प्रत्येक देश और जाति का अपना एक सांस्कृतिक इतिहास होता है। इतिहास तथ्यों का संकलन मात्र नहीं है, अपितु परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उत्थान और पतन, विकास और अवनति, जय और पराजय की पृष्ठभूमि और तथ्य संकलन इतिहास कहलाता है। देश और जाति के समान व्यक्ति और धर्म का भी इतिहास होता है। वस्तुत: धर्म का इतिहास भी व्यक्तियों का ही इतिहास होता है क्योंकि धर्म धार्मिकों के उच्च नैतिक आचार और आदर्शों में ही परिलक्षित होता है। धार्मिक परम्परा और उसके इतिहास का एकमात्र प्रयोजन वर्तमान और भावी पीढ़ी को प्रेरणा देना होता है, जिससे वह भी उन आचारों और आदर्शों को जीवन व्यवहार का अभिन्न अंग बनाकर अपने जीवन को उस उच्च भूमिका तक पहुँचा सके। इससे मनुष्य के निजी जीवन में तो शांति और संतोष का अनुभव होता ही है, उसके व्यवहार में जिन व्यक्तियों का सम्पर्क होता है, उन्हें भी शांति और संतोष की अनुभूति हुए बिना नहीं रहती।
संतोष किया। आचार्य हेमचन्द्र ने ‘अभिधान चिन्तामणि’ में ‘नाभिश्च क्षत्रिये’ लिखा है। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से सद्युग को जन्म दिया। प्रजा सुखी बनी और भोगभूमि के समान ही उसे सर्वविध सुविधाएँ प्राप्त हुईं। महाराज नाभिराय स्वयं कल्पवृक्ष के समान हो गये।
भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में लिखा है, ‘‘चन्द्र के समान वे अनेक कलाओं की आधारभूमि थे, सूर्य के समान तेजवान् थे, इन्द्र के समान वैभव सम्पन्न थे और कल्पवृक्ष के समान मनोवांछित फलों के प्रदाता थे। उन्होंने युगप्रवर्तन किया। काल की मोटी परतें भी उनके नाम को नामशेष नहीं कर सकीं। वे उसके कालज्ञ वृक्ष पर तप्तशलाका से स्पष्ट लिखते रहे-रज:कणों में अभ्रक पत्र से, दिशाओं में सूर्य से और आकाश में ध्रुव नक्षत्र से दमकते रहे। कोई मिटा न सका। वे जीवित हैं, केवल वैदिकों में नहीं, अपितु मुसलमानों में भी। अरबी का एक शब्द है ‘नबी’, जिसका अर्थ होता है-ईश्वर का दूत, पैगम्बर और ‘रसूल’। वह शब्द संस्कृत के ‘नाभि’ और प्राकृत के ‘णाभि’ का ही रूपान्तर मात्र है। इसका अर्थ है कि उनका नाम बना ही नहीं रहा, अपितु ‘ईश्वर के दूत’ के रूप में और भी चमकीला बना।
महाराज नाभिराय के नाम पर ही इस आर्यखण्ड को नाभिखण्ड या अजनाभवर्ष कहा गया। नाभि को अजनाभ भी कहते थे। स्कन्दपुराण में, ‘‘हिमाद्रिजलधेरन्तर्नाभिखण्डमिति स्मृतम्’’ आया है। इस पंक्ति का विश्लेषण करते हुए डॉ. अवधबिहारी- लाल अवस्थी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘प्राचीन भारत का भौगोलिक स्वरूप’ में लिखा, ‘‘सात द्वीपों वाली पृथ्वी का जम्बूद्वीप अत्यन्त प्रसिद्ध भूखण्ड था। आद्य प्रजापति मनु, स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत दस राजकुमारों के पिता थे। उनमें तीन तो संन्यासी हो गये थे और सात पुत्रों ने सात महाद्वीपों में आधिपत्य प्राप्त किया। ज्येष्ठ आग्नीध्र जम्बूद्वीप के राजा हुए। उनके नौ पुत्र जम्बूद्वीप के स्वामी बने। जम्बूद्वीप के नौ में से हिमालय और समुद्र के बीच में स्थित भूखण्ड को आग्नीध्र के पुत्र नाभि के नाम पर ही नाभिखण्ड को अजनाभवर्ष भी कहा गया। ‘मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन’ के एक पाद टिप्पण में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है, ‘‘स्वायम्भुव मनु के प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र नाभि, नाभि के ऋषभ और ऋषभ के सौ पुत्र हुए, जिनमें भरत ज्येष्ठ थे। यही नाभि अजनाभ भी कहलाते थे, जो अत्यन्त प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश अजनाभवर्ष कहलाया। श्रीमद्भागवत में भी ‘‘अजनाभं नामैतद्वर्ष-भारतमितियद् आरभ्य व्यपदिशन्ति’’ लिखा है। इसका अर्थ है कि अजनाभवर्ष ही आगे चलकर ‘भारतवर्ष’ इस संज्ञा से अभिहित हुआ। भगवज्जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण में, ‘‘कालसन्धि के समय, इसी जम्बूद्वीप में विजयार्धपर्वत से दक्षिण की ओर आर्यखण्ड में नाभिराज हुए और उनके नाम पर इस खण्ड को नाभिखण्ड कहा गया’ ऐसा उल्लेख किया है।
भरत संबंधी उल्लेख मार्कण्डेयपुराण में भी उपलब्ध होता है। मार्कण्डेय ऋषि इसके रचयिता थे। शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्रभाष्य में इसके दो श्लोकों का उद्धरण दिया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ ८वीं सदी से पूर्व का है। पश्चिमी विद्वान् भी इसे बहुत प्राचीन मानते है। पार्जिटर महोदय ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया था। इसके प्रारंभिक अध्याय जर्मन भाषा में भी अनूदित मिलते हैं। यह पुराण अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। इसका एक अंश ‘दुर्गासप्तशती’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें १३८ अध्याय और ९००० श्लोक हैं। इसमें लिखा है-
आग्नीध्रसूनोर्नाभिस्तु ऋषभोऽभूत् द्विज:।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताद् वर:।।
सोऽभिषिच्यार्शभ: पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थित:।
तपस्तेपे महाभाग: पुलहाश्रम-संश्रय:।।
