‘डी’’ नही बनता है, हड्डी मजबूत नहीं बनती है, रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होती है, शरीर मजबूत नहीं होता है, शरीर की वृद्धि में बाधा पहँुचती हैै शिशु को शीतऋतु में प्रात:कालीन कोमल सूर्य किरण में नंगा शरीर में तेल, हल्दी लगा कर नंगा सुलाने से खेलाने से शरीर में विटामिन ‘डी’ बनता है, हड्डी मजबूत होती है, रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, शरीर मजबूत होता है। शिशु को झूला झुलाते समय, गोद में लेकर प्यार करते समय, कोमल से स्पर्श करते समय, माता के दूध पिलाते समय, खिलाते समय, सुलाते समय लोरियाँ, धार्मिक, नैतिक, भजन, महापुरूषों की जीवनी सम्बन्धित गीत (गान) सुनाना चाहिए, णमोकार मन्त्र, भगवान के नाम आदि सुनाना चाहिए, तथा थोड़ा बड़े शिशु को णमोकार मन्त्र आदि सिखाना चाहिए न कि सिनेमा के अश्लील गाने उसके सामने गाना चाहिए, न ही ऐसा टी.वी. प्रोग्राम आदि दिखाना चाहिए। इसके साथ—साथ उसे बिना अक्षर (अ, आ, A.. ण्.) सिखाये मातृभाषा में माता, पिता, दादा दादी, काका,काकी, भैया आदि सम्बोधन वाचक शब्द सिखाते हुए उनका परिचय कराके उनका विनय कैसे किया जाता है सिखाना चाहिए न कि A.ण्. अक्षर, फॉर , ग फॉर गधा, मम्मी—मम, डेडी, अंकल, आंटी, टाटा, हाय हैलो, बॉय, उदद् आदि सिखाना चाहिए। क्योंकि शिशु गर्भ से ही मातृभाषा सुनते रहने के कारण मात्र भाषा जल्दी सीख जाता है। मातृभाषा सीख जाने से वह अन्य भाषा, विषय भी शीघ्र सीख सकता है जब मातृभाषा ही नहीं आती तो अनजान विदेशी गुलाम की भाषा कैसे जल्दी सीख सकता है? थोड़े बड़े शिशु— इन्हें भी बिना अक्षर ज्ञान सिखाने, मातृभाषा के छोटे—छोटे वाक्यों से बड़ों का सम्मान सहित सम्बोधन करना, उनके पैर छूकर प्रणाम करना, उनसे छोटे बच्चों को प्यार करना, बच्चों के साथ प्यार से खेलना, मंदिर जाना, प्राकृतिक स्थल में जाना, साधु—सन्त—गुरुजन के पास जाकर उन्हें विनय से नमोऽस्तु करना, धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेना, पशु—पक्षी से प्यार करना—उनकी आवाज की नकल करना आदि सीखना चाहिए। इससे शिशु का शरीरिक, मानसिक, भाषा सम्बन्धी, सामाजिक, धार्मिक सांस्कृतिक आदि विकास होता है, संस्कार पड़ता है। यह सब जीवन रूपी महल की नींव है, आधारशिला है। शिशु को कृत्रिम दूध, बोतल या पावडर का दूध नहीं देकर सम्पूर्ण भोजन स्वरूप औषधमय, प्रेम—वात्सल्यपूर्ण माता का ही दूध पिलाना चाहिए। यदि यह सम्भव नहीं तो बकरी या गाय का दूध देना चाहिए। विषाक्त रसायन से युक्त खिलौने न देकर वस्त्र, लकड़ी, रबड़ के अहनिकारक खिलौने देने चाहिए। शिशु को २१—२२ घण्टे सोना चाहिए। बच्चों को खेलते हुए, हँसते हुए, बोलते हुए, नटखटी करते हुए, सोते हुए नहीं रोकना चाहिए। वे इसके माध्यम से सीखते हैं, विकास करते हैं। वे किसी भी चीज को तोड़—फोड़—बिखराव नहीं करते हैं। वे तो इसके माध्यम से सीखते हैं, खेलते हैं, मनोरंजन करते हैं। ऐसी परिस्थिति में मूल्यावान, नाजुक, भंगुर हानिकारक चीजों को बच्चों की पहुँच से दूर रखना चाहिए। बच्चों को साफ, सुरक्षित मिट्टी, रेत, जमीन, पानी