भारतीय दर्शनों में आर्हत् (जैन) दर्शन का अपनी विशेष चिन्तन धारा के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह आध्यात्मिक होने के साथ—साथ एक यथार्थवादी दर्शन भी है। इसके चिन्तकों ने आत्मा, परमात्मा और इस अखिल ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में काफी गहन चिन्तन, मनन और अनुसन्धान किया है। आर्हत् दर्शन की तत्त्व और द्रव्य सम्बन्धी अवधारणायें विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक और यथार्थपरक हैं। सृष्टि के ईश्वर कर्तृत्व सम्बन्धी अवधारणा की अस्वीकृति के पीछे इस दर्शन की तत्त्व और द्रव्य स्वरूप प्रणाली का ही प्रमुख आधार है क्योंकि जैन दर्शन ने समग्र लोक को षड् द्रव्यात्मक माना है। अत: यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (लोक) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल—इन छह द्रव्यों का समूह है। ये सभी द्रव्य स्वभावसिद्ध, अनादि निधन और लोक स्थिति के कारणभूत हैं।
यद्यपि सभी दर्शनों में द्रव्य और उसका स्वरूप अपनी—अपनी मान्यताओं के अनुरूप प्रतिपादित है। आर्हत् दर्शन में सर्वत्र द्रव्य, तत्त्व और सत्—इन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ द्रव्य अनादि और अनन्त है। फिर भी सभी द्रव्य इन/छह के ही अन्तर्गत हैं इसीलिए ये द्रव्य छह ही हैं, न इनसे कम और न अधिक। एक—एक द्रव्य में अनन्त—अनन्त गुण हैं और एक—एक गुण की अनन्त—अनन्त पर्यायें हैं।
आर्हत् दर्शन में सम्यग्दर्शन—ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्ष का साधन माना गया है। इनमें तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। सामान्य विशेष रूप से इन तत्त्वों का अधिगम करना सम्यग्ज्ञान है तथा राग—द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यक् चारित्र है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष में सात तत्त्व हैं। इनमें पुण्य और पाप के संयोजन से ये ही नव पदार्थ कहे जाते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि समस्त प्राणियों को सुख—दु:ख के झूले में सदा झूलना पड़ता है। ये सुख और दु:ख उन्हें अपने पाप—पुण्य के फल स्वरूप प्राप्त होते हैं। जीव और अजीव का सम्बन्ध जीव को संसार में भटकाता है और जीव—अजीव के सम्बन्ध की आत्यन्तिक निवृत्ति ही जीव को पूर्ण सुखी अर्थात् मोक्ष का वासी बनाती है। जीव के द्वारा शुभाशुभ भावों के परिणाम स्वरूप शुभाशुभ कर्म (जो कि पौद्गलिक हैं) जीव से संश्लिष्ट हो जाते हैं और उसके सुख—दु:ख के एक निमित्त बनते हैं। सुख—दु:ख मोक्ष आदि की यह पदार्थवादी व्याख्या जैनदर्शन को यथार्थवादी बनाती है। पूर्ण मुक्ति अर्थात् मोक्ष में ही जीव पूर्णत: स्वभाव में आ पाता है, इसके अलावा जीव का संसार में जितना भी परिणमन है उसमें अजीव तत्त्वों, विशेषकर कर्म पुद्गल परमाणुओं की उसके साथ भिन्नाभिन्न मित्रता ही सहयोगी कारण बनती है। अजीव तत्त्व की सूक्ष्म व्याख्या में जैनदर्शन ने जितनी गहराई नापी है उसकी थाह पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है।
