विश्व के समस्त दर्शनों में जैनदर्शन का स्थान सर्वोपरि है। जैनदर्शन अद्भुत, अनन्य और अपराजित दर्शन है। यद्यपि भारतीय दर्शनों में जितने भी आस्तिकवादी दर्शन हैं, वे पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं और इसी कारण उन्होंने आत्मा का अस्तित्व भी स्वीकार किया है, तथापि आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में सभी दर्शनों की मान्यताएँ भिन्न—भिन्न हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीयदर्शनों के अन्तर्गत सर्वोत्कृष्ट अनादि—अनन्त जैनदर्शन की भी आत्मा और परमात्मा सम्बन्धी मान्यता अपने आप में एक विशिष्ट मान्यता है। जैनदर्शन के अपने मौलिक सिद्धान्त हैं और उन सभी के सम्बन्ध में इस दर्शन ने गम्भीर चिन्तन किया है। आत्मा से परमात्मा बनने में जो आत्मा का क्रमिक विकास होता है उसे जैनदर्शन में गुणस्थान नाम से अभिहित किया गया है। आत्मा के क्रमिक विकास का वर्णन वैदिक और बौद्ध धर्मों में भी उपलब्ध है। वैदिक दर्शन में योगवाशिष्ठ और पातञ्जलि योग में भूमिकाओं तथा बौद्धदर्शन में अवस्थाओं के नाम से इसका अत्यन्त स्थूल वर्णन मिलता है, किन्तु जैसा जैनदर्शन में गुणस्थान का विस्तार सूक्ष्म, स्पष्ट व विस्तृतरूप से किया गया है वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है।
गुणों अर्थात् आत्मशक्तियों के स्थानों—विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। मोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम तथा योग के रहते हुए जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जीवों का विभाग किया जावे वे परिणाम विशेष गुणस्थान कहलाते हैं। यथा ज्वराक्रान्त रोगी का तापमान थर्मामीटर (ज्वरमापक यंत्र) द्वारा मापा जाता है, तथैव आत्मा का आध्यात्मिक विकास या पतन जानने के लिए गुणस्थान एक प्रकार से थर्मामीटर है।
अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के वशीभूत होकर विषय और कषाय में प्रवृत्ति करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता रहा है। आत्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञान के अभाव में भव—बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर भी वह सफलता प्राप्त नहीं कर सका। आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं होने का प्रमुख कारण यह रहा कि इस जीव की दृष्टि अनादि काल से ही विपरीत रही और आत्मा से भिन्न पर पदार्थों में अपनत्वबुद्धि—आत्मबुद्धि करते हुए उन्हीं की प्राप्ति और उनके संरक्षण में अहर्निश प्रयत्नशील रहा, किन्तु इच्छानुसार उनकी प्राप्ति नहीं हो सकने से आकुल—व्याकुल होता रहा है। इस विपरीत दृष्टि वाले जीव को ग्रंथकारों ने बहिरात्मा कहा है। बहिरात्मा अपनी विपरीत—मिथ्यादृष्टि को छोड़कर यथार्थ—सम्यग्दृष्टि वाला अन्तरात्मा होकर किस प्रकार आत्मविकास करते हुए परमात्मा बन जाता है, उसके क्रमिक विकास के सोपान ही तो गुणस्थान कहे जाते हैं। अथवा यों कहें कि मोह और मन—वचन—कायरूप योग की प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार—चढ़ाव का नाम गुणस्थान है।
परिणाम यद्यपि अनन्त हैं, किन्तु उत्कृष्ट मलिन—अशुद्ध परिणामों से उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे आगे वीतराग परिणाम तक की अनन्त वृद्धियों के क्रम को कहने के लिए उनको १४ श्रेणियों में विभाजित किया गया है, वे ही चौदह गुणस्थान कहे जाते हैं।
१. मिथ्यादृष्टि २. सासादन सम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) ४. अविरत—सम्यग्दृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरणसंयत ९. अनिवृत्तिकरणसंयत १०. सूक्ष्मसाम्परायसंयत ११. उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थसंयत १२. क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थसंयत १३. सयोगकेवली और १४. अयोगकेवलीगुणस्थान।
शंका—परिणाम तो अनन्त प्रकार के हैं अत: जितने परिणाम हैं उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं कहे हैं ?
समाधान—नहीं, क्योंकि जितने परिणाम होते हैं उतने ही गुणस्थान यदि माने जावें तो (समझने, समझाने या कहने का) व्यवहार नहीं चल सकता अत: द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नियत संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये हैं।
मिथ्यादृष्टिगुणस्थान—
दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से अतत्व श्रद्धानरूप परिणाम रहता है इसी कारण जब तक जीव को आत्मस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान नहीं होता तब तक मिथ्यादृष्टि कहलाता है। अनादिकाल से संसार के बहुभाग प्राणी इसी प्रथमगुणस्थान की भूमिका में रह रहे हैं। एकान्त, विपरीत, संशय, अज्ञान और वैनयिक मिथ्यात्वरूप परिणामों के कारण यह जीव इस पर्याय में तो दु:खी रहता ही है, किन्तु नवीन कर्मबन्ध करके आगामी पर्यायों में भी दु:खी रहने के कारण सामग्री संचित करता रहता है। मिथ्यात्वकर्म के उदय से यह जीव शरीर की उत्पत्ति को ही आत्मा की उत्पत्ति और शरीर के नाश को ही आत्मा का नाश मानता है। पुण्य—पाप के निमित्त से होने वाली इन्द्रिय जनित सुख—दु:ख की सामग्री के संयोग—वियोग में हर्ष–विषादरूप परिणामों के द्वारा आकुल—व्याकुल होता रहता है। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में जीव को ‘स्व’ और ‘पर’ का भेदज्ञान नहीं रहता, न तत्त्व का श्रद्धान होता और न आप्त, आगम और निर्ग्रंथ गुरु पर श्रद्धान ही होता है।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के स्वस्थान और सातिशय की अपेक्षा दो भेद हैं। मिथ्यात्वरूप अवस्था में ही जो रच—पच रहा है वह स्वस्थान मिथ्यादृष्टि है। सद्गुरु के उपदेश से आत्मस्वरूप का ज्ञान होने पर कषायों की मन्दता तथा आत्मपरिणामों की विशुद्धि बढ़ती है तब उस आत्मविशुद्धि के कारण इस जीव के अनादि कालीन बन्ध को प्राप्त कर्मों का मन्द उदय तथा नवीनकर्मों का बन्ध हलका होने लगता है। उस समय में यह जीव करणलब्धि के प्राप्त होने पर अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में आत्मविशुद्धि करता हुआ सम्यक्त्वाभिमुख होता है यही सातिशय मिथ्यात्वावस्था है। सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अपनी विशुद्धता के द्वारा नवीन बध्यमान कर्मों की स्थिति को अन्त:कोड़ाकोड़ीसागर से अधिक नहीं बांधता और सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति को उससे संख्यात हजारसागर कम करता है। इसी विशुद्धि के द्वारा मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन सात का उपशम करके सम्यग्दृष्टि होता हुआ चतुर्थगुणस्थान को प्राप्त होता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान आत्मविकास की प्रारम्भिक अवस्था है। यद्यपि यह गुणस्थान आत्मा के ह्रास की अवस्था का द्योतक है, तथापि आत्मा की उन्नतावस्था का प्रारंभ यहीं से होता है।
सासादन सम्यग्दृष्टिगुणस्थान—
सासादन का अर्थ है सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की विराधना। जिस आत्मा ने मिथ्यात्व का क्षय तो नहीं किया है, किन्तु मिथ्यात्व को उपशान्त करके सम्यक्त्वावस्था प्राप्त की थी उस आत्मा के मिथ्यात्व के साथ उपशमित शेष ६ प्रकृतियों में अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ में से किसी एक कषाय के उदय से सम्यक्त्वरूप पर्वत से नीचे गिरने पर और मिथ्यात्वभूमि को प्राप्त नहीं होने से पूर्व की जो अवस्था है वह सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की अवस्था है। इस गुणस्थान में जीव १ समय से लेकर ६ आवलिकाल तक अधिक से अधिक रहता है। तत्पश्चात् नियम से वह मिथ्यादृष्टिगुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। काल का सबसे सूक्ष्म अंश समय कहलाता है ऐसे असंख्यात समयों की एक आवली होती है। छह आवली प्रमाण काल एक मिनट से भी बहुत छोटा होता है।
शंका—सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से मिथ्यादृष्टि भी नहीं है, समीचीन तत्त्वरुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है तथा समीचीन और असीमचीनरूप उभय तत्त्वरुचि (सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि) का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि नहीं है, क्योंकि समीचीन, असमीचीन तथा उभयरूप दृष्टि के आलम्बनभूत वस्तु के अलावा अन्य कोई वस्तु नहीं पायी जाती है अत: सासादन गुणस्थान असत् सिद्ध होता है।
समाधान—नहीं, क्योंकि इस गुणस्थान में विपरीताभिनेवश पाया जाता है अत: उसे असद्दृष्टि ही मानना चाहिए।
शंका—तो फिर इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन कहना उचित नहीं है ?
