तत्त्व—जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है। वस्तु के असाधारणरूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं। जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। तत्त्व सात हैं— १. जीव, २. अजीव, ३. आस्रव, ४. बन्ध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष।
ये तत्त्व अनादि हैं। जिस प्रकार काल अनादि, अनन्त है उसी प्रकार ये तत्त्व भी अनादि हैं। इन सात तत्त्वों की जानकारी प्रत्येक तत्त्व जिज्ञासु के लिए आवश्यक है।
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप चेतनता ही जीव का लक्षण है। आत्मा व चेतन भी जीव के पर्यायवाची शब्द हैं। अत: यहां जीव के स्थान पर ‘आत्मा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
जिस प्रकार रोगी को जबतक अपने मूलभूत आरोग्य स्वरूप का ज्ञान न हो तब तक उसे यह निश्चय ही नहीं हो सकता कि मेरी वह अस्वस्थ अवस्था है। आरोग्यावस्था का परिज्ञान होने पर ही रोगजनित विकार की यथार्थ जानकारी सम्भव है। इसी प्रकार आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किये बिना विकारी आत्मा का परिज्ञान नहीं हो सकता है। विकारी अवस्था का ज्ञान होने पर आत्मा अपने यथार्थ—परिशुद्ध स्वरूप की प्राप्त करने का प्रयत्न करता है यही चरम लक्ष्य है।
विश्व में अनन्त आत्माएं हैं और उनकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। प्रत्येक आत्मा का मौलिक स्वरूप एक होने पर भी संसारी आत्माओं में जो भिन्नता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मोपाधि जन्य है। कर्मों के आवरण की तारतम्यता अनन्त प्रकार की सम्भव है अत: आत्मा के स्वाभाविक गुणों के विकास एवं ह्रास की भी अनन्त अवस्थाएँ हो सकती हैं। आत्मा का असाधारण गुण चेतना है। यह आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं पाया जाता है। जिस प्रकार आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल होता है उसी प्रकार आत्मा भी तीनों कालों में अविनाशी और अवस्थित है। इसका ग्रहण ज्ञान—दर्शन गुण के द्वारा होता है।
आत्मा के भेद—आत्मा को हम तीन भेदों में विभाजित कर सकते हैं यह भेद आत्मा के विकास—अपेक्षा किये गये हैं।
१. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, ३. परमात्मा।
बहिरात्मा—मिथ्यात्व व राग—द्वेष से मलीन, तीव्रकषायविष्ट, मद—मोह—मान से नित्य संतप्त, विषयों में अत्यासक्त, देह, कलत्र, पुत्र व मित्रादिरूप चेतना के विभावों में अपनत्व करने वाला, आत्मा के ज्ञान-ध्यान व अध्ययन सुखामृत को छोड़कर इन्द्रिय विषयों के सुखों का भोक्ता मिथ्यादर्शन से मोहित होने के कारण हेयोपादेय के विचार से रहित होता हुआ देह को ही आत्मा समझने वाला बहिरात्मा हैं।
बहिरात्मा उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के हैं—मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट, सासादनगुणस्थान वर्ती मध्यम और मिश्रगुणस्थानवर्ती जघन्य बहिरात्मा हैं।
अन्तरात्मा—स्व—पर के विवेक से भेदविज्ञान सम्पन्न होने से शरीरादि बाह्य पदार्थों में आत्मबुद्धि का अभाव होने पर जब जीव की दृष्टि बाह्य विषयों से हटकर अन्तर की ओर झुक जाती है और सभी प्रकार के जल्पों से रहित होता है वह यह अन्तरात्मा कहलाता है। अन्तरात्मा के भी तीन भेद हैं— १. जघन्य अन्तरात्मा, २. मध्यम अन्तरात्मा, ३. उत्कृष्ट अन्तरात्मा।
चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा, क्षीणकषाय नामक १२ वें गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा तथा इन दोनों के मध्य में पंचमगुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत के जीव मध्यम अन्तरात्मा जानना चाहिए।
