मालिनी छंद– त्वयि सति परमात्मन्मादृशान्मोहमुग्धान्।
कथमतनुवशत्वान्बुद्धकेशान्यजेऽहम्।।
सुगतमगधरं वा वागधीशं शिवं वा।
जितभवमभिवंदे भासुरं श्रीजिनं वा।।१।।
अर्थ-हे परमात्मन् ! आपके होते हुए मैं मुझ जैसे (संसारी) तथा मोह से मुग्ध और कामदेव के वशीभूत हुए ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश को वैâसे पूज सकता हूँ ? अर्थात् नहीं पूज सकता हूँ, जिन्होंने भव-संसार अथवा भव-कामदेव को जीत लिया है, मैं उनकी वंदना करता हूँ। वे चाहे सुगत हों, गिरिधर हो अथवा ब्रह्मा हों, शिव हों अथवा शोभायमान श्री जिनेन्द्र भगवान हों।।१।।
विशेषार्थ-लोक में भगवान बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा और महादेव ये चार देव अत्यधिक रूप में प्रसिद्ध हैं, उन्हीं को लक्षित करके आचार्य कहते हैं कि- जिन्होंने संसार का नाश कर दिया है, जो जन्म-मरण के दु:खों से छूट चुके हैं, वे चाहे जिस नाम के धारी हों मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
‘‘जिनसहस्रनाम’’ में भी जिनेन्द्र भगवान को सुगत कहा है-
‘‘समंतभद्र:सुगत: श्रीघनो’’ शोभनं गतं गमनं यस्य। अथवा सुष्ठु शोभनं गतं केवलज्ञानं यस्य। अथवा सुगा सुगमना अग्रेऽग्रे ता लक्ष्मीर्यस्य। अर्थात् शोभनं गतं-गमन है जिनका अथवा सुष्ठु-सुन्दर गत-केवलज्ञान है जिनका अथवा सुगा-सुन्दर और आगे-आगे गमन करने वाली, ता-लक्ष्मी हैं जिसके ऐसे भगवान सुगत कहलाते हैं।
श्रीमानतुंगाचार्य ने भी कहा है कि-
‘‘बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात् , त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात्।
धातासि धीर शिवमार्ग विधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि।।२५।।
अर्थ-हे भगवन् ! आप ही बुद्ध हैं क्योंकि विबुधजनों के द्वारा आपके केवलज्ञान की पूजा की गई है। आप ही शंकर-महादेव हैं क्योंकि आप ही तीनों भुवनों में शं-सुख को करने वाले हैं। आप ही धाता-ब्रह्मा हैं क्योंकि आपने ही शिवमार्ग की विधि का विधान किया है, हे धीर! यह बात स्पष्ट है कि आप ही पुरुषोत्तम-विष्णु हैं क्योंकि तीनों जगत के सभी जीवों में आप श्रेष्ठ-महान् हैं।
यहाँ पर भी टीकाकार ने ऐसे ही गुणों से विशिष्ट सुगत आदि की वंदना की है न कि लोक में मान्य क्षणिक मत के प्रस्थापक सुगत या विष्णु, ब्रह्मा, महेश्वर आदि की वंदना की है क्योंकि जन्म-मरण से रहित जिनेन्द्र भगवान् ही सच्चे देव हो सकते हैं, अन्य नहीं। हाँ, उनको आप किसी भी नाम से नमस्कार करें। जिनसहस्रनाम में तो आचार्यों ने एक हजार आठ नामों से स्तुति करते हुये भगवान् के प्रति सभी हरिहरसूचक नामों को लिया ही है। यहाँ पर टीकाकार यह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि हे भगवन् ! जब आप मुझे मिल गये हैं फिर क्या प्रयोजन है कि मैं मुझ जैसे ही अल्पज्ञ संसारी जीवों की ईश्वर की कल्पना से उपासना करूं ? हाँ, यदि उन्हें मत्सर भाव हो कि ये मुझे क्यों नहीं नमस्कार करते हैं तब तो वे भी भवविजयी बन जावें, मैं उन्हें भी नमस्कार कर लूंगा, मुझे कुछ भी पक्षपात नहीं है।
अनुष्टुप्– वाचं वाचं यमीन्द्राणां, वक्त्रवारिजवाहनाम्।
वंदे नयद्वयायत्तवाच्यसर्वस्वपद्धतिम्।।२।।
अर्थ-वाचं यमीन्द्राणां-मुनियों में प्रधान ऐसे जिनेन्द्र भगवान का मुखकमल जिसका वाहन है अर्थात् जो जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से प्रवाहित-प्रगट हुई है तथा जो दोनों नयों के आश्रयभूत वाच्य पदार्थ, उनके सर्वस्व-सम्पूर्ण अर्थ को कहने की पद्धति-शैली रूप है, ऐसी जिनवाणी को मैं नमस्कार करता हूँ।।२।।
शालिनी– सिद्धांतोद्घश्रीधवं सिद्धसेनं।
तर्काब्जार्वंâ भट्टपूर्वाकलंकम्।।
शब्दाब्धीन्दुं पूज्यपादं च वंदे।
तद्विद्याढ्यं वीरनंिंद व्रतीन्द्रम्।।३।।
अर्थ-सिद्धांतरूपी श्रेष्ठ लक्ष्मी के पति श्री सिद्धसेन आचार्य को, तर्क न्यायकमल को विकसित करने में सूर्य ऐसे भट्टाकलंकदेव को, शब्दशास्त्र रूपी समुद्र के वर्धन में चन्द्रमा ऐसे पूज्यपाद सूरि को तथा इन विद्याओं से सहित व्रतियों में प्रधान ऐसे वीरनंदि आचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-श्री सिद्धसेन दिवाकर सन्मति, तर्क आदि सिद्धांत ग्रंथों के बनाने वाले हैं। न्यायग्रंथों में प्रधान प्रमाण संग्रह, अष्टशती आदि ग्रंथों की रचना करके न्यायरूपी कमल को विकसित करने में सूर्य के समान महान हैं। शब्दशास्त्र-जैनेन्द्र सूत्र नाम की व्याकरण की रचना करके शब्द समुद्र के बढ़ाने में चन्द्रमा के तुल्य ऐसे पूज्यपाद स्वामी प्रसिद्ध है तथा सिद्धान्त, न्याय और व्याकरण इन तीनों में विद्याओं से समृद्ध महाव्रती, मुनियों में प्रधान-आचार्य परमेष्ठी ऐसे वीरनंदि आचार्य प्रसिद्ध हैं इन्होंने भी आचारसार नाम के ग्रंथ को बनाकर मुनियों के आचार को बताया है अत: पंचाचार का पालन कराया है अतएव यहाँ ’’व्रतियों के प्रधान’’ ऐसा विशेषण इनके लिये सार्थक है। यहाँ इन चारों महान आचार्यों को पद्मप्रभमलधारिदेव नामक निर्ग्रंथ मुनिराज ने नमस्कार किया है।
अनुष्टुप्– अपवर्गाय भव्यानां, शुद्धये स्वात्मन: पुन:।
वक्ष्ये नियमसारस्य वृिंत्त तात्पर्य्यसंज्ञिकाम्।।४।।
अर्थ-भव्य जीवों को मोक्ष की प्राप्ति के लिये और पुन: अपनी आत्मा की शुद्धि के लिये मैं नियमसार की ‘‘तात्पर्यवृत्ति’’ नामक टीका को कहूँगा।
आर्या- गुणधरगणधररचितं, श्रुतधरसंतानतस्तु सुव्यक्तम्।
परमागमार्थसार्थं, वक्तुममुं के वयं मंदा:।।५।।
अर्थ-गुण को धारण करने वाले श्री गणधर देवों से रचित, श्रुतकेवली आदि श्रुतपारंगत मुनियों की अविच्छिन्न परम्परा से अच्छी तरह से व्यक्त किया गया जो परमागम है, उस परमागम के अर्थ-समूह को कहने के लिये हम मंदजन कौन हो सकते हैं ? अर्थात् ऐसे परमागम के अर्थ को कहने के लिये हम मंदबुद्धि लोग वाले समर्थ नहीं हो सकते हैं।