समाधान—नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धीकषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश सासादन गुणस्थान में पाया जाता है अत: इस गुणस्थानवर्ती जीव असद्दृष्टि तो है, किन्तु मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेष वहां नहीं पाया जाता अत: उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं। अथवा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीयगुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आचरण करने वाली होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। अत: इस गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है।
शंका—सासादनगुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है अत: सम्यग्दृष्टि व्यपदेश वैâसे बन सकता है ?
समाधान—नहीं, क्योंकि वह पहले सम्यग्दृष्टि था इसलिए भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि व्यपदेश बन जाता है। बात यह है कि उपशम सम्यक्त्व का काल जब कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण शेष रह जाता है तब अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्टय में से किसी एक का उदय होने से सासादन गुणस्थान होता है अत: सम्यक्त्व के काल में यह गुणस्थान सम्यक्त्व से च्युत होते हुए बनता है अत: सम्यग्दृष्टि व्यपदेश बन जाता है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान—
उपशम सम्यग्दर्शन के काल में ही यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जाता है तो चतुर्थगुणस्थान से च्युत आत्मा तृतीयगुणस्थान को प्राप्त हो जाती है। अत: यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि अनादिमिथ्यादृष्टि जीव के सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान सम्यक्त्व से गिरते हुए ही बनते हैं चढ़ने की अपेक्षा से नहीं। हाँ ! सादिमिथ्यादृष्टि जीव चढ़ते हुए भी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थान को प्राप्त करता है। चढ़ने वाले जीव के परिणाम विशुद्ध हैं और उतरने वाले जीव के परिणाम निष्कृष्ट हैं यही सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय की समानता होते हुए भी दोनों में अन्तर है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम न तो शुद्ध सम्यक्त्वरूप ही रहते और न शुद्ध मिथ्यात्वरूप ही रहते, किन्तु उभयात्मक होते हैं। अर्थात् जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़ का स्वाद खट्टा—मीठा मिश्रितरूप होता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम सम्यक्त्व—मिथ्यात्व की मिश्रितावस्था के कारण सम्यग्मिथ्यात्वरूप होते हैं। यद्यपि मिथ्यात्वगुणस्थान की अपेक्षा यह गुणस्थान ऊँचा है तथापि मिश्रपरिणामों के कारण यथार्थ प्रतीति नहीं रहती है। इस गुणस्थान का काल अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान वाला जीव सम्यक्त्व प्रकृति का यदि उदय आ जावे तो चतुर्थगुणस्थान को प्राप्त हो जाता है और नहीं तो नीचे के गुणस्थानों में उसका पतन अवश्यंभावी है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नीचे गिरता है तो सीधा मिथ्यात्वोदय से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को ही प्राप्त होता है। अर्थात् तृतीयगुणस्थानवर्ती जीव प्रथम और चतुर्थगुणस्थान को ही प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में मरण नहीं होता है।
शंका—संशय व वैनयिक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या अन्तर है ?
समाधान—वैनयिक व संशयमिथ्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सभी शास्त्रों में से किसी एक की भी भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा ऐसा मानकर संशयरूप से भक्ति करता है उसको किसी एक देव या शास्त्र में निश्चय नहीं है, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि को दोनों में ही निश्चय है। यही अन्तर है।
असंयतसम्यग्दृष्टि—
जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरत नहीं है और न त्रस—स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त हैं, किन्तु केवल जिनेन्द्रकथित तत्त्व का श्रद्धान करता है वह असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवर्ती जीव है। इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सप्तप्रकृतियों के उपशम से औपशमिक, क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह सर्वघाति प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय तथा उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्वरूप देशघातिप्रकृति के उदय से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है जिससे तत्त्वश्रद्धान तो उत्पन्न होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय रहने से संयमभाव जागृत नहीं होते अत: इसे असंयत या अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं।
असंयतसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं होता, तथापि इन्द्रिय विषयों को अन्यायपूर्वक नहीं भोगता। इसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यभाव प्रकट होते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव की बाहरी क्रियाओं में और मिथ्यादृष्टि की बाह्य क्रियाओं में कोई खास अन्तर नहीं दिखाई देता, किन्तु दोनों की अन्तरंग परिणति में बहुत बड़ा अन्तर होता है। मिथ्यादृष्टि की परिणति सदैव मलीन और आर्त—रौद्र—ध्यानरूप होती है, किन्तु सम्यग्दृष्टि की परिणति प्रशस्त, विशुद्ध और धर्मध्यानमय होती है। अन्याय और अनीति पूर्वक व्यापार आदि कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करता है तथा विषयभोगों में मिथ्यादृष्टि के समान तीव्राशक्ति से युक्त न होता हुआ उनमें अनासक्त रहते हुए उनका सेवन करता है। इससे अतिरिक्त सम्यक्त्व की भूमिका योग्य वह जो कुछ भी आचरण करता है उसे आचार्यों ने सम्यक्त्वाचरण नाम दिया है। शुद्धोपयोग के अंश की प्रकटता या स्वानुभूति, स्वरूपाचरणचारित्र आदि की प्राप्तिरूप ऐसी कोई बात वहां उपलब्ध नहीं होती। हाँ ! दृष्टि की समीचीनता हो जाने से वह आत्म—अनात्मा के भेदज्ञान (विवेक) से सम्पन्न अवश्य होता हैं
इस प्रकार प्रारम्भ के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय की अपेक्षा से कहे गये हैं तथा सासादनगुणस्थान सम्यक्त्वकाल में अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक के उदय की अपेक्षा बनता है। मिथ्यात्व के उदय में प्रथम, अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीय और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में तृतीय गुणस्थान बनता है जबकि उक्त सप्तप्रकृतियों के क्षय या उपशम अथवा यथासम्भव क्षयोपशम से चतुर्थ गुणस्थान बनता है।
देशसंयतगुणस्थान—
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया व लोभ कषाय के क्षयोपशम से जिस गुणस्थान में एकदेशरूप चारित्र प्रकट होता है वह गुणस्थान देशसंयतगुणस्थान कहलाता है। संयतासंयत या देशविरत इसी के नामान्तर हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव िंहसादि पांच पापों का एकदेशरूप से त्याग करता है। चतुर्थगुणस्थान में श्रद्धा और विवेक की उपलब्धि होने पर जब उसके मन में यह विचार उठता है कि मैं जिन भोगों को भोग रहा हूँ वे कर्मबन्ध के कारण हैं, विनश्वर हैं तथा अन्त में दु:खों को देने वाले हैं तो देशसंयम की प्रतिबन्धक कषाय का क्षयोपशम होते ही वह हिंसा—झूठ—चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पांच पापों का स्थूल रूप से त्याग करता है। संकल्पपूर्वक त्रसिंहसा के त्याग से अहिंसाणुव्रत राज्यविरुद्ध, समाज विरुद्ध, देशविरुद्ध, धर्मविरुद्ध असत्य भाषण का त्याग कर सत्याणुव्रत, राजकीय दण्ड प्राप्त कराने में कारणभूत चोरी का परित्याग कर अचौर्याणुव्रत, अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त अन्य समस्त स्त्री मात्र को अपनी माता—बहिन और बेटी दृष्टि से देखते हुए उन पर बुरी भावना से दृष्टिपात करने का त्याग करके ब्रह्माचर्याणुव्रत तथा आवश्यकताओं को सीमित रखते हुए अनावश्यक परिग्रह संचय का परित्याग करके परिग्रह परिमाणाणुव्रत को धारण करता है। इन पाँचों अणुव्रतों की अभिवृद्धि एवं रक्षा के लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों का भी परिपालन करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम अथवा प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय की तरतमता के कारण देशसंयत भावों के दर्शन, व्रत, सामायिकादि प्रतिमारूप एकादश सोपान होते हैं जिनपर आरोहण कर आत्मविकास की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। इस गुणस्थान से चारित्रिक विकास का प्रारम्भ होता है तथा पूर्ण संयम को प्राप्त करने का अभ्यास भी यहीं किया जाता है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान—
