विसवेयणरत्तक्खय भयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं।
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ।।२५।।
हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुरुहणपडया भंगेहिं।
रसविज्जजोय धारण अणणपसंगेहिं विविहेहिं।।२६।।
इय तिरिय मणुय जम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त।।२७।।
विष भक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, रक्त अर्थात् रुधिर के क्षय से, भय से, शस्त्र के घात से, संक्लेश परिणाम से आहार तथा श्वास के निरोध से इन कारणों से आयु का क्षय होता है। हिम अर्थात् शीत पाले से, अग्नि से, जल से, बड़े पर्वत पर चढ़कर गिरने से, बड़े वृक्ष पर चढ़कर गिरने से, शरीर का भंग होने से, रस अर्थात् पारा आदि की विद्या उसके संयोग से धारण करके भक्षण करे इससे और अन्याय कार्य, चोरी, व्यभिचार आदि के निमित्त से इस प्रकार अनेक प्रकार के कारणों से आयु का व्युच्छेद होकर कुमरण होता है। इसलिए कहते हैं कि हे मित्र! इस प्रकार तिर्यंच, मनुष्य जन्म में बहुत काल बहुत बार उत्पन्न होकर अपमृत्यु अर्थात् कुमरण संबंधी तीव्र महादु:ख को प्राप्त हुआ।