आधुनिक युग की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं अपेक्षाकृत सफल राजनैतिक व्यवस्था के रूप में जनतंत्र आज का युगधर्म बन गया है, जिसका उद्देश्य मनुष्य के लौकिक जीवन को समुन्नत बनाना है। एक राजनैतिक व्यवस्था के रूप में जनतांत्रिक सिद्धान्तों का विकास मुख्यत: पाश्चात्य जगत में हुआ माना जाता है किन्तु जनतांत्रिक मूल्यों के दर्शन हमें प्राचीन भारतवर्ष में उदित विभिन्न धर्मों एवं उनके धर्मग्रन्थों में होते हैं। जैनधर्म उन्हीं धर्मों में से एक है। जैनधर्म का मुख्य लक्ष्य मनुष्य को सांसारिक जीवन से मुक्ति का मार्ग दिखाना तो है ही, साथ ही इस धर्म के सिद्धान्त लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों को स्वयं में समाहित करने के कारण लौकिक जीवन को भी सुव्यवस्थित एवं सार्थक बनाने में सहायक हैं।
‘राज्य, जीवन की रक्षा के लिए अस्तित्व में आया और अच्छे जीवन की प्राप्ति के लिए यह विद्यमान है’ प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू के इस कथन के दृष्टिगत सभ्य मानव ने अनेक शासन व्यवस्थाओं की खोज की एवं उनकी स्थापना भी की। इनमें राजतंत्र, कुलीनतंत्र, निरंकुशतंत्र एवं प्रजातंत्र या जनतंत्र प्रमुख हैं। राजतंत्र सर्वाधिक प्राचीन शासन व्यवस्था है जिसमें एक व्यक्ति, जिसे राजा की उपाधि प्राप्त होती थी और जो वंश परम्परा के आधार पर पद ग्रहण करता था, अपनी इच्छानुसार शासन कार्य संपादित करता था। कालांतर में राजा द्वारा निजी स्वार्थ के सम्मुख जनहित की उपेक्षा किये जाने एवं निरंकुश प्रवृत्ति अपनाये जाने पर राजतंत्रीय व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह हुआ एवं समाज के कुछ सम्भ्रान्त व्यक्तियों का शासन स्थापित किया गया जिसे कुलीनतंत्र का नाम दिया गया। माना यह गया कि कुलीनों का सामूहिक विवेक एक राजा की व्यक्तिगत इच्छा की तुलना में अधिक प्रभावी एवं जनोन्मुख होगा। समय के साथ कुलीनतंत्र में भी बुराइयाँ हावी हुईं एवं उसके द्वारा भी सर्वजनहित के स्थान पर वर्गीय हितों को प्रोत्साहित किया जाने लगा। फलत: जन असंतोष बढ़ा और इस धारणा के साथ कि ‘कुलीनों ने काफी समय तक शासन कर लिया, अब सामान्य जन शासन करेंगे’, जनतंत्रीय आंदोलन की शुरुआत हुई। कुलीनतंत्रीय व्यवस्था के साथ दीर्घ अवधि तक कठिन संघर्ष के फलस्वरूप जनतंत्रीय शासन व्यवस्था अस्तित्व में आयी, जिसमें जाति, रंग, धर्म, लिंग, व्यवसाय आदि के भेद के बिना सामान्य जनों ने शासन करने की शक्ति प्राप्त की, जिसका प्रयोग सार्वजनिक हित में करने की अपेक्षा की गयी।
ऐतिहासिक दृष्टि से जनतंत्र का उदय पश्चिमी जगत् में एथेंस से हुआ माना जाता है। जनतंत्र के अंग्रेजी पर्यायवाची (Democracy) शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के `Demos’ एवं `Kratos’ शब्दों से हुई है, जिनका क्रमश: तात्पर्य है-नगर, राज्य में रहने वाले नागरिक एवं ‘शक्ति या शासन’ अत: `Democracy’ का तात्पर्य है-लोगों का शासन या ऐसा शासन जिसमें शासक आमजन हो। प्राचीन यूनान में नागरिकों द्वारा सक्रिय राजनीति में भाग लिया जाता था एवं कानून बनाने तथा उन्हें लागू करने में जनसभा या ‘एक्लेशिया’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी जिसमें भागीदारी के लिए प्रत्येक नागरिक अहं था। दूसरे शब्दों में, वहाँ जनतंत्र का प्रत्यक्ष रूप प्रचलित था। एथेंस को भी लोकतंत्र स्थापित करने में कुलीनों से अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा था। यहाँ तक कि प्लेटो एवं अरस्तू जैसे महान् यूनानी दार्शनिकों ने भी जनतांत्रिक विचारों की यह कहकर आलोचना की थी कि शासन करना एक कला है और यह कला साधारण लोगों में नहीं होती। विभिन्न बाधाओं को पारकर कठिन संघर्ष के बाद एथेंस ने जनतांत्रिक व्यवस्था प्राप्त की थी। कुलीनतंत्र से जनतंत्र में हुए परिवर्तन को यूरिपाइड्स ने अपने एक नाटक `The Suppliant Women’ में एथेंस में दो राजाओं के मध्य हुए वार्तालाप में दर्शाया है । एथेंस के राजा जब यह पूछते हैं कि वे राजा क्रैयोन का संदेश किसे सुनायें, कौन राजा हैं ? इन प्रश्न का उत्तर एथेंस के राजा इस प्रकार देते हैं-
“This state is not subject to one man’s will, but is a free city. The king here is the people, who by yearly office govern in turn, we give no special power to wealth, the poor man’s voice commands equal authority.”