हिमाहृवं दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ।
तस्मात्तु भारतवर्ष तस्य नाम्ना महात्मन:।।
(मार्कण्डेयपुराण)
आग्नीध्र के पुत्र नाभि से ऋषभ उत्पन्न हुए। उनसे भरत का जन्म हुआ, जो अपने सौ भाइयों में अग्रज था। ऋषभ ने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर महाप्रव्रज्या ग्रहण की और पुलह आश्रम में उस महाभाग्यशाली ने तप किया। ऋषभ ने भरत को हिमवत् नामक दक्षिण प्रदेश शासन के लिए दिया था अत: उस महात्मा भरत के नाम से इस प्रदेश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ब्रह्माण्डपुराण ‘भूगोल’ विषय की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें जम्बूद्वीप आदि द्वीपों, नदियों, पर्वतों और नक्षत्रोें आदि का रोचक वर्णन है। वायु ने व्यासजी को इस पुराण का उपदेश दिया था, इसलिए इसे ‘वायवीय ब्रह्माण्ड पुराण’ भी कहते हैं। ईसवी सन् ५वीं शती में इस पुराण को ब्राह्मण लोग जावा द्वीप ले गये थे, जहाँ उसका जावा की प्राचीन भाषा में अनुवाद प्राप्त होता है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध ही है। इस ग्रंथ के तीसरे पाद में भारतवर्ष के प्रसिद्ध क्षत्रियवंशों का वर्णन आया है। एक स्थान पर भरत और भारत के संबंध में कथन है-
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्यां महाद्युति:।
रिषभं पार्थिवं श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।।
रिषभाद् भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।
सोऽभिषिच्यर्षभ: पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थित:।।
हिमाहृवं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।
तस्मात्तु भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।।
(ब्रह्माण्डपुराण)
नाभि ने मरुदेवी में महाद्युतिवान् ऋषभ नामक पुत्र को जन्म दिया। ऋषभदेव पार्थिवश्रेष्ठ और सर्वक्षत्रियों के पूर्वज थे। उनके सौ पुत्रों में वीर भरत अग्रज थे। ऋषभ ने उनका राज्याभिषेक कर महाप्रव्रज्या ग्रहण की। उन्होंने भरत को हिमवत् नाम का दक्षिणी भाग राज्य करने के लिए दिया था और वह प्रदेश आगे चलकर भरत के नाम पर ही भारतवर्ष कहलाया। वायुपुराण के पूर्वार्ध (३०/५०-५३) में भी हुबहू ऐसा ही उल्लेख मिलता है।
नारदपुराण में भी उन भरत को ऋषभदेव का ही पुत्र बतलाया है, जिनके नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहते हैं। नारदपुराण से तात्पर्य ‘बृहद्नारदीय’ पुराण से है। यद्यपि डॉ. विलसन इसे १६वीं शती का मानते हैं, किन्तु वल्लालसेन (१२वीं शताब्दी) ने अपने दानसागर नाम के ग्रंथ में इस पुराण के श्लोक उद्धृत किये हैं। अलबेरुनी (११वीं शताब्दी) ने भी अपने ‘यात्रा विवरण’ में इसका उल्लेख किया है अत: इन दोनों से प्राचीन तो है ही। यह पुराण विष्णुभक्ति का मुख्य ग्रंथ है। इसमें एक उद्धरण है-
आसीत् पुरा मुनिश्रेष्ठ: भरतो नाम भूपति:।
आर्षभो यस्य नाम्नेदं भरतखण्डमुच्यते।।५।।
स राजा प्राप्तराज्यस्तु पितृपितामह: क्रमात्।
पालयामास धर्मेण पितृवदजनयन् प्रजा:।।६।।
(नारदपुराण, पूर्वखण्ड)
सूरदास के सूरसागर की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं-
बहुरो रिषभ बड़े जब भये। नाभि राज दे बन को गये।।
रिषभ राज परजा सुख पायो। जस ताको सब जग में छायो।।
रिषभ देव जब बन को गये। नवसुत नवौ खण्ड नृप भये।।
भरत सो भरत खण्ड को राव। करे सदा ही धर्म अरु न्याव।।
(सूरसागर, पंचम स्कंध)
इतिहास लेखन की परम्परा अति प्राचीन काल से उपलब्ध होती है। किन्तु प्राचीन काल के महापुरुषों का चरित्र जिन ग्रंथों में गुम्फित किया गया है, उनका नाम इतिहास न होकर पुराण रखा गया है और इतिहास की सीमाज्र्ति अवधि और उसके पश्चात्काल के महापुरुषों का चरित्रचित्रण जिन ग्रंथों में किया गया है अथवा किया जाता है, उसका नाम इतिहास, इतिवृत्त या ऐतिह्य कहलाता है। यद्यपि पुराण भी इतिहास ही होता है, किन्तु पुराण और इतिहास में कुछ मौलिक अन्तर भी होता है। इतिहास केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है, परन्तु पुराण महापुरुषों के जीवन में घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्य फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा साथ ही व्यक्ति के चरित्रनिर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक भावनाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिहास में केवल सम-सामयिक घटनाओं का उल्लेख रहता है परन्तु पुराण में नायक के अतीत-अनागत भावों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिए कि जन साधारण समझ सके कि महापुरुष वैâसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिए क्या-क्या त्याग और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मनुष्य के जीवन निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जन-साधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्ण अक्षुण्ण है।
