संसार के भीतर रहने वाली अनन्त जीव जातियों के संग्रह करने की उस पद्धति को जीव समास कहते हैं जिसमें कोई जीव जाति छूट न जावे। त्रस—स्थावर, बादर—सूक्ष्म, पर्याप्त—अपर्याप्त और प्रत्येक—साधारण ये चार युगल हैं। इनमें पारस्परिक विरोध से रहित त्रसादि कर्मों से युक्त जाति नाम का उदय होने पर जीवों में ऊध्र्वता सामान्य या तिर्यंकं सामान्य रूप जो धर्म हैं वे ‘जीव समास’ शब्द से वाच्य हैं। एक पदार्थ की कालक्रम से होने वाली पर्यायों में जो सादृश्य है वह ऊध्र्वता सामान्य कहलाता है और तज्जातीय पदार्थों में जो सादृश्य है वह तिर्यक् सामान्य कहलाता है। पारस्परिक विरोध का स्पष्टीकरण यह है कि त्रस कर्म का बादर के साथ अविरोध है और सूक्ष्म के साथ विरोध है अर्थात् जिसके त्रस नाम कर्म का उदय होगा उसके बादर नाम कर्म का ही उदय होगा, सूक्ष्म नाम कर्म का नहीं। इसी प्रकार पर्याप्त नाम कर्म का साधारण नाम कर्म के साथ विरोध है और प्रत्येक नाम कर्म के साथ अविरोध है अर्थात् जिसके पर्याप्त नाम कर्म का उदय होगा उसके साधारण नाम कर्म का नहीं उदय होगा, किन्तु प्रत्येक नाम कर्म का उदय होगा। आगम में जीव समास के अनेक भेद र्विणत हैं उनमें से १४, ५७ और ९८ भेद बहु प्रचलित हैं अत: प्रारम्भ में उन्हीं भेदों का परिगणन कर पीछे इस विषय की दूसरी चर्चा करेंगे।
चौदह जीव समास
एकेन्द्रिय के दो भेद हैं बादर और सूक्ष्म। इनमें त्रसों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय ये पाँच भेद मिलाने से सात भेद होते हैं। ये सातों भेद पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो प्रकार के होते हैं इसलिये सामान्य रूप से जीव समास के चौदह भेद होते हैं।
संतावन जीव समास
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्य निगोद और इतर निगोद इन छह के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो दो भेद होने से बारह भेद होते हैं उनमें प्रत्येक वनस्पति के सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक ये दो मिलाने से एकेन्द्रिय के चौदह भेद होते हैं। उनमें त्रसों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में पाँच मिलाने से उन्नीस भेद होते हैं। ये उन्नीस भेद पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन तीन प्रकार के होते हैं इसलिये सब मिलाकर जीव समास के संतावन भेद हैं।
अंठानवें जीव समास
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतर निगोद इन छह के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो दो भेद होने से बारह भेद हुए उनमें प्रत्येक वनस्पति के सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ये दो भेद मिलाने से चौदह भेद होते हैं। इन चौदह के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्य पर्याप्तकये तीन तीन भेद होते हैं। अत: एकेन्द्रिय के सब मिलाकर ४२ भेद होते हैं। उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन तीन विकलत्रयों के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा होने वाले ९ भेद मिलाने से ५१ भेद होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के ४७ भेद मिलाने से ९८ जीव समास होते हैं। पञ्चेन्द्रिय के ४७ भेदों में ३४ तिर्यञ्चों के ९ मनुष्यों के, २ देवों के और २ नारकियों के हैं। तिर्यञ्चों के कर्मभूमि और भोगभूमि की अपेक्षा मूलत: दो भेद हैं। उनमें कर्मभूमि के पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्च, जलचर, स्थलचर और नभचर के भेद से तीन प्रकार के हैं, ये तीनों भेद संज्ञी और असंज्ञी के भेद से दो प्रकार के हैं। ये छह भेद गर्भज और सम्मूच्र्छनज की अपेक्षा दो दो प्रकार के हैं। गर्भज के छह भेद निर्वृत्यपर्याप्तक और पर्याप्तक की अपेक्षा दो दो प्रकार के होते हैं और समूच्र्छनज के छह भेद पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन—तीन प्रकार के होते हैं अत: १२ और १८ मिलाकर कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्चों के तीन भेद होते हैं। भोगभूमिज तिर्यंञ्चों में जलचर सम्मूच्र्छन और असंज्ञी भेद नहीं होते, मात्र स्थलचर और नभश्चर ये दो भेद होते हैं, सो इनको पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो भेद होने से ४ भेद हैं। ३० और ४ मिलाने से पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्चों के ३४ भेद होते हैं। मनुष्यों में आर्य खण्ड के मनुष्यों के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक के भेद से तीन तथा म्लेच्छखण्ड के मनुष्यों के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तिक के भेद से दो तथा भोगभूमिज और कुभोगभूमिज मनुष्यों के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो भेद होते हैं। इस प्रकार ५१ + ३४ + ९ + २ + २ = ९८ अंठानवें जीव समास होते हैं। श्री नेमिचन्द्राचार्य ने जीवसमासों का वर्णन स्थान, योनि, शरीरवगाहना और कुल इन चारों अवान्तर अधिकारों के द्वारा किया है। अत: इस संदर्भ में संक्षेप से उनकी चर्चा कर लेना भी उचित है।