अनुष्टुप्-अस्माकं मानसान्युच्चै:, प्रेरितानि पुन: पुन:।
परमागमसारस्य रुच्या मांसलयाऽधुना।।६।।
अर्थ-फिर भी इस समय हमारा मन परमागम की पुष्ट रुचि से बार-बार अत्यन्त प्रेरित हो रहा है अर्थात् परमागम के प्रति जो हमारी बढ़ती हुई श्रद्धाविशेष है या वृिंद्धगत रुचिविशेष है उसी से पुन:-पुन: प्रेरित होकर ही मैं इस ग्रंथ की टीका कर रहा हूँ।
अनुष्टुप्-पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्वनवार्थका:।
प्रोक्ता: सूत्रकृता पूर्वं, प्रत्याख्यानादिसत्क्रिया:।।७।।
अर्थ-सूत्रकार ने इस ग्रंथ में प्रथम पाँच अस्तिकाय छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थ का तथा (अनंतर) प्रत्याख्यान आदि सत्क्रियाओं का वर्णन किया है अर्थात् इस ग्रंथ में प्रथम ही पाँच अस्तिकाय आदि का वर्णन है, अनंतर मुनियों के नियम-रत्नत्रय स्वरूप के अंतर्गत प्रत्याख्यान-प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं का वर्णन किया गया है।
मालिनी-जयति जगति वीर:, शुद्ध भावास्तमार:।
त्रिभुवनजनपूज्य: पूर्णबोधैकराज्य:।।
नतदिविजसमाज: प्रास्तजन्मद्रुबीज:।
समवसृतिनिवास:, केवलश्रीनिवास:।।८।।
अर्थ-जिन्होंने शुद्ध भावों के द्वारा कामदेव को समाप्त कर दिया है, त्रिभुवन की जनता से पूज्य हैं, पूर्णज्ञान-केवलज्ञान के एक अद्वितीय राज्य को प्राप्त कर लिया है, देवों के समूह से नमस्कृत हैं, जिन्होंने जन्म वृक्ष के बीज को नष्ट कर दिया है, जो समवसरण में निवास करते हैं और जिनमें केवललक्ष्मी निवास करती है ऐसे वे वीर भगवान इस जगत में जयशील होवें।
पृथ्वी- क्वचित्व्रजति कामिनीरतिसमुत्थसौख्यं जन:।
क्वचित्द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुन:।
क्वचिज्जिनवरस्य मार्गमुपलभ्य य: पंडितो।
निजात्मनि रतो भवेद्व्रजति मुक्तिमेतां हि स:।।९।।
अर्थ-यह संसारी जीव कभी तो कामिनी की रति से उत्पन्न सुख को प्राप्त करता है और कभी धन की रक्षा में अपनी बुद्धि को करता है परन्तु जो पंडित-बुद्धिमान पुरुष कभी जिनेन्द्र भगवान के मार्ग को प्राप्त करके अपनी आत्मा के स्वरूप में रत हो जाता है तो निश्चित ही इस मुक्ति अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-श्री कुंदकुंद स्वामी ने इस नियमसार ग्रंथ में मार्ग और मार्ग का फल ऐसी दो बातें बतलाई हैं। उसमें मोक्ष की प्राप्ति का उपाय तो मार्ग है और उसका फल निर्वाण है। संसारी जीव दो ही चीजों को विशेष सुखकारी मानते है-एक तो स्त्री को दूसरे धन को। इसलिये यहाँ आचार्य ने बतलाया है कि कभी यह जीव स्त्री के सुख का अनुभव करता है तो कभी धन की रक्षा में लगा रहता है किन्तु जब वही जीव इन कनक, कामिनी से अपने मन को हटाकर रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में लग जाता है तब नियम से उसके फल रूप निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
आर्या– इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुत्तमं प्रपद्याहम्।
अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगशं यामि।।१०।।
अर्थ-इस प्रकार से मैं विपरीत स्वरूप से रहित, अनुपम सर्वश्रेष्ठ रत्नत्रय को प्राप्त करके मुक्तिरूपी स्त्री से उत्पन्न अशरीरी-अतीन्द्रिय-आत्मिकसुख को प्राप्त करता हूँ।
भावार्थ-यहाँ पर नियमसार ग्रंथ में आचार्यश्री ने नियम से (अवश्य) करने योग्य कार्य को नियम कहा है और वह नियम दर्शन, ज्ञान, चारित्र है इसमें विपरीत का परिहार करने के लिये ‘सार’ शब्द लगाया है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन भेदाभेद रत्नत्रय से ही जीव मुक्तिसुख को प्राप्त कर सकता है यह अभिप्राय है।
मंदाक्रांता-मोक्षोपायो भवति यमिनां शुद्ध रत्नत्रयात्मा।
ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं दृष्टिरन्याऽपि नैव।।
शीलं तावन्न भवति परं मोक्षुभि: प्रोक्तमेतद्।
बुद्ध्वा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातु: स भव्य:।।११।।
अर्थ-शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप से परिणत अपनी आत्मा मुनियों के लिये मोक्ष प्राप्ति का उपाय है क्योंकि आत्मा ही ज्ञान है किन्तु उससे भिन्न अन्य कुछ ज्ञान नहीं है, आत्मा ही दर्शन है उससे भिन्न दर्शन भी कुछ नहीं है एवं शील भी अन्य कुछ नहीं है अर्थात् आत्मा ही शील है। ऐसा मुक्ति के इच्छुक अथवा मोक्ष को प्राप्त होने वाले श्री अरिहंतदेव ने कहा है। ऐसा जानकर वह भव्य जीव पुन: माता के गर्भ में नहीं आता है।
भावार्थ-आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्यत्र नहीं पाया जाता है इसलिये आत्मा ही रत्नत्रय स्वरूप है। इस आत्मा से भिन्न अन्य कुछ दर्शन, ज्ञान और चारित्र नहीं है। ऐसा समझकर जो मुनिराज भेद रत्नत्रय के अनंतर अभेद रत्नत्रय की उपासना करते हैं वे भव्य जीव पुन: जन्म-मरण के दु:खों से छूट जाते हैं। इस कलश की गाथा में आचार्य श्री कुंदकुंददेव ने भेद रत्नत्रय का वर्णन करके ‘‘मैं प्रत्येक का अलग-अलग वर्णन करूँगा’’ ऐसा कहा है।
आर्या- भवभयभेदिनि भगवति भवत: िंक भक्तिरत्र न समस्ति।
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि।।१२।।
अर्थ-भव के भय को भेदन करने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान में क्या आपकी सुखदायक भक्ति यहाँ नहीं है ? तब तो आप भवसमुद्र के मध्य में रहने वाले मगर के मुख के अंतर्गत ही हैं, ऐसा समझें अर्थात् यदि आप जिनेन्द्र भगवान की भक्ति नहीं करते हैं तो आप संसार समुद्र में ही डूब जायेंगे, पार नहीं हो सकेंगे। इसकी गाथा में आचार्यश्री ने आप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और आप्त का लक्षण किया है अतएव उनकी भक्ति की प्रेरणा दी गई है।