किसी धर्म का इतिहास, उसके उत्थान-पतन, प्रचार और ह्रास का इतिहास होता है। किन्तु उसका कोई स्वोक्त इतिहास नहीं होता। धर्म कोई मूर्तिमान स्थूल पदार्थ नहीं है, वह तो जीवन के उच्च नैतिक व्यवहार में परिलक्षित होता है। धर्मसंस्थापना के दो उपाय हैं-हृदय-परिवर्तन और दण्ड-भय। धर्मनायक प्रथम उपाय करते हैं, जबकि लोकनायक दूसरा उपाय काम में लाते हैं। जिन्होंने जीवन में धर्म का पूर्ण व्यवहार करके अपने जीवन को धर्ममय बना लिया है और दूसरों को उस धर्म का उपदेश देते हैं, वे धर्म-नायक होते हैं। मुख्य धर्मनायक तीर्थंकर होते हैं। वे जन्म-जन्मान्तरों की धर्म-साधना द्वारा तीर्थंकर जीवन में धर्म के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं, क्योंकि उनके जीवन में किसी प्रकार की मानवीय दुर्बलता, मानसिक, आत्मिक और दैहिक दुर्बलता नहीं रहती, अत: वे कल्याण का उपदेश देकर असंख्य प्राणियों के जीवन को धर्ममय बनाने में सफल होते हैं। दूसरा उपाय है कि दण्ड द्वारा जीवन को अधर्म से विमुख करना-ऐसे व्यक्ति लोकनायक कहलाते हैं। इन लोकनायकों में प्रमुख चक्रवर्ती, नारायण और बलभद्र होते हैं। पहला उपाय सृजनात्मक है और दूसरा निषेधात्मक। पहला उपाय है अधार्मिकों के जीवन में से अधर्म दूर करके, उन्हें धार्मिक बनाना अर्थात् हृदय-परिवर्तन द्वारा धर्म की स्थापना, जबकि दूसरा उपाय है-अधर्मियों और दुष्टों को दण्ड-भय द्वारा अधर्माचरण और दुष्टता से रोकना, न मानने पर उन्हें दण्डित करना। हृदय परिवर्तन का प्रभाव स्थाई होता है। प्राणी का कल्याण हृदय-परिवर्तन द्वारा ही हो सकता है, जबकि दण्ड केवल भय उत्पन्न करके अस्थाईरूप से दुष्टता का निवारण कर सकता है, इसलिए धर्मनायक तीर्थंकरों की मान्यता और प्रभाव सर्वोपरि है।
जैनधर्म में वैदिक धर्म की तरह पुराण और उपपुराणों का विभाग नहीं मिलता। जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में पुराण साहित्य विपुल परिमाण में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत, अपभ्रंश और कन्नड़ भाषा में ज्ञात पुराणों की संख्या सौ से ऊपर है जिनमें श्री जिनसेनाचार्य का आदिपुराण, आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण, आचार्य जिनसेन का हरिवंशपुराण, आचार्य रविषेण का पद्मपुराण सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त कवि पंप का आदिपुराण (कन्नड़ में) महाकवि पुष्पदंत का महापुराण (अपभ्रंश में) कविवर रइधू का पद्मपुराण (अपभ्रंश में) और कवि स्वयंभू का पउमचरिय (अपभ्रंश में) भी साहित्य-जगत् में गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं।
जैन वाङ्मय को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिन्हें चार अनुयोग कहा जाता है। उनके नाम इस प्रकार हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनमें प्रथमानुयोग में पुराण, आख्यायिका, कथा और चरित्रग्रंंथ सम्मिलित हैं। जैन साहित्य में प्रथमानुयोग संबंधी ग्रंथों की संख्या विपुल परिमाण में है। इन ग्रंथों में-विशेषत: पुराण ग्रंथों में प्राचीन राजवंशों और महापुरुषों का इतिहास सुरक्षित है। इसलिए यह कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए जैन पुराणों और कथा ग्रंथों से बड़ी सहायता प्राप्त होती है। जैन पुराणों की अपनी विशिष्ट वर्णन शैली अवश्य है, किन्तु उसमें इतिहास का जो यथार्थ सुरक्षित है वह जैनेतर पुराणों में देखने को नहीं मिलता। जैन-पुराणों और कथा-ग्रंथों की एक विशेषता और है कि उनकी मूलकथावस्तु में विभिन्न लेखकों में कोई उल्लेखनीय मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि जैनेतर पुराणों में कथावस्तु में भारी अन्तर और मतभेद दिखाई पड़ते हैं। उसका मुख्य कारण यह है कि भगवान महावीर के पश्चात् आज तक आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा रही है। उन्होंने गुरु-मुख से जो सुना और अध्ययन किया, उसको उन्होंने अपनी रचना में ज्यों का त्यों गुम्फित कर दिया। इसलिए दिगम्बर पुराणों और आगमों के कथानकों में भी प्राय: एकरूपता मिलती है इसलिए उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यहाँ उनकी विश्वसनीयता के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैनेतर पुराणों में हनुमान, नल, नील, जामवन्त, रावण आदि प्रसिद्ध पुरुषों को बानर, रीछ, राक्षस आदि लिखा है, जबकि जैनपुराणों ने उन्हें विद्याधर लिखा है और उनकी जाति का नाम वानर आदि दिया है। जैन पुराणों में वर्णित इन विद्याधर जातियों की सत्ता प्राचीन काल में थी, इस बात को नृवंश-विज्ञान और पुराविदों ने सिद्ध कर दिया है अत: कहा जा सकता है कि जैन पुराण कल्पना और किंवदन्तियों पर आधारित न होकर, पूर्वाचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा से प्राप्त तथ्यों पर आधारित हैं।
अत्यंत प्राचीन युग में, इस आर्यभूमि पर महाराजा नाभि राज्य करते थे। वे १४ कुलकरों में अंतिम कुलकर थे। अंतिम होते हुए भी दीर्घायु, समुन्नत शरीर, अप्रतिम रूप-सौन्दर्य, अपार बल-विक्रम और विपुल गुणों के कारण सब से अग्रिम थे।
श्रीमद्भागवत में उन्हें आदिमनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत और प्रियव्रत के आग्नीध्र तथा आग्नीध्र के नौ पुत्रों में ज्येष्ठ माना है। महाराजा नाभि अपने विशिष्ट ज्ञान, उदार गुण और परमैश्वर्य के कारण कुलकर अथवा मनु कहलाते थे। सर्वप्रथम उन्होंने ही सद्य:उत्पन्न शिशुओं के नाभि-नाल को शस्त्र क्रिया से पृथक् करने का परिज्ञान दिया। उनके नाभिराय नाम के पीछे भी यह रहस्य माना जाता है। उन्हें हुए कितना युग बीता, कहा नहीं जा सकता।