पूर्वोक्त सभी तत्त्वों, द्रव्यों और पदार्थों का यथार्थज्ञान करने के लिए जैन आचार्यों ने उपाय तत्त्व और ज्ञापन तत्त्व के रूप में प्रमाण, नय, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंङ्गी आदि दार्शनिक प्रस्थानों का प्रभावशाली विवेचन किया है जो संपूर्ण भारतीय दर्शन ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को जैनदर्शन की बहुमूल्य एवं अनूठी देन है। इन्हीं सबके आधार पर द्रव्य सम्बन्धी जैनदर्शन सम्मत विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
जैन धर्म—दर्शन में द्रव्य एक यथार्थ सत्ता है तथा उसकी अपनी एक विशिष्ट परिभाषा है। व्युत्पत्ति के आधार पर ‘यथारवं पर्यायैर्द्रूयन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि’—अर्थात् जो यथायोग्य अपनी—अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिसका लक्षण सत् है वह द्रव्य है। जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वह द्रव्य है तथा जो गुण और पर्याय का आश्रय है वह द्रव्य है। तत्त्वार्थसूत्र में भी द्रव्य की यही परिभाषायें की गयी हैं।
सभी पदार्थ ‘सत्’ (अस्तित्व) रूप है। उत्पाद, व्यय, और धौव्य—इन तीनों से युक्त ‘सत्’ कहलाता है। अपनी जाति का त्याग किये बिना जिस वस्तु में उत्पाद (नवीन पर्याय की उत्पत्ति), व्यय (पूर्व पर्याय का त्याग या नाश) तथा ध्रौव्य अर्थात् पूर्व एवं आगामी इन दोनों पर्यायों में अनादि काल से चले आये हुए वस्तु के अपने असली स्वभाव का नाश न होना (सुरक्षित रहना) इस तरह ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों से युक्त सत् (द्रव्य) होता है। इन्हीं को गुण और पर्याय शब्द द्वारा व्यक्त करके ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यम्’ कहा गया। अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है। अत: उक्त तीनों में ध्रौव्य का ही दूसरा नाम गुण है तथा उत्पाद और व्यय ये द्रव्य की पर्यायें हैं। दोनों परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है। गुण द्रव्य में सदा विद्यमान रहता है और पर्यायें उत्पन्न तथा विनष्ट होती रहती हैं। पर्यायें भी गुण से अलग नहीं रहतीं अर्थात् कोई भी गुण पर्याय के बिना नहीं रहता और कोई पर्याय बिना गुण के नहीं होती। द्रव्य में गुण अन्वयी और सहभावी होते हैं किन्तु पर्याय क्रमभावी होती है वे एक दूसरे से नहीं मिलती अत: पर्यायों का स्वभाव व्यतिरेकी होता है। पर्यायें प्रतिसमय बदलती रहती हैं और ये गुण एवं पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहलाता है।
यहां गुण और पर्याय का अर्थ समझ लेना भी आवश्यक है। जिसके द्वारा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अलग किया जाता है वह गुण कहलाता है अर्थात् अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाले द्रव्य के सहभावी (कभी अलग न होने वाले) धर्म (स्वभाव) को ‘गुण कहते हैं और द्रव्य के विकास को अर्थात् द्रव्य की भिन्न—भिन्न अवस्थाओं को ‘पर्याय’ कहते हैं। जैसे स्वर्ण और चाँदी इन दोनों की अलग—अलग पहचान जिन गुणों से होती है वे उस द्रव्य के गुण हैं। पीलापन (पीतत्व), भारीपना और कोमलपना आदि स्वर्ण के तथा श्वेतत्व, हल्कापना और कठोरपना आदि चाँदी के गुण हैं। ये द्रव्य से कभी पृथक््â नहीं हो सकते। इसी सोने या चाँदी के कुण्डल, भुजबंध, कंगन या अंगूठी आदि रूप जो आभूषण