आदि से खेलने देना चाहिए, जिससे उनका मनोरंजन, ज्ञानार्जन स्वास्थ्यलाभ के साथ—साथ उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। गर्भस्थ शिशु बीज हैं तो थोड़े बड़े शिशु अंकुर है तथा विद्याध्ययन करने योग्य शिशु पौधा है। जिस प्रकार कि बीजों को कृषि नर्सरी में पौधा तक बनाकर फिर वहाँ से ले जाकर योग्य स्थान में रोपण कर वृक्ष बनाकर फलादि प्राप्त करते हैं वैसा ही गृह—परिवार रूपी नर्सरी से शिशु रूपी अंकुर जब विद्यार्थी रूपी पौधा बन जाता है तब जाकर विद्यालय रूपी स्थान में रोपण करने पर आदर्श जीवन रूपी फल प्राप्त होता है अन्यथा अंकुर रूपी शिशु को घर परिवार रूपी नर्सरी से निर्ममता से उखाड़कर बंजर भूमि रूपी स्कूल में डाल देने पर आदर्श जीवन रूपी फल तो मिलना दूर किन्तु शिशुरूपी अंकुर ही पौधा बनने के पहले मुरझाकर सुख न जाए इसका ध्यान हर भारतीय रूपी कृषक रखने में अयोग्य है।
II विद्यार्थी जीवन चर्या—६—७ वर्ष के शिशु को योग्य विद्यालय में योग्य विद्वान, दयालु, परोपकारी, कत्र्तव्यनिष्ठ सदाचारी, गुरु के पास भेजना चाहिए। पौधा को जब अन्य स्थान में रोपण किया जाता है तब उसका जिस प्रकार अच्छी तरह से सार—सम्भाल किया जाता है उसी प्रकार विद्यार्थी जीवन का होना का होना चाहिए तब जाकर आदर्श जीवन रूपी खेत में सुख—शान्ति रूपी फल प्राप्त होगा। विद्यार्थी को केवल आक्षरिक, पुस्तकीय, रटन्त, कागज डिग्री प्राप्त शिक्षा ही प्राप्त नहीं होना चाहिए इससे भी आगे आदर्श दैनिक—चर्या, जीवन चर्या, नैतिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, गणितीय, वैश्विक, पर्यावरण, सुरक्षात्मक सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक शिक्षा भी प्राप्त होनी चाहिए जिससे उनके सर्वोदय के माध्यम से सातों (७) प्रकार की जीवन चर्या का निर्वहण हो। शिक्षा तनावयुक्त, बोझरूप, फैशन—व्यसन के उत्पादक, अहंकार कारक, परिवार—समाजद्याति से लेकर आत्मघाती न होकर आनन्ददायी, बोधप्रद, शोधपरक, सर्वांगीण विकास के लिए प्रेरक कारक बने जिससे स्व—पर—विश्वकल्याण हो।
III गृहस्थ जीवन चर्या— गृहस्थ जीवन अर्थात् पारिवारिक जीवन/वैवाहिक जीवन के बाद ही समाज का निर्माण हुआ अत: सामाजिक जीवन की प्राथमिक इकाई गृहस्थ जीवन है। यदि सर्वसन्यास रूप पूर्ण ब्रह्मचर्य से आध्यमिक जीवन चर्या पालने के लिए कोई असमर्थ होता है तो वह आंशिक ब्रह्मचर्य पूर्वक धार्मिक पद्धति से विवाह करके गृहस्थ जीवन चर्या में प्रवेश करता है। स्व—धर्मपत्नी तथा स्वपति को छोड़कर अन्य समस्त स्त्री—पुरुष—नापुंसक—बालक—बालिका आदि से यौन सम्बन्ध नहीं करना तथा स्वपति—पत्नी में ही नैतिक मर्यादित यौन सम्बन्ध में सन्तोष रहने को ब्रह्मचर्य अणुव्रत/ आंशिक ब्रह्मचर्य कहते हैं। इस दृष्टि से समलैंगिकता, Live in relation ship, विवाहेतर समस्त सम्बन्ध अयोग्य हैं, अनैतिक हैं, संस्कृति के विपरीत हैं। अपरिपक्तव अवस्था में विवाह (बाल विवाह) भी उपरोक्त दुर्गुणों के साथ—साथ अस्वास्थ्यकर तथा अयोग्य—दुर्बल—रोगी सन्तान के लिए कारण है।