जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था, गुणों के द्वारा जो प्राप्त किया जावेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं। जो यथायोग्य अपनी—अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं। यह द्रव्य का निरुक्ति अर्थ है।
सहवर्तीगुण और क्रमवर्ती पर्यायों के समुदाय से युक्त उत्पादव्ययध्रौव्यरूप सत्ता लक्षणवाला द्रव्य है। यह द्रव्य पर्याय की अपेक्षा अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय है तत्प्रमाण होता है। द्रव्य के छह भेद होते हैं—
‘‘जीव पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएिंह संजुत्ता।। नियमसार।।
जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म काल और आकाश ये तत्वार्थ (द्रव्य) कहे हैं जो कि नाना—गुण पर्यायों से संयुक्त हैं।
दश प्राणों में से अपनी पर्याय के अनुसार गृहीत यथायोग्य प्राणों के द्वारा जो जीता है, जीता था व जीवेगा इस त्रैकालिक जीवनगुण वाले को जीव कहते हैं। अथवा निश्चयनय से चेतना लक्षण वाला जीव है। अथवा शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा यद्यपि यह जीव शुद्धचैतन्य है लक्षण जिसका ऐसे निश्चयप्राणों से जीता है तथापि अशुद्ध निश्चयनय से द्रव्य व भाव प्राणों से जीता है। ‘‘उपयोगो लक्षणम्’’ जीव का लक्षण उपयोगमय है। और उपयोग ज्ञान—दर्शनरूप है। जीव चैतन्य लक्षण वाला होने से समस्त जड़ द्रव्यों से अपना पृथक््â अस्तित्व रखता है। जीव असंख्यात प्रदेशी है और अनादिकाल से सूक्ष्म कार्मणशरीर से सम्बद्ध है। अत: चैतन्ययुक्त जीव की पहचान व्यवहार में पांच इन्द्रिय, मन—वचन—कायरूप तीनबल तथा श्वासोच्छ्वास और आयु इस प्रकार दस प्राणरूप लक्षणों की हीनाधिक सत्ता के द्वारा ही की जा सकती है।
कर्तृत्व और भोक्तृत्वरूप प्रधान शक्तियों से युक्त जीव में अनेक गुण पाये जाते हैं ऐसे जीव का ९ अधिकारों के द्वारा द्रव्यसंग्रह में विवेचन किया गया है। तद्यथा—जीव—जीव है, उपयोगरूप है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है। इनमें से कर्तृत्व और भोक्तृत्व गुण को यहाँ मुख्य रूप जानना है
जीव का कर्तृत्व—
परिणमन करने वाले को कर्ता, परिणाम को कर्म और परिणति को क्रिया कहते हैं। ये तीनों वस्तुत: भिन्न नहीं हैं, एक द्रव्य की ही परिणति हैं। जीव में कर्तृत्वशक्ति स्वभावत: पायी जाती है। आत्मा असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि पुद्गलकर्मों तथा भवन, वस्त्र आदि पदार्थों का कर्त्ता है। अशुद्धनिश्चयनय से अपने राग—द्वेषादि चैतन्य—भावकर्मों का और शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से अपने शुद्ध चैतन्य भावों का कर्ता है।
भोक्तृत्व—
आत्मा कर्म—फलों का स्वयं भोक्ता है। यह असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है। अन्तरंग में साता, असाता का उदय होने पर सुख—दु:ख का यह अनुभव करता है। इसी साता—असाता के उदय से बाह्य में उपलब्ध होने वाले सुख—दु:ख के साधनों का उपभोग करता है। अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा चेतना के विकार रागादिभावों का भोक्ता है और शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शुद्धचैतन्य भावों का भोक्ता है।
जीव के मूलत: संसारी और मुक्त रूप दो भेद हैं। कर्मबन्धन से बद्ध एक गति से दूसरी गति में जन्म और मरण करने वाले संसारी जीव कहलाते हैं। संसारी जीव क्षुधा—तृषा, रोग—शोक, वध—बन्धन आदि दु:खों से व्याकुल रहते हैं और कर्मानुसार उन्हें अनेक प्रकार की आकुलताएँ प्राप्त होती रहती हैं। कर्म—बन्ध के कारण जीव की परतन्त्र दशा ही संसार है। यह जीव अपने ही राग—द्वेष मोह भावों से स्वकीय कर्मबन्ध करता है और उसी कर्मचक्र के अनुसार भिन्न—भिन्न शरीरों को धारण करता है। बालक, युवक, वृद्ध होता हुआ अनेक प्रकार के दु:ख उठाता है।
