संसारी जीव के साथ अनादिकाल से कर्म और नोकर्म रूप पुद्गल-द्रव्य का संबंध चला आ रहा है। मिथ्यात्व दशा में यह जीव शरीर रूप नोकर्म की परिणति को आत्मा की परिणत मानकर उसमें अहंकार करता है- इस रूप ही मैं हूँ ऐसा मानता है अतः सर्वप्रथम शरीर से पृथक्ता सिद्ध की है उसके बाद ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म और रागादिक भाव कर्मों से इसका पृथक्त्व दिखाया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि हे भाई! ये सब भाव पुद्गल-द्रव्य के परिणमन से निष्पन्न हैं अतः पुद्गल के हैं, तू इन्हें जीव क्यों मान रहा है ? यथा
जो स्पष्ट ही अजीव हैं उनके अजीव कहने में तो कोई बात नहीं है। परन्तु जो अजीवाश्रित परिणमन जीव के साथ धुलमिल कर अनित्य तन्मयी भाव से तादात्म्य जैसी अवस्था को प्राप्त हो रहे हैं उन्हें समझना यह ज्ञान की विशेषता है। ‘रागादिक भाव अजीव हैं’, गुणस्थान, मार्गणा तथा जीवसमास आदि भाव अजीव हैं, यह बात यहाँ तक सिद्ध की गई है। अजीव है—इसका इतना तात्पर्य है कि ये जीव की निज परिणति नहीं है। यदि जीव की निज परिणति होती तो त्रिकाल में इनका अभाव नहीं होता परन्तु जिस पौद्गलिक कर्म की उदयावस्था में ये भाव होते हैं उसका अभाव होने पर स्वयं विलीन हो जाते हैं। अग्नि के संसर्ग से पानी में उष्णता आती है परन्तु वह उष्णता सदा के लिए नहीं आती। अग्नि का सम्बन्ध दूर होते ही दूर हो जाती है। इसी प्रकार क्रोधादि कर्मों के उदयकाल में होने वाले रागादि भाव यद्यपि आत्मा में अनुभूत होते हैं तथापि संयोगज भाव होने से आत्मा के विभाव भाव हैं, स्वभाव नहीं, इसीलिये उनका अभाव हो जाता है। ये रागादिक भाव आत्मा को छोड़कर अन्य जड़ पदार्थों में नहीं होते किन्तु आत्मा के उपादान से आत्मा में उत्पन्न होते हैं। इसलिए उन्हें आत्मा के कहने के लिये अन्य आचार्यों ने अशुद्ध निश्चयनय की कल्पना की है वे शुद्ध निश्चय नय से आत्मा के नहीं हैं अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा के हैं ऐसा कथन करते हैं परन्तु कुन्दकुन्द स्वामी वेदाग और वेलाग बात कहना पसन्द करते हैं, वे विभाव को आत्मा के मानने के लिये तैयार नहीं हैं। उन्हें आत्मा के कहना, इसे वे व्यवहार नय का विषय मानते है और उस व्यवहार का जिसे उन्होंने अभूतार्थ कहा है। व्यवहार को अभूतार्थ कहने का तात्पर्य इतना है कि वह अन्य द्रव्याश्रित परिणमन को अन्य द्रव्य का परिणमन मानता है। ‘‘व्यवहार नय अभूतार्थ है’’ इसका यह अर्थ ग्राह्य नहीं है कि वह अनुपादेय एवं मिथ्या है। नयों का प्रयोग पात्र की योग्यता के अनुसार होता है अतः अज्ञानी जनों को वस्तु स्वरूप का बोध कराने के लिये व्यवहार नय का भी आलम्बन ग्राह्य होता है। इसी प्रसङ्ग में जीव का स्वरूप बतलाते हुए कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है-