मालिनी– शतमखशतपूज्य: प्राज्यसद्बोधराज्य:।
स्मरगिरिसुरनाथ: प्रास्तदुष्टाधयूथ:।।
पदनतवनमाली भव्यपद्मांंशुमाली।
दिशतु शमनिशं नो नेमिरानंदभूमि:।।१३।।
अर्थ-जो सौ इंद्रों से पूज्य हैं, जिन्होंने उत्कृष्ट सद्बोध के राज्य-केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है, जो कामविजयी ऐसे लौकांतिक देवों के नाथ हैं, दुष्ट अष्टकर्म के समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, श्रीकृष्ण जिनके चरणों में नत हैं और जो भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य के समान हैं, ऐसे आनंद की भूमि-स्थानस्वरूप नेमिनाथ भगवान हम सभी को हमेशा सुख प्रदान करें।
इस कलश की गाथा में १८ दोष रहित अरिहंत भगवान् का वर्णन किया गया है अतएव उनके गुणों से ओतप्रोत होकर टीकाकार ने नेमिनाथ भगवान की स्तुति की है।
मालिनी– जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेरुहान्त-
र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम्।
तमपि किल यजेहं नेमितीर्थंकरेशं।
जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्द्ध्ववीचिम्।।१४।।
अर्थ-जिन भगवान के ज्ञानरूपी कमल के अंतर्गत भ्रमर के समान यह सम्पूर्ण लोक और अलोक नित्य ही स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो रहा है, निश्चित ही मैं भी ऐसे उन श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की पूजा करता हूँ, तो मैं अपनी दोनों भुजाओं के द्वारा ऊँची-ऊँची उठती हुई लहरों वाले समुद्र को भी तैरना चाहता हूँ।
भावार्थ-जिस प्रकार भ्रमर कमल पुष्प के भीतर बैठकर छोटा सा प्रतीत होता है उसी प्रकार से भगवान के ज्ञानरूपी कमल में यह सारा लोक और अलोक छोटा सा ही प्रतीत होता है क्योंकि भगवान के ज्ञान में यदि अनंत भी ऐसे लोक-अलोक आ जावें तो भी समा सकते हैं। यदि ऐसे महान नेमिनाथ की मैं स्तुति या भक्ति करना चाहता हूँ तो मैं सचमुच में ही लहरों से व्याप्त ऐसे विशाल समुद्र को मात्र भुजाओं से तैरना चाहता हूँ अर्थात् मैं ऐसे नेमिनाथ भगवान की स्तुति करने में समर्थ नहीं हूँ, असमर्थ हूँ।
इसकी गाथा में ग्रंथकार ने आप्त को दोषरहित और केवलज्ञानादि अनंत गुणों के वैभव से सहित बताया है और इसीलिये केवलज्ञान की महिमा गाई है।
हरिणी– ललितललितं शुद्धं निर्व्वाणकारणकारणं।
निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वच:।।
भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं।
प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभि:।।१५।।
अर्थ-जो जिनवचन ललित में ललित-मनोहर में भी मनोहर हैं, शुद्ध-पूर्वापर बाधा से रहित हैं, निर्वाण के कारण-भेदाभेद रत्नत्रय उसके लिये कारण हैं, संपूर्ण भव्य जीवों के कानों के लिए अमृतस्वरूप हैं, भवरूपी वन में प्रज्वलित हुई दावानल की ज्वाला को शांत करने में जल के समान हैं और जिनयोगियों के द्वारा सदा ही वंदनीय हैं ऐसे जिनवचनों की मैं प्रतिदिन वंदना करता हूँ।
इस गाथा में आगम का लक्षण बताया है एवं उनके द्वारा कथित को तत्त्वार्थ कहा है।
मालिनी– इति जिनपतिमार्गाम्भोधिमध्यस्थरत्नं।
द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम्।।
हृदि सुनिशितबुद्धिर्भूषणार्थं विधत्ते।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।१६।।
अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के मार्गरूपी समुद्र के मध्य में स्थित रत्न के समान द्युति-किरणों के समूह से देदीप्यमान जो यह छह द्रव्यों का समूह है, जो भव्य जीव तीक्ष्ण बुद्धि वाले भव्य जीव भूषण के लिये अपने हृदय में धारण करता है वह मुक्तिश्री रूपी कामिनी का इच्छित वर हो जाता है।
भावार्थ-यहाँ सम्यग्दर्शन के विषयभूत छहद्रव्यों का वर्णन है। आचार्य ने उन्हें ही ‘तत्त्वार्थ’ शब्द से कहा है। जिनेन्द्र भगवान का मार्ग तो रत्नत्रय है, उस रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन भी एक रत्न है जो कि प्रधान है और आप्त, आगम तथा तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, इसलिये सम्यग्दर्शन के विषयभूत इन छह द्रव्यों को भी यहाँ रत्न कह दिया है। जो इन छह द्रव्यरूपी रत्न को हार बनाकर गले में पहन लेते हैं, उनको रत्नों के भूषण से भूषित देखकर लक्ष्मी वरण कर लेती है अर्थात् जो इन द्रव्यों के अर्थ को समझकर अपनी श्रद्धा का विषय बनाते हैं वे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं, यह अभिप्राय हुआ।
मालिनी– अथ सकलजिनोक्तज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा।
परिहृतपरभाव: स्वस्वरूपे स्थितो य:।।
सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।१७।।
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित ज्ञान के भेदों को जान करके जो परभावों का परिहार कर चुके हैं, जो पुरुष परभावों से रहित हुए अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हुए चिच्चमत्कार मात्र आत्मा में शीघ्र ही प्रवेश करते हैं वे मुक्तिलक्ष्मी के पति हो जाते हैं।
भावार्थ-पहले गाथा में आचार्यश्री ने छह द्रव्यों का वर्णन करने को कहा था सो यहाँ जीवद्रव्य के वर्णन में जीव का लक्षण उपयोग है, उसके ज्ञान और दर्शन दो भेद हैं, इत्यादि रूप से ज्ञान का वर्णन किया है। टीकाकार ने कलश में इसी आशय से यह कहा कि जो ज्ञान के भेदों को जानकर पर भावों से रहित होते हुये अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा में ही लीन हो जाते हैं वे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