इससे विपरीत मुक्त जीव कर्मबन्धन से पूर्णतया निवृत्त होकर आत्म—स्वातन्त्र्य को प्राप्त कर लेता है। यहाँ ध्यातव्य है कि पूर्ण स्वातन्त्र्य ही सबसे बड़ा सुख है। जब जीव की कर्मजन्य परतन्त्रता छूट जाती है तो मुक्तजीव लोकाग्रभाग में स्थित होकर शाश्वत सुख का अनुभव करता है। मुक्त होने पर सभी प्रकार की आकुलताओं और व्याकुलताओं से छूटकर आत्मा के ज्ञान, सुख आदि गुणों में यह जीव लीन रहता है। इन्हें (मुक्त जीवों को) वचनातीत सुख प्राप्त होता है।
संसारी जीव भी त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी त्रस जीव हैं। जीवविपाकी त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्ति—विशेष वाले जीव त्रस हैं। अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने—फिरने की शक्ति त्रस जीवों में रहती है। त्रसजीव लोक के मध्य में एक राजू विस्तृत और कुछ कम १४ राजू लम्बी त्रसनाली में निवास करते हैं। त्रसजीव भी विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय रूप पाये जाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव विकलेन्द्रिय है। इनके क्रमश: दो (स्पर्शन, रसना) तीन (स्पर्शन, रसना, घ्राण) चार (स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु) इन्द्रियाँ पायी जाती हैं। लट, शंख आदि द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय और भ्रमरादि चतुरिन्द्रिय माने गये हैं।
सकलेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण , चक्षु और श्रोत्ररूप पांच इन्द्रियां पायी जाती है। इनके संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद होते हैं। जिनके मन है और सोचने विचारने की विशिष्ट शक्ति है वे संज्ञी और जिनके मन या सोचने—विचारने की शक्ति नहीं है वे असंज्ञी कहलाते हैं।
स्थावरजीव एकेन्द्रिय होते हैं इनके मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावरजीव—पर्याय प्राप्त होती है। स्थावरजीवों के पांच भेद हैं—पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय।
भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं। अर्थात् जो एक दूसरे के साथ मिलकर बिछुड़ता रहे ऐसा पूरण—गलन स्वभावी स्पर्श—रस—गन्ध और वर्ण संयुक्त मूर्तिक जड़ पदार्थ पुद्गल कहलाता है। अथवा जीव जिनको शरीर, आहार, विषय, और इन्द्रिय—उपकरणादि के रूप में ग्रहण करें वे पुद्गल है।
पुद्गल शब्द पारिभाषिक शब्द है, रूढ़ नहीं। इसका व्युत्पत्ति अर्थ कई प्रकार से किया जाता है। पुद्गल शब्द में ‘पुद्’ और ‘गल’ ये दो अवयव हैं ‘पुद्’ का अर्थ पूरा होना या मिलना (Combination) और ‘गल’ का अर्थ है गलना या मिटाना (Disintegration) जो द्रव्य प्रतिसमय मिलता—गलता रहे, बनता—बिगड़ता रहे, टूटता—ज़ुडता रहे वह पुद्गल है।
सम्पूर्ण विश्व में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो खण्डित भी होता है और पुन: परस्पर सम्बद्ध भी होता है। स्पर्श—रस—गन्ध—वर्णवाला होने से पुद्गल छुआ भी जा सकता है, चखा जा सकता है, सूंघा जा सकता है और देखा भी जा सकता है, यही इस द्रव्य की विशेषता है।
‘अणव: स्कन्धाश्च’ इस सूत्र के अनुसार पुद्गल को अणु और स्कन्ध रूप दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म है, शाश्वत होकर भी उत्पाद—व्यय युक्त है।
अणु—अणु पुद्गल का वह सूक्ष्मतम अंश है जिसका पुन: अंश हो ही न सके। अणु अविभाज्य है अत: उसका विभाजन नहीं हो सकता है।