हे भव्य! तू आत्मा को ऐसा जान कि वह रस रहित है, रूप रहित है गन्ध रहित है, अव्यक्त अर्थात् स्पर्श रहित है, शब्द रहित है, अलिङ्गग्रहण है- किसी खास लिंग से उसका ग्रहण नहीं होता तथा जिसका आकार निर्दिष्ट नहीं किया गया है, ऐसा है; किन्तु चेतना गुण वाला है। यहां स्वरूपोपादान की दृष्टि उसे चेदणागुणं- चेतनागुण वाला कहा है और पररूपापोहन की दृष्टि से अरूप-अगन्ध आदि कहा है अर्थात् रूप, गन्ध आदि से रहित होने के कारण यह पुद्गल रूप अजीव से भिन्न है। निर्जराधिकार में कुन्द-कुन्द स्वामी ने कहा है-
अण्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।।२०२।।
जिसके रागादिक का परमाणुमात्र-लेश मात्र भी विद्यमान है वह समस्त आगम का धारक होकर भी आत्मा को नहीं जानता है, जो आत्मा को नहीं जानता वह अनात्मा को भी नहीं जानता और जो जीव, अजीव, आत्मा, अनात्मा को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? सम्यग्दृष्टि बनने के लिये जीव और अजीव का भेद विज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि सात तत्व अथवा नौ पदार्थों में मूल तत्व तो जीव और अजीव ही है शेष इनके संयोग से समुत्पन्न हैं।अमृतचन्द्र स्वामी ने इस भेद विज्ञान की महिमा का उल्लेख करते हुए कहा है-
भेदविज्ञानताः सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन। अस्यैवाभावतोबद्धा बद्ध ये किल केचन।।१३१।।
आजतक जितने सिद्ध हुए हैं वे सब भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसार में बद्ध हैं वे सब इसी भेद विज्ञान के अभाव से बद्ध हैं। जीव और अजीव के संयोग से उत्पन्न इस संयोगी पर्याय में जीव और अजीव का भेदविज्ञान किस प्रकार हो सकता है ? इसका समाधान करते हुए कुन्दकुन्द महाराज स्वामी ने मोक्षाधिकार में कहा है—
जीव और बन्ध अपने अपने लक्षणों से जाने जाते हैं सो जानकर बन्ध तो छेदने के योग्य है और आत्मा ग्रहण करने के योग्य है। शिष्य कहता है—भगवन् ! वह लक्षण तो बताओ जिसके द्वारा मैं आत्मा को समझ सवूँâ। उत्तर में कुन्दकुन्द महाराज स्वामी कहते हैं।
कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा। जह पण्णाइ विहत्तो तह पण्णा एव घित्तव्वो।।२९६।।
उस आत्मा का ग्रहण किया जावे ? प्रज्ञा—भेदभान के द्वारा आत्मा का ग्रहण किया जावे। जिस तरह प्रज्ञा से उसे विभक्त किया था उसी तरह प्रज्ञा से उसे ग्रहण करना चाहिये।
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा।।२९७।।
प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करने योग्य जो चेतयिता है, वही मैं हूँ और अवशेष जो भाव है वे मुझसे पर हैं। जिस प्रकार क्रकच—करौंत के पड़ने से लकड़ी के दो खण्ड हो जाते हैं उसी प्रकार प्रज्ञा—क्रकच के पड़ने से बन्ध और आत्मा पृथक््â—पृथक््â हो जाते हैं। आत्मा और बन्ध के भिन्न भिन्न करने में यही प्रज्ञा रूपी छैनी समर्थ है। चतुर विज्ञानी जीव सावधान होकर आत्मा और बन्ध की सूक्ष्म सन्धि पर इसे इस तरह पटकते हैं कि जिस तरह आत्मा का अंश पर में जाता नहीं और पर का अंश आत्मा में रहता नहीं। प्रज्ञारूपी छैनी के पड़ते ही आत्मा और बन्ध पृथक्—पृथक् हो जाते हैं। आत्मा और बन्ध का सदा के लिये पृथक् हो जाना ही मोक्ष है और उसी मोक्ष प्राप्ति के लिये ज्ञानी जीव का पुरुषार्थ होता है।