मालिनी– इति निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्य:।
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम्।।
सुकृतमसुकृतं वा दु:खमुच्चै: सुखं वा।
तत: उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति।।१८।।
अर्थ-इस प्रकार से कहे गये भेदज्ञान को प्राप्त करके भव्य जीव घोर संसार के मूल कारण पुण्य या पाप अथवा सुख और दु:ख को अत्यन्त रूप से परिहार करें-छोड़ें, पुन: उसके बाद परिपूर्ण शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेंगे।
विशेषार्थ-ग्रंथकार ने गाथा में ज्ञानोपयोग के मूल में दो भेद किये हैं-स्वभाव ज्ञान और विभावज्ञान/विभावज्ञान के संज्ञान और अज्ञान ये दो भेद कर दिये हैं। पुन: टीकाकार ने स्वभाव ज्ञान में कारणस्वभाव ज्ञान और कार्य स्वभाव ज्ञान ऐसे दो भेद किये हैं। कारणस्वभाव से केवलज्ञान को प्राप्त कराने में कारण स्वरूप ऐसा शुद्धोपयोग में होने वाला सहज ज्ञान प्रतीति में आता है और कार्य स्वभाव ज्ञान तो असहाय, अतीन्द्रिय केवलज्ञान है। विभाव ज्ञान के भी पहले संज्ञान और अज्ञान से दो भेद किये हैं, पुन: संज्ञान के मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार भेद किये हैं तथा अज्ञान के कुमति आदि तीन भेद माने हैं। इन सभी ज्ञानों में निज परमतत्त्व में निष्ठ-तन्मयरूप सहज ज्ञान को ही साक्षात् एक मोक्ष का मूल कहा है और यह भी कहा है कि इस सहजज्ञान (निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान) के द्वारा अनंतचतुष्टय से सहित और अनाथ१ जो मुक्तिसुंदरी है उसके नाथस्वरूप ऐसी अपनी आत्मा की भावना करना चाहिये।
अनुष्टुप्– परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे।
निर्व्यग्रप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुध:।।१९।।
अर्थ-बुद्धिमान पुरुष परिग्रह के आग्रह को छोड़कर और अपने शरीर मात्र परिग्रह में उपेक्षा करके निराकुल चिन्मात्र शरीर वाली अपनी आत्मा की भावना करें।
भावार्थ-पूर्व में सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके शरीर मात्र परिग्रह को ग्रहण करें पुन: वे मुनि शरीर से भी निर्मम होकर निराकुलता स्वरूप चिच्चैतन्य मात्र ही जिसका शरीर है ऐसी अपनी आत्मा की भावना करें-ध्यान करें। यहाँ यह अभिप्राय स्पष्ट है कि परिग्रह से लिप्त हुये श्रावक शरीर से उपेक्षित होकर अशरीरी आत्मा का ध्यान नहीं कर सकते हैं।
शार्दूलविक्रीडित– शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद्।
द्वेषाम्भ:परिपूर्णमानसघटप्रध्वंसनात्पावनम्।।
ज्ञानज्योतिरनुत्तमं निरुपधि प्रव्यक्ति नित्योदितं।
भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्द्यं जगन्मंगलम्।।२०।।
अर्थ-प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त राग का विलय हो जाने से, मोह का जड़ मूल से नाश हो जाने से तथा द्वेष रूपी जल से परिपूर्ण-भरे हुये मनरूपी घट के प्रध्वंस हो जाने से-फूट जाने से पवित्र, सर्वश्रेष्ठ, उपाधि रहित, नित्य उदय रूप ऐसी ज्ञानज्योति प्रगट होती है, जो कि भेदज्ञानरूपी वृक्ष का उत्तम फल है जगत में मंगलरूप है और वंद्य है-सभी से वंदनीय है।
भावार्थ-मोह, राग और द्वेष के निर्मूल विनाश हो जाने से केवलज्ञानरूपी परम ज्योति प्रगट होती है। यह कर्मों की उपाधि से रहित जगत में सर्वोत्तम है, सदैव ही उदयरूप है, कर्मरूपी बादल अब कभी इसे ढ़क नहीं सकते हैं। इस केवलज्ञान का मूल भेदविज्ञान है, इस भेदविज्ञान रूप वृक्ष से यह केवलज्ञान रूप फल उत्पन्न होता है। यह केवलज्ञान जगत में सभी प्राणियों के लिए मंगल है और पूज्य है अत: सर्व प्रयत्न करके सम्यक्त्व रूपी बीज को संयम रूपी भूमि में बोकर तपरूपी जल से सिंचित करते हुये भेदज्ञान रूपी वृक्ष को बढ़ाना चाहिये, तब इस वृक्ष से केवलज्ञानरूप फल को प्राप्त कर सकेंगे यह अभिप्राय हुआ।
मंदाक्रांता-मोक्षे मोक्षे जयति सहजज्ञानमानन्दतानं।
निर्व्याबाधं स्फुटितसहजावस्थमन्तर्मुखं च।।
लीनं स्वस्मिन्सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे।
स्वस्य ज्योति:प्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम्।।२१।।
अर्थ-आनन्द से तन्मय-आनन्दस्वरूप अव्याबाध-बाधाओं से रहित, ऐसा सहज-स्वाभाविक ज्ञान मोक्षो-मोक्ष में जयशील हो रहा है। जिसकी सहज स्वाभाविक अवस्था प्रकट हो गई है, जो अंतर्मुख-आत्मा के अंतरंग में प्रगट है, सहज विलासरूप चिच्चमत्कार मात्र अपनी आत्मा में लीन है-तन्मय है, जिसने अपनी ज्योति से सम्पूर्ण अंधकार अवस्था को नष्ट कर दिया है और जो नित्य ही सुन्दर है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में-कर्मरहित अवस्था में जयशील हो रहा है।
अनुष्टुप्– सहजज्ञानसाम्राज्यसर्वस्वं शुद्धचिन्मयम्।
ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम्।।२२।।
अर्थ-सहज स्वाभाविक ज्ञानरूपी साम्राज्य ही जिसका सर्वस्व है-सब कुछ है। ऐसी शुद्ध चिन्मय स्वरूप मेरी आत्मा को जानकर मैं निर्विकल्प होता हूँ अर्थात् पूर्ण ज्ञानस्वरूप अपनी आत्मा को समझ करके मैं संकल्प-विकल्पों को छोड़ रहा हूँ।
इंद्रवङ्काा– दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकमेकमेव।
चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्त्वम्।।
मुक्तिस्पृहाणामयनं तदुच्चै।
रेतेन मार्गेण विना न मोक्ष:।।२३।।
अर्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप एक ही चैतन्य-सामान्य अपना आत्मतत्त्व है। मुक्ति की इच्छा करने वालों के लिये अतिशय रूप से वह मार्ग है, क्योांfक इस मार्ग के बिना मोक्ष नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। अभेद रत्नत्रय से भी इन तीनों की एकाग्र्य परिणति होती है। वही चैतन्य सामान्य निजात्म तत्त्व है, उस अद्वैत रूप आत्मतत्त्व को प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं हो सकता है।