परमात्मा—संसारी जीवों में सबसे उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा है। अथवा शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा विशुद्ध ध्यान के बल से कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर उनको आत्मा से सर्वथा पृथक् कर यह आत्मा परमात्मा बन जाती है। परमात्मा के दो भेद हैं—१. सकल परमात्मा और २. निकल परमात्मा।
कल अर्थात् शरीर सहित परमात्मा सकल परमात्मा है। केवलज्ञान से जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे शरीर सहित अर्हंत सकल परमात्मा हैं। जो शरीर रहित हैं एवं सम्पूर्ण कर्मकालिमा से मुक्त हैं वे निकल परमात्मा है।
कारणपरमात्मा और कार्यपरमात्मा के भेद से भी परमात्मा के दो भेद जिनागम में कहे गये हैं। परमात्मा की प्रथम सकलपरमात्मरूप अर्हंत अवस्था कारणपरमात्मा और निकलपरमात्मारूप सिद्धावस्था कार्यपरमात्मा है।
कारणपरमात्मा और कार्यपरमात्मा के भेद से भी परमात्मा के दो भेद जिनागम में कहे गये हैं। परमात्मा की प्रथम सकल परमात्मरूप अर्हंत अवस्था कारणपरमात्मा और निकलपरमात्मा सिद्धावस्था कार्यपरमात्मा हैं
इस प्रकार विकासक्रम की अपेक्षा आत्मस्वरूप को जानकर निष्ठापूर्वक अपनी आत्मा के विकारी भावों को दूर कर आत्मा की शुद्धदशा को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
आत्मा को विकृत करने में, विभावरूप परिणमन कराने में अजीवतत्त्व ही निमित्त है। अजीव से ही आत्मा बंधती है और यही आत्मा की परतन्त्रता का कारण है। पूर्वोक्त छहद्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पांच की अजीवतत्त्व के अन्तर्गत परिगणना की जाती है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो आत्मा का इष्ट अनिष्ट करते नहीं है पुद्गलद्रव्य ही आत्मा के बन्ध का कारण है। इसी से शरीर, मन, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास और वचन आदि का निर्माण होता है। अतएव पुद्गल की प्रकृति का परिज्ञान आवश्यक है। जीवन की आसक्ति का प्रमुख केन्द्र यही है। इसके यथार्थ उपयोग से ही आत्मा का विकास किया जा सकत्ाा है।
आत्मा और अनात्मा दोनों द्रव्य हैं। दोनों अनन्तगुण—पर्यायों से अविच्छिन्न समुदाय हैं। वस्तुत: शरीर और चेतन का अनादिप्रवाही सम्बन्ध। चेतन और अचेतन अथवा आत्मा—अनात्मा या जीव पुद्गल चैतन्य की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न हैं अत: वे सर्वदा एक नहीं हो सकते। चेतन कभी अचेतन और अचेतन कभी चेतन नहीं हो सकता है। अतएव शरीर और आत्मा के सम्बन्ध का परिज्ञान और उसकी अनुभूति प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक है।
उपर्युक्त कथन का अभिप्राय यही है कि जीव के लिए आत्म और अनात्म दोनों ही तत्त्व हैं, क्योंकि जीव और पुद्गल का बन्ध अनादि से है और यह बन्ध जीव के अपने राग—द्वेष आदि के कारण उत्तरोत्तर वृिंद्धगत होता है। जब ये रागादिभाव क्षीण होते हैं तब यह बन्ध आत्मा में नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और शनै: शनै: या एक साथ ही समाप्त हो जाता है। इन सात तत्त्वों में जीव और अजीव ही प्रधान तत्त्व है शेष पांच तत्त्व तो जीव—अजीव के संयोग—वियोग के कारण होते हैं। आस्रव और बन्ध तत्त्व संसार के तथा संवर निर्जरा मुक्ति के कारण हैं। मोक्ष तत्त्व जीव और अजीव के वियोग हो जाने का नाम है।
जीव के द्वारा प्रतिक्षण मन—वचन और काय से जो शुभाशुभ प्रवृत्ति होती है वह जीव का भावास्रव है और उसके निमित्त से विशेष प्रकार की अचेतन पुद्गलवर्गणाएं आकर्षित होकर उसके (आत्म) प्रदेशों में प्रवेश करती हैं सो द्रव्यास्रव है। अथवा