स्कन्ध—दो या दो से अधिक परमाणुओं का पिण्ड स्कन्ध कहलाता है।
स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश एवं अणु इस प्रकार पुद्गलद्रव्य के चार भेद भी होते हैं। अनन्तानन्त परमाणुओं से एक स्कन्ध बनता है, स्कन्ध का आधा स्कन्धदेश और स्कन्ध देश का आधा स्कन्ध प्रदेश कहलाता है। अणु सर्वत: अविभागी होता है।
स्कन्ध की अपेक्षा छह भेद—
अपने परिणमन की अपेक्षा पुद्गल स्कन्धों के छह भेद हैं—बादर—बादर (स्थूल—स्थूल), बादर (स्थूल), बादर—सूक्ष्म, सूक्ष्म—बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म—सूक्ष्म।
बादर बादर—जो स्कन्ध छिन्न—भिन्न होने पर स्वयं न मिल सकें। ऐसे ठोस (Solid) पदार्थ जिनका आकार, प्रमाण और घनफल नहीं बदलता बादर—बादर कहलाते हैं। लकड़ी, पत्थर, पृथ्वी आदि पदार्थ इस वर्ग में आते हैं।
बादर—जो स्कन्ध छिन्न—भिन्न होने पर स्वयं आपस में मिल जावे वे बादर कहलाते हैं। जिनका केवल आकार बदलता है घनफल नहीं वे बादर कहलाते हैं। इस वर्ग में दूध, घी, जल, तैल आदि द्रव (Liquids) पदार्थ आते हैं।
बादर—सूक्ष्म—जो स्कन्ध देखने में स्थूल हों, परन्तु जिनका छेदन, भेदन और ग्रहण न किया जा सके वे बादर—सूक्ष्म कहलाते हैं। अर्थात् केवल नेत्रन्द्रिय के विषयभूत आकार सहित किन्तु पकड़ में न आ सकने वाले पदार्थ बादर—सूक्ष्म कहलाते हैं। प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पदार्थों को इसी वर्ग में रखा जा सकता है।
सूक्ष्म—बादर—नेत्रेन्द्रिय के बिना शेष चार इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ सूक्ष्म—बादर कहलाते हैं। जैसे ताप, ध्वनि आदि ऊर्जाएं। यद्यपि ताप हम नेत्रेन्द्रिय से देख नहीं पाते, किन्तु स्पर्श के द्वारा उसका परिज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार ध्वनि को हम आँखों से देख नहीं सकते, किन्तु कर्णेन्द्रिय द्वारा उसका अनुभव कर लेते हैं।
सूक्ष्म—जो स्कन्ध सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न किये जा सकें वे सूक्ष्मस्कन्ध कहलाते हैं। इस वर्ग में हम कार्मणवर्गणाओं को कह सकते हैं। कार्मण वर्गणाएँ ही वे सूक्ष्म स्कन्ध हैं जो हमारे परिणामों के प्रभाव से आत्मा से सम्बद्ध होती हैं और उनका प्रभाव जीवद्रव्य पर पड़ता है।
सूक्ष्म—सूक्ष्म—कार्मण वर्गणाओं से भी छोटे द्व्यणुकस्कन्ध तक सूक्ष्म—सूक्ष्म स्कन्ध है।
पुद्गलजातीय स्कन्धों में विभिन्न प्रकार के परिणमन होने से पुद्गल के २३ भेद हैं, जिन्हें वर्गणाएँ कहा जाता है। जो इस प्रकार हैं—अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, तैजसवर्गणा, आग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, आग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, आग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तर—निरन्तरवर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, नभोवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा।
उपर्युक्त २३ वर्गणाओं में आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, तैजसवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये पांच ग्राह्यवर्गणाएँ हैं। इन वर्गणाओं में ऐसा नियम नहीं है कि जो परमाणु एक बार कार्मणवर्गणारूप परिणत हुए हैं वे सदा कार्माणावर्गणारूप ही रहेंगे अन्यरूप नहीं होंगे या अन्य परमाणु कर्मवर्गणारूप नहीं होंगे। अर्थात् जो परमाणु शरीर अवस्था में नोकर्मवर्गणा बनकर शामिल हुए थे, वे ही परमाणु मृत्यु के अनन्तर शरीर के भस्म कर देने पर अन्य अवस्थाओं को प्राप्त हो जाते हैं।
शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत आदि पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं।
२.७.१ शब्द—एक स्कन्ध के साथ दूसरे स्कन्ध के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह शब्द है। शब्द कर्ण या श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। शब्द पुद्गल द्वारा रुकता है, पुद्गलों को रोकता है, पौद्गालिक वातावरण में अनुकम्पन करता है, पुद्गल के द्वारा ग्रहण किया जाता है और पुद्गल से धारण किया जाता है अत: पौद्गलिक है। स्कन्धों के परस्पर संयोग, संघर्षण और विभाग से शब्द उत्पन्न होता है।
शब्द के भाषात्मक और अभाषात्मकरूप दो भेद हैं। भाषात्मक शब्द के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ये दो भेद हैं। बोल—चाल में आने वाली विविधप्रकार की भाषाएँ, जिनमें ग्रंथ रचना होती हैं, वे अक्षरात्मक तथा द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों के जो ध्वनिरूप शब्द उच्चरित होते हैं, वे अनक्षरात्मक शब्द हैं। अभाषात्मक शब्द के भी वैस्रसिक और प्रायोगिक के भेद से दो भेद हैं। मेघ आदि की गर्जना वैस्रसिक और तत, वितत, घन व सुषिररूप चार भेदों से संयुक्त प्रायोगिक शब्द हैं। मृदंग, भेरी और ढोल आदि का शब्द तत है। वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द वितत है। झालर, घण्टा आदि का शब्द घन है और शंख, बांसुरी आदि का शब्द सुषिर है।
बन्ध—बन्ध शब्द का अर्थ है बंधना, जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना। दो या दो से अधिक परमाणुओं का भी बन्ध हो सकता है और दो या दो से अधिक स्कन्धों का भी; इसी प्रकार एक या एक से अधिक परमाणुओं का एक या एक से अधिक स्कन्धों के साथ भी बन्ध होता है। पुद्गल परमाणुओं का (कार्मण वर्गणाओं का) जीवद्रव्य के साथ भी बन्ध होता है।
जिन परमाणुओं या स्कन्धों अथवा स्कन्ध परमाणुओं या द्रव्यों का परस्पर बन्ध होता है वे परस्पर सम्बद्ध रहकर भी अपना—अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ दूध और पानी के समान सम्बद्ध होकर भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं खो सकता, उसके परमाणु कितने ही रूपान्तरित हो जावें, फिर भी उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है।
बन्ध की प्रक्रिया—जैनाचार्यों ने बन्ध की प्रक्रिया का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया है। परमाणु से स्कन्ध, स्कन्ध से परमाणु और स्कन्ध के स्कन्ध किस प्रकार बनते हैं इस विषय में आगम में सात प्रकार बताये गये हैं—
(१) स्कन्धों की उत्पत्ति कभी भेद से, कभी संघात से और कभी भेद—संघात से होती है। स्कन्धों का विघटन अर्थात् कुछ परमाणुओं का एक स्कन्ध से विच्छिन्न होकर दूसरे स्कन्ध में मिल जाना भेद कहलाता है। दो स्कन्धों का संघटन या संयोग हो जाना संघात है और इन दोनों प्रक्रियाओं का एक साथ हो जाना भेद—संघात है।
(२) अणु की उत्पत्ति केवल भेद से ही होती है।
(३) पुद्गल में पाये जाने वाले स्निग्ध और रुक्ष नामक दो गुणों के कारण ही यह प्रक्रिया सम्भव है।
(४) जिन परमाणुओं का स्निग्ध अथवा रुक्ष गुण जघन्य अर्थात् न्यूनतम शक्तिस्तर पर हो उनका परस्पर बन्ध नहीं होता।
(५) जिन परमाणुओं या स्कन्धों में स्निग्ध या रुक्ष गुण समान मात्रा में अर्थात् सम शक्ति स्तर पर हो उनका भी परस्पर बन्ध नहीं होता।
(६) उन परमाणुओं का बन्ध अवश्य होता है जिनसे स्निग्ध और रुक्ष गुणों की संख्या में दो का अन्तर होता है, जैसे चार स्निग्ध गुण युक्त स्कन्ध का छह स्निग्ध गुण युक्त स्कन्ध के साथ अथवा छह रुक्ष गुण युक्त स्कन्ध के साथ बन्ध सम्भव है।
