जिसमें चेतना गुण है, वह जीव है। जीव का असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने व देखने रूप है अर्थात् जो देखता है और जानता है, वह जीव है। ज्ञान-दर्शन जीव का गुण या स्वभाव है। कोई जीव बिना ज्ञान के नहीं होता है। सबसे कम प्रकट ज्ञान निगोद में अक्षर के अनन्तवें भाग के बराबर होता है और सबसे अधिक प्रकट ज्ञान अरहंत व सिद्ध में होता है। जीव में चार या अधिक प्राण होते हैं।
जैन दर्शन में जीव देखने-जानने वाला, अमूर्तिक, कर्ता, भोक्ता और अपने उत्थान-पतन के लिये स्वयं उत्तरदायी है। जीवों की संख्या स्थिर रहती है, घटती-बढ़ती नहीं है। वह यद्यपि अमूर्तिक है, लेकिन संसार अवस्था में कर्म से संयुक्त है। यह ऊर्ध्व स्वभाव वाला है। चूँकि यह जीव जीवित था, जीवित है और जीवित रहेगा, इसलिये इसे ‘‘जीव’’ कहते हैं। सिद्ध भगवान भी अपनी पूर्व पर्याय में जीवित थे, वर्तमान में जीवित हैं और भविष्य में भी जीवित रहेंगे, अतः वे भी जीव हैं। इन्हें हम मुक्त जीव कहते हैं।
मानव शरीर तो मूर्तिक है और वह पुद्गल है। इस शरीर के अन्दर जो चेतन पदार्थ है, वह जीव है। यह अमूर्तिक है। इस प्रकार मानव शरीर जीव का शरीर मात्र है, जीव नहीं है। समझाने हेतु मानव शरीर को जीव व अजीव की मिलीजुली पर्याय कहा जाता है।
जीव असंख्यात प्रदेशी होता है किन्तु कर्मों के निमित्त से वह सदा शरीर आकार प्रमाण रहता है। केवली-समुद्घात के समय इसका आकार तीन लोक प्रमाण हो जाता है और समुद्घात के अलावा अन्य कालों में नियम से शरीर प्रमाण रहता है, न कम न ज्यादा।
जीव अमूर्तिक और अखंडित पदार्थ है जिसे न तो तोड़ा जा सकता है और न जोड़ा जा सकता है। किन्तु सभी जीवों में संकोच-विस्तार की एक विशेष शक्ति होती है जिसके कारण वह सिकुड़ कर छोटा हो सकता है और फैलकर बड़ा हो सकता है। नाम-कर्म के उदय से जीव शरीर प्रमाण आकार को प्राप्त होता है। जीव को यदि छोटे शरीर में रहना पड़े तो वह संकुचित होकर छोटा हो जाता है और यदि बड़े शरीर में रहना पड़े तो फैलकर बड़ा हो जाता है। जैसे दीपक के प्रकाश को घड़े में करें तो उसका आकार घड़े जितना छोटा हो जाता है और कमरे में करें तो फैलकर कमरे जितना बड़ा हो जाता है। इस प्रकार जीव का आकार शरीर प्रमाण होता है। सबसे छोटा शरीर लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदिया जीव का होता है जो घनांगुल के असंख्यातवाँ भाग है और सबसे बड़ा शरीर स्वयंभूरमण नामक अंतिम समुद्र में पाये जाने वाले मत्स्य (महा मत्स्य) का १००० योजन लम्बा, ५०० योजन चौड़ा और २५० योजन मोटा होता है। मुक्त जीव के शरीर का आकार मोक्ष जाने से पूर्व उसके शरीर के आकार से कुछ न्यून होता है।
जीव के मुख्य दो भेद हैं-मुक्त व संसारी जीव। संसारी जीव के दो भेद हैं – स्थावर व त्रस जीव। स्थावर के ५ और त्रस के ४ भेद हैं। इनके अलावा भी जीवों के कई प्रकार से भेद किये गये हैं।
जीवों के विभिन्न भेदों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
मुक्त जीव (Liberated Soul)-
जिन जीवों ने अपने आठों कर्मोें का नाश कर दिया है और संसार भ्रमण से मुक्त हो गये हैं तथा जिनका जन्म-मरण अब पुनः नहीं होगा, वे मुक्त जीव हैं। जैसे सिद्ध। मुक्त जीवों के कोई भेद नहीं होते हैं, ये सभी समान गुण धर्म वाले होते हैं।
संसारी जीव (Mundane Soul)-
संसार से अभिप्राय संसरण (परिभ्रमण) करना है। इसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंच-परिवर्तन कहते हैं।