बनवाते रहते हैं यही उस द्रव्य की पर्यायें हैं। अत: परिवर्तन मात्र आकृतियों (पर्यायों) में हुआ करता है तथा स्वर्णत्व या रूपकत्व रूप में सोना या चांदी दोनों अवस्थाओं में सुरक्षित रहता है। इस तरह गुण सहभावी होने से उसके स्वरूप की रक्षा करता है तथा स्वर्णत्व या रूपकत्व रूप में सोना या चांदी दोनों अवस्थाओं में सुरक्षित रहता है। इस तरह गुण सहभावी होने से उसके स्वरूप की रक्षा करता हुआ द्रव्य में ध्रौव्य (नित्य) रहता है किन्तु पर्यायें क्रमभावी होने से पूर्व पर्याय का विनाश और दूसरी पर्याय की उत्पत्ति होती है। अत: पर्याय को क्रमभावी कहा गया है।
इसी विषय को आचार्य समन्तभद्र ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है—
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।।
अर्थात् घट का इच्छुक उसका नाश होने पर दु:खी होता है, मुकुट का इच्छुक उसका उत्पाद होने पर हर्षित होता है किन्तु स्वर्ण का इच्छुक न दु:खी होता है, न हर्षित होता है अपितु वह मध्यस्थ रहता है। अत: एक ही समय में यह शोक, प्रमोद और माध्यस्थभाव बिना कारण के नहीं हो सकता, इससे प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सिद्ध होता है।
इस तरह स्वर्ण आदि द्रव्य का भिन्न—भिन्न अवस्थाओं में परिणमन होने पर भी उनका द्रव्यत्व बना ही रहता है। जैनदर्शन में प्रत्येक द्रव्य को नित्य—अनित्य दोनों रूप माना गया है अर्थात् अलग—अलग अवस्थाओं (पर्यायों) को प्राप्त करते रहने पर भी अपना स्वरूप न छोड़ने के कारण द्रव्य नित्य भी है और वही द्रव्य अलग—अलग पर्यायों को प्राप्त करता रहता है अत: अनित्य भी हैं
जीवद्रव्य—
जीवद्रव्य चैतन्यवान् है, जानना एवं देखना उसका स्वभाव है। तत्त्वार्थसूत्र में उपयोग को जीव का लक्षण कहा है। वह उपयोग (ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव) जीव का आत्मभूत लक्षण है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता। उपयोग का कारण चेतना शक्ति है। यद्यपि जीव (आत्मा) द्रव्य अनन्त गुण—पर्यायों का पिण्ड है किन्तु इन सबमें उपयोग मुख्य है। जीव के चैतन्यानुविधायी परिणाम को उपयोग कहते हैं अर्थात् वस्तु का स्वरूप जानने के लिए जीव का जो भाव प्रवृत्त होता है, वह उपयोग कहलाता है। यही जीव का लक्षण है।
अजीवद्रव्य—
जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव द्रव्य है। दूसरे शब्दों में जिसमें चेतनागुण का अभाव है। जिसे सुख—दु:ख का ज्ञान नहीं है, हित की इच्छा और अहित से भय नहीं है, वह जड़ स्वभाव वाला अजीव द्रव्य है।
अजीवद्रव्य के भेद—
अजीव द्रव्य के दो प्रकार हैं—रूपी और अरूपी। अजीव द्रव्य के पांच भेद भी माने जाते हैं। १. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश और ५. काल। इन पांच द्रव्यों में जीव द्रव्य सम्मिलित कर लेने पर छह द्रव्य कहलाते हैं। इनमें काल द्रव्य अप्रदेशी होने के कारण इसे छोड़कर शेष पांच द्रव्य (कायवान् होने से) ‘अस्तिकाय’ कहे जाते हैं तथा इन छह द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य रूपी है शेष पांच द्रव्य अरूपी हैंं
रूपी—जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श—ये गुण पाये जायें वह रूपी द्रव्य है। रूपी द्रव्य के चार भेद हैं–स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और अणु।