विशेषार्थ-इस प्रकरण की गाथा में आचार्यश्री ने दर्शनोपयोग के दो भेद किये हैं-स्वभाव और विभाव। स्वभाव से केवलदर्शन को लिया है और विभाव से अगली गाथा में यह चक्षु, अचक्षु अवधि दर्शन को लिया है। यहाँ भी टीकाकार ने स्वभाव दर्शन के कारण दृष्टि और कार्यदृष्टि से दो भेद कर दिये हैं। उनमें से केवलदर्शन को कार्यदृष्टि कहा है तथा आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान मात्र ऐसा जो निश्चय सम्यग्दर्शन है उसी को कारण दृष्टि कहा है। यहाँ पर टीकाकार ने दर्शनोयोग से जो श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन अर्थ किया है यह एक विशेष बात है। परमात्मप्रकाश में श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है-
सयलपयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ।
वत्थुविसेसविवज्जियउ तं णिय दंसणु जोइ।।
जो जीवों के ज्ञान के पहले सभी पदार्थों का ‘‘यह श्वेत है’’ इत्यादि भेदरहित ग्रहण करना है वह निज आत्मा का दर्शन है, ऐसा तू जान।
टीकाकार ने प्रश्नोत्तर भी किये हैं-‘‘निजात्मा का अवलोकन दर्शन है’’ यहाँ आपने ऐसा कहा है और सत्तावलोकन दर्शन तो मिथ्यादृष्टि जीवों में है तो उनको भी मोक्ष हो जावेगा तब उत्तर देते हैं कि चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शन इन चारों में से मानसं अचक्षुदर्शन आत्मा को ग्रहण करने वाला है और वह सम्यक्त्व के अभाव में मिथ्यादृष्टि को नहीं होता है।
मालिनी– अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं।
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम्।।
भजति निशितबुद्धिर्य: पुमान् शुद्धदृष्टि:।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।२४।।
अर्थ-जो तीक्ष्ण बुद्धि वाला, शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुष पर भावों के होने पर भी सहज गुणरूपी मणियों की खानस्वरूप तथा पूर्ण ज्ञानरूप ऐसी अपनी शुद्धात्मा को भजता है (आश्रय लेता है) वह मुक्तिश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ हो जाता है।
विशेषार्थ-ग्रंथकार ने गाथा में विभाव दर्शनोपयोग के तीन भेद और उनके लक्षण बतलाये हैं। पुन: पर्याय का कथन करते हुये अर्थ और व्यंजन के भेद से पर्याय के दो भेद किये हैं। इनमें अर्थ पर्याय को शुद्ध पर्याय एवं व्यंजन पर्याय को अशुद्ध पर्याय कहा है।
टीकाकार यहाँ यह बतला रहे हैं कि संसार अवस्था में पौद्गलिक कर्मोदय के निमित्त से प्रतिसमय जीव में विभाव गुण और विभाव पर्याय के होने से विभावरूप परिणाम रहेंगे। पुन: वह जीव शुद्ध अवस्था को वैâसे प्राप्त होगा? और शुद्ध परिणाम करके शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान भी वैâसे कर सकेगा ? इसी शंका को मन में रखकर ही टीकाकार समाधान करते हुये बता रहे हैं कि जो सम्यग्दृष्टि और भेदविज्ञानी जीव परभावों के विद्यमान रहते हुये भी निश्चयनय का अवलंबन लेकर अनंत गुणों के पुंज स्वरूप, अनंत ज्ञानवान, ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं वे मुक्तिलक्ष्मी के अधिपति हो जाते हैं।
मालिनी– इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां।
हृदयसरसि जाते राजते कारणात्मा।।
सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं।
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूलसत्वम्।।२५।।
अर्थ-इस प्रकार पर गुण और पर पर्यायों के होने पर भी उत्तम पुरुषों के हृदयकमल में कारण आत्मा विराजमान है। हे भव्योत्तम ! अपने से ही उत्पन्न परमब्रह्मरूप उस समयसार को तू शीघ्र ही भज, जिसे कि भज रहा है।
भावार्थ-यद्यपि आत्मा में मतिज्ञानादि विभावगुण और नर-नारकादि विभाव पर्यायें विद्यमान हैं फिर भी आचार्य कहते हैं कि इन विभावगुण पर्यायों के विद्यमान रहने पर भी उत्तम पुरुषों-अंतरात्मा भव्य जीवों के द्वारा हृदय कमल में कारण आत्मा-बीज रूप परमात्मा विराजमान है। आचार्य संबोधन करते हुये प्रेरणा देते हैं कि भव्य सिंह! अपने से ही उत्पन्न परम ब्रह्मस्वरूप और समयसार स्वरूप अपनी शुद्ध आत्मा को भजो-अपनी आत्मा का ही ध्यान करो। वास्तव में ‘‘सव्वे शुद्धा हु सुद्धणया’’ इस कथन के अनुसार ‘‘सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध ही हैं’’ ऐसा समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध समझकर उसी का ध्यान करो। संसारी जीवों में जो आत्मा विराजमान है वही परमात्मा के लिये कारणस्वरूप कारण आत्मा कहलाती है और जब परमात्म अवस्था प्रगट हो जाती है तब वही आत्मा कार्य आत्मा कहलाती है इसीलिये देहरूपी देवालय में भगवान आत्मा विराजमान है तुम उसी का ध्यान करो, ऐसा यहाँ अभिप्राय है।
पृथ्वी– क्वचिल्लसति सद्गुणै: क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणै:।
क्वचित्सहजपर्ययै: क्वचिदशुद्धपर्य्यायवै:।।
सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं।
नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्ध्यै सदा।।२६।।
अर्थ-यह जीव तत्त्व कहीं पर अपने सद्गुणों से शोभायमान हो रहा है और कहीं अशुद्ध गुणों से दिख रहा है। कहीं पर स्वभाव पर्यायों से शोभित हो रहा है और कहीं पर अशुद्ध पर्यायों से शोभ रहा है। इन सभी से सहित होने पर भी इन सबसे रहित है, ऐसे इस जीवतत्त्व को मैं सदा सकल अर्थ की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूँ और उसी तत्त्व की ही भावना करता हूँ।