जो जीव कर्मों से सहित है और अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है अर्थात् संसार में पुनः-पुनः जन्म-मरण को प्राप्त हो रहा है, वह संसारी जीव है। जैसे मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच। इनके विभिन्न भेद हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न है-
संसारी जीव इन्द्रियों की अपेक्षा ५ प्रकार के होते हैं – एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। आगम में एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर जीव व शेष चार प्रकार के जीवों को त्रस जीव कहा गया है। इस प्रकार संसारी जीवों के दो भेद हो जाते हैं- स्थावर व त्रस।
१. स्थावर जीव (Immobile-beings)-
स्थावर नाम कर्म के उदय से जिन जीवों के केवल एक इन्द्रिय (स्पर्शन) होती है, वे स्थावर जीव कहलाते हैं। ये स्थिर रहते हैं; अतः इन्हें स्थावर जीव कहते हैं। ये जीव पृथ्वी, जल (अप), अग्नि (तेज), वायु और वनस्पति रूप हैं। इनमें चैतन्यता का अभाव सा प्रतीत होता है, लेकिन वस्तुत: ये जीव सहित हैं। पृथ्वी में वृद्धि होती है; जल, अग्नि और वायु में क्रिया होती है; अग्नि को ढक देने से बुझ जाती है और वनस्पति में वृद्धि, संकोच/विस्तार देखा जाता है। ये सब बातें ‘जड़’ में संभव नहीं हैं। अतः ये जीव हैं। इनके ४ प्राण होते हैं।
स्थावर जीवों के भेद-इनके ५ भेद निम्नानुसार हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति।
(१) पृथिवीविकायिक जीव के भेद-
पुढवी य सक्करा वालुअ उवले सिलादि छत्तीसा।
पुढवीमया हु जीवा णिद्दिट्ठा जिणविंर देहि ।।१४९।।
शब्दार्थ- पुढवी-पृथ्वी, य-के, सक्करा-शर्करा, वालुअ-बालुका, उवले -उप्पल, सिलादि-शिलादि, छत्तीसा-छत्तीस प्रकार के भेद। पुढवीमया-पृथ्वीकायिक हु-के, जीवा-जीव के, णिद्दिट्ठा-बताये है, जिणविंर देहि-जिनवर ने कहे है।
अर्थ- जिनेन्द्र देव भगवान ने पृथ्वी, शर्करा, बालुका, उपल और शीलादि के छत्तीस भेद से पृथ्वीकायिक जीव के छत्तीस भेद बताये हैं। यहाँ पर पृथ्वी के आवंतर भेद की अपेक्षा पृथ्वीकायिक जीव के निम्नलिखित भेद है।
१. मिट्टी रूप पृथिवी | २. गंगा आदि नदियों में होने वाली रुक्ष बालुका | ३. तीक्ष्ण और चौकार आदि आकार वाले शर्करा | ४. समुद्र में उत्पन्न होने वाले नमक |
५. लोहा | ६. जस्ता | ७. सीसा | ८. सोना |
९. चांदी | १०.(वज्र )हीरा | ११. हीर-ताल | १२. इंगुल |
१३. मैमसील | १४. हरे रंग का सस्यक | १५. अंजन मूंगा | १६. भोडल |
१७. चिकनी चमकती रेती | १८. कर्केतनमणि | १९. राजवर्तकमणि | २०. पुलकवर्णमणि |
२१. स्फटिकमणि | २२. पद्मरागमणि | २३. चंद्रकांतमणि | २४. वैडूर्यमणि |
२५. जलकांतमणि | २६. सूर्यकांतमणि | २७. गेरूमणि | २८. रूधिराक्षमणि |
२९. चंदनगंध मणि | ३०. अनेक प्रकार के मनकन्तमणि | ३१. पुखराज | ३२. नीलमणि |
३३. विदुर्यवर्णमणि | ३४. बड़े पत्थर | ३५. गोल पत्थर | ३६. तांबा उक्त |
सभी पृथ्वी के भेद है इसीलिए पृथ्वीकायिक जीवों के भी यही छत्तीस भेद हैं।
पृथ्वीकायिक जीवों को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। जब तक कोई भी पत्थर, कोयला, खनिज और जैसे लोहा, दस्त, कोयला, सोना, चांदी इत्यादि खान में रहते हैं तब वे जीव होने के कारण वृद्धि को प्राप्त करते है अत: पृथ्वीकायिकजीव है, जब खान से उन्हें निकाल लिया जाता है तो उसकी वृद्धि होनी बंद हो जाती है क्योंकि उसमें पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वी जीव निकल जाता है और जो शरीर पृथ्वीकाय कोयला, चांदी, सोना आदि अजीव जीवकाया शेष रह जाती है।