प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम और संज्वलनकषाय का तीव्र उदय रहने पर प्रमाद सहित संयम का होना प्रमत्तसंयत गुणस्थान है। इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो जाने के कारण हिंसादि पांच पापों का सर्वदेशरूप त्याग होने से महाव्रती हो जाता है, किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय रहने से प्रमाद विद्यमान रहता है अत: इस गुणस्थानवर्ती जीव को प्रमत्तसंयत कहते हैं।
गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए भी जब यह जीव अनुभव करता है कि इस कुटुम्ब के निमित्त या धनोपार्जन आदि में अत्यन्त सावधानी रहते हुए भी मेरी आत्मिक शान्ति में बाधा ही है और िंहसादि पापों से पूर्णतया आत्मा अलिप्त नहीं है तो वह परिजनों से ममत्त्व हटाकर उनसे अपना सम्बन्ध तोड़कर प्रत्याख्यानावरण कषाय के उत्तरोत्तर मन्दोदय होने से आचार्यपरमेष्ठी के पादमूल में उपस्थित होता है और मुनि दीक्षा के लिए प्रार्थना करता है, आचार्यदेव उसकी योग्यता की परीक्षा कर उसे आज्ञा प्रदान करते हैं तब वह उक्त कषाय के उसी मन्द उदयकाल में केशलोंच करके वस्त्रादि बाह्यपरिग्रह का परित्याग कर अिंहसादि पांच महाव्रतों को तथा उसके परिकर स्वरूप पांच समिति पंचेन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक और शेष केशलोंचादि ७ गुण इस प्रकार २८ मूलगुणों को धारण कर दिगम्बर मुनि अवस्था को प्राप्त होता है उस समय उसे सीधा सप्तमगुणस्थान होता है, किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से सातवें अप्रमत्तगुणस्थान से गिरकर प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। प्रथम, चतुर्थ या पंचम—गुणस्थान से मुनिदीक्षा धारण करने वाला जीव सीधा सप्तमगुणस्थान को ही प्राप्त होता है आरोहण की अपेक्षा छठे गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता गिरने की अपेक्षा ही छठा गुणस्थान होता है। इस प्रकार सातवें से छठे और छठे से सातवें गुणस्थान में सहस्रों बार आवागमन होता है। यह आरोहण—अवरोहण परिणामों की विचित्रता वश ही होता है। यद्यपि २८ मूल गुणों का निर्दोष पालन करता है तथापि क्रोध—मान—माया व लोभ रूप चार कषाय, स्त्री कथा—राजकथा भोजनकथा—देशकथा रूप चार विकथा, पंचेन्द्रिय विषयों की ओर झुकाव, स्नेह और निद्रा इन पंद्रह प्रमादों के कारण महाव्रतों के परिपालन में किंचित् दोष लगते हैं। साधु सदा आत्मचिन्तन में निरत नहीं रह सकता, उक्त १५ प्रमादों में से किसी न किसी प्रमाद की ओर किंचित् समय के लिए प्रवृत्ति हो जाती है अत: अप्रमत्तावस्था से गिरकर प्रमत्तदशा को प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थान का काल सामान्यत: अन्तर्मुहूर्त ही है।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान—
संज्वलन क्रोध, मान, माया व लोभ का उदय मन्द पड़ जाने पर जब प्रमाद का अभाव हो जाता है तब अप्रमत्तसंयत गुणस्थान प्रकट होता है। अथवा दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि साधु की सावधान दशा ही सप्तम गुणस्थान है। जितनी देर आत्मचिन्तन में जागरूक रहता है उतनी देर अप्रमत्त होने से सप्तमगुणस्थान की भूमिका में स्थित होता है और ज्यों ही प्रमादरूप परिणति प्रकट होती है त्यों ही वह छठे गुणस्थान में आ जाता है। इस गुणस्थान का काल भी सामान्यत: अन्तर्मुहूर्त ही है तथापि वह छठे गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त से आधा काल है। इस गुणस्थान के दो भेद हैं—स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। सातवें से छठे और छठे से सातवें गुणस्थान में आना स्वस्थान अप्रमत्त दशा है और जो आगे श्रेणी चढ़ने का उपक्रम कर रहा है अर्थात् श्रेणी के सम्मुख जो अप्रमत्तसंयत जीव है वह सातिशय अप्रमत्त है। उपशम और क्षपक की अपेक्षा श्रेणी दो प्रकार की है। चारित्रमोह का उपशम जिसके फलस्वरूप होता है उसे उपशम श्रेणी, चारित्रमोह का क्षय जिसके फलस्वरूप होता है वह क्षपक श्रेणी है। क्षपक श्रेणी का का आरोहण क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही करता है, किन्तु उपशम श्रेणी का आरोहण द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि दोनों ही करते हैं।
सप्तम गुणस्थान की सातिशय अप्रमत्तावस्था में चारित्रमोह की उपशामना या क्षपणा के लिए होने वाले अध:करण रूप परिणाम होते हैं। इस गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा सम समयवर्ती और विषमसमयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों ही पाई जाती हैं। यहाँ पाये जाने वाले परिणामों के निमित्त से सातिशय अप्रमत्तसंयत चारित्रमोह के उपशम या क्षपण के लिए उद्यत होता हुआ आगे के गुणस्थानों में प्रवेश करता है। सातिशय अप्रमत्त अवस्था से आत्मा पूर्ण विकास की ओर अग्रसर होने में समर्थ होता है।
वर्तमानकाल में कोई भी साधु सातवें गुणस्थान से और उसमें भी स्वस्थान—अप्रमत्तदशा से ऊपर नहीं चढ़ सकता, क्योंकि ऊपर चढ़ने के योग्य उत्तमसंहननादि के अभाव में श्रेण्यारोहण की पात्रता ही नहीं है, किन्तु जिसकाल में सर्वप्रकार की पात्रता और साधन सामग्री सुलभ होती है उस समय साधु ऊपर के गुणस्थानों में भी चढ़ता है।
आगे के गुणस्थानों का स्वरूप लिखने से पूर्व यह बता देना उचित प्रतीत होता है कि—आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। आठवां, नौवां, दशवां और ग्यारहवां ये चार गुणस्थान उपशम श्रेणी की अपेक्षा और आठवां, नौवां, दशवां और बारहवां ये चार गुणस्थान क्षपक श्रेणी की अपेक्षा होते हैं। क्षपकश्रेणी पर तद्भवमोक्षगामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव ही आरोहण करते हैं किन्तु उपशम श्रेणी पर तद्भव मोक्षगामी और अतद्भवमोक्षगामी तथा औपशमिक और क्षायिकसम्यग्दृष्टि दोनों ही प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं। इतना निश्चित्ा है कि उपशमश्रेणी चढ़ने वाला साधु ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर मोहनीयकर्म का पूर्ण उपशम करता है और उपशमजन्य वीतरागता का अनुभव करके भी कालक्षय या आयुक्षय के निमित्त से नीचे गिरता है। आयुक्षय से गिरने वाला जीव तो मरण हो जाने से देवगति में चतुर्थगुणस्थान को प्राप्त हो जाता है, किन्तु कालक्षय की अपेक्षा गिरने वाला जीव क्रम से गिरते हुए छठे—सातवें गुणस्थान को भी प्राप्त होता है और यदि वहाँ परिणाम संभल जावें तो आगे पुन: भी बढ़ जाता है, अन्यथा और भी नीचे के गुणस्थानों को प्राप्त कर सकता है। यह कथन अतद्भवमोक्षगामी उपशमसम्यक्त्वसहित उपशम श्रेणी चढ़ने वाले जीव की अपेक्षा से है, किन्तु जो तद्भव मोक्षगामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं वे ग्यारहवें गुण स्थान से क्रम से गिरते हुए सातवें गुणस्थान में पहुँचकर भी वहाँ पुन: चारित्रमोह की क्षपण का प्रारम्भ करते हुए आठवें आदि गुणस्थान में पहुँचते हैं। अत: आगे के गुणस्थानों का स्वरूप यथायोग्य दोनों श्रेणियों की अपेक्षा लिखा जावेगा।
अपूर्वकरणसंयत गुणस्थान—