भावार्थ-यह जीव तत्त्व व्यक्त रूप से तो सिद्ध अवस्था में अपने स्वाभाविक गुण पर्यायों से रहित और संसार अवस्था में वैभाविक गुण पर्यायों से सहित है अथवा शक्ति रूप से (निश्चयनय की दृष्टि से) संसार अवस्था में भी शुद्ध गुण पर्यायों से सहित है और व्यवहारनय से अशुद्ध गुण पर्यायों से सहित है किन्तु जब एक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का अवलंबन लेकर विचार करते हैं तब इस जीवतत्त्व में गुण और पर्यायें प्रतिभासित नहीं होती हैं अर्थात् वे गौण हो जाती हैं। मात्र अद्वैत एक रूप आत्मतत्त्व ही प्रतिभासित होता है। यहाँ टीकाकार सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिये अथवा जो सकलार्थ-मोक्षरूप अर्थ-प्रयोजन है उसी की सिद्धि के लिये उस आत्मतत्त्व को ही नमस्कार करते हैं और उसी की बारम्बार भावना करते हैं।यहाँ अभिप्राय यह है कि निश्चयनय और व्यवहारनय से वस्तु के शुद्ध-अशुद्ध गुण, पर्यायों को जान करके पुन: दोनों नयों के अवलम्बन से रहित मात्र शुद्ध आत्मतत्त्व को नमन करना चाहिये और बारंबार उसी को ही भाना चाहिये।
मालिनी– अपि च बहुविभावे सत्यं शुद्धदृष्टि:।
सहजपरमतत्त्वाभ्यासनिष्णातबुद्धि:।।
सपदि समयसारान्नान्यदस्तीति मत्त्वा।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूप:।।२७।।
अर्थ-सहज परम तत्त्व के अभ्यास में प्रवीण है बुद्धि जिसकी, ऐसा भेदविज्ञानी यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव बहुत प्रकार के विभावों के होने पर भी समयसार से भिन्न अन्य कुछ नहीं है, इस प्रकार मान कर शीघ्र ही मुक्ति लक्ष्मी का वर हो जाता है।
विशेषार्थ-ग्रंथकार ने गाथा में स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय का वर्णन किया है। पुन: टीकाकार ने स्वभाव पर्याय के कारण शुद्ध पर्याय और कार्य शुद्धपर्याय ऐसे दो भेद कर दिये हैं। निश्चयनय से परम पारिणामिक भाव की परिणति को कारण शुद्ध पर्याय कहा है एवं परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की परिणति को कार्य शुद्ध पर्याय कहा है अथवा छहों द्रव्यों में साधारण ऐसी सूक्ष्म अर्थ पर्याय को शुद्ध पर्याय और नर-नारकादि व्यंजन पर्यायों को अशुद्ध पर्याय कहा है।यहाँ कलश में टीकाकार कहते हैं कि संसार अवस्था में अशुद्ध पर्याय रूप बहुत प्रकार के विभावों के होने पर भी सम्यग्दृष्टि तत्त्व अभ्यासी ‘‘भेदविज्ञानी पुरुष’’ समयसार (शुद्ध आत्मा) से भिन्न अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है, ऐसा दृढ़ निश्चय करके निर्विकल्प ध्यान में लीन हो जाते हैं, वे शीघ्र ही कर्मों से रहित हो जाते हैं।
मंदाक्रांता-स्वर्गे वास्मिन्मनुजभुवने खेचरेन्द्रस्य दैवा।
ज्ज्योतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे।।
अन्यस्मिन् वा जिनपति भवने कर्मणां नोऽस्तु सूति:।
भूयो भूयो भवतु भवत: पादपंकेजभक्ति:।।२८।।
अर्थ-हे भगवन् ! दैवयोग से मैं स्वर्ग में होऊँ अथवा इस मनुष्यलोक में होऊं, विद्याधरों के स्थान में होऊँ, ज्योतिर्लोक में, नागेन्द्र के नगर में, नारकों के निवास में अथवा अन्य किसी भी स्थान पर होऊँ या जिनेन्द्र भगवान के मंदिर में होऊं किन्तु मुझे कर्मों की सूति-उत्पत्ति न होवे और पुन:-पुन: आपके चरण कमल की भक्ति बनी रहे।
विशेषार्थ-ग्रंथकार श्री कुंदकुंददेव ने विभाव पर्यायों का वर्णन करते हुये जीव की चारों गति संबंधी विभाव पर्यायों को बताया है। उसमें मनुष्यों के कर्मभूमि और भोगभूमि की अपेक्षा दो भेद किये हैं। नारकियों के सात पृथ्वी की अपेक्षा सात भेद किये हैं। तिर्यंचों के चौदह जीवसमास की अपेक्षा चौदह भेद और देवों के चार निकाय की अपेक्षा चार भेद किये हैं।
यहाँ पर टीकाकार उपर्युक्त गाथा के भाव को हृदय में धारण करके यह प्रार्थना कर रहे हैं कि हे भगवन् ! इन विभाव पर्याय रूप चारों गतियों में से मैं कहीं पर भी क्यों न होऊं अथवा मैं जिनमन्दिर में ही क्यों न होऊं बस मेरे कर्मों का आस्रव न हो तथा पुन:-पुन: आपके चरणकमल की भक्ति मिलती रहे। यह इस कलश का अभिप्राय है।
शार्दूलविक्रीडित-नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च ।
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र िंक जडमते पुण्यार्जितास्तेननु ।
तच्छक्तिर्जिननाथपादकमलद्वन्द्वार्चनायामियं ।
भक्तिस्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगा: स्युरेले त्वयि।।२९।।
अर्थ-नराधिपतियों के नाना प्रकार के वैभवों को सुनकर तथा देखकर हे जड़बुद्धि! तू व्यर्थ ही क्यों क्लेशित होता है ? सचमुच में वे वैभव तो पुण्य के फल हैं। उन वैभवों को प्राप्त कराने की शक्ति तो जिनेन्द्र भगवान के पादकमल युगल की अर्चना में ही है और यदि यह जिनेन्द्रभक्ति तुझमें है तो ये अनेक प्रकार के भोग तुझे (स्वयं ही) प्राप्त हो जावेंगे।
भावार्थ-गाथा में ग्रंथकार ने यह संकेत किया था कि चारों गतियों के जीवों का विशेष वर्णन लोकविभाग आदि ग्रंथों से जान लेना चाहिये। कदाचित् कोई शिष्य लोकविभाग, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों को पढ़ते समय मनुष्यों में चक्रवर्ती आदि के अथवा देवों में इंद्रादिकों के विशेष वैभवों को पढ़े या सुने अथवा किन्हीं पुण्यात्माओं के वैभवों का अवलोकन करके अपने आपमें वैभवहीन होने से दु:खी होने लगे तो टीकाकार कलश द्वारा उसे संबोधन करते हैं कि अरे मूर्ख ! तू इन वैभवशालियों के वैभव को सुनकर या देखकर क्यों खेदखिन्न हो रहा है ? और वास्तव में ये तो पुण्य से ही प्राप्त हुये हैं और वह पुण्य जिनेन्द्र भगवान की उपासना से प्राप्त होता है। उत्तम से उत्तम वैभव भी जिनेन्द्रभक्ति के ही फल हैं अत: तू जिनभक्ति में तत्पर हो जा, तुझे बिना मांगे ही ये चक्रवर्ती के, सौधर्म इंद्र के तथा तीर्थंकर के वैभव तक प्राप्त हो जावेंगे, चिंता क्यों करता है?