‘‘याति जनयितुम्’’ अर्थात् यति—साधु, धार्मिक परम्परा को आगे बढ़ाने योग्य सन्तान की उत्पत्ति के लिए पारिवारिक/ वैवाहिक जीवनचर्या में प्रवेश होता है केवल घर में रहना, धन कमाना, भोग भोगना आदि यथार्थ से गृहस्थाश्रम / पारिवारिक जीवन नहीं है अपितु अविरुद्ध रूप से धर्म, अर्थ काम, मोक्ष की यथायोग्य साधना करना ही यथार्थ से गृहस्थाश्रम है। गृहस्थ + आ + श्रम अर्थात् घर में रहकर यथायोग्य चारों पुरुषार्थों के लिए समग्र प्रकार से श्रम करना/ पुरुषार्थ करना ही गृहस्थाश्रम है। इसलिए गृहस्थों को न्याय नीति से धनार्जन करके, मोक्ष का लक्ष्य बनाकर (रखकर), सन्तानों का लालन—पालन के साथ—साथ संस्कारित करते हुए, माता—पिता—गुरुजन—गुणीजन कीसेवा व्यवस्था करते हुए, रोगी, वृद्ध, असहाय, विकलांग आदि की दया से सहयोग करते हुए, पशु—पक्षी—पर्यावरण की सुरक्षा करते हुए जीवन चर्या का निर्वहण करना चाहिए। गृहस्थ जब तक गृहत्यागकर सन्यासी बनकर साधु नहीं बन जाता है तब उपयुत्र्तक कत्र्तव्यों को पालन करना चाहिए। बड़ा होकर विवाह के बाद जो माता पिता—वृद्धजन रोगी आदि की सेवा व्यवस्था नहीं करते हैं, उन्हें अलग कर देते हैं, वृद्धाश्रम में भेज देते हैं, उपेक्षा कर देते हैं औषधि आदि की व्यवस्था नहीं करते हैं, वे स्वयं के मूल तथा शाखा—फलादि को काटकर विकास करने के भ्रम में रहते हैं।मूल स्वरूप माता- पिता आदि तथा शाखा—फलादि स्वरूप सन्तान के बिना गृहस्थ जीवन रूपी वृक्ष कैसे जी सकता है, वृद्धि कर सकता है, फलप्रद हो सकता है। क्योंकि माता पतादि से युक्त संयुक्त परिवार में सन्तान का लालन—पालन—संस्कार जिस प्रकार उत्तम रूप से होता है वैसा विभक्त परिवार में हो पाता है। वर्तमान में भारत विभक्त परिवार तथा उनके बच्चों की दुर्दशा इसके लिए प्रायोगिक ज्वलन्त उदाहरण है।
IV सामाजिक जीवन चर्या गृहस्थ जीवन के बाद सामाजिक जीवन प्रारम्भ होता है क्योंकि अनेक परिवार के सम्यक् समन्वय, सहयोग रूपी विशाल समूह / इकाई / संगठन ही समाज है। सामाजिक संगठन के बाद से ही मानव का विकास अधिक तीव्रगति से प्रारम्भ हुआ; कला, शिक्षा, व्यापार, कृषि, सेवा, ज्ञान, विज्ञान से लेकर संस्कार, संस्कृति, सदाचार, मोक्षमार्ग, अध्यात्मिक का भी शोध—वोध—प्रयोग—प्रचार—प्रसार—भी तब से हुआ, इस दृष्टि से भी मानव एक सामाजिक— आध्यात्मिक प्राणी है। इसलिए मानव को स्वस्थ—सुसंस्कारित सुसंस्कृत समाज में रहना चाहिए तथा स्वस्थ सुसंस्कारित आदि भी बनना चाहिए। अतएव मानव के विकास के योग्य समाज को होना चाहिए और समाज के विकास योग्य मानव को होना चाहिए। डार्विन के संधर्षवाद के विपरीत सहयोगमय सामाजिक जीवन से मानव का विकास होता है तथा संधर्ष से विनाश होता है। विकास रूक जाता है।