१. जिसके खण्ड न हों जो सर्वथा अविभाज्य हो वह स्कन्ध कहलाता है। पुद्गल के जितने भेद (परमाणु तक) होते हैं वे सब स्कन्ध हैं अर्थात् अपने अवयवों के साथ (अनेक भेदयुक्त) सामान्य विशेषात्मक पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध कहते हैंं
२. स्कन्ध के कल्पित भाग अर्थात् स्कन्ध के आधे विभाग को स्कन्ध देश कहते हैं।
३. स्कन्धदेश के द्वयगुणक पर्यन्त आधे—आधे करने पर जितने भेद निष्पन्न होंगे वे सब स्कन्ध प्रदेश हैं अर्थात् स्कन्ध का सर्वसूक्ष्म अंश।
४. द्वयगुणक में भी भेद करने से अणु की उत्पत्ति होती है। अणु अविनाशी है अर्थात् इसमें भेद नहीं किये जा सकते। ये सब पुद्गल होने से रूपी हैं। अत: स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और अणु भेद वाला पुद्गल द्रव्य रूपी होता है। यही जीव के साथ कर्म—नोकर्म रूप होकर बद्ध होते हैं।
अरूपी—जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श—इन गुणों का अभाव हो वह अरूपी द्रव्य है। धर्म, अधर्म और आकाश—ये द्रव्य अरूपी हैं। स्पर्शादिक गुण न होने से काल द्रव्य भी अरूपी है।
१. पुद्गल द्रव्य (Matter of Energy)—‘पुद्गल’ जैनधर्म का परिभाषिक शब्द है। जो द्रव्य प्रति समय मिलता—गलता, बनता—बिगड़ता एवं टूटता—जुड़ता रहे वह पुद्गल है। अर्थात् जो वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श युक्त हो, जिसमें मिलने एवं अलग होने आदि का स्वभाव है उसे पुद्गल कहा जाता है। छह द्रव्यों में यही मात्र मूर्त या रूपी हैं यह अनन्त परिमाण है। वस्तुत: पुद्गल ही एकमात्र ऐसा द्रव्य है जो खंडित भी होता है और पुन: परस्पर सम्बद्ध भी होता है। यह छुआ या चखा, सूंघा और देखा भी जा सकता है।
पुद्गल द्रव्य की पर्यायें—शब्द, बंध सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत—ये पुद्गल द्रव्य की अवस्थाएँ हैं।
१. शब्द—एक पुद्गल स्कन्ध के साथ दूसरे स्कन्ध के टकराने, सम्बन्ध होने या कम्पन होने पर जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह शब्द है। जैनदर्शन में शब्द को पौद्गलिक माना गया है। जैनदर्शन की यह मान्यता इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान की कसौटी पर पूर्णत: खरी उतरती है। टेपरिकार्डर, रेडियो, दूरदर्शन, वायरलेस, वीडियो, दूरभाष मोबाइल, इन्टरनेट आदि अनेकों इसके प्रमाण हैं। शब्द श्रोतेन्द्रिय (कर्णेन्द्रिय) का विषय है। शब्द गुण नहीं अपितु पुद्गल द्रव्य की ही एक पर्याय है जबकि नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिक इसे आकाश का गुण मानते हैं। पुद्गल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि जो लक्षण होते हैं वे सब शब्द में पाये जाते हैं। शब्द पुद्गल द्वारा रुकता है, पुद्गलों को रोकता है, शब्द ग्रहण एवं धारण किया जाता है। वस्तुत: पुद्गल के अणु और स्कन्ध भेदों की अनेक जातियों में से एक भाषा वर्गणा इस लोक में सर्वत्र व्याप्त है, उसी की तरंगों के कम्पन से शब्द एक स्थान पर रेडियो आदि या साक्षात् रूप से सुनाई पड़ता है। वैज्ञानिक अब तो ऐसा यंत्र बनाने की सोच रहे हैं जो सैकड़ों—हजारों वर्ष पहले लोक में व्याप्त राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों की वाणी रूप शब्दों, ध्वनियों भाषा वर्गणाओं को वर्तमान में भी ग्रहण कर सकें।