उनका युग एक संक्रान्तिकाल था। जब वे सिंहासन पर बैठे, भोगभूमि थी। कल्पवृक्ष फलते थे। अपराध-वृत्ति का अभाव था। सभी में पारस्परिक सद्भाव था। प्रत्येक का मनोवांछित फल कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाता था, तो असद्वृत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता था। किन्तु उनके जीवनकाल में ही, भोगभूमि समाप्त हो गयी। कल्पवृक्ष नि:शेषप्राय हो गये। कर्मभूमि का प्रारंभ हुआ। नये प्रश्न थे, नये हल चाहिए थे। नाभिराय ने धैर्यपूर्वक उनका समाधान दिया। उन्हें क्षत्रिय कहा गया। आगे चलकर ‘क्षत्रिय’ शब्द नाभि अर्थ में रूढ़ हो गया। अमर कोषकार ने ‘क्षत्रिये नाभि:’ लिखकर शिवपुराण में शंकर से संबंधित महत्वपूर्ण मान्यताएँ स्थापित की गई हैं। जैसे, वह आर्य थे या अनार्य आदि दसवीं संहिता में मुनि-पत्नियों के कथानक से इस पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस पुराण में २४००० श्लोक हैं। शैवदर्शन के तत्त्वों को भली भांति समझाया गया है। बीच-बीच में शिव और पार्वती से संबंधित नाना कथाओं की अवतारणा है। इस ग्रंथ में भरत से संबंधित एक स्थल है-
नाभे: पुत्रश्च वृषभो, वृषभाद् भरतोऽभवत् ।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्षं, भारतं चेति कीर्त्यते।।
(शिवपुराण)
अर्थात् नाभि के पुत्र वृषभ और वृषभ के पुत्र भरत हुए। उनके नाम से इस वर्ष (देश) को भारतवर्ष कहते हैं।
‘महापुराण’ में भी वृषभ और भरत से संबद्ध अनेक उद्धरण मौजूद हैं। महापुराण भगवज्जिनसेनाचार्य का ख्यातिप्राप्त ग्रंथ है। इसकी रचना ईसवी सन् ९वीं शती में की गई थी। इसमें एक स्थान पर लिखा है-
ततोऽभिषिच्य साम्राज्ये भरतं सूनुमग्रिमम्।
भगवान् भारतं वर्षं तत्सनाथं व्यधादिदम्।।
अर्थात् इसके पश्चात् भगवान् वृषभनाथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का साम्राज्याभिषेक किया तथा भरत से शासित प्रदेश भारतवर्ष हो, ऐसी घोषणा की।
‘‘सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देवमूर्तियों में केवल योगमुद्रा में अवस्थित हैं, जो उस प्राचीन युग में सिंधु घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती है, उन मुहरों में खड़े हुए देवता योग की मुद्रा भी प्रगट करते हैं और यह कायोत्सर्ग मुद्रा आश्चर्यजनकरूप से जैनों से संबंधित है। यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है। आदिपुराण सर्ग १८ में ऋषभ अथवा वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन किया गया है। मथुरा के कर्जन पुरातत्त्व संग्रहालय में एक शिलाफलक पर जैन ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमाएँ मिली हैं जो ईसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गई हैं। मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति संख्या १२ में प्रतिबिम्बित है। प्राचीन राजवंशों के काल की मिस्री स्थापत्य कला में प्रतिमाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जिनकी भुजाएँ दोनों ओर लटकी हुईं हैं। यद्यपि ये मिस्री मूर्तियाँ प्राय: उसी मुद्रा में मिलती हैं, किन्तु उनमें वैराग्य की वह झलक नहीं है, जो सिंधु घाटी की इन खड़ी मूर्तियों या जैनों की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में मिलती है। ऋषभ का अर्थ है वृषभ (बैल) और वृषभ जिन ऋषभ का चिन्ह है।’’
(माडर्न रिव्यू, अगस्त १९३२, पृ. १५५-१६०)
प्रो. चन्दा के इन विचारों का समर्थन डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने भी किया है। वे भी सिंधु घाटी में मिली इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं को ऋषभदेव की मानते हैं इन विद्वानों ने सील नं. ४४९ पर जिनेश्वर शब्द भी पढ़ा है। इस संबंध में खोजकारों की मान्यता है कि सभी ध्यानस्थ प्रतिमाएँ जो सिंधु घाटी में मिली है, जैन तीर्थंकरों की हैं। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धर्मचक्र, पशु, वृक्ष और नाग ये सभी जैन कला की अपनी विशेषताएँ हैं। विशेषत: कायोत्सर्गासन जैन श्रमणों द्वारा ध्यान के लिए प्रयुक्त होता है।
सिंधु-सभ्यता अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत सभ्यता थी। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिंधु सभ्यता का जो मूल्याकंन किया है, उसके बड़े रोचक निष्कर्ष निकले हैंं। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी लिखते हैं-मुहर के फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में एक बैल भी बना है। संभव है, यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो। यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिंधु सभ्यता तक चला जाता है। प्रसिद्ध विद्वान् श्री रामधारी सिंह दिनकर इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखते हैं-मोहन-जोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैैसे-कालान्तर में वह शिव के साथ संबंधित थी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व के हैं।