(७) बन्ध की प्रक्रिया में संघात से उत्पन्न स्निग्धता अथवा रुक्षता में से जो भी गुण अधिक परिमाण में होता है नवीन स्कन्ध उसी गुणरूप में परिणत होता है।
सूक्ष्मता—सूक्ष्मता भी पुद्गल की पर्याय है यत: इनकी उत्पत्ति पुद्गल से ही होती है। सूक्ष्मता दो प्रकार की होती है—१. अन्त्यसूक्ष्मता और आपेक्षिक सूक्ष्मता। अन्त्य सूक्ष्मता परमाणुओं में ही पाई जाती है और आपेक्षिक सूक्ष्मता दो छोटी—बड़ी वस्तुओं में पाई जाती है। जैसे—बेल, आंवला और बेर में आपेक्षिक सूक्ष्मता है।
स्थूलता—यह भी पुद्गल से उत्पन्न होने के कारण उसकी ही पर्याय है। स्थूलता भी दो प्रकार की हैं—१. अन्त्य स्थूलता, २. आपेक्षिक स्थूलता। अन्त्यस्थूलता तो विश्वव्यापी महास्कन्ध में पाई जाती है और बेर, आंवला, बेल में आपेक्षिक स्थूलता पाई जाती है।
संस्थान—संस्थान का अर्थ आकार, रचना विशेष। संस्थान का वर्गीकरण दो प्रकार से देखने में आता है। इत्थं लक्षण और अनित्थं लक्षणं इत्थंसंस्थान, जिसे हम त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल आदि नाम देते हैं और अनित्थं लक्षण संस्थान जिसे हम अनगढ़ भी कह सकते हैं उसे कोई खास नाम नहीं दिया जा सकता। जैसे मेघ आदि का आकार अवश्य है, किन्तु उसका निर्धारण सम्भव नहीं है अत: यह अनित्थं लक्षण संस्थान है।
भेद—पुद्गल पिण्ड का भंग होना भेद है। पुद्गल के विभिन्न भंग—टुकड़े उपलब्ध होते हैं अत: भेद को भी पुद्गल पर्याय कहा गया हैं भेद के छह भेद हैं—
१. उत्कर—बुरादा लकड़ी या पत्थर आदि का करोंत आदि से भेद करना।
२. चूर्ण—गेहूं आदि का सत्तू या आटा।
३. खण्ड—घट आदि के टुकड़े टुकड़े हो जाना खण्ड है।
४. चूर्णिका—दालरूप में टुकड़े, उड़द, मूंग, चना आदि की दाल।
५. प्रतर—मेघ, भोजपत्र, अभ्रक और मिट्टी आदि की तहें निकालना प्रतर है।
६. अणुचटन—गर्म किये लोहे पर घन मारने पर अथवा शान पर कोई वस्तु चढ़ाते समय जो स्फुिंलगे निकलते हैं।
तम—जो देखने में बाधक हो और प्रकाश का विरोधी हो वह अन्धकार है। अन्धकार तम का पर्यायवाची है, अन्धकार मूर्तिक है, क्योंकि इसका अवरोध किया जा सकता है। कुछ दार्शनिकों ने अन्धकार को कोई वस्तु न मानकर केवल प्रकाश का अभाव माना है, किन्तु यह उचित नहीं है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश भी कोई वस्तु नहीं है वह तो केवल तम का अभाव है। विज्ञान भी अन्धकार को प्रकाश का अभावरूप न मानकर पृथक् वस्तु मानता है। प्रकाशपथ में सघन पुद्गलों के आ जाने से अन्धकार की उत्पत्ति होती है।
छाया—प्रकाश पर आवरण पड़ने से छाया उत्पन्न होती है। सूर्य, दीपक, विद्युत आदि के कारण आस—पास के पुद्गलस्कन्ध भासुररूप धारणकर प्रकाश स्कन्ध बन जाते हैं। जब कोई स्थूलस्कन्ध इस प्रकाशस्कन्ध को जितनी जगह में अवरुद्ध रखता है उतने स्थान के स्कन्ध काला रूप धारण कर लेते हैं यही छाया है। छाया के दो भेद हैं—
१. वास्तविक प्रतिबिम्ब—प्रकाश रश्मियों के मिलने से वास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं।
२. अवास्तविक प्रतिबिम्ब—समतल दर्पण में प्रकाश रश्मियों के परावर्तन से बनते हैं। छाया पुद्गलजन्य है अत: पुद्गल की पर्याय है।
आतप—सूर्य आदि के निमित्त से होने वाले उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं। आतप मूल में ठंडा होता है, किन्तु उसका प्रभाव उष्ण होता है। आतप में अधिकांश ताप किरणों के रूप में प्रगट होता है।
उद्योत—चन्द्रमा, जुगनू आदि के शीत प्रकाश को उद्योत कहते हैं। उद्योत की प्रथा और मूल दोनों शीतल होते हैं। उद्योत में अधिकांश ऊर्जा प्रकाश किरणों के रूप में प्रकट होती है।
शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास का निर्माण पुद्गल द्वारा होता है। शरीर की रचना पुद्गल द्वारा हुई है। वचन के दो भेद हैं–(१) भाववचन (२) द्रव्यवचन। भाववचन वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से जो पुद्गल गुण दोष का विचार और स्मरण आदि कार्यों के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक हैं वे द्रव्यमन से परिणत होते हैं, अतएव द्रव्यमन भी पौद्गलिक है। वायु को बाहर निकालना प्राण और बाहर से भीतर ले जाना अपान कहलाता है। वायु के पौद्गलिक होने से प्राणापान भी पुद्गल द्वारा निर्मित है।
सुख, दु:ख, जीवन और मरण भी पुद्गलों के उपकार हैं। सुख, दु:ख जीव अवस्थाएँ हैं, इन अवस्थाओं के होने में पुद्गल निमित्त है, अत: ये पुद्गल के उपकार हैं। आयु कर्म के उदय से प्राण—अपान का विच्छेद न होना जीवन है और प्राण—अपान का विच्छेद हो जाना मरण है। प्राणापानादि पुद्गल स्कन्धजन्य है। अत: ये भी पुद्गल के उपकार हैं।
गतिशील जीव और पुद्गलों के गमन करने में जो साधारण कारण है, वह धर्मद्रव्य है। जीव और पुद्गल के समान यह भी स्वतन्त्र द्रव्य है। यह निष्क्रिय है। बहुप्रदेशी द्रव्य होने के कारण इसे अस्तिकाय भी कहा जाता है। धर्मद्रव्य के असंख्यातप्रदेश हैं। यह द्रव्य के मूल परिणामी स्वभाव के अनुसार पूर्वपर्याय को छोड़ने और उत्तर पर्याय को धारण करने का क्रम अपने प्रवाही अस्तित्व को बनाये रखते हुए अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा। धर्मद्रव्य के कारण ही जीव और पुद्गलों के गमन की सीमा निर्धारित होती है। इसमें न रस है, न रूप है, न गन्ध है, न स्पर्श है और न शब्द ही है।
यह जीव और पुद्गल को गमन करने में उसी प्रकार सहायक है जैसे जल मछली के गमन करने में। यह एक अमूर्तिक समस्त लोक में व्याप्त स्वतन्त्र द्रव्य है।
जिस प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहायक है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों के ठहरने या स्थिति में सहायक है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों के चलने में सहायता करता है और अधर्मद्रव्य ठहरने में। चलने और ठहरने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में पाई जाती है, पर बाह्य सहायता के बिना इस शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
सहायक होने पर भी धर्म और अधर्मद्रव्य प्रेरक कारण नहीं हैं, न किसी को बलपूर्वक चलाते हैं और न किसी को ठहराते ही हैं, किन्तु ये दोनों गमन करते और ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को सहायक होते हैं।
जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश प्रदान करता है वह आकाश है। आकाश अनन्त है, किन्तु जितने आकाश में जीवादि अन्य द्रव्यों की सत्ता पाई जाती है वह लोकाकाश कहलाता है और वह सीमित है। लोकाकाश से परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है उसे अलोकाकाश कहा जाता है। उसमें अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है, और न हो सकता है, क्योंकि वहां गमनागमन के साधनभूत धर्मद्रव्य का अभाव है।
एक पुद्गल परमाणु जितने आकाश को रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। इस नाप से आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। इसके मध्य में चौदह राजू ऊँचा सर्वत्र सात राजू मोटा पुरुषाकार लोक है जो कि असंख्यात प्रदेशी है। लोक के अन्य समस्त अलोकाकाश अनन्त है। आकाश अन्य द्रव्यों के समान ‘उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य’ इस द्रव्य लक्षण से युक्त है और इसमें प्रतिक्षण अपने अगुरुलघुगुण के कारण पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद होते हुए भी सतत अविच्छिन्नता बनी रहती है। अत: आकाश परिणामीनित्य है। धर्म—अधर्म द्रव्य के समान आकाश द्रव्य भी निष्क्रिय है।