किन्तु कई कारणों से आज यूनानी लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र नहीं माना जाता। प्रथमत:, यूनान में नागरिकता के अधिकार अर्थात् शासनकार्य में भागीदारी के अधिकार जनसंख्या के अत्यन्त सीमित भाग को ही प्राप्त थे। स्त्रियाँ, दास, शिल्पी, कृषक आदि से गठित होने वाला समाज का एक बड़ा भाग इससे वंचित था और द्वितीयत:, यूनान के सीमित जनसंख्या एवं क्षेत्रफल वाले नगर, राज्यों में तो सभी नागरिकों द्वारा शासन कार्यों में प्रत्यक्ष भागीदारी संभव थी किन्तु वर्तमान में बढ़ी हुई जनसंख्या एवं वृहद् आकार वाले राष्ट्रीय राज्यों में प्रत्यक्ष जनतंत्र संभव नहीं है अत: वर्तमान में प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र को ही व्यावहारिक जनतंत्र के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसमें जनता मताधिकार का प्रयोग कर अपने प्रतिनिधियों को चुनती है एवं उनके माध्यम से शासन सत्ता का प्रयोग करती है ।
प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र हेतु आंदोलन आधुनिक युग में ग्रेट ब्रिटेन में ‘प्रतिनिधित्व नहीं, तो कर नहीं’ के नारे के साथ प्रारम्भ हुआ। संसद समर्थकों एवं राजतंत्र समर्थकों के मध्य लंबा संघर्ष चला जिसमें अंतत: जनतंत्र समर्थकों को विजय प्राप्त हुई। १६८८ की गौरवपूर्ण क्रांति के माध्यम से शांतिपूर्ण ढंग से राजा द्वारा संसद को सत्ता का हस्तांतरण किया गया। ‘मैग्नाकाटा’, ‘बिल ऑफ राइट्स’ आदि जनतंत्रीय आंदोलन के मार्ग में मील का पत्थर साबित हुए। अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम एवं प्रâांसीसी क्रांति ने भी ‘स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व’ के नारे के साथ विश्व में जनतंत्रीय व्यवस्था को विकसित करने एवं उसे लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
जनतंत्र एक बहुआयामी व्यवस्था—
अपने ऐतिहासिक विकास क्रम के विविध पड़ावों पर जनतंत्र के साथ उसके विविध रूप एवं आयाम संबद्ध होते रहे हैं। आज जनतंत्र एक व्यापक व्यवस्था है, जिसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक इत्यादि विविध आयाम हैं, जिनका विवेचन निम्नवत् है-
राजनैतिक व्यवस्था के रूप में जनतंत्र—
अपने विकास की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर अब तक जनतंत्र प्रमुखतया एक राजनैतिक व्यवस्था है। अपने इस रूप में लोकतंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है, जिसमें शासन सत्ता का निवास आम जन में होता है। एक निश्चित समयांतराल में निर्वाचन होते हैं, जिनमें जनता मताधिकार का प्रयोग कर अपने प्रतिनिधियों को चुनती है, जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे शासन सत्ता का प्रयोग जनमत के अनुसार करेंगे। जनप्रतिनिधि कानून निर्माण एवं क्रियान्वयन का कार्य आपसी विचार-विमर्श के आधार पर बहुमत के निर्णयानुसार करते हैं। जन सामान्य मत देने, निर्वाचित होने, सरकार की आलोचना करने जैसे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक अधिकारों के साथ-साथ विचार-अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास एवं उपासना, संघ बनाने, सम्पत्ति की स्वतंत्रता, कार्य की स्वतंत्रता आदि नागरिक स्वतंत्रताओं का उपभोग करते हैं। पश्चिमी यूरोप एवं अमेरिका में जनतंत्र का यह रूप अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में देखने को मिलता है। जॉन स्टुअर्ट मिल, एडम स्मिथ, स्पेंसर, टी.एच. ग्रीन आदि विचारकों ने जनतंत्र के इस रूप की व्याख्या उदारवादी जनतंत्र के रूप में की है।
समाज व्यवस्था के रूप में जनतंत्र—
राजनैतिक व्यवस्था के रूप में उदारवादी जनतंत्र के सिद्धान्तों को जब नव स्वाधीन एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमरीका के अल्प विकसित राज्यों में क्रियान्वित किया गया तो यह पाया गया कि इन समाजों में व्याप्त जाति, पंथ, रंग, िंलगजनित विषमताओं के कारण राजनैतिक अधिकारों का प्रयोग आम जनता स्वतंत्रतापूर्वक एवं सही रूप में नहीं कर पा रही है अत: राजनैतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने का पक्ष रखा गया। सामाजिक लोकतंत्र का तात्पर्य ऐसे समाज से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का महत्व व्यक्ति के रूप में होता है, उसके वैयक्तिक गुणों के कारण उसे सम्मान मिलता है एवं जाति, रंग, पंथ, लिंग आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध किया जाता है। भारत जैसे देशों में जहाँ राजनैतिक लोकतंत्र तो स्थापित कर दिया गया है किन्तु समाज अब भी सामंतशाही के अवशेषों में जकड़ा हुआ है, जाति, पंथ, लिंग संबंधी भेद राजनैतिक जीवन की दिशा तय कर रहे हैं, गरीबी एवं अशिक्षा जैसे तथ्यों ने जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति चेतना उत्पन्न करने में बड़ी बाधा खड़ी की है, विभिन्न स्वतंत्रतायें एवं महत्त्वपूर्ण राजनैतिक अधिकार शक्तिशाली लोगों के विशेषाधिकार बनकर रह गये हैं और वास्तव में जनतंत्र में जिस जन को सत्तासम्पन्न होने की बात कही जाती है, वह अब भी सत्ता की पहुँच से परे है। ऐसे में राजनैतिक लोकतंत्र को प्राप्त करने के लिए सामाजिक लोकतंत्र की प्राप्ति आवश्यक हो जाती है।
आर्थिक व्यवस्था के रूप में जनतंत्र—
राजनैतिक लोकतंत्र के लिए आवश्यक नागरिक गुणों के विकास, सामाजिक समानता एवं राजनैतिक चेतना के विकास के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति भोजन, वस्त्र एवं आवास की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं के प्रति निश्चिन्त हो। एक ओर विकसित समाजों की व्यापक आर्थिक स्वतंत्रता एवं दूसरी ओर विकासशील समाजों में निहित सामन्तवादी तत्त्वों ने राजनैतिक स्वतंत्रताओं को समाज के एक छोटे से शक्तिशाली वर्ग की थाती बना दिया एवं एक शोषणकारी समाज को जन्म दिया। जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स, ऐंजिल, लास्की आदि ने अपने दर्शन के माध्यम से यह विचार सुस्थापित किया कि राजनैतिक लोकतंत्र या नागरिक स्वतंत्रताओं की समाज के सभी लोगों द्वारा प्राप्ति तभी संभव है जब अमीर-गरीब, महलों एवं झोपड़ियों के फासले कम से कम करके पहले सबकी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा किया जाये, उसके बाद ही योग्यतानुसार विलासिता के अवसर प्रदान किये जायें ताकि कोई व्यक्ति अपने तन की भूख के लिए अपने सम्मान एवं स्वतंत्रताओं से कोई समझौता करने के लिए विवश न हो, अपने नागरिक गुणों का उन्मुक्त वातावरण में विकास कर सके एवं अपने अधिकारों का उपभोग कर सके। यह लोकतंत्र का आर्थिक रूप है, जिसकी प्राप्ति पर ही राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता निर्भर है।
लोकतंत्र-जीवन के प्रति एक विशिष्ट प्रकार के दृष्टिकोण के रूप में—
प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो के इस विचार को दृष्टिगत रखते हुए कि ‘राज्य का निर्माण आक के वृक्षों या चट्टानों से नहीं होता बल्कि उसमें रहने वाले लोगों के चरित्र से होता है’, जनतंत्र के स्वरूप को और ज्यादा व्यापक बनाने का प्रयास किया गया और यह माना गया कि अपने व्यापकतम रूप में जनतंत्र एक मूल्य व्यवस्था है, जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का दृष्टिकोण है, जिसके अन्तर्गत यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में दूसरे के प्रति आदरभाव, दया, शांति, सहयोग, सहिष्णुता, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, क्षमा, विरोधी के दृष्टिकोण का सम्मान जैसे गुण विकसित हों, एक जनतांत्रिक व्यक्तित्व का विकास हो तभी जनतंत्र के विविध आयामों की व्यवहार में प्राप्ति संभव हो सकती है। संक्षेप में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के आदर्शों से युक्त एवं लोककल्याण का उद्देश्य रखने वाली लोकसंप्रभुता पर आधारित व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र वर्तमान में सर्वाधिक स्वीकार्य व्यवस्था है। इसके विविध रूपों के व्यावहारिक क्रियान्वयन में आने वाली बाधाओं को लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों को अपनाकर ही दूर किया जा सकता है।
जनतंत्र की उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि इस व्यवस्था का उदय एवं विकास मुख्यत: पश्चिमी जगत् में ईसा से चौथी—पाँचवीं शताब्दी पूर्व हुआ, वहाँ हुए विविध आंदोलनों के फलस्वरूप जनतंत्र के विविध सिद्धान्त विकसित हुए एवं पूर्वी देशों में यह व्यवस्था पश्चिम से आयातित है।
किन्तु पूर्व के देशों से, विशेषकर प्राचीन भारत के धर्मग्रंथों, साहित्य एवं धार्मिक आंदोलनों का अध्ययन करने पर उपर्युक्त धारणा बहुत सही नहीं प्रतीत होती है। यहाँ विकसित हुए विभिन्न धर्मों के सिद्धान्तों, उनकी शिक्षाओं में लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों, प्रक्रियाओं एवं आदर्शों का सन्निवेश दिखायी देता है।
छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में विकसित जैनधर्म उन्हीं धर्मों एवं धार्मिक आंदोलनों में से एक है। यद्यपि जैन धर्मावलम्बी अपने धर्म को अनादि मानते हैं किन्तु विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथों एवं जैन साहित्य जैसे-वेदों, उपनिषदों श्रीमद् भागवत्, उत्तराध्ययन सूत्र, आचारंगसूत्र, कल्पसूत्र, जैन आगम इत्यादि के अनुसार जैनधर्म का अभ्युदय वैदिक ब्राह्मण धर्म के याज्ञिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध धार्मिक सुधारणा के उदय के साथ हुआ माना जाता है। ‘निर्ग्रन्थ’ (सांसारिक मोह, माया के बंधनों से मुक्त स्वतंत्र व्यक्तियों का सम्प्रदाय) नाम से प्रचलित इस धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जो जम्बूद्वीप के सम्राट थे। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। जैकोबी ने जैनधर्म का वास्तविक संस्थापक पार्श्वनाथ को ही माना है परन्तु वैदिक एवं जैन पौराणिक साहित्य में ऋषभदेव के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की प्राचीनता असंदिग्ध है। जैनधर्म को और अधिक लोकप्रिय बनाने एवं उसके सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर स्वामी को है। महावीर स्वामी के व्यक्तित्व एवं उनकी शिक्षाओं का विभिन्न वर्गों के लोगों के मन-मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव पड़ा। उन्होंने आम जन को न केवल मुक्ति का अर्थात् आत्मिक सुख को प्राप्त करने का लक्ष्य दिखाया बल्कि वास्तव में उसको प्राप्त करने के प्रभावी साधन भी बताये। मानव जीवन के उद्देश्य के प्रति गंभीरता, उनकी दैवीय शक्ति से युक्त वक्तृत्व क्षमता, अनूठे दार्शनिक एवं नैतिक सिद्धान्तों ने लोगों को इस प्रकार प्रभावित किया कि लोग बड़ी संख्या में जैनधर्म के अनुयायी एवं जैन भिक्षु बन गये। उनके व्यक्तित्व में निहित सहनशीलता एवं उद्देश्य के प्रति दृढ़ता को देखकर उन्हें ‘जिन’ (विजेता) की उपाधि दी गयी और इन्हीं जिनों से निर्गंथ सम्प्रदाय जैन सम्प्रदाय बना। जैन वह है, जिसने प्रेम-घृणा, सुख-दुःख, लगाव एवं वितृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली है और ज्ञान, धारणा, सत्य एवं योग्यता के बल पर सांसारिक कर्मों से अपनी आत्मा को मुक्त कर लिया है। स्पष्ट है कि जैनधर्म न केवल सांसारिक मोह, माया एवं बंधनों से मुक्ति का मार्ग दिखाता है बल्कि जीवन को व्यवस्थित, समृद्ध एवं समुन्नत बनाने में भी अत्यन्त सहायक है। लोकतांत्रिक जीवन मूल्य एवं सिद्धान्त जिन रूपों में जैनधर्म के सिद्धान्तों एवं शिक्षाओं में समाहित हैं, उनकी विवेचना अग्रांकित रूपों में की जा सकती है ।
उदारवादी सिद्धान्तों पर आधारित लोकतंत्र व्यक्ति एवं उसकी स्वाधीनता को सर्वाधिक महत्त्व देता है। जैनधर्म का प्रारम्भ बिन्दु भी व्यक्ति ही है। यह ईश्वर में विश्वास नहीं करता बल्कि मानव आत्मा को ही सब कुछ मानता है और उसी की मुक्ति का उपदेश देता है। महावीर स्वामी कहा करते थे कि ‘मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान् है और जो शक्ति तथा नैतिकता है, वही भगवान् है।’ सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य नामक पंच महाव्रत-अणुव्रत आत्मिक उत्थान एवं मुक्ति के साधन हैं। जैनधर्म न केवल सांसारिक बंधनों से आत्मा की मुक्ति की बात करता है बल्कि लौकिक जीवन में भी ब्राह्मण वर्ग के वर्चस्व को तोड़वâर समाज के प्रत्येक व्यक्ति की पृथक् वैयक्तिक पहचान बनाने में सहायक है।
उन्होंने ब्राह्मणों की बौद्धिक क्षमता की प्रशंसा की जिससे बहुत से ब्राह्मण जैनधर्म में दीक्षित हुए। महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य (गणधर) इन्द्रभूति गौतम एक ब्राह्मण ही थे जिनके सहयोग से वे अपनी शिक्षाओं का प्रसार आम जनता के मध्य प्रभावी तरीके से करने में सफल रहे। जैनधर्म में निहित कर्म का सिद्धांत वैयक्तिक स्वतंत्रता की सबसे बड़ी मिशाल है जिसके अनुसार इस संसार में जो कुछ है, वह ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। वह जैसे कर्म करेगा, वैसे ही फल उसे आज नहीं तो कल अवश्य प्राप्त होंगे। महावीर स्वामी ने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य की सामाजिक स्थिति भी उसके कर्मों के आधार पर निर्धारित होती है न कि केवल जन्म के आधार पर एवं प्रत्येक व्यक्ति अच्छे कर्म करके अपनी सामाजिक स्थिति में बदलाव ला सकता है। उल्लेखनीय है कि वैदिक ब्राह्मण धर्म के अनुसार मनुष्य की सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी एवं सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई योगदान स्वीकार नहीं किया जाता था। जैनधर्म ने इस व्यवस्था का विरोध कर व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व एवं उसकी कार्यगत स्वतंत्रता की प्रस्थापना की। आधुनिक जनतंत्र भी व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है।
