जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊध्र्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊध्र्वगमन उसका स्वभाव है।
शंका – जीव जिस स्थान में कर्मो से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है। चूँकि ऊपर जाने का कोई कारण नहीं है ?
समाधान – ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ऊध्र्वगमन करना यह जीव का स्वभाव है।
शंका – पुन: संसार में भी यह तिर्यग्गमन क्यों करता है, जब ऊध्र्वगमन स्वभाव है तब सतत ऊध्र्वगमन ही करना चाहिए ?
समाधान – जैसे जीव का पूर्णज्ञानी और सर्वदर्शी होना स्वभाव है किन्तु संसार में कर्मों के आवरण से वह स्वभाव प्रगट नहीं हो पाता है, फिर भी कर्मों के नष्ट होते ही जीव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। उसी प्रकार से जीव संसार में कर्मों के निमित्त से ऊध्र्वगति नहीं कर पाता है किन्तु कर्मों से छूटते ही स्वभाव से ऊध्र्वगमन कर लेता है। इसके लिए चार दृष्टांत हैं-जैसे वुंभार का चाक पूर्व प्रयोग से (घुमाना छोड़ देने पर भी) घूमता रह जाता है, वैसे ही सिद्धों ने मुनि अवस्था में ध्यान में जो सतत ही ऊध्र्वगमन का अभ्यास किया है, सो इस समय वे ऊध्र्वगमन कर जाते हैं। जैसे-मिट्टी का लेप धुल जाने से तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है उसी प्रकार से कर्मलेप के छूट जाने से यह आत्मा ऊपर चला जाता है। जैसे-बंध का नाश होने से एरण्ड का बीज ऊपर को उछलता है वैसे कर्मबंध का नाश होने से यह आत्मा ऊपर को चला जाता है। जैसे-अग्नि की लौ स्वभाव से ऊपर को ही उठती है उसी प्रकार से आत्मा भी स्वभाव से ऊपर को गमन कर जाता है। यह ऊध्र्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है, लोक के आगे नहीं होता है।
शंका – जब आत्मा का ऊध्र्वगमन स्वभाव ही है तब वह लोकाग्र के भी आगे क्यों नहीं चला जाता है ?
समाधान – नहीं, आगे नहीं जा सकता है क्योंकि लोक के बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव है१, ऐसा आगम वाक्य है। धर्मास्तिकाय का यह लक्षण है कि जो जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहकारी हो। अत: सिद्ध जीव भी जीव हैं, उनके गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय का आगे अलोकाकाश में अभाव होने से वहाँ पर वे मुक्तजीव भी नहीं जा सकते हैं। परद्रव्य का सहयोग न मिलने से उनका ऊध्र्वगमन स्वभाव आगे काम नहीं कर पाता है। यह परद्रव्य की पराधीनता कितनी विचित्र है ?सिद्धजीव नित्य हैं। कभी अपने स्थान और स्वभाव से च्युत नहीं होते हैं।
शंका – हम सदाशिव मतावलम्बियों के यहाँ सिद्ध जीवों का भी पुनरागमन माना है। देखो, सौ कल्प प्रमाण समय के बीत जाने पर जब यह सारा जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का पुन: संसार में आगमन होता है ?
समाधान – नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव सदा नित्य माने गये हैं अतएव सैकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी उनमें विकार-परिवर्तन या कर्म का संबंध संभव नहीं है। भले ही तीन लोक को वंपा देने वाला उत्पात ही क्यों न हो जाए किन्तु सिद्ध जीवों का पुन: इस संसार में आना नहीं हो सकता है।२ जैसे एक बार बीज को अग्नि के द्वारा जला देने पर वह पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता है वैसे ही कर्मरूपी संसार बीज के जल (नष्ट) जाने पर पुन: जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं हो सकता है। ये सभी सिद्ध परमेष्ठी उत्पाद-व्यय से सहित हैं। सर्वथा अपरिणामी, वूटस्थ नित्य नहीं हैं।
शंका – सिद्ध परमात्मा निरन्तर ही निश्चल, अविनश्वर, शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। उससे भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं अत: उनमें उत्पाद, व्यय वैसे घटेगा ?
समाधान – उन सिद्धों में अगुरुलघु गुण के षट्हानि-वृद्धि रूप से अर्थपर्यायरूप परिणमन पाया जाता है जो कि आगमगम्य है, वचन के अगोचर है। इस अर्थपर्यायरूप से ही उनमें उत्पाद-व्यय होता है अथवा ज्ञेय पदार्थ अपने-अपने जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से परिणमते हैं, उन-उनके आकार से निरिच्छुक वृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। इस कारण भी सिद्धों में उत्पाद-व्यय घटित हो जाता है अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार-पर्याय का नाश, सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपने से ध्रौव्य अवस्था विद्यमान है। इस प्रकार अगुरुलघु गुण की षट्हानि वृद्धिरूप, ज्ञेयाकार से ज्ञान के परिणमन रूप और व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति और संसार पर्याय के नाशरूप आदि नय विभागों से सिद्धों में उत्पाद, व्यय भी माना जाना आगमसम्मत है।
आत्मा के ३ भेद हैं– # बहिरात्मा # अंतरात्मा # परमात्मा। निज शुद्ध आत्मतत्त्व से बहिर्भूत इन्द्रियसुख में आसक्त आत्मा बहिरात्मा है। निज शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि से सहित आत्मा अन्तरात्मा है तथा पूर्ण निर्मल केवलज्ञान, दर्शन से सहित सर्वज्ञदेव परमात्मा हैं। इन परमात्मा के विष्णु, ब्रह्मा आदि अनेक नाम हैं- जो अपने केवलज्ञान के द्वारा लोक-अलोक को व्याप्त कर लेता है, जान लेता है वह ‘विष्णु’ है। परब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत का पान करने से जो तृप्ति को प्राप्त हैं पुन: उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा जिनका ब्रह्मचर्य खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे आत्मा ही ‘परंब्रह्म’ परमात्मा हैं। केवलज्ञान आदि गुणरूपी ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिनके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं ऐसे जीव ही ‘ईश्वर’ कहलाते हैं। केवलज्ञान शब्द से वाच्य ‘सु’ (उत्तम) ‘गत’ (ज्ञान) है जिनका, वे ‘सुगत’ बुद्ध हैं। अथवा ‘सु’ (शोभायमान) अविनश्वर मुक्तिपद को प्राप्त हुए सो ‘सुगत’ हैं।
शिव-परम कल्याणरूप निर्वाण एवं अक्षयज्ञानरूप मुक्त पद को जिन्होंने प्राप्त किया है, वे ‘शिव’ हैं। काम, क्रोध आदि दोषों को जीत लेने से वे परमात्मा अनन्त गुणों के धारक ‘जिन’ कहलाते हैं इत्यादि रूप से परमात्मा के परमागम में एक हजार आठ नाम कहे गये हैं। इस प्रकार से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा को गुणस्थानों में घटाते हैं। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में तारतम्य-न्यूनाधिक भाव से बहिरात्मा हैं। अविरत गुणस्थान में उसके योग्य लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा हैं और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं तथा अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् पाँचवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मध्यम अन्तरात्मा हैं। सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानों में विवक्षित एक देश शुद्धनय की अपेक्षा से सिद्ध के समान परमात्मा हैं और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही। यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत अनन्तसुख का साधक होने से अन्तरात्मा उपादेय है तथा परमात्मा साक्षात् उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। इस प्रकार यह जीव जीव है, उपयोगमयी है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है।