शब्द के भेद हैं—भाषात्मक और अभाषात्मक। भाषात्मक शब्द के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक—ये दो भेद हैं। बोल—चाल में आने वाली अनेक प्रकार की जो भाषायें हैं जिनमें ग्रंथ भी लिखे जाते हैं वे सब अक्षरात्मक शब्द हैं तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों द्वारा जो ध्वनि निकलती है वे अनक्षरात्मक शब्द हैं।
अभाषात्मक शब्द के भी दो भेद हैं—१. वैस्रसिक (मेघ आदि गर्जना रूप) शब्द और २. प्रायोगिक शब्द। प्रायोगिक शब्द के चार भेद हैं—१. तत शब्द अर्थात् चमड़े से मढ़े हुए ढोल, मृदंग आदि का शब्द २. वितत शब्द अर्थात् वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द, ३. घन शब्द—अर्थात् झालर, घण्टा आदि का शब्द एवं ४. सौषिर शब्द अर्थात् शंख, बाँसुरी आदि का शब्द।
२. बन्ध—बन्ध का अर्थ है जुड़ना, बंधना संयुक्त होना या एकत्व परिणाम। यह भी पौद्गलिक है। इसके दो भेद हैं—वैस्रसिक और प्रायोगिक। जिसमें पुरुष का प्रयोग अपेक्षित नहीं है, जैसे स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से होने वाला इन्द्रधनुष, उल्का, बिजली, मेघ, अग्नि आदि सम्बन्धी वैस्रसिक बन्ध है तथा जो बन्ध पुरुष के निमित्त से होता है वह प्रायोगिक बन्ध है। जैसे लाख और लकड़ी का अजीव विषयक बन्ध और कर्म तथा नोकर्म का जो जीव से बन्ध होता है वह जीवजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है।
३. सूक्ष्मत्व—पुद्गलों का भेद होने पर सूक्ष्मता उत्पन्न होती है। यह भी पुद्गल में ही प्राप्त होती है। इसके दो भेद हैं—अन्त्य और आपेक्षिक। अन्त्य सूक्ष्मता परमाणुओं में ही पायी जाती है। जबकि दो छोटी, बड़ी वस्तुओं अर्थात् बेल, आंवला, बेर आदि रूप में तुलना की दृष्टि आपेक्षिक सूक्ष्मता है।
४. स्थूलत्व—यह भी पुद्गल से उत्पन्न होने के कारण उसकी पर्याय है। जिस वस्तु के पुद्गल अधिक फैले रहते हैं वह वस्तु स्थूल पर्याय युक्त होती है। इसके भी अन्त्य और आपेक्षिक—ये दो भेद है। अन्त्य स्थूलता विश्वव्यापी महास्कन्ध में पायी जाती है तथा आपेक्षिक स्थूलता बेर आंवला, बेल आदि में होती है।
५. संस्थान—इसका अर्थ है आकृति (आकार) इत्थं लक्षण तथा अनित्थं लक्षण के भेद से संस्थान के दो भेद है। जिस आकार का यह इस तरह का है—ऐसा बतलाया जा सके वह इत्थं लक्षण है। जैसे यह वस्तु गोल, चौकोर या त्रिकोण आदि रूप है। तथा जिसका निश्चित आकार बतलाया न जा सके वह अनित्थं लक्षण संस्थान है। जैसे मेघ आदि का आकार।
६. भेद—पुद्गल पिण्ड का भंग (खण्ड) होना भेद है। इसके छह भेद हैं—१. उत्कार (बुरादा आदि रूप), २. चूर्ण (गेहूँ आदि का आटा, सत्तू आदि रूप), ३. खण्ड (मिट्टी के घड़े के टुकड़े—टुकड़े होना), ४. चूर्णिका (उड़द, मूंग, चना आदि के दाल रूप टुकड़े), ५. प्रतर (अभ्रक, मिट्टी, भोजपत्र आदि की तहें निकालना) तथा ६. अणुचटन अर्थात् गर्म लोहे पर घन मारने या लोहे आदि की वस्तु को शान पर चढ़ाने से जो अग्निकण (स्फुिंलग) निकलते हैं वे अणु—चटन हैं।
