जिनके द्वारा अनेक जीव संग्रह किये जायें, उन्हें जीवसमास कहते हैं। जीवसमास के चौदह भेद हैं-एकेन्द्रिय के बादर और सूक्ष्म ऐसे दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी ऐसे दो भेद, इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं। इन्हें पर्याप्त-अपर्याप्त ऐसे दो से गुणा करने पर जीवसमास के चौदह भेद हो जाते हैं। विशेष – एकेन्द्रिय के पृथ्वी आदि पाँचों भेदों में बादर और सूक्ष्म भेद पाये जाते हैं। बाकी के सभी त्रस जीव बादर ही होते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर होते हैं। जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रुके, उसको बादर कहते हैं। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर हैं। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीव होते हैं। जो शरीर दूसरे को न तो रोके और न स्वयं दूसरे से रुके, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। सूक्ष्म जीव तीन लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं जैसे कि तिल में तेल भरा हुआ है। बादर जीव आधार के बिना नहीं रहते हैं किन्तु सूक्ष्म जीव सर्वत्र निराधार हैं।
योनि
जन्म लेने के आधारस्थान को योनि कहते हैं। उसके दो भेद हैं-आकारयोनि और गुणयोनि। आकारयोनि के तीन भेद हैं-शंखावर्त, कूर्मोन्नत और वंशपत्र। शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता है। कूर्मोन्नत योनि से तीर्थंकर आदि महापुरुष और वंशपत्र से साधारण पुरुष आदि जन्म लेते हैं। गुणयोनि के नव भेद हैं-सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत्त, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत्।गुणयोनि के विस्तार से चौरासी लाख भेद भी होते हैं। नित्य निगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख। प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की दो-दो लाख। देव, नारकी, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच इनमें से प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्य की १४ लाख, ऐसे सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ होती हैं। इन ८४ लाख योनियों में संसारी जीव अनादिकाल से चक्कर लगा रहे हैं। जब वे सच्चे जैनधर्म को ग्रहण कर लेते हैं, तब ८४ के चक्कर से छूट जाते हैं।
जन्म के भेद
एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करना जन्म कहलाता है। जन्म के तीन भेद हैं-सम्मूच्र्छन, गर्भ और उपपाद। १. माता-पिता के रज-वीर्य के बिना ही शरीर योग्य पुद्गल परमाणुओं द्वारा शरीर की रचना हो जाना सम्मूच्र्छन जन्म है। २. माता के गर्भ में रज और वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है, उसे गर्भ जन्म कहते हैं। ३. माता-पिता के रजोवीर्य के बिना ही निश्चित स्थान पर पुद्गल परमाणुओं से शरीर बन जाना उपपाद जन्म है।
प्रश्न-किन जीवों के कौन सा जन्म होता है?
उत्तर –देव और नारकी के उपपाद जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय जीव तक सम्मूच्र्छन ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में कुछ सम्मूच्र्छन होते हैं, कुछ गर्भ जन्म वाले होते हैं। मनुष्य गर्भ जन्म वाले होते हैं किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सम्मूच्र्छन होते हैं, ये दिखते नहीं हैं। गर्भ जन्म के तीन भेद हैं-जरायुज, अंडज और पोत।
जरायुज –जन्म के समय शरीर पर रुधिर तथा मांस की खोल सी लिपटी रहती है उसे जरायु या जेर कहते हैं। उससे जो भी उत्पन्न होते हैं वे जरायुज हैं। जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य आदि।
अंडज –जो जीव अण्डे से उत्पन्न हों, वे अण्डज हैं। जैसे-कबूतर, चिड़िया आदि। पोत – पैदा होते समय जिनके शरीर पर कोई आवरण नहीं रहता है, जो जन्मते ही चलने फिरने लगते हैं, वे पोत जन्म वाले हैं। जैसे-हरिण, सिंह आदि।
अवगाहना
शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं। एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन। द्वीन्द्रिय में शंख की बारह योजन, तीन इन्द्रिय में चींटी की तीन कोश, चार इन्द्रिय में भ्रमर की एक योजन और पंचेन्द्रिय में महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार योजन होती है। यह उत्कृष्ट अर्थात् सबसे बड़ी अवगाहना है। मनुष्यों में सबसे बड़ी सवा पाँच सौ धनुष की और सबसे छोटी एक हाथ की होती है।
विशेष – एक योजन में आठ मील एवं एक धनुष में चार हाथ होते हैं। पाँचों इन्द्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होती है। यह हम और आपको नहीं दिख सकती है। हम लोगों को दिखने वाले जीवों की अवगाहना मध्यम में शामिल है। शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना इस जम्बूद्वीप से असंख्यातों द्वीप-समुद्रों के बाद होने वाले अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप और समुद्र के जीवों में होती है। मनुष्यों का सबसे बड़ा शरीर चतुर्थकाल के आदि में और सबसे छोटा शरीर छठे काल में होता है।