मृदु पृथ्वीकायिक जीव की उत्कृष्ट आयु १२००० वर्ष, खर की २२००० वर्ष और जघन्य आयु अंतमूर्हत है।
(२) जलकायिक जीव के भेद-
ओसा हिमो य धूमरि हरदणु सुद्धोदवो घणोदो य।
एदे दु आउकाया जीवा जिण सासणुद्दिट्ठा।।१५०।।
शब्दार्थ- ओसा-ओस, हिमो-बर्फ, य धूमरि-कोहरा, हरदणु-तालाब, सुद्धोदवो-स्थूल बिंदु रूप जल और सूक्ष्म बूँद रूप जल, चंद्रकांतमणि, झरने से उत्पन्न जल, समुद्र, तालाब से उत्पन्न शुद्ध जल, घणोदो-मेघ से उत्पन्न जल य। एदे दु आउकाया-जलकायिक, जलजीवा-जलजीव, जिण-जिन, सासणुद्दिट्ठा-शासन में कहे है।
भावार्थ- जिनशासन में
१. ओस | २. बर्फ |
३. कोहरा | ४. स्थूल बिंदु रूप जल |
५. सूक्ष्म बिंदु रूप जल | ६. चंद्रकांत मणि से उत्पन्न शुद्ध जल |
७. झरने से उत्पन्न जल | ८. घनवात से उत्पन्न शुद्ध जल |
९. समुद्र से उत्पन्न जल | १०. तालाब से उत्पन्न जल |
११. मेघो से उत्पन्न जल आदि |
जलकायिक जीव कहे है। जलकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु ७००० वर्ष और जघन्य अंतर्मूहत है।
(३) अग्निकायिक जीव के भेद-
इंगाल-जाल-अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी तहा अगणी।
अण्णे वि एवमाई ते उक्काया समुद्दिट्ठा ।।१५१।।
शब्दार्थ- इंगाल-अंगार, जाल-ज्वाला, अच्ची-अर्चि अर्थात् अग्नि किरण, मुम्मुर-अर्थात भूसे अथवा काण्ड की अग्नि, सुद्धागणी-शुद्धाग्नि अर्थात बिजली की अग्नि/सूर्यकांत से उत्पन्न अग्नि और धूमादि सहित समस्त, अग्नि, तहा अगणी-अग्नि, अण्णे वि एवमाई-ये सभी, ते उक्काया-अग्निकायिक जीव, समुद्दिट्ठा-कहे है।
भावार्थ-
१. अंगार | २. ज्वाला |
३. अग्नि किरण | ४. भुस अथवा काण्ड से उत्पन्न अग्नि |
५. शुद्ध बिजली अथवा सूर्यकांत से उत्पन्न अग्नि | ६. धूमादि से उत्पन्न समस्त अग्नि |
अग्निकायिक जीव कहे है। अग्निकायिक जीवों की सत्ता हम, अग्नि मे पतंगों के रूप में अनुभव कर सकते है, जैन दर्शानुसार पतंगे अग्निकायिक जीव ही है। अग्निकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु ३ दिन और जघन्य अंतमुर्हूत है।
(४) वायुकायिक जीव के भेद-
वाउभामो उक्कलि मंडलि गुंजा महाघणो य तणू।
एदे दु वाउकाया जीवा जिण इंद णिद्दिट्ठा।।१५२।।
शब्दार्थ- वाउ-सामान्य वायु, उभामो-उद्भ्रम-अर्थात् घूमता हुआ ऊपर जाने वाला वायु का चक्रवात, उक्कलि-उत्कली अर्थात नीचे को जाने वाली वायु अथवा जल की तरंगों को स्पर्श करते हुए तरंगित होने वाली वायु मंडलि-अर्थात पृथिवी को स्पर्श करते हुए घूमती हुई वायु, गुंजा-गुंजायमान वायु, महाघणो-महावात अर्थात वृक्षादि के भंग से से उत्पन्न वायु, य-और, तणू तनुवात और घनवात, एदे टु वाउकाया-वायुकायिक जीवा-जीव, जिण इंद-जिनेन्द्र भगवान, णिद्दिट्ठा-ने कहे है।
भावार्थ-
१. सामान्य वायु | २. घूमता हुआ ऊपर को उठता हुआ चक्रवात |
३. नीचे को जाने वाली वायु और जल की तरंगो को स्पर्श करती हुई तरंगित वाय | ४. पृथ्वी को स्पर्श करती हुई घूमती हुई वायु |
५. महावात अर्थात वृक्षादि के भंग से उत्पन्न वायु | ६. घनवात |
७. तनुवात |
जिनेन्द्र देव ने वायुकायिक जीव कहे है।
वायुकायिक जीवों की सत्ता का अनुभव चक्रवातोें में अनुभव किया जा सकता है।
वायुकायिक जीव की उत्कृष्ट आयु ३००० वर्ष और जघन्य अंतर्मूर्हूत है।
(५) वनस्पतिकायिक जीव के भेद-
मूल्लग पोर बीया कंदा तह खंध बीय बीयरूहा।
सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य।।१५३।।
शब्दार्थ- मूल्लग-मूल बीज, अगर बीज, पोर-पर्व बीया-बीज, कंदा-कंद बीज, तह खंध-स्कंध, बीय-बीज, बीयरूहा-बीजरूह, सम्मुच्छिमा-सम्मूर्च्छन, य-ये, सब, भणिया-कही गई है, पत्तेयाणंतकाया-वनस्पतिया-सु प्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक के भेद से दोनों प्रकार की, य-ये।