पूर्वाचार्यों ने भी कहा है— परस्परो पग्रहो जीवानां। (२१) त. सू. परस्परो पग्रहो जीवानां उपकार: भवति। The mundane souls help the support each other. परस्पर सहायता मेें निमित्त होना यह जीवों का उपकार है। स्वामी सेवक आदि कर्म से वृत्ति (व्यापार) को परस्परोपग्रह कहते हैं। स्वामी, नौकर,आचार्य (गुरु) शिष्य आदि भाव से जो वृत्ति होती है, उसको परस्पर उपग्रह कहते हैं जैसे स्वामी अपने धन का त्याग करके (रूपयादि प्रदान करके ) सेवक का उपकार करते हैं और सेवक स्वामी के हित प्रतिपादन और अहित के प्रतिषेध द्वारा उसका उपकार करता है। आचार्य (गुरु) उभय लोक का हितकारी मार्ग दिखाकर तथा हितकारी क्रिया का अनुष्ठान कराकर शिष्यों का उपकार करते हैं और शिष्य गुरु के अनुकूल वृत्ति से उपकार करते हैं। यद्यपि उपग्रह का प्रकरण है, फिर भी इस सूत्र में ‘उपग्रह’ शब्द के द्वारा पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट सुख—दु:ख, जीवित और मरण इन चारों का ही प्रतिनिर्देश किया है। इन चारों के सिवाय जीवों का अन्य कोई परस्पर उपग्रह नहीं है, किन्तु पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट ही उपकार है। स्त्री—पुरूष की रति के समान परस्पर उपकार का अनियम प्रदर्शित करने के लिए पुन: ‘उपग्रह’ वचन का प्रयोग सुखादि में सर्वथा नियम परस्पर उपकार का नही है, यह बताने के लिए पुन: उपग्रह वचन का प्रयोग किया है; क्योंकि कोई जीव अपने लिए सुख उत्पन्न करता हुआ कदाचित् दूसरे जीव को वा दो जीवों को वा बहुत से जीवों को सुखी करता है और कोई जीव अपने को दु:खी करता हुआ दूसरे एक वा दो वा बहुत से जीवों के लिए सुख—दु:ख उत्पन्न करता है। इस प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिए। स्वयं दु:खी भी दूसरे को सुखी और स्वयं सुखी भी दूसरे को दु:खी कर सकता है। अत: कोई निश्चित नियम नहीं है कि सुखी सुख पहुँचाए और दु:खी दु:ख ही करे। मानव को स्वस्थ्य, सबल, क्रियाशील होने के लिए जिस प्रकार कि मानव शरीर के हर अवयव को भी स्वस्थ्य, सबल, क्रियाशील होना आवश्यक है उसी प्रकार मानव समाजरूपी शरीर के अवयवभूत प्रत्येक मानव को भी स्वस्थ्य, सबल, क्रियाशील होने पर ही मानव समाज रूपी शरीर भी स्वस्थ्य, सबल, क्रियाशील होगा। यह ही यथार्थ से समाजशास्त्र/ समाज मनोविज्ञान /सामाजिक जीवनचर्या है।
V राष्ट्रीय जीवन चर्या— एक राष्ट्र्र में अनेक धर्म, भाषा, प्रजाति, संस्कृति, व्यवस्था आदि के समाज होते हैं। अर्थात् अनेक विध समाजों का समूह ही राष्ट्र है। जैसा कि अनेक विध फल—फूलोें वृक्षों के समूह से समुदाय से वन—उपवन बनता है वैसा ही अनेकविध समाज के समूह के समुदाय से राष्ट्र बनता है। वन—उपवन के अभिन्न अंगभूत किसी भी प्रकार के फल—फूल के समूह विकास या विनाश का प्रभाव भी राष्ट्र ऊपर पड़ता है। इसलिए राष्ट्र के सर्वोदय के लिए प्रत्येक समाज के समूह का भी सर्वोदय अनिवार्य है। प्रत्येक समाज के समूह के असंतुलन से राष्ट्र में भी असंतुलन उत्पन्न होता है जिससे राष्ट्र में विषमता, संधर्ष से लेकर गृहयुद्ध तथा विश्वयुद्ध भी संभव है। इसलिए प्रत्येक समूह को समान अधिकार, समान सुविधा होना चाहिए और प्रत्येक समूह का भी कत्र्तव्य हे कि राष्ट्र की एकता, अखण्डता, समृद्धि, सुख—शान्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। प्रत्येक समूह में राष्ट्रीयता, राष्ट्र भक्ति राष्ट्रगौरव होने पर भी संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण, कट्टर राष्ट्रवाद नहीं होना चाहिए। क्योंकि इससे राष्ट्र से लेकर विश्व में अनेकानेक समस्याएँ उत्पन्न होती है।