स्थानाधिकार
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जाति भेदों को स्थान कहते हैं। सामान्य रूप से जीव का एक स्थान है। त्रस और स्थावर के भेद से दो स्थान हैं, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय के भेद से तीन स्थान हैं, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के भेद से चार स्थान हैं, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय की अपेक्षा पाँच स्थान हैं, पाँच स्थावर और एक त्रस के भेद से छह स्थान हैं, पाँच स्थावर और विकल सकल के भेद से ७ स्थान है, पाँच स्थावर और विकल, संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा आठ स्थान है, पाँच स्थावर और द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय की अपेक्षा नौ स्थान है पाँच स्थावर और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय की अपेक्षा दश स्थान हैं। पाँच स्थावरों के बादर सूक्ष्म की अपेक्षा होने वाले दश भेदों में त्रसका एक भेद मिलाने से ग्यारह विकल और सकल ये दो भेद मिलाने से बारह, विकल और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय ये तीन भेद मिलाने से तेरह, द्वीन्द्रियादि चार भेद मिलने से चौदह, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में पाँच भेद मिलाने से पन्द्रह स्थान होते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद इन छह के बादर सूक्ष्म की अपेक्षा बारह और प्रत्येक वनस्पति इन तेरह में त्रस के विकलेन्द्रिय, संज्ञी तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय इस तरह तीन भेद मिलाने से सोलह द्वीन्द्रियादि चार भेद मिलाने से सत्रह, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय ये पाँच भेद मिलाने से अठारह स्थान होते हैं। तथा पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद इन छह के बादर सूक्ष्म की अपेक्षा बारह और प्रत्येक वनस्पति के सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित दो भेद मिलाकर प्राप्त हुए चौदह भेदों में त्रस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय ये पाँच भेद और मिलाने के उन्नीस स्थान होते हैं। इस प्रकार सामान्य की अपेक्षा १९ स्थान, पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा ३८ और पर्याप्तक निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा ५७ स्थान होते हैं।
योन्यधिकार—= उत्पत्ति के आधार को योनि कहते हैं। इसके आकार योनि और गुण योनि की अपेक्षा दो भेद हैं। आकार योनि का वर्णन खासकर मनुष्य गति की अपेक्षा किया गया है। शङ्खावर्तयोनि, क्ूर्मोक्त योनि और वंशपलयोनि की अपेक्षा आकारयोनि के तीन भेद हैं। इनमें शङ्खावर्तयोनि में गर्भ धारण नहीं होता है, वूâर्मोनतयोनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती, बलभद्र तथा साधारण मनुष्य भी उत्पन्न होते हैं, और वंशपत्रयोनि में साधारण पुरुष ही जन्म लेते हैं, तीर्थंकर आदि विशिष्ट पुरुष नहीं। गुणयोनि का वर्णन जन्म से सम्बन्ध रखता है अत: जन्म के सम्मूच्र्छन, गर्भ और उपपाद से तीन भेद प्रथम ही जानने योग्य हैं। जरायुज, अण्डज और पोत जीवों का गर्भ जन्म होता है, देव— नारकियों का उपपाद जन्म होता है और शेष जीवों का सम्मूच्र्छन जन्म होता है। माता पिता के रज और वीर्य के संमिश्रण से होने वाला जन्म गर्भ जन्म कहलाता है, निश्चित उपपाद शय्या पर होने वाला जन्म उपपाद जन्म कहलाता है और इधर उधर के परमाणुओं के संसर्ग से होने वाला जन्म संमूच्र्छन जन्म कहा जाता है। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों का संमूच्र्छन जन्म ही होता है, देव और नारकियों का उपपाद जन्म ही होता है। और कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्चों तथा मनुष्यों का गर्भ और संमूच्र्छन जन्म होता है। इनमें संमूच्र्छन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। उनकी शरीर रचना नहीं हो पाती। भोगभूमिज तिर्यञ्च और मनुष्य गर्भंज ही होते हैं। गुणयोनि के सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण तथा संवृत, विवृत और संवृत विवृत ये नौ भेद हैं। इनका अर्थ शब्द से ही स्पष्ट है। उपपाद जन्म वालों की अचित्त, गर्भ जन्म वालों की सचित्ताचित्त, तथा संमूच्र्छन जन्म वालों में सचित्त, अचित्त और मिश्र—सचित्ताचित्त के भेद से तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं। उपपाद जन्म वालों में शीत और उष्ण ये दो योनियाँ तथा शेष जन्म वालों में शीत, उष्ण और मिश्र ये तीनों ही योनियाँ होती हैं। उपपाद जन्म वालों में तथा ऐन्द्रिय जीवों में संवृत्त योनि, विकलेन्द्रियों में निवृत, गर्भज जीवों में विवृत तथा पञ्चेन्द्रिय संमूच्र्छन जीवों के विकलत्रय की तरह विवृत योनि ही होती है। विस्तार से चर्चा करने पर नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन प्रत्येक की सात—सात लाख, वनस्पति की दश लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन प्रत्येक की दो दो लाख पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, देव और नारकियों की (प्रत्येक की) चार—चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ होती हैं। सबकी मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ हैं। इन योनियों में यह जीव अनादि काल से जन्म मरण करता चला आ रहा है।
शरीरावगाहनाधिकार— जीवों के शरीर की अवगाहना का प्रमाण जघन्य से लेकर उत्कृष्ट उवगाहना तक अनेक भेदों में विभक्त है। सबसे जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के तीसरे समय में होती है और उसका प्रमाण घनांगुल के असंख्यातवें भाग है तथा उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभूरमण समुद्र में होने वाले महामत्स्य की होती है, उसका प्रमाण एक हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा तथा अढ़ाई सौ योजन मोटा है। मध्यम अवगाहना के अनेक विकल्प हैं। एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा चर्चा करने पर एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट अवगाहना कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण है, द्वीन्द्वियों में शंख की बारह योजन, त्रीन्द्रियों में चींटी की तीन कोश, चतुरिन्द्रियों में भ्रमर की एक योजन और पञ्चेन्द्रियों में महामत्स्य की एक हजार योजन प्रमाण है। ये उत्कृष्ट अवगाहना के धारक जीव स्वयंभूरमण द्वीप में स्वयंप्रभ पर्वत के उत्तरवर्ती क्षेत्र में रहते हैं। एकेन्द्रिय के जघन्य अवगाहना का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। द्वीन्द्रियों में सबसे जघन्य अवगाहना अनुन्धरी नामक जीव की होती है और उसका प्रमाण घनांगुल के संख्यातवें भाग मात्र है। उससे संख्यात गुणी जघन्यावगाहना त्रीन्द्रियों में कुन्थु की होती है। इससे संख्यात गुणी चतुरिन्द्रियों में काण मक्षिका की और इससे भी संख्यात गुणी पञ्चेन्द्रियों में व सिक्थक मत्स्य की होती है। यह सिक्थक मत्स्य, महामत्स्य के कान में रहता है।
कुलाधिकार—शरीर की उत्पत्ति में कारणभूत नोकर्मवर्गणा के भेदों को कुल कहते हैं। ये कुल, क्रम से पृथिवीकायिक के बाईस लाख कोटी, जलकायिक के सात लाख कोटी, अग्निकायिक के तीन लाख कोटी और वायुकायिक के सात लाख कोटी हैं। दो इन्द्रियों के सात लाख कोटी, तीन इन्द्रियों के आठ लाख कोटी, चार इन्द्रियों के नौ लाख कोटी और वनस्पतिकायिकों के अठाईस लाख कोटी हैं। पञ्चेन्द्रियों में जलचरों के साढ़े बारह लाख कोटी, पक्षियों के बारह लाख कोटी, पशुओं के दश लाख कोटी छाती के सहारे चलने वाले जीवों के नौ लाख कोटी, देवों के छब्बीस लाख कोटी, नारकियों के पच्चीस लाख कोटी और मनुष्यों के बारह लाख कोटी हैं। उपर्युक्त समस्त जीवों के कुल कोटियों की संख्या एक कोड़ा कोड़ी संतानवें लाख पचास हजार कोटी है जो अंकों में इस प्रकार हैं—१९७५०००००००००००। कहीं कहीं मनुष्यों की बारह लाख कोटी के बदले चौदह लाख कोटी बताई है, अत: उतना प्रमाण बढ़ जाता है।
गुणस्थानों और मार्गणाओं में जीव समास का विभाग— मिथ्यात्व गुणस्थान में चौदह, सासादन, असंयमसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तविरत और संयोग—केवली गुणस्थानों में संज्ञी पर्याप्त—अपर्याप्तक ये दो और शेष गुणस्थानों में संज्ञी पर्याप्त यह एक ही जीव— समास होता है। मार्गणाओं की अपेक्षा विचार करने पर तिर्यंञ्च गति में चौदह जीव समास होते हैं और शेष गतियों में संज्ञी पर्याप्त तथा सज्ञी अपर्याप्त ये दो ही जीवसमास होते हैं। यह जीवसमास की परिणति अशुद्ध जीव—संसारी जीव में ही रहती है अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान् इस परिणति से रहित हो चुके हैं।