स्वतंत्रता की भाँति समानता भी जनतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसके अनुसार सामाजिक जीवन में जाति, पंथ, रंग, लिंग के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए एवं व्यक्ति को उसके वैयक्तिक गुणों के आधार पर महत्त्व दिया जाना चाहिए। सामाजिक समानता की यह धारणा जैनदर्शन में आद्योपांत दिखायी देती है। जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जिसके द्वार समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों के लिये खुले हैं।
सामाजिक समानता का ही एक महत्वपूर्ण पहलू लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर स्त्री-पुरुष की समानता स्थापित करना है। जैनधर्म इस क्षेत्र में भी एक उदाहरण स्थापित करता है। जैनधर्म की शिक्षायें स्त्रियों एवं पुरुषों दोनों के लिए हैं। धार्मिक जीवन के विविध क्षेत्रों जैसे-धर्मग्रंथों के अध्ययन, धार्मिक कृत्यों के संपादन, व्रतों के अभ्यास, साधु जीवन में प्रवेश आदि स्त्री-पुरूष दोनों के लिए हैं। महावीर स्वामी द्वारा कथित धार्मिक व्यवस्था में गृहस्थ पुरुष श्रावक कहलाते हैं एवं गृहस्थ स्त्रियाँ श्राविकाएँ। गृहस्थों के समान ही साधु जीवन व्यतीत करने बाले पुरुषों को साधु एवं स्त्रियों को साध्वी कहते हैं। जैनधर्म द्वारा कथित इन अवसरों का स्त्रियों ने भरपूर उपयोग किया। ऐसा कहा जाता है महावीर स्वामी की धार्मिक व्यवस्था में करीब १४००० साधु एवं ३६००० साध्वी थीं एवं १००००० श्रावक एवं ३००००० श्राविकायें थीं अर्थात् साधु जीवन एवं गृहस्थ जीवन दोनों में जैन धर्मानुयायी स्त्रियों की संख्या अधिक थी। महावीर स्वामी की माता त्रिशला देवी की छोटी बहन चंदना ने साध्वियों में मुख्य साध्वी की स्थिति प्राप्त की एवं इन्होंने भी पुरुषों के समान आध्यात्मिक जीवन में आत्मिक मुक्ति की ओर प्रयास किया। धार्मिक जीवन में स्त्री-पुरुष को प्राप्त समान अवसर का प्रभाव सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में स्त्री-पुरुष को अवसर की समानता तो तीर्थंकर ऋषभदेव के समय से ही थी। ऋषभदेव ने अपनी दो पुत्रियों-ब्राह्मी एवं सुंदरी को शिक्षा दी थी कि शिक्षा के माध्यम से वे समाज में उच्च स्थिति प्राप्त कर सकती हैं। जैन परंपरानुसार स्त्रियों से ६४ कलायें सीखने की अपेक्षा की जाती थी जिनमें नृत्य, संगीत, पेंटिंग, सौंदर्यशास्त्र, औषधि विज्ञान एवं गृह विज्ञान प्रमुख थीं। साहित्य के क्षेत्र में भी जैन धर्मानुयायी महिलाओं का विशिष्ट योगदान है। जैसे कन्नड़ साहित्य को समृद्ध बनाने में कांति नामक महिला का विशेष योगदान है । जिन्होंने अभिनवपम्मा की अधूरी कविता होयसल राजा बाला प्रथम (AD ११००-११०६) (कर्नाटक) के दरबार में पूर्ण कर सबकी प्रशंसा प्राप्त की।
जनतंत्र का समाजवादी रूप सामाजिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता पर भी जोर देता है। आर्थिक लोकतंत्र का तात्पर्य है कि समाज में अमीर-गरीब की खाई इतनी चौड़ी न हो या आय की विषमता इतनी अधिक न हो कि अमीर व्यक्ति गरीब के जीवन, उसकी स्वतंत्रता पर अधिकार प्राप्त कर ले अर्थात् अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें हर व्यक्ति की भोजन, वस्त्र एवं आवास की न्यूनतम आर्थिक आवश्यकतायें पूर्ण हो सकें। जैनदर्शन में निहित अस्तेय एवं अपरिग्रह के सिद्धांत आर्थिक समानता स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अस्तेय का अर्थ है-चोरी न करना एवं अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक वस्तुओं एवं धन का संचय न करना। इसमें केवल संचय न करना ही शामिल नहीं है बल्कि उनकी लालसा न करना भी शामिल है क्योंकि लालसा ही चोरी, बेइमानी, हिंसा, मिथ्याभाषण जैसी बुराइयों को जन्म देती है एवं समाज में शोषण को बढ़ावा देती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अस्तेय एवं अपरिग्रह