श्रीसमंतभद्रस्वामी ने कहा भी है-
देवेन्द्रचक्रमहिमान ममेयमानं, राजेन्द्र-चक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम्।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य:।।४१।।
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करने वाला सम्यग्दृष्टि भव्य जीव अमितमान स्वरूप देवेन्द्र चक्र की महिमान को-सौधर्म इन्द्र के पद को प्राप्त करता है, पुन: बड़े-बड़े राजाओं के मस्तक से नमित ऐसे चक्रवर्ती पद को प्राप्त करता है, अनंतर सर्व जगत में श्रेष्ठ, धर्मचक्र को चलाने वाले ऐसे तीर्थंकर पद को प्राप्त करके अंत में मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
मालिनी– अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको य:।
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात्।।
सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा।
स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्त:।।३०।।
अर्थ-सम्पूर्ण मोह-रागद्वेष से सहित है तो भी जो पुरुष परम गुरु के चरणकमल युगल की सेवा के प्रसाद से निश्चित ही निर्विकल्प रूप सहज समयसार को जान करके (स्थिर होता है) वह मुक्तिश्रीरूपी स्त्री का स्वामी हो जाता है।
विशेषार्थ-आचार्य महोदय ने ग्रंथ में आत्मा को व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता कहा है तथा निश्चयनय से कर्म से उत्पन्न हुये भावों का कर्ता भोक्ता माना है। टीकाकार ने नय विवक्षा को और अधिक स्पष्ट करते हुये निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा को द्रव्य कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता माना है और अशुद्ध निश्चयनय से सकल मोह, राग, द्वेष आदि भावों का कर्ता, भोक्ता माना है तथा अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से घट-पट अदि का कर्ता माना है।इसी आशय को लेकर टीकाकार ने कलश के काव्य में यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि यह संसारी आत्मा राग, द्वेष, मोह आदि भावों से परिणत है तो भी यदि वह जिनदेव की भक्ति के प्रसाद से निर्विकल्पस्वरूप समयसार-शुद्ध आत्मतत्त्व को जान लेता है तो वह उसमें तन्मय होकर मुक्तिलक्ष्मी का पति हो जाता है।
अनुष्टुप्-भावकर्म-निरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम्।
द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम्।।३१।।
अर्थ-भावमकर्म के निरोध से द्रव्यकर्म का निरोध होता है और द्रव्यकर्म के निरोध से संसार का निरोध होता है।
भावार्थ-जब यह जीव शुद्ध आत्मतत्त्व के ध्यान रूप निर्विकल्प समाधि में लीन होता है तो उस समय भावकर्म का निरोध हो जाता है अर्थात् राग-द्वेष आदि परिणाम उत्पन्न नहीं होते हैं। उन भावकर्मों के रुक जाने से आते हुये द्रव्यकर्म भी रुक जाते हैं क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता है। पुन: द्रव्यकर्म के न आने से संसार का निरोध-अभाव हो जाता है। निर्विकल्प ध्यान रूप सातवें, आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक भावकर्म न होते हुये भी अबुद्धिपूर्वक विद्यमान है किन्तु दसवें में मोहनीय कर्म का पूर्णतया अभाव हो जाने बारहवें में पूर्णतया भावकर्म का अभाव हो जाता है। पुन: तेरहवें में सयोगकेवली के योग के निमित्त से सातावेदनीय का आस्रव, बंध होते हुये भी वह ईर्यापथ आस्रव और एक समय स्थिति वाला बंध होने से कार्यकारी नहीं है अत: विवक्षित नहीं है। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाने से द्रव्य का निरोध होता है। अनंतर चौदहवें गुणस्थान के अंत में संसार का निरोध होकर मोक्ष हो जाता है।इस सातवें गुणस्थान की निर्विकल्प अवस्था के पूर्व चौथे, पाँचवे और छठे गुणस्थान में जितने-जितने अंशों में राग, द्वेषादि भावकर्मों का अभाव होता है उतने-उतने अंशों में ही द्रव्यकर्मों का संवर होता है। जैसे कि मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में १९ तथा २५ प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति हो जाने से चतुर्थ गुणस्थान में ४१ प्रकृतियों का संवर हो जाता है इत्यादि। इस प्रकरण को कर्मकांड आदि ग्रंथों से स्पष्ट समझ लेना चाहिये।
बसंततिलका-संज्ञानभावपरिमुक्तविमुग्धजीव: ।
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म।।
निर्मुक्तिमार्गमणुमप्यभि वांछितुं नो।
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके।।३२।।
अर्थ-जो सम्यग्ज्ञान से रहित मूढ़ जीव है, वह अनेक प्रकार के शुभ-अशुभ कर्मों को करता हुआ मुक्ति के मार्ग को अणुमात्र भी वांछना नहीं जानता है, उसको इस संसार में शरण नहीं है।
भावार्थ-जो जीव सम्यग्ज्ञान से शून्य है, मोही हैं वे जीव हमेशा अनेकों प्रकार के कर्मों का बंध किया करते हैं। वे जीव मुक्ति के मार्ग को िंकचित् भी नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि उनको इस संसार में कोई भी शरण नहीं है क्योंकि इस संसार में सचमुच यदि कोई शरण है तो एक अपनी आत्मा ही है अथवा व्यवहार से पंचपरमेष्ठी शरणभूत हैं किन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव हैं उन्होंने ना तो अपनी आत्मा के स्वरूप को समझा है क्योंकि वे शरीर को ही आत्मा मान रहे हैं और ना वे सच्ची श्रद्धा से परमेष्ठी का ही आश्रय ले सकते हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि होने से सच्चे देव शास्त्र गुरु के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं अथवा उनसे द्वेष रखने वाले हैं इसलिये उन्हें संसार में कोई भी शरण नहीं है।
बसंततिलका-य: कर्मशर्म्मनिकरं परिहृत्य सर्वं।
नि:कर्मशर्म्मनिकरामृतवारिपूरे।।
मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं।
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्य:।।३३।।