करण का अर्थ अध्यवसाय का परिणाम है। जहाँ प्रतिसमय अपूर्व—अपूर्व अर्थात् नये—नये परिणाम होते हैं उस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। जब कोई सातिशय अप्रमत्तसंयतजीव चारित्रमोह के उपशमन या क्षपण के लिए अध:करण परिणामों को करके इस गुणस्थान में प्रवेश करता है तब प्रतिक्षण उसके परिणाम अपूर्व—अपूर्व ही होते हैं। यहाँ परिणामों की विशुद्धि का वेग बढ़ता जाता है। यदि अनेक जीव इस गुणस्थान को प्राप्त हो तो उनमें से एकसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृश्य और वैसादृश्य भी पाया जाता है, किन्तु भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृश्यता होती ही नहीं। इस गुणस्थान में रहते हुए जीव अपने परिणामों की अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा चारित्रमोहनीयकर्म के उपशमन या क्षपण की भूमिका बनाता है। यहाँ यद्यपि चारित्र मोहकर्म की किसी भी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं कर पाता तथापि स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा और गुण संक्रमण इन कार्यों को प्रारम्भ करता है जिससे उसकी परिणामविशुद्धि वृिंद्धगत होती है तथा प्रति समय असंख्यात गुणितरूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा करता है।
अनिवृत्तिकरणसंयत गुणस्थान—
आठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्तकालपर्यंत रहकर तथा अपूर्व—अपूर्व परिणामों के द्वारा आत्मविशुद्धि प्राप्त करते हुए विशिष्ट आत्मशक्ति का संचय करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करता है। इस गुणस्थान में एक समय वर्तीजीवों के परिणामों में निवृत्ति अर्थात् विषमता नहीं पायी जाती अत: उन अनिवृत्तिपरिणामों के कारण ही इस गुणस्थान को अनिवृत्तिकरण कहा जाता है। इस गुणस्थान में आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात करता है। उपशमश्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की सूक्ष्म लोभ प्रकृति को छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियों का उपशम कर देता है तथा क्षपकश्रेणी वाला उन्हीं का क्षय कर देता है। यहाँ विशेष ध्यातव्य है कि क्षपकश्रेणी वाला चारित्रमोहनीय कर्म प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मों की क्षपणा भी करता है।
सूक्ष्मसाम्पाराय गुणस्थान—
इस गुणस्थान में परिणामों को उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा चारित्रमोहनीय कर्म की शेष बची एक सूक्ष्मलोभ प्रकृति रही है वह प्रतिसमय क्षीण—शक्ति होती चली जाती है। उस सूक्ष्मलोभ प्रकृति को उपशमश्रेणी वाला जीव तो अन्तिम समय में उपशमन करके ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है तथा क्षपकश्रेणीवाला जीव उसका क्षय करके १० वें से सीधा बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है। जिस प्रकार धुले हुए कसूमी रंग के वस्त्र में लालिमा की सूक्ष्म आभा रह जाती है उसी प्रकार इस गुणस्थान में लोभकषाय परिणाम विशुद्धि के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्मरूप में रहता है अत: इस गुणस्थान को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। यहाँ विशेष ध्यातव्य है कि क्षपकश्रेणीवाला सूक्ष्मलोभ की क्षपण के साथ अन्य कर्मों की भी अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है।
उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, गुणस्थान—
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ का उपशम होते ही समस्त कषायों का उपशमन होने से यह जीव उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। जिस प्रकार गन्दे जल में कतकफल या फिटकरी आदि डालने पर उस जल का गन्दलापन नीचे बैठ जाता है और निर्मल जल ऊपर रह जाता है अथवा शरदकाल में सरोवर का पानी जिस प्रकार निर्मल होता है उसी प्रकार उपशम श्रेणी में शुक्लध्यान से मोहनीयकर्म एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है जिससे जीव के परिणामों में एकदम निर्मलता आ जाती है, किन्तु यह निर्मलता ऊपरी सतह के स्वच्छ जल के समान है सत्ता में तो मोहनीयकर्म अभी भी विद्यमान है। चूँकि मोहनीयकर्म का उपशम एक अन्तर्मुहूर्त के लिए ही होता है अत: उस काल के पश्चात् मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का उदय होते ही यह जीव पतनोन्मुख होता हुआ अधस्तनवर्ती गुणस्थानों में चला जाता है। इस गुणस्थान में औपशमिक—यथाख्यातचारित्र प्रगट होता है। कर्ममल के उपशान्त हो जाने से वीतरागता तो प्रगट हुई है, किन्तु ज्ञानावरण—दर्शनावरण विद्यमान होने से अभी छद्मस्थता है। अत: इस गुणस्थान का उपशान्त्ाकषाय वीतरागछद्मस्थ यह नाम अन्वर्थ है।
क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान—
क्षपकश्रेणीवाला जीव सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ का क्षय करके सीधे १२ वें क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थगुणस्थान में पहुँचता है। इस गुणस्थान में शुक्लध्यान का एकत्ववितर्क नामक द्वितीय भेद प्रकट होता है, जिससे वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायरूप तीन घातिया कर्मों का तथा नामकर्म की १३ प्रकृतियों का क्षय करता है मोहनीयकर्म का सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में क्षय कर ही चुका था अत: चारों घातियाकर्मों के तथा नामकर्म की १३ प्रकृतियों के क्षय से अन्तर्मुहूर्तकाल में ही यह जीव वैâवल्यावस्था को प्राप्त कर केवलज्ञानी होता है।
इस प्रकार उपर्युक्त १२ गुणस्थानों में आदि के चार गुणस्थान दर्शनमोह की प्रधानता से उदय, उपशम या क्षय से तथा शेष आठ गुणस्थान चारित्रमोह की प्रधानता से (उदय, उपशम या क्षय से) होते हैं। आगे के दो गुणस्थान योग के सद्भाव और अभाव में होते हैं। सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक का काल परम समाधि का काल है। छद्मस्थ जीव के परम समाधि की स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती अत: सातवें, आठवें आदि गुणस्थानों का पृथक्—पृथक् काल भी अन्तर्मुहूर्त है और सभी का सामूहिक काल भी अन्तर्मुहूर्त है।
सयोगकेवली गुणस्थान—
बारहवें गुणस्थान तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के सद्भाव में जीव अल्पज्ञ कहलाता है अत: वहां तक जीवों की छद्मस्थ संज्ञा है, किन्तु १२ वें गुणस्थान के अन्त में उन कर्मों का एक साथ क्षय होते ही जीव सर्वज्ञ—सर्वदर्शी बन जाता है। उसके केवलज्ञान में विश्व के चराचर समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। यही अरहन्त अवस्था है, केवलज्ञान के साथ अभी योग विद्यमान है अत: इस गुणस्थान को सयोगकेवली कहते हैं। चार घातियाकर्मों के क्षय हो जाने से इस सयोगकेवली गुणस्थान में अरहन्त भगवान के नव केवल लब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीयकर्म के क्षय से अनन्तसुख और क्षायिकसम्यक्त्व, अन्तरायकर्म के क्षय से अनन्त दान—लाभ—भोग—उपभोग और वीर्य की प्राप्ति होती है। जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति सहित केवलज्ञान प्राप्त किया है उनके बाह्यविभूति स्वरूप समवसरण की रचना होती है, दिव्यध्वनि खिरती है। सामान्यकेवली के समवसरण विभूति का अभाव रहता है मात्र गन्धकुटी की रचना होती है, और दिव्यध्वनि खिरती है, किन्तु अन्तकृतकेवली और मूक केवलियों की दिव्यध्वनि नहीं खिरती। बाह्य विभूति में अन्तर होते हुए भी सभी प्रकार के केवलियों की अन्तरंग में अनन्त चतुष्टयरूप विभूति समान ही होती है। केवली भगवान की विहार और दिव्यध्वनि आदि रूप क्रियायें बिना इच्छा के भव्यों के भाग्य के वश से तथा वचनयोग के निमित्त से होती है। इस गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल आठ वर्ष एवं अन्तर्मुहूर्त कम (देशोन) एक कोटिपूर्व वर्ष है। इस गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान होता है जिससे कर्मों की अत्यधिक निर्जरा तो होती है, किन्तु क्षय किसी भी प्रकृति का नहीं होता। वीरसेनाचार्य इस शुक्लध्यान का फल योग निरोध मानते हैं।
