जीव का लक्षण उपयोग है। जीव द्रव्य को विशेष समझने के लिए नव अधिकार बताये गये हैं-जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूर्तिकत्व, कर्तृत्व, स्वदेहपरिमाणत्व, भोत्तृâत्व, संसारित्व, सिद्धत्व और स्वभाव से ऊर्ध्वगमनत्व-ये जीव के नव अधिकार हैं।
जीवत्व-जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं और निश्चयनय से जिसके चेतना होती है, वह जीव है।
उपयोगमयत्व- उपयोग दो प्रकार का है-दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग। उसमें दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का है और मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, कुअवधिज्ञान, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान इनके भेद से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है। व्यवहारनय से यह बारह प्रकार का उपयोग सामान्यतया जीव का लक्षण है और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध दर्शन, ज्ञान ही जीव का लक्षण है।
अमूर्तिकत्व- जीव में निश्चयनय से पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं होते हैं। इस कारण से अमूर्तिक है और व्यवहारनय से कर्मबन्ध सहित होने से मूर्तिक है। कर्तृत्व- जीव व्यवहारनय से ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्मों का, अशुद्ध निश्चयनय से रागादि भाव कर्मों का और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान आदि चैतन्य भावों का कर्ता है।
भोत्तृत्व- यह जीव व्यवहारनय से पुद्गलमय कर्मों के फल-सुख और दु:ख को भोगता है और निश्चयनय से आत्मा के शुद्ध दर्शन और शुद्ध ज्ञानरूप भावों को ही भोगता है।
स्वदेहपरिमाणत्व- जीव व्यवहारनय से समुद्घातों के सिवाय शेष हालातों में शरीर नामकर्म के उदय से होने वाले संकोच-विस्तार गुण के कारण घड़े आदि में स्थित दीपक की तरह अपने छोटे-बड़े शरीर के बराबर है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के बराबर है।
संसारित्व- संसारी जीव के मुख्य दो भेद हैं-त्रस और स्थावर। उसमें पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच एकेन्द्रिय ‘स्थावर’ जीव हैं। शंख आदि द्वीन्द्रिय, चिंवटी आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय तथा मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय ये चार ‘त्रस’ जीव हैं। ये सब जीव संसारी कहलाते हैं।
सिद्धत्व- जो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित, सम्यक्त्व आदि आठ गुण सहित, छोड़े हुए अंतिम शरीर से विंचित् कम आत्मप्रदेश वाले हैं, वे ‘सिद्ध’ कहलाते हैं।
ऊर्ध्वगमनत्व- वे सिद्ध अपने ऊध्र्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में, तनुवातवलय में सिद्धशिला पर स्थित हैं। धर्मास्तिकाय के न होने से आगे अलोक में गमन से रहित तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित होते हैं। कर्म से छूटने के बाद सभी जीव नियम से ऊर्ध्वगमन ही करते हैं। इस प्रकार से नव अधिकारों में निश्चयनय और व्यवहारनय इन दोनों नयों के द्वारा जीव द्रव्य का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। विशेष रीति से गुणस्थान, जीव समास और मार्गणाओं के द्वारा भी जीव को समझना चाहिए। ‘‘गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग, क्रम से ये बीस प्ररूपणाएँ जिनागम में वर्णित हैं।’’ इन बीसों में से जो चौदह मार्गणाएं हैं, उनमें जीवसमास, पर्याप्ति आदि को सम्मिलित कर देने से गुणस्थान और मार्गणाएँ दो ही प्ररूपणाएँ मुख्य रहती हैं।