७. तम (अन्धकार)—यह पदार्थ प्रतिरोधक पुद्गल की पर्याय है जो देखने में बाधक होती है। नैयायिक और वैशेषिक तम को सर्वदा अभावरूप मानते हैं, किन्तु आंखों से उसका ज्ञान होता है अत: अन्धकार भी पौद्गलिक होने से मूर्तिक ही है। क्योंकि तम भी पदार्थों को ढकने वाला भावात्मक द्रव्य है।
८. छाया—प्रकाश पर आवरण पड़ने पर छाया उत्पन्न होती है।
९. आतप—सूर्य आदि का उष्ण प्रकाश आतप है।
१०. उद्योत—चन्द्रमा, मणि, जुगनू आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं।
धर्मद्रव्य—धर्मद्रव्य गतिशील जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति, हलन—चलन आदि क्रियाओं में सहायक होता है। जैसे मछली की गति में पानी सहायक है। धर्मद्रव्य लोक के हर कोने में (सर्वत्र) विद्यमान है।
अधर्मद्रव्य—जैसे धर्मद्रव्य गति में सहायक है उसके विपरीत अधर्मद्रव्य स्थिति में परिणाम वाले जीव और पुद्गलों को स्थिर रखने (ठहरने) में सहायक है। अधर्मद्रव्य की तरह असंख्यात प्रदेशी, सकल लोकव्यापी, त्रिकाल, स्थायी, अरूपी और अचेतन है।
वस्तुत: जीव, पुद्गलादि द्रव्य अपनी ही प्रेरणा से गमन (गति), स्थिति आदि क्रियाएं करते हैं और ऐसा करते हुए धर्म, अधर्म द्रव्य की सहायता लेते हैं।
आकाशद्रव्य—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल—इन द्रव्यों को रहने या आश्रय के लिए स्थान (अवकाश या अवगाह) देना आकाश द्रव्य का स्वभाव है। वस्तुत: आकाश जीवादि सभी द्रव्यों के रहने का स्थान है। लोक, अलोक दोनों में व्याप्त आकाश, अनन्तप्रदेशी अविभाज्य पिण्ड, त्रिकाल स्थायी अरूपी द्रव्य है। लोकाकाश तथा अलोकाकाश के भेद से यह दो प्रकार का है।
कालद्रव्य—यह धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल द्रव्यों के वर्तना पर्याय परिणति में निमित्त कारण है। दूसरे शब्दों में इसमें परिवर्तन अर्थात् पर्याय अवस्था की उत्पत्ति में सहायक होने का गुण है। कालद्रव्य प्रति समय होने वाली पर्याय का कारण है इसलिए उसे अणुरूप माना गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक—एक कालाणु स्थित हैं, इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशों के धारक लोकाकाश में असंख्यात ही कालद्रव्य हैं और प्रत्येक कालद्रव्य एक—एक प्रदेश का धारक है; इस कारण अविभागी पुद्गल परमाणु के समान इसे भी अप्रदेशी माना जाता है। इस तरह काल के कायत्व न होने से छह द्रव्यों में काल को छोड़ शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय है। कालद्रव्य परमाणु की तरह एक प्रदेशी है अत: वह अस्तिकाय (कायवान्) नहीं है। क्योंकि अनागत काल की उत्पत्ति नहीं हुई तथा उत्पन्न काल का विनाश हो जाता है और प्रदेशों का प्रचय होता नहीं अत: काल अस्तिकाय नहीं है।
जैनदर्शन के अनुसार अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्त्व—ये साधारण गुण छह द्रव्यों में समान रूप से रहते हैं।
१. अस्तित्व का अर्थ है जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता।
२. जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य में अर्थक्रिया (कुछ न कुछ कार्य करते रहना) हो वह वस्तुत्व गुण है।
३. जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय रूप परिवर्तित हो उसे द्रव्यत्व कहते है।
