जीव के असाधारण (जीव के सिवाय अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाये जाने वाले) भाव पाँच हैं, वे जीव के स्वतत्त्व कहलाते हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक।
१. औपशमिक-कर्मों के उपशम से होने वाले भाव को औपशमिक कहते हैं। इनके दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र। उपशमसम्यक्त्व-अनादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच प्रकृतियों का उपशम होने से तथा सादिमिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और चार अनन्तानुबंधी इन सात कर्मों के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। उपशमचारित्र-अनन्तानुबंधी के सिवाय चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम चारित्र (ग्यारहवें गुणस्थान में) होता है।
२. क्षायिकभाव-कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने से जो आत्मा के पूर्ण शुद्धभाव होते हैं, वे क्षायिकभाव हैं। उनके ९ भेद हैं-क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकदान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र। ज्ञानावरण-दर्शनावरण के क्षय से ज्ञान-दर्शन होते हैं। अन्तराय के पाँचों भेदों के क्षय से क्रम से पाँच भाव होते हैं तथा दर्शनमोहनीय के क्षय से सम्यक्त्व और चारित्र मोहनीय के क्षय से चारित्र होता है।
३. क्षायोपशमिक-कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावरूप क्षय, अन्य सर्वघाती स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय होने पर जो भाव होते हैं, वे क्षायोपशमिक भाव हैं। उनके १८ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, क्षायोपशमिक, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम। इनमें से पहले के सात भेद ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से, उसके बाद के तीन भेद दर्शनावरण के क्षयोपशम से, फिर आगे के पाँच भाव अन्तराय के क्षयोपशम से और अंत के तीन भेद क्रमश: दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय (प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण) के क्षयोपशम से होते हैं। औदयिक-जो भावकर्मों के उदय से होते हैं, वे औदयिक हैं। उनके २१ भेद हैं। मनुष्यगति, देवगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति, क्रोध, मान, माया, लोभ, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्ध, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल। इन सभी भावों में से कुछ भाव नामकर्म के उदय से, कुछ मोहनीय कर्म के उदय से, कोई ज्ञानावरण कर्म के उदय से तथा कोई सर्वसामान्य कर्मों के उदय से होते हैं। पारिणामिक-आत्मा के जो भाव स्वाधीन, स्वाभाविक (कर्मनिरपेक्ष) होते हैं, वे पारिणामिक हैं। उनके तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। जीवत्व-जीव का चेतनामयभाव जीवत्व है। भव्यत्व-मुक्त हो सकने की योग्यता भव्यत्व है। अभव्यत्व-मुक्त न हो सकने की योग्यता अभव्यत्व है। जीव का लक्षण-जीव का लक्षण उपयोग है अर्थात् उपर्युक्त भाव जिसमें पाये जाते हैं, उस जीव का लक्षण उपयोग है। इसके १२ भेद हैं-पाँच ज्ञान, तीन कुज्ञान और चार दर्शन, ऐसे १२ भेद हैं।
[[श्रेणी:द्रव्यानुयोग]]