५.१ सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य श्री नेमिचन्द्र द्वारा रचित द्रव्यसंग्रह में वर्णित जीव के नौ अधिकारों का पृथक्-पृथक् निरूपण किया जा रहा है-
उनमें से सर्वप्रथम जीव का लक्षण बताते हैं-
तिक्काले चदुपाणा, इंदिय बलमाउ आणपाणो य।
ववहारा सो जीवो, णिच्चयणयदो दु चेदणाजस्स।।३।।
जिसके व्यवहार नयापेक्षा, तीनों कालों में चार प्राण।
इन्द्रिय बल आयू औ चौथा, स्वासोच्छ्वास ये मुख्य जान।।
निश्चयनय से चेतना प्राण, बस जीव वही कहलाता है।
ये दोनों नय से सापेक्षित, होकर पहचाना जाता है।।३।।
जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से चेतना प्राण है, वह जीव कहलाता है।
उवओगो दुवियप्पो, दंसण णाणं च दंसणं चदुधा।
चक्खु अचक्खू ओही, दंसणमध केवलं णेयं।।४।।
उपयोग कहा है दो प्रकार, दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो।
पहले दर्शन के चार भेद, उससे आत्मा को पहचानो।।
चक्षूदर्शन बस नेत्रों से, होता अचक्षुदर्शन सबसे।
अवधीदर्शन केवलदर्शन, ये दोनों आत्मा से प्रगटें।।४।।
णाणं अट्ठवियप्पं, मदिसुदओही अणाणणाणाणी।
मणपज्जयकेवलमवि, पच्चक्ख परोक्खभेयं च।।५।।
ज्ञानोपयोग के आठ भेद, उनमें मति श्रुत और अवधि जान।
मिथ्या सम्यक् के आश्रय से, छह हो जाते ये तीन ज्ञान।।
मनपर्यय केवलज्ञान इन्हीं, में भेद प्रत्यक्ष परोक्ष कहे।
मति श्रुत परोक्ष केवल प्रत्यक्ष, बाकी त्रय देश प्रत्यक्ष कहे।।५।।
‘‘उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञान और दर्शन। दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान। इनके प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो भेद भी माने गये हैं। मति, श्रुत तथा कुमति और कुश्रुत ये परोक्ष हैं। अवधि, मन:पर्यय तथा कुअवधि ये एकदेश प्रत्यक्ष हैं एवं केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।’’
वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे।
णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो।।७।।
रस पाँच वर्ण भी पाँच गंध, द्वय आठ तथा स्पर्श कहे।
निश्चयनय से नहिं जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।।
व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो।
एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।।
पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये जीव में नहीं हैं चूँकि ये बीस गुण पुद्गल के हैं अत: जीव अमूर्तिक है तथा जीव के साथ कर्मबंध लग रहा है इसलिए व्यवहारनय से मूर्तिक है।
पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्चयदो।
चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं।।८।।
व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता।
होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।।
है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्धभाव का ही कर्ता।
जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दुख का हर्ता।।८।।
यहाँ तात्पर्य यही समझना कि प्रत्येक आत्मा संसार अवस्था में ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का कर्ता है, अशुद्ध निश्चयनय से राग, द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से संसारी आत्मा ही अपने शुद्ध भावों का कर्ता है क्योंकि शुद्धनय से आत्मा सदा शुद्ध ही है, कर्मों का संबंध उसके है ही नहीं।
उसी प्रकार से यह जीव कर्मों के फल का भोक्ता भी है-
ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि।
आदा णिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स।।९।।
आत्मा व्यवहारनयाश्रय से, पुद्गल कर्मों के फल नाना।
सुख-दु:खों को भोगा करता, निज सुख को किंचित् नहिं जाना।।
निश्चयनय से निज आत्मा के, चेतन भावों का भोक्ता है।
निज शुद्ध ज्ञान दर्शन सहजिक, उनका ही तो अनुभोक्ता है।।९।।
यह आत्मा व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों के फल ऐसे सुख और दु:खों को भोगता है तथा निश्चयनय से अपनी आत्मा के शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप चैतन्य भावों का ही भोक्ता है।
यह जीव निश्चयनय से लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी व्यवहार से अपने शरीर प्रमाण है-
अणुगुरुदेह-पमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।
असमुहदो ववहारा, णिच्चयणयदो असंखदेसो वा।।१०।।
यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्वतनु में ही।
संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।।
हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी।
निश्चयनय से होते प्रदेश, हैं संख्यातीत लोक सम ही।।१०।।
समुद्घात के अतिरिक्त यह जीव व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेशी है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैं, ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते हैं।
पुढविजलतेउवाऊ, वणप्फदी विविहथावरेइंदी।
विगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी।।११।।
पृथ्वी, जल, अग्नी, वायुकाय, औ वनस्पतिकायिक जानो।
एकेन्द्रिय स्थावर पाँच कहे, इनके सब भेद विविध मानो।।
दो इन्द्रिय, त्रीिन्द्रय, चतुरिन्द्रिय, औ पंचेन्द्रिय त्रस माने हैं।
जो शंख, पिपील, भ्रमर, मानव, आदिक से जाते जाने हैं।।११।।
समणा अमणा णेया, पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे।
बादरसुहुमेइंदी, सव्वे पज्जत्त इदरा य।।१२।।
पंचेन्द्रिय संज्ञि-असंज्ञी दो, इनसे अतिरिक्त सभी प्राणी।
होते मन रहित असंज्ञी ही, विकलेन्द्रिय तीन भेद प्राणी।।
एकेन्द्रिय बादर-सूक्ष्म कहे, ये सात भेद हो जाते हैं।
पर्याप्त-अपर्याप्तक दो से, ये चौदह भेद कहाते हैं।।१२।।
पंचेन्द्रिय जीव सैनी-असैनी ऐसे दो प्रकार के होते हैं, शेष सब जीव असैनी ही हैं। एकेन्द्रिय जीव बादर-सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। ये सभी जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं अत: चौदह जीव समास हो जाते हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है कि-
पंचेन्द्रिय सैनी, पंचेन्द्रिय असैनी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय ये सात हैं, इन सातों के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद कर देने से चौदह भेद हो जाते हैं। इन्हें ही चौदह जीवसमास कहते हैं।
णिक्कम्मा अट्ठगुणा, िंकचूणा चरमदेहदो सिद्धा।
लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता।।१४।।
निष्कर्म जीव सब कर्मरहित, वे सिद्ध अष्ट गुण से युत हैं।
अन्तिम शरीर से किंचित् कम, उत्पाद और व्यय संयुत हैं।।
स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करके, वे नित्य निरंजन परमात्मा।
लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, अनुपम गुणशाली शुद्धात्मा।।१४।।
जो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, वे सिद्ध आत्मा हैं। ये ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं।
जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊर्ध्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है।