इसी संदर्भ में डॉ. एम.एल. शर्मा लिखते हैं मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चित्र अंकित है वह भगवान ऋषभदेव का है। यह चित्र इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योग-साधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैनधर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे। सिंधु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की भी पूजा करते थे। इन सब बातों से यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि जैनधर्म की संस्कृति सबसे प्राचीनतम है। जैनधर्म के सिद्धान्त सार्वभौमिक है और जैनधर्म अनादि-निधन है।
व्यवहारिक व लौकिक ज्ञान-विज्ञान एवं अध्ययन-अध्यापन का एक महत्वपूर्ण विषय है ‘इतिहास’। शिक्षा- व्यवस्था के अन्तर्गत निर्धारित पाठ्यक्रम में इस विषय की उपयोगिता सदैव से स्वीकृत होती आई है। प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, जाति, राष्ट्र, देश तथा परम्परा या संस्कृति का अपना-अपना अतीत होता है और उक्त अतीत की ही प्रमाणाधारित कहानी को इतिवृत्त या इतिहास कहा जाता है। राजनैतिक, आर्थिक आदि शुद्ध लौकिक क्षेत्रों में नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों और घटित घटनाओं का काल क्रमिक वृत्तान्त लौकिक इतिहास का विषय होता है, जबकि संस्कृति या परम्पराविशेष के इतिहास में उसके विकास में पथचिन्ह बनने वाली घटनाओं और लोक को कल्याण का सुपथ दिखाने वाले तथा मानव जीवन के उन्नयन में योगदान करने वाले महापुरुषों का चरित्र चित्रण होता है। इसका एक उद्देश्य तो उन पुराण पुरुषों के पुण्य चरित्रों की स्मृति का संरक्षण होता है और दूसरा उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर स्वयं अपना जीवनपथ प्रशस्त करना होता है।
जैन इतिहास का अर्थ है जैन परम्परा का अर्थात् जैनधर्म और संस्कृति का इतिहास। जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्वरूप का नाम धर्म है, जो जिस वस्तु का परानपेक्ष निजी स्वभाव है, वही उसका धर्म है। विश्व के उपादानों में मनुष्य के लिए सर्वाधिक प्रयोजनभूत वस्तु आत्मा है अत: जैनधर्म या जिनधर्म आत्मधर्म का ही पर्यायवाची है, क्योंकि आत्मतत्त्व अर्थात् लोक में जितनी भी आत्माएँ हैं, सब अनादिनिधन हैं, आत्मवस्तु का स्वभाव या धर्म भी अनादिनिधन है। व्यवहारत: उक्त स्वभाव का साधनापथ भी, कारण में कार्य के उपचार द्वारा, ‘धर्म’ संज्ञा प्राप्त करता है। इस प्रकार जैनधर्म या जिनधर्म भी अनादिनिधन है और अनादिनिधन पदार्थ का कोई इतिहास नहीं होता-उसे इतिहास की सीमित परिधि में बांधा नहीं जा सकता।
किन्तु व्यवहार में हम वर्तमान को पकड़कर उसका अतीत खोजते हुए कालक्रम से पीछे की ओर चलते जाते हैं और जहाँ तक अतीत के गर्भ में पहुँच पाते हैं, वहीं से विवक्षित परम्परा आदि का इतिहास प्रारंभ हुआ मानकर तब से अब तक का इतिहास निर्माण कर डालते हैं। सुविधा की दृष्टि से उसे उपयुक्त कालखण्डों में भी विभाजित कर लेते हैं अतएव आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति द्वारा स्वीकृत सत्यापित साक्ष्य जिस समय से मिलने लगता है, वह शुद्ध इतिहास का प्रारंभ माना जाता है। उससे पूर्व का भी जो कुछ इतिवृत्त परम्परा अनुश्रुतियों के माध्यम से प्राप्त होता है, उसे अनुश्रुतिगम्य इतिहास या प्रोटो-हिस्टरी (Proto-History) कहते हैं। उससे पूर्व का मनुष्य के अतीत का जो कुछ भी ज्ञातव्य उपलब्ध होता है, वह इतना अनाम, अस्पष्ट एवं अव्यवस्थित होता है कि उसे इतिहास की परिधि से बाहर रखकर प्रागैतिहासिक कहते हैं।
यह एक असंदिग्ध मौलिक जैन सिद्धान्त है कि यह चराचर जगत अर्थात् विश्व के विभिन्न उपादान भी अनादि और अनन्त हैं। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी विनाश नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि इस विश्व का न कभी किसी के द्वारा सृजन हुआ है और न कभी अन्त होगा, किन्तु इस शाश्वत एवं प्रवाहमान जगत में उसके उपादान द्रव्यों में निरन्तर परिणमन, पर्याय से पर्यायान्तर होते रहते हैं और सतत् परिवर्तन का निमित्त है कालचक्र।
काल का प्रभाव भी अनादि अनन्त है। उसका सबसे छोटा अविभाज्य अंश ‘समय’ कहलाता है और सबसे बड़ी व्यवहार इकाई ‘कल्पकाल’। एक कल्पकाल का परिमाण बीस कोटाकोटी सागर होता है जो स्थूलत: संख्यातीत वर्षों का होता है। प्रत्येक कल्पकाल के दो विभाग होते हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, जो एक के अनन्तर एक आते रहते हैं। अवसर्पिणी उत्तरोत्तर ह्रास एवं अवनति का युग होता है, जबकि उत्सर्पिणी उत्तरोत्तर विकास एवं उन्नति का। इनमें से प्रत्येक छ: भागों में विभक्त होता है, जिनकी गणना अवसर्पिणी के प्रवेश से प्रारंभ होती है, यथा-प्रथम (सुखमा-सुखमा), द्वितीय (सुखमा), तृतीय (सुखमा-दुखमा), चतुर्थ (दुखमा-सुखमा), पंचम (दुखमा) और छट्ठा (दुखमा-दुखमा)।