का पालन करे, उपभोग परिमाण कि मैं निश्चित मात्रा से अधिक नहीं खाऊँगा, देशविरति-‘‘किसी भी क्षेत्र में एक निश्चित सीमा से आगे नहीं जाऊँगा’’ का व्रत ले तो आज आर्थिक समृद्धि के लिए होने वाले संघर्षों को कम किया जा सकता है। साथ ही संपत्ति के केन्द्रीकरण के स्थान पर आय की समानता स्वत: ही स्थापित हो सकती है। जैनधर्म में उपदिष्ट चतुर्विध दान (आहार, अभय, भैषज्य, शास्त्र दान) भी समाज से गरीबी एवं शोषण को दूर करने में सहायक हैं, जिनके अनुसार प्रत्येक को अपने जीवन में भूखे को अन्नदान, रोगी को औषधि दान, अज्ञानी को विद्यादान एवं गरीब को भूख, वस्त्र एवं आवास की चिन्ता से मुक्ति अर्थात् अभयदान करना चाहिए। ये चतुर्विधदान आज के युग में उन युवाओं को जो अपने जीवन के प्रारंभ में भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के पश्चात् उनकी निरर्थकता का अनुभव कर रहे हैं जिसे शोधकर्ताओं ने ‘क्वार्टर लाइफ क्राइसिस’ का नाम दिया है, प्रेयमार्ग (क्षणिक आनंद) से श्रेय मार्ग (वास्तविक आनंद) की ओर ले जाकर गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा को कम करने में सहायक होंगे। स्पष्ट है कि जैनधर्म के सिद्वांत आर्थिक लोकतंत्र की प्राप्ति हेतु सर्वथा प्रासंगिक हैं।
लोकतंत्र के विविध रूपों की व्यवहार में उपलब्धि सहिष्णुता पर आधारित जीवन दृष्टिकोण पर निर्भर करती है अर्थात् जनतंत्र में एक विशेष प्रकार के मानसिक दृष्टिकोण की अपेक्षा की जाती है, जिसमें हम अपने दृष्टिकोण के साथ दूसरों के विरोधी दृष्टिकोण का भी सम्मान करते हैं। जैनधर्म का अनेकान्तवादी दर्शन भी इसी वैचारिक स्वतंत्रता एवं सहिष्णुता पर जोर देता है। यह दर्शन विचारों की भिन्नता के महत्व को स्वीकार करता है और यह प्रतिपादित करता है कि किसी भी विचार या कार्य से सम्बन्धित कोई भी दृष्टिकोण पूर्णता का दावा नहीं कर सकता। सत्य का विचार भी एक नहीं है, पूर्ण नहीं बहुल है, सापेक्ष है इसलिए किसी को अपने विचार दूसरे पर थोपने नहीं चाहिए और प्रत्येक को दूसरे के विचारों का सम्मान करना चाहिए। इससे विविध विरोधी विचारों, कथनों, व्यवस्थाओं एवं पंथों में सामंजस्य स्थापित करने का आधार मिलता है।
अपने व्यापकतम रूप में जनतंत्र विश्वबंधुता एवं शांति के विचारों पर बल देता है एवं विविध मानवों, संस्कृतियों, राज्यों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को आधार बनाकर युद्धों एवं संघर्षों को समाप्त कर विश्वशांति एवं कल्याण का लक्ष्य रखता है। जैनधर्म में निहित अहिंसा का विचार भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर आधारित है, जो न केवल मनुष्यों बल्कि संपूर्ण जीव जगत् एवं भौतिक जगत् के सहअस्तित्व पर बल देता है। अहिंसा का सिद्धान्त जैनधर्म की आत्मा है जो जितना वैज्ञानिक एवं सावधानीपूर्वक मुख्य सिद्धान्त के साथ मिलाया गया है, उतना कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। अिंहसा का अर्थ है-किसी भी जीवित प्राणी या वस्तु की हिंसा न करना, अपने मन, वचन, कर्मों से उसे कष्ट न पहुँचाना।
‘परस्परोपग्रहो जीवनाम्’ इस जैन उक्ति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के विकास के पीछे अनेकों जीव तत्त्वों एवं भौतिक वस्तुओं का योगदान होता है, यहाँ तक कि मनुष्य की प्रतिभा एवं गुणों का विकास भी अकेले नहीं होता तथा प्रत्येक जीव को अपना जीवन प्रिय है ? इसलिए किसी की भी हत्या नहीं करनी चाहिए। जैनधर्म के अनुसार पंचभूत में भी जीवित तत्त्व हैं-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश, अत: इन्हें भी नुकसान पहुँचाने से बचना चाहिए। पेड़-पौधे मनुष्य के जीवन का आधार हैं। प्राणवायु प्रदान करने के साथ-साथ अनेकों रूपों में उसके लिये उपयोगी हैं, आवश्यकता पूर्ति के साधन हैं। जीव जगत् में शामिल कीटाणु एवं बैक्टीरिया भी पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने में सहायक हैं। घरेलू पालतू जानवर मानव सभ्यताओं के विकास में भी सहायक रहे हैं। महावीर स्वामी कहा करते थे कि ‘‘यदि तुम किसी और को मारते हो तो इसका अर्थ है कि तुम स्वयं को मारते हो, यदि तुम किसी को शक्ति प्रदान करते हो तो तुम स्वयं को अधिक शक्तिशाली बना रहे हो। यदि तुम किसी को यातना देते हो तो स्वयं उत्पीड़ित होते हो, यदि तुम दूसरे को हानि पहुँचाते हो तो तुम स्वयं कष्ट सहते हो। एक बुद्धिमान मनुष्य यह सब जानता है अत: वह किसी को नहीं मारता, किसी को शक्तिहीन नहीं बनाता, न ही किसी को यातना देता है।
