जीव के दो भेद हैं–संसारी और मुक्त।
मैं संसारी जीव हूँ। अनादि काल से संसार में ही घूमकर जन्म-मरण के दु:ख उठा रहा हूँ। मेरे साथ आठों कर्म लगे हुए हैं, इसलिये मैं संसारी हूँ। मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच ये सब संसारी जीव हैं।
जिन्होंने आठों कर्म का नाश कर दिया है, जो संसार के दु:खों से, जन्म-मरण के चक्कर से छूट गये हैं, जो लौटकर संसार में कभी नहीं आवेंगे, वे मुक्त जीव या सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं।
शिष्य – क्या हम भी सिद्ध बन सकते हैं?
अध्यापक –हाँ! अवश्य बन सकते हैं। सिद्ध बनने का उपाय समझने के लिये ही तो हम और आप जैन धर्म पढ़ते हैं।