पुण्य—पापरूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भर जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते हैं। साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव के भेद से आस्रव के दो भेद हैं। अथवा द्रव्यास्रव और भावास्रवरूप भी दो भेद हैं।
साम्परायिक आस्रव—कर्मों के द्वारा चारों ओर से स्वरूप का अभिभव होना साम्पराय है इसका दूसरा नाम संसार भी है। इस साम्पराय के लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव है। मिथ्यात्व गुणस्थान से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक कषाय का चेप रहने से योग के द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल के समान चिपक जाते हैं अर्थात् उनमें स्थितिबन्ध हो जाता है। यही साम्परायिक आस्रव है।
ईर्यापथ आस्रव—जिनकर्मों का आस्रव होता है, किन्तु बन्ध नहीं होता वे ईर्यापथकर्म हैं, ऐसे कर्मों का आस्रव ईर्यापथ आस्रव है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के योग से आगे हुए कर्म कषायों का चेप न होने से सूखी दीवार पर पड़े हुए पत्थर के समान झड़ जाते हैं बंधते नहीं हैं। बन्ध को प्राप्त कर्म परमाणु द्वितीय क्षण में ही सामस्त्य भाव से निर्जरा को प्राप्त होते हैं अत: यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।
द्रव्यास्रव—भावास्रव—अपने—अपने निमित्तरूप योग को प्राप्त करके आत्मप्रदेशों में स्थित पुद्गलकर्म भावरूप से परिणमित हो जाते हैं अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसे द्रव्यास्रव कहते हैं और वह अनेक भेदों वाला है।
आत्मा के जिस परिणाम से पुद्गलद्रव्य कर्मपने को प्राप्त कर आत्मा में आता है उस शुभ या अशुभ परिणाम को भावास्रव कहते हैं।
दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। बन्ध द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। आत्मा के जिन राग—द्वेष मोहादि विकारी भावों से कर्मबन्ध होता है वे भाव तो भावबन्ध हैं तथा कर्म—पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। आत्मा और कर्मपुद्गलों का दूध—पानी के समान एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है।
जिस प्रकार लोहा अग्नि से तपाया जाने पर तप्त हो जाता है और पानी में छोड़ देने पर वह चारों ओर से पानी को अपनी ओर खींचता है उसी प्रकार आत्मा अपनी संसारी अवस्था में कर्मों को खींचता है और इस प्रकार आत्मा व कर्मों का एकक्षेत्रावगाह हो जाना ही बन्ध है। बन्ध अवस्था में न तो आत्मा ही शुद्ध रहता है और न ही कर्म पुद्गल अपनी शुद्ध अवस्था में रहता है। जिस प्रकार दूध और पानी की मिश्रित अवस्था में न पानी यथार्थ है और न दूध ही यथार्थ है बल्कि दूध और पानी मिलकर एक तृतीय अवस्था हो जाती है। इसी प्रकार आत्मा की बन्ध अवस्था को भी जानना चाहिए। कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग ये पांच कारण बताए गये हैं।
आस्रव का निरोध संवर है। जिस प्रकार नाव के छिद्र रुक जाने से उसमें जल प्रवेश नहीं करता, इसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव हो जाने पर जीव में कर्मों का संवर होता है अर्थात् नवीनकर्मों का आस्रव नहीं होता। जिस नगर के द्वार अच्छी तरह बन्द हों, वह नगर शत्रुओं के अगम्य है उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से संवृत कर लिये हैं इन्द्रिय, कषाय व योग जिसने ऐसी आत्मा के नवीन कर्मों के द्वार का रूक जाना संवर है।
द्रव्यसंवर और भावसंवर के भेद से संवरतत्त्व दो प्रकार का है।
आत्मा में नवीनकर्मों का आगमन नहीं होना द्रव्यसंवर है तथा आत्मा के जिन भावों से नवीन कर्मों का आगमन होता है उनका निरोध भावसंवर है।
पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है। निर्जरा में कर्मों का एकदेश क्षय होता है। निर्जरा के दो भेद हैं—१. भावनिर्जरा, २. द्रव्यनिर्जरा। अथवा सकाम निर्जरा, अकामनिर्जरा या सविपाक, अविपाकनिर्जरारूप दो भेद हैं।
जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भावनिर्जरा है। और कर्मों का झड़ना द्रव्य निर्जरा है।
क्रम से अपने समय को पाकर स्वयं कर्मों का उदय में आ—आकर झड़ते रहना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा प्रत्येक प्राणी के प्रतिक्षण होती रहती है, इसमें पुराने कर्म निर्जीण होते रहते हैं तथा नवीन कर्म बंधते रहते हैं। अत: मोक्षमार्ग में इसका कोई महत्त्व नहीं है, किन्तु गुप्ति, समिति और तपरूपी अग्नि से कर्मों को फल देने के पहले ही भस्म कर देना है लक्षण जिसका ऐसी अविपाकनिर्जरा ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, क्योंकि यह निर्जरा संवर पूर्वक होती है। यहां यह ध्यातव्य है कि सम्यक््â तप से होने वाली निर्जरा ही संवरपूर्वक होती है। असमीचीन कुतप से तो शरीर अवश्य क्षीण होता है, किन्तु कर्मबन्धन तो दृढ़ होते चले जाते हैं। अत: सुतप पूर्वक कर्मनिर्जरा ही महत्वशाली है।
कर्म—बन्धनों से पूर्ण रूपेण छूट जाना अथवा कर्मों का आत्मा से सर्वथा विगलन हो जाना मोक्ष है। मोक्ष प्राप्त होने पर आस्रव बन्ध के कारणभूत राग—द्वेष मोह कषायादि से होने वाली आत्मा की विभाव परिणति का नाश होकर आत्मा अपने परमशुद्ध चैतन्य स्वभाव में स्थित हो जाता है। मोक्ष में आत्मा जब शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो आत्मा से बद्ध कर्मों का जो विगलन हुआ वे पुद्गल परमाणु भी मुक्त हो जाते हैं अर्थात् अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं, उनकी कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जीव और पुद्गल दोनों ही द्रव्य अपने निजस्वरूप में अवस्थित हो जाते हैं।
मोक्ष के दो भेद हैं—१. भावमोक्ष २. द्रव्यमोक्ष।
कर्मों के निर्मूल करने में समर्थ क्षायिकज्ञान—दर्शन व यथाख्यातचारित्र (शुद्धरत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म आत्मा से दूर किये जाते हैं उन परिणामों को मोक्ष अर्थात् भावमोक्ष कहते हैं तथा सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक््â हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
मुमुक्षु जीव के लिए प्रयोजनभूत जिन सप्त तत्त्वों का स्वरूप ऊपर बताया गया है उनमें पुण्य—पाप इन दो को मिला देने से नौ पदार्थ होते हैं तथा यदि पुण्य व पाप को आस्रवतत्त्व में अन्तर्भूत किया जावे तो सात तत्त्व ही होते हैं। पुण्य व पाप का स्वरूप निम्न प्रकार है—
पुण्य—‘‘पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्’’ अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है। दान—पूजा षडावश्यकादिरूप जीव के शुभ—परिणाम तो भावपुण्य तथा भावपुण्य के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सातावेदनीयादि शुभप्रकृतिरूप पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड द्रव्यपुण्य है।
यद्यपि सामान्य कथन की अपेक्षा पाप और पुण्य में कोई अन्तर नहीं, क्योंकि दोनों ही संसार के कारण है अत: हेय हैं, तथापि इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सर्वथा संसार का ही कारण हो और पापरूप ही हो। मुमक्षु जीवों को निचली अवस्था में पुण्य प्रवृत्ति होती अवश्य है, किन्तु निदान रहित होने के कारण उना पुण्य पुण्यानुबन्धी है, जो कि परम्परा से मोक्ष का कारण है। लौकिक जीवों का पुण्य निदान व तृष्णा सहित होने के कारण पापानुबन्धी है तथा संसार में डुबाने वाला है। ऐसे पुण्य का त्याग ही परमार्थ से योग्य है।
जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज धान्यकाल में विपरीत रूप से फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेद से विपरीतरूप से फलता है। सर्वज्ञ द्वारा स्थापित (कथित) वस्तुओं में संयुक्त शुभोपयोग का फल पुण्य संचय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। अर्थात् पुण्य दो प्रकार का है—एक सम्यग्दृष्टि का और दूसरा मिथ्यादृष्टि का। सम्यग्दृष्टि का पुण्य परम्परा से मोक्ष का कारण है और मिथ्यादृष्टि का पुण्य केवल स्वर्गसम्पदा का कारण। सम्यग्दृष्टि का पुण्य तीर्थंकर प्रकृति आदि के बन्ध का कारण होने से विशिष्ट प्रकार का है। जैसे तीर्थंकरों का पुण्य या भरत, सगर, राम व पाण्डवादि का पुण्य, जिसको प्राप्त करके भी वे मद, अहंकारादि विकल्पों के त्यागपूर्वक मोक्ष को प्राप्त हो गये। मिथ्यादृष्टि का पुण्य निदानसहित व भोगमूलक होने के कारण आगे जाकर कुगति का कारण होता है अत: अत्यन्त अनिष्ट है, क्योंकि निदानबन्ध से उत्पन्न हुए पुण्य से भवान्तर में राज्यादि विभूति की प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगों का त्याग करने में समर्थ नहीं हो सकने से उनमें आसक्त हो जाता है। अत: उस पुण्य से वह रावण आदि की भाँति नरकादि दु:खों को प्राप्त करता है।
आगम में भोगमूलक पुण्य का निषेध किया है, योगमूलक पुण्य का नहीं, क्योंकि योगमूलक पुण्य परम्परा से मोक्ष का कारण है। यद्यपि दान—पूजा, व्रत, तप आदि व्यवहारधर्म पुण्य प्रधान अवश्य है, किन्तु निश्चयधर्म की ओर झुकाव होने से वह पुण्यप्रधान व्यवहारधर्म भी परम्परा से निर्जरा व मोक्ष का कारण है। व्यवहारपूर्वक ही निश्चयधर्म होता है अत: व्यवहारधर्मरूप व्रत, दान, पूजा, तप आदि पुण्य प्रसाधक होने से एकान्तत: त्याज्य ही नहीं है निचली अवस्था में मुमुक्षु जीव के लिए उपादेय हैं और सम्यक्त्व सहित की जाने वाली उन क्रियाओं से उत्पन्न होने वाला पुण्य परम्परा से मुक्ति का कारण होने से उपादेय है।
पाप—‘पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्’ अर्थात् जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है। जैसे—असातावेदनीय आदि। हिंसा, झूठ, चोरी आदिरूप अशुभ—असत् परिणाम भाव पाप हैं और भाव पाप के कारण उत्पन्न होने वाले असातावेदनीयादि अशुभरूप पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड द्रव्यपाप है। भगवान कुन्द—कुन्दाचार्यदेव के शब्दों में—
असावधानी या प्रमादपूर्वक सोचना, बोलना और कार्य करना मन में मैल रखना और भोग—उपभोग के पदार्थों में अत्यन्त लीन होना, दूसरे को कष्ट देना तथा बदनामी करना पाप के आस्रव करते हैं। आहारादि संज्ञाएं, कृष्णादि लेश्याएं, इन्द्रियों के वश में होना, बात—बात में आर्त (भीत—निराशा होना) और रौद्र (क्रोध, बदला आदि के भाव करना) होना, ज्ञान का दुरुपयोग करना तथा मोह के नशे में झूमना ये पाप को बढ़ाने वाले हैं। अत: जितने भी काल तक इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओं का निग्रह करके शुभ या स्वभाव में रहा जाये उतनी देर के लिए पापों के आने का द्वार बन्द हो जाता है।
पुण्य—पाप के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शुभ परिणामों से किये गये कार्य पुण्य और अशुभ परिणामों से किये गये कार्य पाप हैं। अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, आदि कायिक पुण्य और सत्य, हित—मित वचन वाचनिक पुण्य हैं। अर्हदभक्ति, तप में रुचिरूप परिणाम, शास्त्र स्वाध्याय आदि मानसिक (भाव) पुण्य है। तथैव हिंसा, अपहरण करना, मैथुन आदि कायिक पाप हैं, भ्रामक, कठोर—असत्य शब्द वाचनिक पाप हैं तथा हिंसा के परिणाम, ईर्ष्यारूप परिणाम मानसिक पाप हैं। इनके अतिरिक्त भी आर्षवाणी में पुण्य—पाप के आस्रव के अनेकों कारण बताये गये हैं जिनसे पुण्य—पाप प्रकृतियों का आस्रव होता है। सबसे बड़ा पाप तो मिथ्यात्व है जिसके कारण अनादि से संसार परिभ्रमण चल रहा है।