इनमें से प्रथम काल में मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों के शरीर का बल, आकार, आयु आदि सर्वाधिक होते हैं और सर्वप्रकार का शारीरिक एवं मानसिक सुख अत्यन्त होता है। दूसरे काल में इन सब चीजों में उत्तरोत्तर कमी होती जाती है, तीसरे में और अधिक कमी होती है तथा साथ में दु:ख का भी समावेश होने लगता है। तथापि, ये तीनों काल सुख एवं भोगप्रधान होते हैं और जीवन पूर्णतया प्रकृत्याश्रित होता है अतएव सामूहिक रूप से ये तीनोें काल भोगयुग या भोगभूमिकाल कहलाते हैं। चौथे काल के प्रारंभ से कर्मभूमि या कर्मयुग का उदय होता है। इस काल में शरीर के आकार, बल, आयु, सुख और भोग में उत्तरोत्तर ह्रास होता जाता है तथा दु:ख की प्रधानता होने लगती है। मात्र प्रकृति पर निर्भर रहने से काम नहीं चलता। स्वपुरुषार्थ एवं कृत्रिम साधनों का अवलम्बन अनिवार्यत: आवश्यक होता जाता है अतएव इस चौथे काल में ही तीर्थंकरों के रूप में सर्वमहान लोकोपकारी जन नेताओं का आविर्भाव होता है, जो अपने-अपने समय में मनुष्यों को सुकर्म और धर्म की शिक्षा देते हैं पाँचवें काल में जीवन संघर्ष में और अधिक वृद्धि एवं जटिलता होती जाती है तथा सुख नाममात्र का ही रह जाता है। छठे काल में आत्यंतिक दु:ख की प्रधानता रहती है और उसके अन्त तक सर्वव्यापी पतन अपनी चरमावस्था को पहुँच जाता है। उसके उपरांत घड़ी के पेन्डुलम की भांति कालचक्र पीछे को लौटता है-उसका प्रत्यावर्तन होता है और पुन: छठे से आरंभ करके क्रमश: पाँचवां, चौथा, तीसरा, दूसरा और पहला काल आता है। यह उत्सर्पिणी उत्तरोत्तर विकास एवं उन्नति का युग होता है। इसके प्रथम तीन कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है और अंतिम तीन में भोगभूमि की। इस अनादिकाल चक्र में युगारंभ एवं वर्षारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है।
अनन्त आकाश के एक भाग में पुरुषाकार परिमित लोक है। उसी में जीव-अजीव आदि विभिन्न द्रव्य पाये जाते हैं। यही चराचर जगत हमारा विश्व है। इसके मध्यभाग को मध्यलोक कहते हैं। उसके ठीक मध्य में जम्बूद्वीप है जिसके केन्द्र में सुमेरुपर्वत स्थित है और चारों ओर लवण समुद्र है। इस जम्बूद्वीप के ही एक भाग में हिमवन् पर्वत तथा तीन ओर लवण समुद्र से वेष्टित भरतक्षेत्र है, जिसके मध्य में विजयार्ध पर्वत पैâला है। हिमवन् पर्वत से निकलकर अनेक सहायक नदियों के परिवार से युक्त होकर, एक पूर्व की ओर और दूसरी पश्चिम की ओर बहकर महासमुद्र में मिलने वाली गंगा और सिंधु नामक दो महानदियाँ भरतक्षेत्र को छ: खण्डों में विभाजित करती हैं। इन खण्डों में से गंगा और सिंधु का मध्यवर्ती प्रदेश आर्यखण्ड कहलाता है। यही प्राचीन भारत का वह मध्यदेश है जहाँ तीर्थंकरों एवं अन्य पुराण पुरुषों का जन्म हुआ। यहीं भारतीय धर्म, विज्ञान, कला और सभ्यता का तथा भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं का उदय, विकास एवं पोषण हुआ।
इस समय कल्पकाल का अवसर्पिणी विभाग चल रहा है क्योंकि वर्तमान अवसर्पिणी में कतिपय अपवाद या सनातननियम विरुद्ध कुछ अनोखी बातें भी हुईं हैं, सामान्य अवसर्पिणी से भेद करने के लिए इसे हुंडावसर्पिणी कहते हैं। इसके प्रथम चार भाग (काल) व्यतीत हो चुके हैं और पाँचवां भाग काल चल रहा है, जिसके लगभग अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और साढ़े अठारह सहस्र वर्ष शेष हैं।
वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनों कालों में इस क्षेत्र में जीवन अत्यन्त सरल, स्वच्छ, स्वतंत्र एवं प्राकृतिक था। मनुष्यों की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति दश प्रकार के तथाकथित कल्पवृक्षों से स्वत: हो जाया करती थी। मनुष्य शांत एवं निर्दोष था, कोई संघर्ष या द्वन्द्व भी नहीं था अत: कोई मनुष्यकृत व्यवस्था भी नहीं थी। आधुनिक भूतत्त्व एवं नृतत्त्व विज्ञान सम्मत आदिमयुगीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय युगों की वस्तु स्थिति के साथ उपरोक्त जैन मान्यता का अद्भुत सादृश्य है। अवसर्पिणी के तीसरे काल के अंतिम पाद में जब भोगभूमि का अवसान होने लगा और कालचक्र के प्रभाव से होने वाले अवस्था-परिवर्तनों को देखकर लोग शंकित एवं भयभीत होने लगे तो उनका समाधान, मार्गदर्शन एवं नेतृत्व करने के लिए इस देश में, एक के बाद एक, चौदह कुलकरों या मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग की वस्तुस्थिति आधुनिक पुराशास्त्रियों की प्रागैतिहासिक पाषाणयुगीन स्थिति से मेल खाती है।
कुलकरों की संख्य्ाा १४ है। जीवन की रक्षा तथा जीवननिर्वाह की आवश्यकताओं के लिए बढ़ते हुए संघर्षों के कारण उस युग के मनुष्य की सहनशक्ति जब भंग होने लगी, तो उसने स्वयं को कुलों (जनों, समूहों या कबीलों) में संगठित करना प्रारंभ कर दिया। इन कुलों की व्यवस्था करने वाले और उनका नायकत्व एवं नेतृत्व करने वाले कुलमान्य पुरुष श्रेष्ठ ‘कुलकर’ कहलाये। वे आवश्यकतानुसार आदेश-निर्देश भी देते थे, मर्यादाएँ निर्धारित करते थे और व्यवस्था देते थे इसलिए ‘मनु’ भी कहलाते थे। उन्हीं की सन्तति होने के कारण इस देश के निवासी मानव कहलाये।