अर्थ-जो सम्पूर्ण कर्म से जनित सुखसमूह को छोड़ देता है। वह भव्य जीव निष्कर्म-कर्म से रहित, सुख समूह रूपी अमृत के सरोवर में मग्न हुए ऐसे अतिशय चैतन्यस्वरूप एकरूप अपने इस अद्वैत भाव को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-जो जीव इंद्रिय सुखों को छोड़कर अपनी शुद्ध आत्मा का आश्रय लेता है वह अतीन्द्रिय, अद्वैत-एक रूप, अतिशय, अतीन्द्रिय सुख के कारणस्वरूप निज स्वभाव को प्राप्त करके अतीन्द्रिय सुख को भी प्राप्त कर लेता है। मतलब जब तक विषय सुखों का त्याग नहीं होता है तब तक आत्मा के सुख का आनन्द नहीं आता है, यह अभिप्राय हुआ।
मालिनी– असति सति विभावे तस्य िंचतास्ति नो न:।
सततमनुभवाम: शुद्धमात्मानमेकम्।।
हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं।
न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात्।।३४।।
अर्थ-विभाव भाव हों चाहे न हों, हमें उसकी िंचता नहीं है। हम तो हृदयकमल में विराजमान, सम्पूर्ण कर्मों से रहित शुद्ध ऐसी एक आत्मा का ही सतत अनुभव करते हैं क्योंकि इससे भिन्न अन्य प्रकार से निश्चित ही मुक्ति नहीं है, नहीं है।
भावार्थ-मतलब यह है कि जब तक हम यह चिन्ता करते रहेंगे कि हमारे अन्दर विभाव भाव मौजूद हैं, वैâसे अपने स्वभाव का ध्यान करें ? तो कभी भी न विभाव भाव हटेंगे और न शुद्ध आत्मा का ध्यान हो सकेगा अतएव आचार्य कहते हैं कि विभावभाव हों चाहे न हों हमें इस बात की कोई भी चिन्ता नहीं है क्योंकि निश्चयनय से कर्मों से रहित शुद्ध आत्मा का ही मैं अनुभव करता हूँ। अन्यत्र ग्रंथों में भी ऐसा बताया है कि जैसे हीरे की खान से हीरा और कोयले की खान से कोयला निकलता है उसी प्रकार से जब तक यह जीव अपने को अशुद्ध समझता है तब तक अशुद्ध ही रहता है और जब अपने को शुद्ध समझ लेता है तब शुद्ध हो जाता है। उसके सिवाय अन्य किसी प्रकार से मुक्ति हो नहीं सकती है यह अकाट्य नियम है। ऐसा इस कलश का अभिप्राय है। हाँ, इतना अवश्य समझ लेना चाहिये कि पहले व्यवहार रत्नत्रयनय को धारण करके मुनिराज अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करते हुये ध्यान में शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं न कि भेद रत्नत्रय के बिना ही। कोई अव्रती या देशव्रती यदि अपने को शुद्ध मान ले और आगे के देशचारित्र या सकलचारित्र से प्रमादी बना रहे तो वह शुद्ध आत्मा का ध्यान भी नहीं कर सकता है और शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता है।
मालिनी– भविनि भवगुणा: स्यु: सिद्धजीवेपि नित्यं।
निजपरमगुणा: स्यु: सिद्धसिद्धा: समस्ता:।।
व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि-
र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम्।।३५।।
अर्थ-संसारी जीव में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में भी नित्य ही समस्त सिद्धि में सिद्ध हुये (परिपूर्ण) निज स्वाभाविक परम गुण होते हैं। यह व्यवहारनय है-व्यवहारनय का कथन है किन्तु निश्चयनय से न तो सिद्धि-मुक्ति ही है और न संसार ही है, यह बुद्धिमान पुरुषों का निर्णय है।
भावार्थ-यहाँ बुद्धिमान पुरुषों से निर्विकल्प समाधि में स्थित हुये भेदज्ञानी ही विवक्षित हैं क्योंकि वे ही व्यवहार और निश्चयनय के विकल्पों से अतीत-परे होकर निर्विकल्प ध्यान में मात्र शुद्ध आत्मतत्त्व का अनुभव करते हैं, ऐसा अभिप्राय है।
मालिनी– अथ नययुगयुिंक्त लंघयन्तो न संत:।
परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफा: ।।
सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति।
क्षितिषु परमतोक्ते: िंक फलं सज्जनानाम्।।३६।।
अर्थ-जो सत्पुरुष दोनों नयों की मुक्ति का उल्लंघन न करते हुये परम जिन भगवान के चरणकमल युगल के मत्त भ्रमर हैं वे शीघ्र ही समयसार को निश्चित प्राप्त कर लेते हैं। इस पृथ्वीतल पर परमत के कथन से सज्जनों को क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है।
विशेषार्थ-श्री कुंदकुंददेव ने गाथा में यह बतलाया है कि द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्वकथित पर्यायों से भिन्न-रहित हैं तथा पर्यायार्थिक नय से अर्थ और व्यंजन इन दोनों पर्यायों से सहित हैं। पुन: टीकाकार ने दोनों नयों की सफलता बतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि ये दोनों नय जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये हैं इसलिये दोनों नयों के आश्रित उपदेश को ग्रहण करना चाहिये किन्तु एक नय के आश्रित नहीं।नयों की विवक्षा से कथन करते हुये यह बात भी स्पष्ट की है कि सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से मुक्त और संसारी सभी जीव सभी व्यंजन पर्यायों से भिन्न हैं, क्योंकि सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध ही हैं तथा मुक्त जीवों को भी भूत नैगमनय की अपेक्षा अशुद्ध व्यंजन पर्याय से सहित अशुद्ध संसारी कह दिया है अर्थात् दोनों नयों से सभी जीव कथंचित् शुद्ध हैं और कथंचित् अशुद्ध हैं। इन नयों के क्रम का उल्लंघन करते हुये जो भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान के चरणकमल युगल में लीन हुये भ्रमर के समान, सच्चे भक्त सम्यग्दृष्टी हैं वे ही समयसार स्वरूप अपनी आत्मा की शुद्धावस्था को प्राप्त कर लेते हैं। जिनेन्द्र भगवान के वचनों के श्रवण का यह प्रयोजन है किन्तु अन्य सम्प्रदाय वालों के वचनों के सुनने से वास्तव में कोई भी लाभ नहीं है। ऐसा समझकर सदैव जिनवचनों का ही अभ्यास करना चाहिये।इस प्रकार भगवान कुंदकुंद रचित नियमसार की उन्तीस गाथाओं की श्री पद्मप्रभमलधारी देव मुनिराज कृत टीका में छत्तीस कलश काव्यों द्वारा भाषानुवाद रूप यह जीवाधिकार नाम का प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।