अहिंसा की यह धारणा तार्किक चिन्तन एवं अनुभव के आधार पर विकसित हुई। यह धारणा ‘जियो और जीने दो‘ के सिद्धान्त पर आधारित है। इस प्रकार युद्ध के विचारों का परित्याग कर विश्वशांति स्थापित करने की पक्षधर है। जैनधर्म दया, सार्वभौमिक प्रेम एवं बंधुत्व का धर्म है, जो विश्व के सभी जीवों के कल्याण की कामना करता है। भारतीय ऋषियों ने कहा है कि ‘‘एक शस्त्र दूसरे शस्त्र से अधिक शक्तिशाली हो सकता है लेकिन अहिंसा और शांति के रास्ते की कोई तुलना नहीं है। आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता, कपड़े पर पड़े खून के धब्बे को खून से नहीं साफ किया जा सकता। विश्व शांति स्थापित करने के लिए शस्त्रों की होड़ समाप्त करनी होगी, अहिंसा के सम्यक्दर्शन में विश्वास उत्पन्न करना होगा।”
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एक प्राचीन धर्म होते हुए भी जैनधर्म न केवल जनतंत्र जैसे आधुनिक मूल्यों को समाहित किये हुए है बल्कि पर्यावरण संरक्षण, नारीवाद एवं उत्तर आधुनिकता के तत्त्वों के बीज रूप भी हमें इस दर्शन में दिखायी देते हैं।
धर्म और दर्शन भारतीय संस्कृति के मूल बिन्दु हैं, जिनके कारण विश्व में भारत की पहचान आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रभावी है। भारतीय संस्कृति में दो विचारधाराएँ प्रमुख हैं-(१) श्रमण संस्कृति (२) वैदिक संस्कृति। जहाँ श्रमण साधना आत्मा की अपरिमित सत्ता में विश्वास रखती है और मानती है कि जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त हो जाती है तो वह अवस्था मोक्ष की होती है-‘‘सर्व कर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:।” आत्मा ही पूर्ण गुणात्मक विकास कर लेने पर परमात्मा बन जाती है जबकि वैदिक संस्कृति प्रत्येक आत्मा को परमात्मा का अंश मानती है। इसकी अवधारणा इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलिंह समाना, यहु तथ कह्यो ग्यानी।।
वैदिक दृष्टि में ईश्वर या परमात्मा जगत् का कर्ता, नियन्ता एवं विनाशक है, जिसकी कल्पना वह ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में करता है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति अनादिनिधन स्वाभाविक व्यवस्था को अंगीकार करती है जिसमें गुणात्मक विकास सर्वोपरि है।
श्रमण संस्कृति के आधार स्तम्भ पंच अणुव्रत और पंच महाव्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। इन पंच व्रतों के सम्यक् परिपालन से ही मानव मानवीय आचरण कर सकता है, संसार में रहता हुआ सुखी रह सकता है और संसार से मुक्त भी हो सकता है। यहाँ प्रकृत विषय अपरिग्रह है अत: अपरिग्रह की चर्चा करना ही इष्ट है, प्रयोज्य है।
कहा जाता है कि मनुष्य में संग्रह की प्रवृत्ति स्वभावत: होती है। कर्म भी उसमें कारण होते हैं। यह संग्रह की प्रवृत्ति जब आवश्यकता से अधिक बढ़ने लगती है तो समाज में उथल—पुथल मच जाती है और अभाव की विभीषिका झेल रहे लोग हिंसक क्रान्ति पर उतारू हो जाते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील रूप पाप भी इसके कारण होते देखे जाते हैं। भगवान् महावीर का अपरिग्रह दर्शन इस दृष्टि से महान् है कि उसने विश्व को अहिंसक/अपरिग्रह संस्कृति दी जिसमें बताया गया कि मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसक बनो और अपनी आवश्यकतानुसार ही सामग्री का संग्रह करो, शेष का विना किसी के दबाव के स्वैच्छिक रूप से त्याग करो।
जो सजीव एवं निर्जीव वस्तु का स्वयं संग्रह करता है और दूसरों के द्वारा भी ऐसा ही संग्रह करवाता है अथवा अन्य व्यक्ति को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। धनलिप्सा (परिग्रह) दुष्कर्मों को जन्म देती है। धन इस लोक और परलोक में शरण देने वाला नहीं है। अंधकार में जैसे दीपक बुझ जाये तो दिखा हुआ मार्ग भी अनदीखा हो जाता है उसी प्रकार पौद्गलिक वस्तुओं (धनादि) के अंधकार में न्यायमार्ग को देखना असंभव हो जाता है। इस स्थिति से बचाव का एक ही मार्ग है और वह है-अपरिग्रह। यह अपरिग्रह जैनधर्म-दर्शन की मौलिक विशेषता है।