अर्थ- मूल बीज, अग्र बीज, पर्व बीज, कंद बीज, स्कंध बीज, बीजरूह और सम्मूर्च्छन ये सब वनस्पतियां सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक के भेद से दोनों प्रकार की कही है।
वनस्पतिकायिक जीवों से तो हम सभी परिचित है जिनका अस्तित्व श्री जगदीशचन्द्र बोस जी प्रमाणित कर चुके है।
वनस्पतिकायिक जीव की उत्कृष्ट आयु १०००० वर्ष और जघन्य अंतर्मूर्हूत है।
प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं-
(१) सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति- प्रत्येक वनस्पति जब निगोद (साधारण शरीर) से सहित हों अर्थात् जिन प्रत्येक वनस्पति जीवों के आश्रित अन्य साधारण वनस्पतिकायिक जीव रहते हैं उन्हें प्रतिष्ठित (या सप्रतिष्ठित) कहते हैं। एक जीव के आश्रित असंख्य जीव रह सकते हैं, पर उनकी सत्ता स्वतन्त्र रहती है। यह उपचार से साधारण वनस्पति है।
अनन्तकायिक जीव – अनन्त जीवों की साधारण काय होने से सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को अनन्तकायिक जीव भी कहते हैं।
(२) अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति- प्रत्येक वनस्पति जब निगोद से रहित हों अर्थात् जिन प्रत्येक वनस्पति जीवों के आश्रित अन्य साधारण वनस्पतिकायिक जीव नहीं रहते हों उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं।
जिन वनस्पतियों के मूल, कन्द, त्वचा, नवीन कोपल अथवा अंकुर, क्षुद्रशाखा, टहनी, पत्ते, फल तथा बीजों को तोड़ने से समान भंग (टुकड़े) हो जायें, दोनो भंगों में तन्तु न लगा रहे और काटने पर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जावें, जिनमें नसें या लम्बी-लम्बी रेखाएँ व गाठें आदि दिखलाई नहीं पड़ती हैं, उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं और जो इन चिन्हों से रहित हों, उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। भूमि में बोने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तथा कच्ची अवस्था में सभी वनस्पतियां सप्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं।
वृक्षों पर लगे हुए फल, फूल, पत्ते बिना पकी हुई अवस्था में सप्रतिष्ठित और पकने पर अप्रतिष्ठित हो जाते हैं।
त्रस नाम कर्म के उदय से जिन जीवों का जन्म दो से पांच इन्द्रिय जीवों में होता हैं, वे त्रस जीव कहलाते हैं। ये जीव गतिमान होते हैं अर्थात् चल-फिर सकते हैं। इनके दो या अधिक इन्द्रियां होती हैं। ये लोक में त्रस नाली में रहते हैं, अतः इनका नाम ‘‘त्रस’’ जीव पड़ा है। इनके ६ से १० प्राण होते हैं। इन्द्रियों की अपेक्षा से त्रस जीव ४ प्रकार के होते हैं-
१. द्वीन्द्रिय जीव- जिस जीव के स्पर्शन और रसना, दो इन्द्रियां होती हैं। जैसे लट, जोंक, केंचुआ आदि रेंग कर चलने वाले कीडे।
२. त्रीन्द्रिय जीव- जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रियां होती हैं। जैसे चींटी, खटमल, बिच्छू, कनखजुरा आदि पैरों से चलने वाले कीडे।
३. चतुरिन्द्रिय जीव- जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन्द्रियां होती हैं। जैसे भौंरा, मक्खी, ततैया, मच्छर आदि उड़ने वाले कीडे।
४. पंचेन्द्रिय जीव- जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियां होती हैं। जैसे मनुष्य, पशु, तोता, सर्प, देव, नारकी आदि।
उपरोक्तानुसार आगे की इन्द्रिय वाले जीवों के पीछे की इन्द्रियां भी अवश्य होती हैं।