प्रथम कुलकर या मनु का नाम प्रतिश्रुति था। उन्होंने लोगों को चन्द्रमा और सूर्य के उदय एवं अस्त होने जैसी प्राकृतिक घटनाओं का रहस्य बताया। चन्द्रास्त एवं सूर्योदय एक साथ पहली बार जब लक्ष्य में आये, तभी से दिन और रात्रि के व्यवहार का प्रारंभ माना जाने लगा। दूसरे कुलकर सन्मति ने लोगों को नक्षत्रों एवं तारिकाओं का ज्ञान कराया-वह सर्वप्रथम ज्योतिर्विद थे। तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने वन्य पशुओं से निर्भय रहना और उनमें से कई एक को पालतू बनाना सिखाया। चौथे कुलकर क्षेमंधर ने सिंह आदि हिंसक पशुओं से स्वरक्षा के लिए दण्ड (डण्डे) पाषाण आदि का प्रयोग सिखाया। पाँचवें कुलकर सीमंकर के समय तक अधिकतर कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे और जो बच रहे थे, उनके स्वामित्त्व को लेकर परस्पर झगड़े होने लगे अतएव इन कुलकर ने प्रत्येक कुल के अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करके उन्हें संघर्षों से बचाया। इन पाँचों कुलकरों ने भोगयुग के अवसान और कर्मयुग के आगमन की पूर्व सूचना देते हुए अपने-अपने समय के मानव-कुलों को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल जीवन बिताने की शिक्षा दी। अपराधियों के लिए वे ‘हाकार’ नीति का प्रयोग करते रहे अर्थात् अपराधी को ‘हा’ कह देना भर पर्याप्त था, अन्य किसी दण्ड की आवश्यकता नहीं होती थी।
छठे कुलकर सीमंधर ने बचे-खुचे कल्पवृक्षों पर वैयक्तिक अधिकार की सीमाएँ निश्चित कर दीं-व्यक्तिगत सम्पत्ति की कल्पना का प्रारंभ यहीं से हुआ समझा जा सकता है। सातवें कुलकर विमलवाहन ने हाथी आदि पशुओं को पालतू बनाकर बांध रखना और सवारी आदि के लिए उनका उपयोग करना सिखाया। आठवें कुलकर चक्षुष्मान के समय में भोगभूमिज युगलिया स्त्री-पुरुष अपनी युगलिया संतान को जन्म देकर भी जीवित रहने लगे और उन्हें देखने का आनंद प्राप्त करके मरने लगे-इसके पूर्व वे संतान को जन्म देकर तुरंत मर जाते थे। इस कुलकर ने उन्हें सन्तान-सुख प्राप्त करना सिखाया। नौवें कुलकर यशस्वान ने लोगों को अपनी सन्तान से स्नेह करना और उनका नामकरण आदि करना सिखाया। दसवें कुलकर अभिचन्द्र ने बालकों का रोना चुप कराने, उन्हें खिलाने, बुलवाने और उनका पालन-पोषण आदि करने की शिक्षा दी। छठे से दसवें कुलकर पर्यंत ‘हा’ के साथ ‘मा’ (नहीं, मत करो) का भी दण्डनीति के रूप में प्रयोग हुआ।
ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभ के समय में लोग अति शीत, तुषार एवं वायु के प्रकोप से त्रस्त और भयभीत होने लगे तो कुलकर ने उनका समाधान किया। उन्होंने शिशुओं का लालन-पालन करना व अन्य उपयोगी बातें भी लोगों को सिखाईं। बारहवें कुलकर मरुदेव के समय में मेघ-गर्जन एवं बिजली की चमक के साथ वर्षा होने लगी, नदी-नाले बहने लगे, जिससे लोग भयभीत हुए। कुलकर ने नाव बनाकर नदी आदि पार करना तथा पर्वतों पर चढ़ना सिखाया। उन्होंने लोगों को समझाया कि भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होने वाली है और कर्मभूमि का काल अति निकट है अत: कर्म करना प्रारंभ करो। तेरहवें कुलकर प्रसेनजित ने सद्य:जात शिशुओं की जरायु हटाने की और उनका भली प्रकार पालन-पोषण करने की शिक्षा दी। चौदहवें कुलकर महाराज नाभिराय थे, जिन्होंने सद्य़:जात शिशुओं की नाभिनाल काटने की विधि बताई। इन्हीं के नाम पर इस देश का प्राचीनतम ज्ञात नाम अजनाभ या अंजनाभ प्रसिद्ध हुआ। इस समय तक समस्त कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे किन्तु साथ ही सहज उत्पन्न विविध वानस्पतिक औषधियाँ, धान्य, फल-फूल आदि उगने लगे। कुलकर ने लोगों को क्षुधानिवारणार्थ इन स्वत: उत्पन्न शालि, यव, बल्ल, तुवर, तिल, उड़द आदि का भक्षण करने का उपदेश दिया। अन्तिम चार कुलकरों के समय में दण्डनीति में ‘धिक्’ या ‘धिक्कार’ शब्द का भी प्रयोग होने लगा।
जैन परम्परा में मान्य भोगभूमि की व्यवस्था तथा कुलकरों से संबंधित वर्णन आधुनिक चिन्तकों एवं मनीषियों के उन निष्कर्षों के साथ अद्भुत सादृश्य रखते हैं, जो वे मनुष्यजाति की आदिम शैशवावस्था में मानवी सभ्यता के उदयकाल तक हुए उसके विकास क्रम के संबंध में प्रतिपादित करते हैं। कुलों, जनों, कबीलों आदि की मान्यता भी अमरीका, यूनान एवं रोम के आदिवासियों में उसी प्रकार रही, मानी व जानी जाती है। ये तथ्य जहाँ इस जैन परम्परा को वितर्कणा से युक्त आधुनिक बुद्धिजीवियों के लिए विश्वसनीय सिद्ध करते हैं, वहीं जैनधर्म एवं संस्कृति की अत्यन्त प्राचीनता के भी सूचक हैं।
तीसरे काल अर्थात् भोगभूमि और कुलकर-युग के साथ वास्तविक प्रागैतिहासिक युग समाप्त हो जाता है और अनुश्रुतिगम्य इतिहास (प्रोटोहिस्टरी) का प्रारंभ होता है। कर्मयुग और सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास का भी वहीं से ॐ नम: होता है और इस आने वाले युग के प्रधान नेता चौबीस तीर्थंकर हैं तथा गौण नेता अन्य उनतालीस विशिष्ट पुरुष हैं, जो सब मिलाकर त्रिषष्टिशलाकापुरुष कहलाते हैं।
तीर्थ नाम धर्मशासन का है अतएव जो महापुरुष जन्म-मरणरूपी दु:ख के आगार संसार-सागर को पार करने के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना या प्रवर्तन करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। आगे के युग में ऐसे चौबीस तीर्थंकर हुए। उनके अतिरिक्त बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र, इस प्रकार कुल त्रेसठ शलाका (परम श्लाघनीय) पुरुषपुंगव हुए।