जब १३ वें गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रह जाता है और केवली भगवान की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु से शेष अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक रहती है तब उनकी स्थिति को बराबर करने के लिए भगवान के केवली समुद्घात होता है। प्रथम समय में चौदह राजू प्रमाण लम्बे दण्डाकार आत्मप्रदेश पैâलते हैं। दूसरे समय में आत्मप्रदेश कपाट के आकार में चौड़े हो जाते हैं तृतीय समय में प्रतर के आकार विस्तृत होते हैं और चौथे समय में समस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं इसे लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। इसी प्रकार चारों समयों में आत्मप्रदेशों की संकोचन क्रिया भी होती है और संकुचित होते हुए आत्मप्रदेश शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इस केवली समुद्घात के द्वारा नाम गोत्र और वेदनीयकर्म की स्थिति भी आयुकर्म के बराबर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह जाती है, तभी योग निरोधकर चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होते हैं।
अयोगकेवली गुणस्थान—
जिसमें योगों का सर्वथा अभाव हो जाता है उसे अयोग केवली गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में शुक्लध्यान का व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक चतुर्थ भेद प्रकट होता है। इस गुणस्थान के उपान्त्य समय में या द्विचरमसमय में केवली भगवान् अघातिया कर्मों की ७२ प्रकृतियों का क्षय करते हैं और अन्तिम समय में १३ प्रकृति का क्षय करके एक क्षण में सर्वकर्म विप्रमुक्त होकर अयोगकेवली भगवान लोक के अन्त में तनुवातवलय के उपरितन भाग में ५२५ धनुष प्रमाण सिद्धक्षेत्र में जाकर विराजमान हो जाते हैं। सिद्धों की जघन्यतम अवगाहना ३-१/२ हाथ और उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ पच्चीस धनुष की रहती है। अयोगकेवलीगुणस्थान का काल यद्यपि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही कहा है, किन्तु वह ‘अ इ उ ऋ ऌ’ इन पांच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में लगने वाले काल के बराबर ही है।
इस प्रकार कर्ममल से संयुक्त संसारी आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा इन चौदह गुणस्थान रूप सोपानों पर आरोहण करते हुए लोकान्त में स्थित सिद्धालय में पहुँच जाता है तथा संसार के अनन्त दु:खों से छूटकर अनन्त और शाश्वत अव्याबाध सुख का अनुभव करता है। प्रारम्भ के तीन गुणस्थानवर्ती जीव बहिरात्मा हैं, चतुर्थ से १२ वें गुणस्थान तक के जीव अन्तरात्मा और १३—१४ वें गुणस्थान वाले जीव परमात्मा हैं। इस प्रकार बहिरात्मा से परमात्मा बनने के लिए गुणस्थान सोपानों पर आरोहण करके उत्तरोत्तर आत्मविकास का प्रयत्न करना चाहिए। गुणस्थान आत्मविकास के क्रमिक मणिसोपान है जिस पर चढ़कर सिद्धालय में पहुँचा जाता है। वहाँ पहुँचकर जीव पूर्ण परमात्मत्व को प्राप्त हो जाता है।
लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिप्पण्णो।
जीवाजीवेिंह फुडो सव्वागासवयवो णिच्चो।।
सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी जैनागम में वर्णित लोक की रचना के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण कहते हैं कि ‘‘यह लोक अकृत्रिम, अनादिनिधन, स्वभावनिष्पन्न, जीव और अजीव पदार्थों द्वारा व्याप्त, सर्वाकाशावयव और नित्यस्वरूप है। लोक का स्वरूप वीतरागप्रभु ने केवलज्ञान द्वारा जैसा जाना है वह उक्त गाथा में सभी भारतीय दर्शनों की लोकस्वरूप सम्बन्धी मान्यताओं को दृष्टि में रखते हुए अनादि से अनन्त काल तक विद्यमान शाश्वत लोक रचना का वास्तविक स्वरूप आचार्य देव ने प्रकट किया है। लोक रचना के सम्बन्ध में भारतीय मनीषियों की अनेक मान्यताएँ हैं उनका निराकरण करने हेतु आचार्य श्री ने अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है।
यह लोक ३४३ घनराजू प्रमाण है जिसका आकार पैर पसारे, कमर पर हाथ रखे हुए पुरुष की आकृति से मिलता—जुलता है। चित्रकारों ने इस लोक का शास्त्रीय आधारों पर चित्रपट तैयार किया है उसी आधार पर हिन्दी कवियों ने आत्मा को पाप से निवृत्त और शुभ में प्रवृत्त कराने के लिए एकाधिक पूजा—पाठों की रचना की है, जिसमें कृत्रिम, अकृत्रिम जिनागारों का वर्णन किया है, क्योंकि जैनधर्म प्रकृतिमय है और इसके आराधक निवृत्ति मार्ग अपना कर स्वयं प्रकृतिस्थ होना ही धर्म का चरम लक्ष्य स्वीकार करते हैं। अत: प्रकृति की गोद में अनादि से स्वयं परिणमित जिनागार और जिनबिम्बों का ही आराधन जैनवर्ग को उपादेय रहा है। यही कारण है कि मध्यलोक में विद्यमान तथा अन्यत्र भी विराजित जिन चैत्यचैत्यालयों की पूजा भव्यजन सदा से करते आ रहे हैं। ये पूजन—पाठ विशालकाय हैं और संगीतमय तत्त्वज्ञान के पुंज हैं। गृहस्थ इनके माध्यम से अपने पुण्यफल स्वरूप न्यायोपार्जित द्रव्यादि का इष्टदेव के प्रति समर्पण कर महापापरूप परिग्रह का त्यागकर पुण्योपार्जन करता है। गृहस्थों के लिए पूजा और दान जो कि एक दूसरे के पूरक हैं, के अतिरिक्त जीवन सार्थक करने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
तीन लोक के चित्रपट को सामने रखकर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर स्वयं का शास्त्रीयज्ञान प्रस्फुटित होने लगता है कि क्या यह सम्पूर्ण लोक मेरे द्वारा परिभ्रमण कर लिया गया है ? जैन तत्ववेत्ताओं ने पंच परावर्तन रूप अनादि—निधन संसार के स्वरूप का वर्णन करते समय यह स्पष्ट घोषणा की कि इस जीव ने अष्ट कर्मों के वशीभूत होकर अनन्तबार लोकस्थित प्राय: सभी द्रव्य, क्षेत्र और काल के निमित्त को पाकर संसार में परिभ्रमण किया है। यह कर्म की ही शक्ति है कि एक जीव लोक का लगभग कोना—कोना छान आया, किन्तु अपना शाश्वत निवास सिद्धपद प्राप्त नहीं कर पाया जबकि कर्म की कृपा इसे अनेक बार प्राप्त भी हुई। कुछ पद इस प्रकार के अवश्य हैं जिन्हें प्राप्त कर अनिवार्यरूप से कर्मभार छूटता ही है। ये आत्मा के निजी पुरुषार्थ की देन है। आसन्न भव्य प्राणी ही इन पदों को प्राप्त कर क्रमश: मुक्ति लाभ करते हैं।
लोक के चित्रपट में भिन्न जीवों के विभिन्न ज्ञान परिणमन को नाना प्रकार के रंगों (वर्णों) द्वारा अंकित किया गया है। जैसे लोक के नीचातिभाग का वर्ण चित्रपट में कुत्सित कृष्णवर्ण द्वारा दर्शाया गया है। यह अधोलोक का अन्तिम भाग है, जहाँ नित्यनिगोद का नियत क्षेत्र है। यह सामान्य जीवों की अपेक्षा उसी प्रकार अनादिनिधन है जैसे एक जीव जीवस्वरूप की अपेक्षा से अनादिनिधन है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के कारण मुक्ति सादि—अनिधन है। लोक का अधोभाग जहां प्रचुर तथा सतत दु:खमय है उसी का प्रतिपक्षी मुक्तिस्थान सतत सुखमय है।
अधोलोक से ऊपर की ओर देखें तो यहां कृष्णवर्ण से लेकर अशुभनील और कापोतवर्णों का ही दर्शन होता है जो अशुभता का प्रतीक होते हुए दु:खों की कमी की ओर हमारी दृष्टि ले जाते हैं। ऊर्ध्वलोक का एक लाख योजन का क्षेत्र मध्यलोक है जिसमें सभी प्रकार के वर्णों में, द्वीप—समुद्रों का प्राकृतिक चित्रण है। इनकी महत्ता और समादरणीयता केवल उन धर्मायतनों से है, जिनसे आत्मस्वरूप की ओर उन्मुख होने की भव्य जीवों को प्रेरणा मिलती है।
ऊर्ध्वलोक में केवल उन्हीं वर्णों (रंगों) का सद्भाव है जिन्हें शुभ सूचक कहा जाता है। पीत, पद्म, शुक्ल वर्णों की भव्यता विश्व में विदित है। ऊर्ध्वलोकवासी देवों की भावना का प्रतीक वह—वह वर्ण है जो नीचे से ऊपर की ओर समुज्जवल हो जाता है। सर्वार्थसिद्धि विमान इसका अन्तिम स्थल है। इससे मुक्ति समीप व अनिवार्य है। इस प्रकार अधोलोक के दु:खों को दर्शाते हुए ऊर्ध्वलोक के सुखों की ओर जाते हुए जीवों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है अत: जीव का ऊर्ध्वगमन स्वीकृत किया है। निगोद से निकलकर सिद्धपद प्राप्ति तक पहुँचना जीव का अन्तिम पुरुषार्थ है और उस पुरुषार्थ का वर्णन ही चतुरनुयोगों में प्राप्त होता है।
अभिप्राय यह है कि वीतरागी धर्मोपदेष्टाओं ने जनसाधारण के भावज्ञान के लिए कृष्णादि वर्णों का अवलम्बन लेकर जीवों की भाव (विचार) प्रणाली के शुभाशुभरूप को हृदयंगम कराने का यह सरलतम प्रयत्न किया है और यह भाव प्रणाली ही संसार का बीज है। संसार नृत्यस्थली का रंगमंच है, जहाँ विभिन्न भावों वाले जीव अपनी—अपनी योग्यता व पुरुषार्थ द्वारा सांसारिक कष्ट व इन्द्रिय सुखों का फल भोगते हुए इतस्तत: भ्रमण कर रहे हैं।