VI वैश्विक जीवन चर्या— राष्ट्रों के तथा विश्व के सहअस्तित्वमय शान्तिपूर्ण सहजीवन ही विश्व है और तदनुकूल आचरण ही वैश्विक जीवनचर्या है। व्यापक अनेकान्त/ सापेक्षमय दृष्टिकोण से सम्पूर्ण विश्व एक इकाई है। इसे जैनधर्म में महासत्ता या लोक कहते हैं। तो वैदिक धर्म में ब्रह्माण्ड कहते हैं। और आधुनिक विज्ञान की आपेक्षा यूनिवर्स कहते हैं। अतिगहन, सूक्ष्म, व्यापक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से विश्व के हर स्थूल—सूक्ष्म, मूर्तिक—अमूर्तिक, चेतन—अचेतन तत्त्व/द्रव्य परस्पर अन्त: सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं, परस्पर उपकृत हैं, अवलम्बित हैं। इसे आधुनिक शोधरत वैज्ञानिक Unified theory/Master theory कहते हैं तो जैनधर्म में इसका शोध लाखों—करोड़ों वर्षों से भी पहले हो गया था। जिसे छह द्रव्यों के उपकार रूप स्वीकार किया गया है। इसे हम संक्षिप्त से सूत्र रूप में ‘‘परस्परोग्रहो द्रव्याणाम्’’ अर्थात् विश्व के प्रत्येक द्रव्य परस्पर उपकार करते हुए सह—अस्तित्व रूप में रहते हुए भी अपना अस्तित्व को अक्षुण्ण रखते हैं। इसका एक स्थूल संक्षिप्त रूप है पर्यावरण सुरक्षा। इसको भारतीय संस्कृति में ‘‘उदारपुरुषाणां वसुदैव कुटुम्बकम्’’ कहते हैं। इन सब दृष्टिकोण से प्रत्येक मानव को प्रत्येक जीव तथ प्राकृतिक तत्त्वों के अस्तित्व, संरक्षण आदि को लक्ष्य में रखकर के मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमत से व्यवहार करना चाहिए। यह ही मेरी दृष्टि से वैश्विक जीवन चर्या है। क्योंकि एक द्रव्य से अस्तित्व से दूसरे द्रव्य के अस्तित्व भी अन्तर्सम्बन्ध है। ध्यान रहे कि व्यक्तिगत कमियाँ, विकृतियाँ जब पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, वैश्विक कमियों, विकृतियों में परिवर्तित, संक्रमण, प्रचार—प्रसार में आ जाती है तब भयंकर समस्या, विप्लव युद्ध, विध्वंस आदि होते हैं। इसी प्रकार जब कमियाँ, विकृतियाँ परम्परा, संस्कृति के अन्दर आ जाती है तब भी उपरोक्त समस्या आदि या उससे भी अधिक भयंकर समस्या आदि उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि इन सब में सामूहिक शक्ति, बुद्धि, साधन, धन आदि का प्रयोग होता है। इन सब को दूर करने का सार्वभौम उपाय है आध्यात्मिक जीवन चर्या जो कि निम्न प्रकार है—
VII आध्यात्मिक जीवनचर्या— वस्तुत: प्रत्येक सूक्ष्म से लेकर विशालकाय जीव आत्मस्वरूप होनेसे आध्यात्मिक रूप भी है तथापि मानव ही पूर्ण आध्यात्मिक जीवन चर्या कर सकता है इतना ही नहीं आध्यात्मिक जीवन चर्या के माध्यम से आध्यात्मिक विकास करता हुआ आध्यात्मिक सर्वोच्य स्थान को प्राप्त करके भगवान् बन सकता है। ऐसा इतर जीव उस अवस्था में करने की योग्यता सम्पन्न नहीं होता है। इन सब दृष्टि से मानव आध्यात्मिक प्राणी भी है जो कि मानव की सर्वोच्च विशेषता है। इसलिए इस आध्यात्मिक जीवन तथा अध्यात्मिक जीवन चर्या तथा आध्यात्मिक पूर्ण विकास को लक्ष्य में रखकर मानव को पूर्व में वर्णित दोनों कक्षाओं की जीवनचर्या का निर्वाह करना चाहिए। इससे मानव का अक्षय, अनन्त सर्वोदय होगा जो मानव की बुद्धि, कल्पना, तर्कशक्ति से भी परे है। यथा—