समस्त द्रव्यों के उत्पादादिरूप परिणमन में सहायक ‘कालद्रव्य’ होता है। इसका लक्षण वर्तना है। यह स्वयं परिणमन करते हुए अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक होता है। कालद्रव्य के दो भेद हैं–(१) निश्चय काल (२) व्यवहारकाल।
निश्चयकाल पाँच वर्ण और पाँच रस से रहित, दो गन्ध और आठ स्पर्श से रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। यह निश्चयकाल ही सत्तास्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य एवं आकाशद्रव्य के परिणमन में निमित्तकारण है।
जो द्रव्यों के परिणमन में सहायक, परिणामादि लक्षणा वाला है सो व्यवहारकाल है। समय और आवली के भेद से दो प्रकार अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत के भेद से तीन प्रकार का है। पदार्थों में कालकृत सूक्ष्मतम परिवर्तन होने में अथवा पुद्गल के एक परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना काल लगता है वह व्यवहारकाल का एक समय है। ऐसे संख्यातसमयों की आवली, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, ३८-१/२ लवों की एक नाली, दो नाली का एक मुहूर्त और तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वांग पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि संख्यात काल के भेद हैं। इसके आगे असंख्यातकाल प्रारम्भ होता है जिसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं। अनन्तकाल के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद हैं। अनन्त का उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तानन्त है।
जैनागम में पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध हैं। उपर्युक्त छह द्रव्यों को अस्तिकाय और अनास्तिकाय में विभाजित किया गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांचद्रव्य तो अस्तिकाय हैं तथा कालद्रव्य अनास्तिकाय है।।
अस्तिकाय—अनास्तिकाय—‘अस्तिकाय’ शब्द अस्ति और काय इन दो शब्दों के संयोग से बना है। अस्ति का अर्थ है सत्ता, अत: छहों द्रव्यों की सत्ता तो है, किन्तु काय अर्थात् बहुप्रदेशीपना कालद्रव्य बिना शेष पांच द्रव्यों को ही है। कालद्रव्य में कायत्व नहीं हैं, क्योंकि कालद्रव्य परमाणुमात्र प्रमाणवाला है और इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकार से प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है। शेष पांचों द्रव्य क्रमश: जीव असंख्यात—प्रदेशी, पुद्गल में संख्यात—असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। धर्म व अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी है तथा आकाश अनन्त प्रदेशी हैं
शंका—पुद्गल द्रव्य के एक—प्रदेशी अणु को कायत्व वैâसे प्राप्त होगा ?
समाधान—वस्तुत: एक प्रदेशवाले अणु के भी पूर्वोत्तर भाव—प्रज्ञापननय की अपेक्षा उपचार कल्पना से प्रदेशप्रचय कहा है। पुद्गल तो (अणु) द्रव्यत: एक प्रदेशमात्र होने से यथोक्त प्रकार से अप्रदेशी है, तथापि दो प्रदेशादि के उद्भव के हेतुभूत तथाविध स्निग्ध—रुक्ष गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है। इसलिए पर्यायत: अनेकप्रदेशित्व भी सम्भव होने से पुद्गल को द्विप्रदेशित्व से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी कहा गया है वह भी न्याय युक्त है।