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णिय अपुण्णपुण्णं च।
जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।।
अर्थात् लेश्या के स्वरूप को जानने वाले प्रवर गणधरादि ने ‘‘जो जीवों को पुण्य—पाप से लिप्त करे’’ उसे लेश्या कहते हैं। आगे और कहा है—
जोगपउत्ती लेस्सा कसाय उदयाणुरंजिया होइ।
तत्तो दोण्हं कज्जं बंधचउक्कं समुद्दिट्ठं।।
‘कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। इसलिए कषाय और योग, इन दोनों का ही कार्य चार प्रकार का बन्ध कराना है।’
द्रव्य संग्रह ग्रंथ में कहा है कि ‘‘जोगा पयडि पदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति’’ अर्थात् प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग से तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। ये चारों बन्ध संसारबन्धन के कारण हैं और इनका मूल लेश्या है। यह भावलेश्या है, इसी भाव लेश्या को स्पष्ट किया गया है द्रव्यलेश्या या वर्णभेद की दृष्टि से।
‘वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा।’
वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर का वर्ण होता है उसे द्रव्य लेश्या कहते हैं। यह द्रव्यलेश्या सामान्यत: छह प्रकार की होती है—१ कृष्ण, २. नील, ३. कापोत, ४. पीत, ५. पद्म, ६. शुक्ल। ये छह भेद तो संक्षेप कथन की दृष्टि से कहे गये हैं, किन्तु लेश्याओं के असंख्यात लोक प्रमाण भेद परमागम में कहे गये हैं। उक्तवर्णों में जिस प्रकार नानाविध तारतम्य पाया जाता है उसी प्रकार भावों के तारतम्य से भावलेश्या भी असंख्यातलोकप्रमाण भेद युक्त हो जाती है।
साधारणत: अशुभ लेश्याओं में तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र तथा शुभलेश्याओं में मन्द, मन्दतर और मन्दतम परिणाम होते हैं। इन परिणामों को चित्रात्मक बनाकर लेश्या वृक्ष की कल्पना इस प्रकार की गई है।
फलों से लदा हुआ एक सघन लहलहाता हुआ वृक्ष वन प्रदेश में विद्यमान था। पथभ्रष्ट होकर छह यात्री आये, वे क्षुधा, पिपासा और श्रम से पीड़ित होकर उस वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। इन छहों व्यक्तियों का वर्ण कृष्णादिरूप था। बाह्य शरीर वर्ण के साथ अन्तरंग योग—कषाय प्रवृत्ति भी विभिन्न थी। कृष्णालेश्या (वर्ण) धारी व्यक्ति विचार करता है कि मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर फलों को खाऊंगा। नीललेश्यावाला विचारता है कि मैं वृक्ष के स्कन्ध को काटकर फलों का भक्षण करूंगा। कापोत लेश्यावाला वृक्ष की शाखाओं को तोड़कर फल खाने का विचार करता है, परन्तु पीतलेश्यावाला वृक्ष की छोटी—छोटी टहनियों (शाखाओं) को गिराकर फल खाना चाहता है। पद्मलेश्यावाला फलों को ही तोड़कर खाने की इच्छा करता है तथा शुक्ललेश्यावाला जीव केवल टूटकर नीचे गिरे हुए फलों को ही खाने में संतुष्ट है। सभी व्यक्ति फल तो खाना चाहते हैं, किन्तु उनकी प्रक्रिया भिन्न है। इस प्रकार कषायों का तरतम भाव ही लेश्या के अनेक भेदों का जन्मदाता है, जिसका फल पुण्य और पाप है।
इन्हीं परिणामों के अनुसार जीवों का बाह्य एवं अन्तरंग प्रवृत्ति का तारतम्य करते हुए निम्नलिखित लेश्या लक्षणों का विवरण आगम ग्रंथों में पाया जाता है जैसे—
तीव्रक्रोधी, वैर को दीर्घकाल तक बांधने वाला, युद्ध करने की सतत प्रवृत्ति रखने वाला, धर्म और दया से रहित अत्यन्त दुष्ट, उग्रस्वभावी, अनियंत्रित, उद्दण्डस्वभावी जीव कृष्णलेश्या का धारक होता है।
कार्यसम्पादन में मन्द, स्वच्छंद, विवेकशून्य, पंचेन्द्रियलम्पट, अभिमानी, मायाचारी, आलसी, पराभिप्राय—अनभिज्ञ, वंचक, निद्रालु, धन—धान्यादि का लोभी व्यक्ति नीललेश्यावान् होता है।
कापोत लेश्यावाला व्यक्ति दूसरों पर क्रोध करने वाला, परनिन्दक, परदु:खदाता, परस्पर बैरी, भयशोककारी, अन्य वैभव को सहन न करने वाला, तिरस्कारक, स्वप्रशंसक, अविश्वासी तथा कार्य—अकार्य का अपरीक्षक स्वभाव वाला होता है।
पीतलेश्यापरिणामी अपने कार्य—अकार्य, सेव्य—असेव्य का परीक्षक, कोमल परिणामवाला, दान व दया में तत्पर सर्वत्र विवेकवान समदर्शी एवं सरलस्वभावी होता है।
दानशील, भद्रपरिणामी, उत्तमकार्यों के सम्पादन में अभिरुचि रखने वाला, उपद्रव आदि सहन करने वाला, देव, शास्त्र और गुरु का भक्त, दानादि कार्यों में उत्साही व्यक्ति पद्मलेश्या का धारक होता है।
पक्षपातरहित, निदान—अबंधक, सर्वजीवों में समता परिणामी, रागद्वेषरहित, पारिवारिक मोहरहित, सरल व मृदु व्यवहारी जीव शुक्ललेश्या परिणामी होता है।
उक्त लक्षण केवल जीवों की प्रवृत्ति का आधार लेकर ही बताये गए हैं। प्रतिसमय भावपरिवर्तन के कारण लेश्याओं का अंकन छद्मस्थज्ञानियों द्वारा सम्भव नहीं है।
गतियों की अपेक्षा जीवों की द्रव्यलेश्या निम्नप्रकार होती हैं—सम्पूर्ण नारकी कृष्णवर्णी हैं। कल्पवासी देवों के भावलेश्या के समान द्रव्य लेश्याएँ भी पीत, पद्म और शुक्लरूप होती हैं। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में तथा मनुष्य व तिर्यचों के छहों द्रव्य लेश्याओं का सद्भाव पाया जाता है। स्थूल जलकायिक जीव शुक्ल और बादर, अग्निकायिक जीव पीतलेश्या वाले होते हैं। सम्पूर्ण सूक्ष्मजीव कापोतलेश्यावाले हैं। विग्रहगति में जीवों का वर्ण शुक्ल होता है। वायुकायिक जीव गोमूत्रादि वर्णवाले होते हैं।
गुणस्थानों की अपेक्षा १-२-३-४ गुणस्थानों में छहों लेश्याएं पायी जाती हैं। ५-६-७ गुणस्थानों में तीन शुभ लेश्याएं ही होती हैं। इसके आगे ८-९-१०-११-१२-१३ गुणस्थानों में केवल शुक्ल लेश्या है। १४ वां गुणस्थान लेश्यारहित ही होता है। कषायरहित गुणस्थानों में योगसद्भाव होने से उपचाररूप लेश्या कही गई हैं
भाव लेश्या की अपेक्षा चारों गतियों में लेश्या का सद्भाव निम्न प्रकार से पाया जाता है—
प्रथम नरक में कापोत लेश्या का जघन्य अंश है। दूसरे नरक में कापोत लेश्या का मध्यम अंश है। तृतीय नरक में कपोत लेश्या का उत्कृष्ट अंश और नीललेश्या का जघन्यअंश भी होता है। चौथी पृथ्वी में नील लेश्या का मध्यम अंश, पांचवीं पृथ्वी में नीललेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश होता है। छठे नरक में कृष्णलेश्या का मध्यमअंश होता है। सप्तम पृथ्वी में कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट अंश पाया जाता है।
मनुष्य और तिर्यंचों में सामान्यत: छहों लेश्याएं होती हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के कृष्ण, नील, कपोत और पीत ये चार लेश्याएं तथा संज्ञी अपर्याप्तक, सासादन गुणस्थानवर्ती जीव, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं। भोगभूमिज निवृत्त्यपर्याप्तक सम्यग्दृष्टि के कपोत लेश्या का जघन्य अंश होता है और पर्याप्तावस्था में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के पीत आदि तीन शुभलेश्याएं होती हैं।
देवों में विशेष रूप से भवनत्रिक के देवों में पीतलेश्या का जघन्यअंश होता है। सौधर्म—ईशान स्वर्गवासी देवों के पीतलेश्या का मध्यमअंश होता है। सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में पीत लेश्या का उत्कृष्ट अंश और पद्मलेश्या का जघन्य अंश है। ब्रह्मादि छह स्वर्गवासी देवों में पद्मलेश्या का मध्यमअंश और शतार—सहस्रार स्वर्गवासियों के पद्मलेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं शुक्ललेश्या का जघन्य अंश होता है। आनतादि ४ स्वर्गों तथा नवग्रैवेयक में शुक्ललेश्या का मध्यमअंश और इससे ऊपर नवानुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अंश होता है, किन्तु भवनत्रिक में अपर्याप्तावस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं।
इस प्रकार चारों ही गतियों में लेश्या के विभिन्न अंश पाये जाते हैं। ये सब कषाय और योग के ही कार्य है, जिनमें कषाय की प्रमुखता है।