४. अगुरुत्वलघुत्व—जिस शक्ति के रहते द्रव्य की एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप नहीं होती या एक दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता अथवा एक द्रव्य के गुण बिखरकर अलग—अलग न होने देने वाला अगुरुलघुत्व गुण है।
५. जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कोई न कोई आकार हो वह प्रदेशत्व गुण है।
इनके अतिरिक्त द्रव्यों में ज्ञान, दर्शन सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तना—हेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व—ये सोलह विशेष गुण भी होते हैं किन्तु वे सब द्रव्यों में समान रूप में नहीं रहते अत: ये विशिष्ट गुण कहलाते हैं। छह द्रव्यों में ये इस प्रकार होते हैं।
१. जीव द्रव्य में ज्ञान—दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व—ये छह गुण होते हैं।
२. पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, अचेतनत्व और मूर्तत्व—ये छह गुण होते हैं।
३. धर्म द्रव्य में गतिहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व—ये तीन गुण हैं।
४. अधर्म द्रव्य में अवगाहनत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व—ये तीन गुण हैं।
५. आकाश द्रव्य में अवगाहनत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व—ये तीन गुण हैं।
६. काल द्रव्य में वर्तना—हेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व—ये तीन गुण हैं।
वस्तुत: जीव और अजीव—ये दो तत्व मुख्य हैं। अन्य तत्व इन दोनों के संयोग—वियोग से बने हैं। मोक्ष का अधिकारी जीव है अत: सर्वप्रथम जीव तत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद जीव की अशुद्धि अवस्था के होने में पुद्गल निमित्त है अत: अजीव तत्त्व का प्रतिपादन है। इन दोनों तत्त्वों की मुख्यता की दृष्टि से बाकी तत्त्व भावरूप में जीव की पर्याय है और द्रव्य रूप में पुद्गल की। शुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पुण्य कहलाता है जो कि जीवों में आह्लाद रूप है। अशुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पाप कहलाता है जो कि जीव के दु:ख का हेतु है। जीव और अजीव का संयोग आस्रवपूर्वक होता है इसलिए आस्रव और बन्ध तत्व कहे गये हैं।
वस्तुत: पुण्य—पाप और बन्ध—ये पौद्गलिक (अजीव) की पर्याय हैं। आस्रव आत्मा की शुभ—अशुभ परिणति भी है और शुभ—अशुभ कर्म पुद्गलों का आकर्षण भी है। जीव को अपनी अशुद्ध दशा और पुद्गल की निमित्तता से छुटकारा पाना है तो वह संवर और निर्जरा पूर्वक ही प्राप्त हो सकता है। अन्त में जिसके द्वारा जीवपूर्ण मुक्त हो जाये वह मोक्ष है। मोक्ष ही मुख्य साध्य है और जीव साधक है। आत्मा को शुद्धस्वरूप तक पहुँचाने के लिए उसकी अशुद्धि के निमित्त कारणों की मीमांसा आवश्यक है अत: भगवान महावीर स्वामी ने आत्म तत्त्व की व्याख्या के साथ—साथ अजीव तत्व की व्याख्या भी सूक्ष्मता पूर्वक की। जैन दर्शन के अध्यात्मवाद को समझाने के लिए उसका यथार्थवाद समझना जरूरी है। यथार्थवाद समझने के लिए उसकी द्रव्यमीमांसा समझना जरूरी है। जैनदर्शन के आध्यात्मिक यथार्थवाद को समझने के लिए सारभूत इस दोहे को समझना जरूरी है।
जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्व का सार।
और जो कुछ है सो, या ही को विस्तार।।