‘बृहत् हिन्दी कोश’ (पृ. ६५०) के अनुसार ‘परिग्रह’ शब्द का अर्थ लेना, ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, आवेष्टित करना, धारण करना, धन आदि का संचय, किसी दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, किसी स्त्री को भार्या रूप में ग्रहण करना, पत्नी, स्त्री, पति, घर, परिवार, अनुचर, सेना का पिछला भाग, राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा का ग्रसा जाना, शपथ, कसम, मूल आधार, विष्णु, जायदाद, स्वीकृति, मंजूरी, दावा, स्वागत सत्कार, आतिथ्य सत्कार करने वाला, आदर, सहायता, दमन, दण्ड, राज्य, सम्बन्ध, योग, संकलन, शाप बताया गया है। इसमें एक ओर जहाँ परिग्रह को संचय के अर्थ में लिया है, वहीं शाप के अर्थ में भी रखा है जिससे परिग्रह की शोचनीय दशा प्रकट होती है। जैनाचार्यों की धारणा मे परिग्रह ‘परितो गृह्यति आत्मानमिति परिग्रह:’ अर्थात् जो सब ओर से आत्मा को जकड़े, वह परिग्रह है।
आचार्य उमास्वामी (तत्त्वार्थसूत्र ७/१७) के अनुसार मूर्च्छा परिग्रह है-‘‘मूर्च्छा परिग्रह:।” इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (७/१७/६९५) में लिखा है कि-‘‘गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्च्छा है।” आचार्य पूज्यपाद की ही दृष्टि में ‘‘ममेदं बुद्धिलक्षण: परिग्रह:” (सर्वार्थसिद्धि ६/१५/६३८) अर्थात् यह वस्तु मेरी है; इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। राजवार्तिक (४/२१/३/२३६) के अनुसार ‘‘लोभकषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं’’। ‘‘ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमान संकल्प परिग्रह इत्युच्यते” (राजवार्तिक ६/१५/३/५२५) अर्थात् यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व-परिणाम परिग्रह है।
‘धवला’ पुस्तक (१२/४,२, ८, ६/२८२/९) के अनुसार-‘‘परिगृह्यत इति परिग्रह: बाह्यार्थ: क्षेत्रादि:, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रह:’ बाह्यार्थग्रहणं हेतुरत्र परिणाम:। परिगृह्यते इति परिग्रह:” अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है, इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा ‘परिगृह्यते अनेनेति परिग्रह:’ जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
समयसार आत्मख्याति (२१०) के अनुसार ‘इच्छा परिग्रह’ अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है।
परिग्रह के भेद
परिग्रह के दो भेद हैं-(१) अभ्यन्तर, (२) बाह्य
इनमें अभ्यन्तर के चौदह भेद हैं-
(१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध कषाय, (३) मान कषाय, (४) माया कषाय, (५) लोभ कषाय, (६) हास्य नोकषाय, (७) रति नोकषाय, (८) अरति नोकषाय, (९) शोक नोकषाय, (१०) भय नोकषाय, (११) जुगुप्सा नोकषाय, (१२) स्त्री वेद नोकषाय (१३) पुंवेद नोकषाय, (१४) नपुंसक वेद नोकषाय।
बाह्य परिग्रह के १० भेद हैं-(१) क्षेत्र (खेत), (२) वास्तु (मकान), (३) चाँदी, (४) सोना, (५) धन, (६) धान्य, (७) दासी, (८) दास, (९) वस्त्र, (१० बर्तन)।
जैनागम में पाँच पाप माने गये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। इसके अनुसार परिग्रह भी पाप है। परिग्रह बनाम मूर्च्छा-पाँचों प्रकार के पापों का मूल स्रोत है। जो परिग्रही है तथा परिग्रह के अर्जन, सम्बर्द्धन एवं संरक्षण के प्रति जो सचेत है, वह हिंसा, झूठ, चोरी व अब्रह्म से बच नहीं सकता। सर्वार्थसिद्धि (७/१७/६९५) के अनुसार-‘‘सब दोष परिग्रहमूलक हैं।’ ‘यह मेरा है’, इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है,. चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है। नरकादि में जितने दुःख हैं, वे सब इसमें उत्पन्न होते हैं।
परिग्रह कम करने के लिए चार चरण जैनों ने मान्य किए-
१. लोभ मत करो, दान करो ।
२. चार प्रकार का पात्रदान बताया गया है- (१) आहारदान, (२) औषधिदान, (३) शास्त्रदान, (४) अभयदान।
दान के लिए सात क्षेत्र बताए गए हैं-
जिनबिम्ब जिनागारं जिनयात्रा प्रतिष्ठितम्।
दानपूजा च सिद्धान्त लेखनं क्षेत्र सप्तकम्।।
अर्थात् जिनबिम्ब की स्थापना, जिनमंदिर का निर्माण, जिनयात्रा (तीर्थयात्रा), पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, चार प्रकार का दान, जिनेन्द्र पूजा और जिनवाणी-शास्त्र लेखन; ये दान के सात क्षेत्र बताये गये हैं।
३. त्याग (परपदार्थों का पूरी तरह त्याग करना)।
४. अपरिग्रह-पदार्थों के प्रति ममत्व भाव पूरी तरह छोड़ते हुए अपनी आत्मा में ही चित्त का लगाना अपरिग्रह है। परिग्रह परिमाण अणुव्रत इस दिशा में प्रथम कदम है, जो गृहस्थी के परिग्रह की ओर बढ़ते कदमों को सर्वप्रथम रोकता है और अपरिग्रह महाव्रत अंतिम कदम है, जिसमें व्यक्ति स्वाधीन होता है।