कषायों के तारतम्य के कारण उनके फल में भी अन्तर होता है, तथापि नाना जीवों की अपेक्षा आगम में यह व्यवस्था पाई जाती है। कृष्ण लेश्या के उत्कृष्ट अंशों के साथ मरे हुए जीव सप्तम पृथ्वी के अवधि नामक इन्द्रक बिल में उत्पन्न होते हैं। जघन्य अंशवाले जीव पंचमपृथ्वी के तिमिस्र नामक अन्तिम पटल के इन्द्रक बिल में उत्पन्न होते हैं। मध्यम अंशों से मरे हुए इन दोनों नरकों के मध्य में यथासम्भव नरकबिलों में जन्म लेते हैं।
नील लेश्या के उत्कृष्ट अंशों में मरे हुए जीव पंचमपृथ्वी के अन्ध्रनामक इन्द्रक बिल तथा पांचवें पटल में भी उत्पन्न होते हैं। इसी लेश्या के जघन्य भावों से मृत प्राणी तृतीय पृथ्वी के अन्तिम सम्प्रज्जवलित नामक इन्द्रक बिल में जन्म लेते हैं। मध्यम अंश वाले जीव उक्त दोनों के मध्यस्थानों में यथायोग्य जन्म लिया करते हैं।
कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अंशों से मरण को प्राप्त जीव तीसरे नरक के अन्तिम संज्वलित नामक इन्द्रक बिल में उत्पन्न होते हैं। और जघन्य अंशों वाले प्रथम पृथ्वी के सीमान्तनामक पटल में प्रथम इन्द्रक बिल में उत्पन्न होते हैं। मध्यम अंश वाले मध्यम नरकों में यथायोग्य जन्म धारण करते हैं।
कृष्ण, नील, कपोत इन तीन लेश्याओं के मध्यम अंशों से मरे हुए कर्मभूमियाँ मिथ्यादृष्टि—तिर्यञ्च और मनुष्य तथा पीतलेश्या के मध्यम अंशों के साथ मरे हुए भोगभूमिया मिथ्यादृष्टि तिर्यंच—मनुष्य में और भवनवासी—व्यंतर ज्योतिषि देवों में उत्पन्न होते हैं। कृष्ण, नील, कपोत, पीत लेश्या के मध्यम अंशों में मरे हुए तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी व सौधर्म–ईशान स्वर्गों के मिथ्यादृष्टि देव, बादरपर्याप्त पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं। कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं के मध्यम अंशों के साथ मरण को प्राप्त जीव मनुष्य या तिर्यच—तेजकायिक, वायुकायिक, विकलत्रय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और साधारण वनस्पति में यथायोग्य उत्पन्न होते हैं।
भवनत्रिक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के देव और सातों पृथ्वी सम्बन्धी नारकी अपनी—अपनी लेश्याके अनुसार मनुष्य या तिर्यंच होते हैं। शुभ लेश्याओं का विशेष वर्णन निम्न प्रकार है—
पीतलेश्या के जघन्य अंशों के साथ मरे हुए जीव सौधर्म ईशान स्वर्ग के ऋतु—इन्द्रकविमान अथवा श्रेणिबद्ध विमान में जन्म लेते हैं। पीतलेश्या के उत्कृष्ट अंशों में मृत जीव सानत्कुमार—माहेन्द्र स्वर्ग के अन्तिम पटल में चक्रनामक श्रेणिबद्ध विमान में उत्पन्न होते हैं। मध्यम अंशवाले जीव सौधर्म—ईशान स्वर्ग के विमलनामक इन्द्रक विमान से लेकर सानत्कुमार—माहेन्द्र स्वर्ग के बलभद्र नामक इन्द्रक विमान तक उत्पन्न होते हैं।
शुक्ल लेश्या के जघन्य अंश से मरण को प्राप्त जीव सहस्रार स्वर्गपर्यन्त, मध्यम अंशों से मरण को प्राप्त जीव सर्वार्थसिद्धि से पूर्वतक तथा आनतादि स्वर्ग से ऊपर तक यथा सम्भव जाते हैं। शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंशों से मरे हुए जीव नियम से सर्वार्थसिद्धि विमान में जन्म लेते हैं।
इस प्रकार कषायों के प्रतिफल स्वरूप जीवों का संसार में कर्मबन्ध होता है और उसी के अनुसार फल भी पुण्य और पापरूप भोगना पड़ता है। जबतक कषाय है तब तक संसार वृद्धि होती रहती है। शुभ लेश्याओं से संसार निवृत्ति का संयोग बैठता है। जैसे—व्रत, नियम, तप, संयम आदि मोक्षानुकूल पुरुषार्थ जब जीव द्वारा होता है तब मलिन वस्त्र की मलीनता किसी मलनाशक सोडा, साबुन आदि के द्वारा दूर करके शुद्ध वस्त्र प्राप्त किया जाता है वैसे ही आत्मा के कर्ममल भी हटाये जाते हैं। संसार का कोई पुरुषार्थ ऐसा नहीं है जो आत्मा के साथ लगी हुई अनादिकालीन कर्मकालिमा को क्षणभर में सर्वथा नष्ट कर दे। मिथ्यात्वी जीवों के तो यह पूर्णशुद्धता प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं है, किन्तु सम्यक्त्वी जीव भी सभी लेश्याओं के केन्द्र बने रहते हैं। जब चारित्ररूपी साबुन का वे क्रमश: प्रयोग करते हैं तब उन्हें क्रमश: ही स्वच्छता (स्वरूपता) प्राप्त होती है। राजमार्ग यही है। यह सब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की महिमा है।
जिन मंदिर में बने एक विशाल भित्ति—चित्र को देखकर एक जैनेतर धर्मी व्यक्ति ने जिज्ञासा से प्रश्न किया कि ‘‘ यह वृक्ष और ६ आदमियों का चित्र क्यों बनाया गया है?
तब उसे बताया गया कि फलों से लदे हरे भरे इस वृक्ष के नीचे और शाखाओं पर विभिन्न रंगों से बनाये गये ये पुरुष जीवों के विभिन्न जातीय परिणामों के द्योतक हैं। इनमें से कोई पुुरुष वृक्ष के फलों की प्राप्ति के लिए वृक्ष को जड़मूल से ही उखाड़ना चाहता है, कोई पुरुष वृक्ष को स्कंध से काटकर फल प्राप्त करना चाहता है।तीसरा व्यक्ति वृक्ष की दीर्घकाय शाखाओं को काटकर फल खाने की इच्छा कर रहा है। एक पुरुष वृक्ष की छोटी—छोटी टहनियों (शाखाओं) पर लगे फलों को प्राप्त करने के लिए उन लघुकाय शाखाओं को ही गिराना चाहता है तो पांचवां व्यक्ति ऐसा भी है जो मात्र फलों को ही तोड़कर अपनी क्षुधा शांत करना चाहता है, किन्तु छठा व्यक्ति सहज गिरे हुए फलोें को खाना चाहता है। इन छहों व्यक्तियों के जैसे तीव्र—मन्द कषाय परिणाम हैं उनका दिग्दर्शन कराने हेतु ही चित्र में उनके शरीर को विभिन्न रंगों में दर्शाया गया है।प्रथम पुरुष से छठे पुरुष तक सभी के मानसिक परिणामों की स्थिति उत्तरोत्तर उज्जवल और विशुद्ध है। जैन—दर्शन के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ’लेश्या’ को समझाने के लिए ही इसका चित्रांकन किया गया है।
इस स्पष्टीकरण से वह जैनेतरधर्मी व्यक्ति सहसा आश्चर्यान्वित हुआ और उसने अपने मनोभाव इन शब्दों में अभिव्यक्त किये— ‘‘यह चित्र तो बड़ा मनोवैज्ञानिक है और जैनदर्शन के तत्त्वज्ञान का ज्वलंत दृष्टान्त है। जीव के मनोभावों की सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम छटा से स्थूल भाव छटा इस चित्रमें दर्पण की भांति स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रही है।
क्रोधादि कषाय से अनुरंजित जीव की मन—वचन—काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। यह प्रवृत्ति छह प्रकार की होती है और उसका निर्देश कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल इन रंगों के रूप में किया गया है। इनमें पीत, पदम् और शुक्ल ये तीन शुभ तथा कृष्ण, नील,कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं हैं;
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च।
जीवो त्ति होइ लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खाया।।
जह गेरुवेण कुड्डी लिप्पइ लेवेण आम पिट्टेण।
तह परिणामो लिप्पइ सुहासुह य त्ति लेव्वेण।।
जिसके द्वारा जीव पुण्य—पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके आधाीन करता है उसको लेश्या कहते हैं। जिसप्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं। अथवा—आत्मा और कर्म का जो सम्बन्ध कराती है, उसे लेश्या कहते हैं।
द्रव्य और भाव के भेद से लेश्या दो प्रकार की है। इन दोनों ही प्रकार की लेश्याओं के छह—छह उत्तर भेद हैं।
द्रव्यलेश्या—
शरीर नाम कर्मोदय से उत्पन्न द्रव्य लेश्या कहलाती है। अर्थात् वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का रंग है उसे द्रव्य लेश्या कहते है। कृष्णादि छह प्रकार के शरीरवर्णों की अपेक्षा यह द्रव्य लेश्या छह प्रकार की हैं। यथा—कृष्णलेश्या—भौंरे के समान, नीललेश्या—मयूरकंठ या नीलमणि सदृश, कपोतलेश्या—कबूतर के सदृश, पीत लेश्या—सुवर्ण सदृश, पद्म लेश्या—कमल सदृश और शुक्ल लेश्या—शंख के समान श्वेत वर्णवाली होती है।
भावलेश्या—
‘‘कषायानुरञ्जिता कायवाङ् मनोयोगप्रवृत्तिर्लेश्या’’ कषाय से अनुरंजित मन—वचन—कायरूप योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं। अथवा—
मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम, अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जीव का स्पन्द भावलेश्या है। कृष्णािद के भेद से भावलेश्या भी छह प्रकार की है। भावलेश्याओं के लक्षण इस प्रकार हैं।—