प्रतीहि भव्य प्रतिलोमवृत्तिभि:,ध्रवं फलं प्राप्स्यासि तद्विलक्षणम्।। (१०६)
हे भव्य! तूने स्वयं कुज्ञान और रागादिरूप विपरीत चेष्टाओं के द्वारा जन्म—मरणादि रूप फल प्राप्त किया है। अत: अब तू ऐसी प्रतीति कर कि इनसे विपरीत प्रवृत्तियाँ करके उनके फल से विपरीत फल (मुक्ति) प्राप्त हो।
हे जीव! स्व—पर की करुणा करना दया, इन्द्रिय—मन को वश करना दम, पर—पदार्थों से राग छोड़ना त्याग और वीतराग दशारूपी सुख समाधि है—इनकी परम्परारूप मार्ग पर प्रयत्नशील होता हुआ निष्कपट होकर गमन कर—यही मार्ग तुझे वचन—अगोचर और निर्विकल्प परम पद की प्राप्ति करायेगा।
‘‘मैं आकिञ्चन्य हूँ, मेरा कुछ भी नहीं हैं’’—ऐसी भावना करके तू बैठ जा! इससे तू शीघ्र तीन लोक का स्वामी हो जाएगा। योगीश्वरों द्वारा गम्य परमात्मा बनने का यही रहस्य हमने तुझे कहा है।
यम और नियम योग के मूल हैं। यम अर्थात् अयोग्य क्रियाओं का आजीवन त्याग और नियम अर्थात् घड़ी, पल, पहर, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि की मर्यादा में संवर या त्याग। इनके पालन में साधु सदैव तत्पर रहते हैं। वे महाशान्तचित्त वाले होते हैं। उनके भावों में देहादि बाह्य पदार्थों से निवृत्ति हो जाती है। समाधि अर्थात् निर्विकल्प दशारूप परिणमित होते हैं। सभी जीवों के प्रति दयाभाव रखते हैं। विहित अर्थात् शास्त्रोक्त विधि से योग्य अल्पाहार लेते हैं। निद्राजयी होते हैं। अध्यात्म के सारभूत आत्मस्वभाव का निश्चय करने वाले होते हैं। निरन्तर आत्मानुभव में निमग्न होते हैं।
जीवनोपयोगी दोहा द्वादश—आ. कनकनन्दी
समय पे सो समय पे जागो समय पे करो ध्यान।
समय पे हो शौचक्रिया और समय पे करो स्नान।।
(१) समय पे करो प्रात:भ्रमण यौगिक क्रिया—सत्कर्म।
भोजन हो सात्विक और निरामिष अन्न—पान।।
(२) भोजन के आदि और अन्त में धो हाथ—पैर हो कुल्ला।
आदि में मधुर चिकनाई सत्त्व अन्त में हो लघु वाला।।
(३) मध्य—मध्य में पीओ पानी शुद्ध चबाओ बत्तीस बारा।
मौनपूर्वक हो शान्त चित्त न हो कभी उतावला।।
(४) भोजन के बाद शतपदयात्रा विश्राम करो हो थोड़ा।
जीविकोर्जन हो न्यायनीतिपूर्ण सदाचार सत्य बोला।।
(५) गुरुगुणीजनो करो हो विनय दीन दु:खी पर दया।
हर जीव प्रति मैत्री की भावना समता भाव हो प्रेम धारा।।
(६) पारिवार हित समाज सहित वैश्विक हो प्रेम धारा।
शरीर के हित आत्यात्म सहित सापेक्ष हो भावधारा।।
(७) कट्टर रूढि संकीर्ण रहित हो जीवन की हर धारा।
हो आध्यात्मिक वैज्ञानिक युत सतत विकास धारा।।
(८) जहाँ हो वैश्विक आध्यात्मिक दृष्टि, होती है संक्षिप्त सीमा।
जहाँ हो भौतिक संकीर्णता दृष्टि, होती है संक्षिप्त सीमा ।।
(९) पर के हित में होता है स्व—हत स्वयं हित जग हित।
परस्पर अनुगृहित है विश्व स्वयं—स्वयं सत्ता युक्त।।
(१०) अन्तर पवित्र बाह्य शुचियुक्त मंगलमय है सदा।
समताभाव से होता है स्वस्थ्य तन—मन—आत्मा मुदा।।
(११) पवित्रभाव में निवास है सदा ईश्वर व मोक्ष धाम।