कृष्णलेश्या—तीव्र क्रोध करने वाला, वैर को नहीं छोड़नेवाला, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म व दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश में नहीं हो, कार्य करने में विवेकरहित हो, कलाचातुर्य से रहित हो, पंचेन्द्रिय के विषयों में लम्पटी हो, मानी, मायावी, आलसी और भीरु हो, अपने ही गोत्रीय तथा एक मात्र स्वकलत्र को भी मारने की इच्छा करनेवाला हो ऐसा जीव कृष्णलेश्या का धारक होता है।
नीललेश्या—जो बहुत निद्रालु हो, परवंचन में अतिदक्ष हो और धन-धान्य के संग्रह में तीव्र लालसा वाला हो विषयों में अत्यन्त आसक्त हो, प्रचुर मायाप्रपंच में संलग्न , लोभी तथा आहारादि संज्ञाओं में आसक्त हो, अनृत भाषण करनेवाला हो अतिमानी, कार्य करने में निष्ठा रखने वाला न हो, कायरता युक्त हो और अतिचपल हो वह नीललेशया वह का धारक होता है।
कापोतलेश्या—जो दूसरों पर रोष करता हो, दूसरों की निन्दा करता हो, अत्यन्त दोषों से युक्त हो, भय की बहलता से सहित हो, दूसरों से ईर्ष्या करने वाला हो, पर का पराभव करने वाला हो, स्वात्म प्रशंसक हो, कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित हो, जीवन से निराश हो गया हो दूसरों पर विश्वास न करता हो, दूसरों के द्वारा स्तुति किये जाने पर अतिसन्तुष्ट हो तथा युद्ध में मरने की इच्छा रखता हो वह कापोतलेश्या का धारक होता है।
पीतलेश्या—जो अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को, सेव्य—असेव्य को जानता हो, सभी में समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृदुस्वभावी और ज्ञानी हो, दृढ़ता—मित्रता—सत्यवादिता—स्वकार्यपटुता आदि गुणों से समन्वित हो, वह तेजोलेश्या (पीतलेश्या) का धारक होता है।
पद्मलेश्या—जो त्यागी हो, भद्रपरिणामी हो, देव—गुरु गुण पूजन में रुचि, सच्चा हो, बहुत अपराध या हानि होने पर भी क्षमाशील हो, पाण्डित्य युक्त हो वह पद्मलेश्या का धारक होता है।
शुक्ललेश्या—जो पक्षपात न करता हो, निदान नहीं करता हो, सबमें समान व्यवहार करता हो, पर में राग—द्वेष—स्नेह न करता हो, निर्वैर हो, पाप कार्यों से उदासीन हो, श्रेयोमार्ग में रुचि रखता हो, परनिन्दा नहीं करता हो, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देता हो वह शुक्ललेश्या का धारी है।
उपर्युक्त लक्षणवाली छहों लेश्याएं यथासम्भव सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं। मिथ्यात्व—गुणस्थान से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति से होने वाली लेश्याएं हैं तथा ११—१२—१३ वें गुणस्थान में कषायों का अभाव हो जाने पर भी योग विद्यमान होने से वहां एक शुक्ललेश्या का सद्भाव पाया जाता है। अयोगकेवली और सिद्ध भगवान् लेश्या रहित हैं, क्योंकि वहां योग का भी अभाव हो गया है। सिद्ध भगवान तो संसार से मुक्त ही हो चुके हैं।
लेश्यासम्बन्धी विशेष शंका—समाधान निम्नप्रकार है—
शंका— कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर सयोगकेवली को लेश्या रहितपने की आपत्ति होती है।
समाधान— ऐसा नहीं है, सयोगकेवली के भी लेश्या पायी जाती है। कषायरहित जीवों में भी शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त काययोग भी तो कर्मबन्ध में कारण है अत: उस योग प्रवृत्ति से ही वहां लेश्या का सद्भाव मानने में सयोगकेवली के लेश्या होती है इन वचनों का व्याघात नहीं पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि कषाय तो १० वें गुणस्थान तक ही पाई जाती है आगे के गुणस्थानों में कषाय नहीं है, क्योंकि ११वें गुणस्थान में कषायों का उपशम हो गया है तथा १२ वें गुणस्थान में कषाएं क्षीण हो चुकी हैं अत: ११—१२—१३ वें गुणस्थान में कर्मलेप का कारण योग तो विद्यमान है इस अपेक्षा वहां शुक्ल लेश्या मानी है।
शंका— लेश्या को औदयिक भाव कहा गया है। ११वें—१२वें और १३वें गुण स्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम वचन है, किन्तु वहां कषायों का उदय नहीं होने से लेश्या को औदयिकपना नहीं बन सकता।
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योेंकि जो योगप्रवृत्ति कषायोदय से अनुरंजित है वही यह है, पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्तकषायादि गुण स्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है।
शंका—लेश्या योग को कहते हैं अथवा कषाय को या योग और कषाय दोनों को कहते हैं? इनमें से आदि के दो विकल्प (योग और कषाय) तो मान नहीं सकते, क्योंकि वैसा मानने पर योग और कषाय मार्गणा में ही उसका अन्तर्भाव हो जावेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते, क्योंकि वह आदि के दोनों विकल्पों के समान है।
समाधान—कर्मलेप रूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एक पने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जावे कि एकता को प्राप्त हुए योग और कषाय रूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अन्तर्भाव हो जावेगा सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मानने में विरोध आता है। केवल योग या केवल कषाय को लेश्या नहीं कह सकते हैं किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते ऐसा नहीं मान लेना, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं हैं, कारण कि वह योगप्रवृत्ति का विशेषण है।
क्षीण—कषायादि जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग तो तब आता जब केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानते।
शंका—योग और कषाय से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता है?
समाधान—नहीं, क्योंकि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के आलम्बनरूप आचार्यादि बाह्य पदार्थों के सम्पर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल योग और केवल कषाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता है अत: लेश्या उन दोनों से भिन्न है यह सिद्ध हो जाता है।
शंका— लेश्या का कषायों में अन्तर्भाव क्यों नहीं कर देते?
समाधान— यद्यपि लेश्या और कषाय दोनों औदयिक भाव हैं तथापि कषायोदय के तीव्र, मंद आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है।
शंका—नारकी जीवों के अशुभ लेश्याएं ही हैं फिर वहां सम्यक्त्व वैâसे सम्भव है?
समाधान— यद्यपि नारकियों के नियम से अशुभ लेश्या है तथापि उस लेश्या में कषायों के मन्द अनुभागोदय के वश से तत्त्वार्थ श्रद्वानरूप गुण के कारण परिणामरूप विशुद्वि विशेष की असम्भावना नहीं है।
इस प्रकार लेश्यामार्गणा में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन १६ अधिकारों द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थों में अति विस्तृत कथन किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को धवलादि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। करणानुयोग प्रधान सिद्धान्त ग्रन्थों में अशुद्धनय से जीव की कर्मोपाधि सहित भावावस्था का वर्णन किया गया है। विस्तार रुचि शिष्य के लिए १४ मार्गणाओं द्वारा जीव का अन्वेषण किया गया है। उन मार्गणाओं में लेश्या भी एक मार्गणा है।
छह लेश्याओं द्वारा जैनदर्शन में भावनाओं का, विचार तरंगों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, भावों का पृथक्करण अत्यन्त सरल व सूक्ष्मतम गहन दृष्टि से समझाया गया है। मन के विचारों की श्रेणियां ही जैनदर्शन में लेश्या नाम से अभिहित हैं। लेश्या मार्गणा का विस्तृत और स्पष्ट अथवा संक्षेप पठन—मनन—िंचतन करने का उद्देश्य और उसकी सार्थकता यही है कि द्रव्यदृष्टि से स्वभावत: शुद्ध आत्मा में कषायोदय का निमित्त पाकर मन—वचन—काय की सकंपता से कर्मों का जो अनादिकालीन गहनतम कर्म लेप लगा है उसे हम पृथक् करने का पुुरुषार्थ करें। कषाय अथवा लेश्या आदि रूप औदयिक भावों का स्वरूप जानकर यह निर्णय करें कि ये औदयिकादि भाव हमारी आत्मा का अहित करने वाले हैं आत्मा के लिए उपादेय नहीं हैं और निर्णयकर औदयिक भावों को छोड़ने के लिए सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र रूप भेद—अभेद रत्नत्रय को स्वीकार कर आत्मा की शुद्धदशा पर लगी कर्मकालिमा को दूर करते हुए अलेश्यभाव को परम पारिणामिक भाव स्वरूप चैतन्यदशा को प्राप्त करें।