अंतिम कुलकर नाभिराय की चिरसंगिनी मरुदेवी की कुक्षि से चैत्रकृष्णा नवमी के शुभ दिन, अयोध्या नगरी में प्रथम तीर्थंकर वृषभ-लांछन भगवान ऋषभ का जन्म हुआ था। इनके अन्य अनेक सार्थक नाम, यथा-वृषभनाथ, आदिनाथ या आदिदेव, महादेव, स्वयंभू, प्रजापति, हिरण्यगर्भ, पुरुदेव, इक्ष्वाकु, काश्यप आदि भी लोकप्रसिद्ध हुए। इन्हीं आदिपुरुष ने मनुष्य को मानव बनाया, उसे असि-मसि-कृषि-शिल्प-वाणिज्य-विद्या नामक षट्कर्मों द्वारा जीविकोपार्जन करने की शिक्षा दी, पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलाएँ सिखाईं, लिपिज्ञान और अंकज्ञान दिया, कच्छ-सुकच्छ की बहन नन्दा (अपरनाम यशस्वती) एवं सुनन्दा के साथ विवाह करके समाज में विधिवत् विवाह प्रथा प्रचलित की और समाज में क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र नामक कर्मभेदसूचक त्रिवर्ण की स्थापना की। भगवान के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र और ब्राह्मी एवं सुन्दरी नाम की दो पुत्रियाँ हुईं। उन्होंने पुत्रों तथा पुत्रियों को समानरूप से सुशिक्षित किया और चिरकाल तक प्रजा का सम्यक्रीत्या पालन, पथप्रदर्शन एवं नेतृत्व किया। इस प्रकार ज्ञान-विज्ञान एवं विविध कलाओं और कर्म की शिक्षा, सामाजिक संगठन, अर्थव्यवस्था, राज्य-शासन आदि के रूप में कर्मयुग के प्रारंभ और मानवी सभ्यता एवं संस्कृति के बीजारोपण का श्रेय इन्हीं आदिपुरुष ऋषभदेव को है।
एकदा अपनी राजसभा में नीलांजना नामक अप्सरा की नृत्य के मध्य में ही आयु पूरी हो जाने पर मृत्यु की घटना देखकर भगवान को संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने सर्वस्व परित्याग करके तथा वन में जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और दुर्द्धर तपश्चरण द्वारा आत्मसाधना प्रारंभ कर दी। इन योगिराज का प्रथम पारणा गजपुर (हस्तिनापुर) में राजा सोमप्रभ के अनुज कुमार श्रेयांस के हाथों इक्षुरसपान द्वारा वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन हुआ, जो तभी से अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुई। कालान्तर में पुरिमतालनगर (प्रयाग) के बाहर त्रिवेणी संगम के निकटवर्ती एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वह वृक्ष ‘अक्षयवट वृक्ष’ के नाम से लोकप्रसिद्ध हुआ। अपने दिव्य उपदेश द्वारा चिरकालपर्यंत लोकहित करने के उपरांत माघ कृष्णा चतुर्दशी को वैâलाश पर्वत पर भगवान ने निर्वाण्ा प्राप्त किया और मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण किया। यह युगादिपुरुष भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी में धर्म के सर्वप्रथम प्रवर्तक तथा जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे।
भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे, जिन्होंने छ: खण्ड पृथ्वी का शासन करके चिरकाल तक वसुन्धरा का उपभोग किया। इन्हीं भरतेश्वर ने चतुर्थ वर्ण, ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। इनके अनुज बाहुबली अत्यन्त स्वतंत्रचेता, वीर, कामदेवपद समन्वित और अतुल्य बलशाली थे। वे चक्रवर्ती के सन्मुख भी नहीं झुके। अन्तत: संसार से विरक्त होकर उन्होंने दुर्द्धर तपश्चरण किया। उनकी विशालकाय प्रतिमाएँ अनेक स्थानों में विद्यमान हैं, जिनमें से श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) की अद्वितीय प्रतिमा तो विश्व के आश्चर्यों में परिगणित है।
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के निर्वाणोपरान्त, अल्पाधिक विभिन्न अन्तरालों को लिए हुए एक-एक करके तेईस अन्य तीर्थंकरों का इस भारत भू में प्रादुर्भाव हुआ, जिनके नाम हैं क्रमश:-अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंतनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी।
धर्मतीर्थ व्युच्छित्ति का काल-पुष्पदंत को आदि लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति (अभाव) हुई थी और शेष सत्रह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर अक्षुण्ण रूप से चलती रही है।
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के तीर्थ में जैन रामायण में वर्णित घटनाएँ घटीं और राम, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि शलाका पुरुष हुए। मुनिसुव्रत से नेमिनाथ तक का समय वैदिक सभ्यता का उत्कर्षकाल था, याज्ञिक हिंसा का जोर भी उसी काल में बढ़ा। इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ के समय से ब्राह्मण धर्म में औपनिषदिक आत्मवाद की कुछ लहर चली। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के चचेरे भाई नारायण कृष्ण और बलराम थे, जिनका प्रतिद्वन्द्वी मगध नरेश जरासंध था। इसी समय कुरुक्षेत्र में महाभारत नाम से प्रसिद्ध कौरव-पाण्डव महायुद्ध हुआ। इस युद्ध ने वैदिक सभ्यता को बड़ा धक्का पहुँचाया, वैदिक क्षत्रिय सत्ताएँ पराभूत हुईं और श्रमणधर्म का पुनरुद्धार प्रारंभ हुआ।
आधुनिक इतिहासकार अब बहुधा महाभारत युद्ध के उपरांत से ही प्राचीन भारत के शुद्ध ऐतिहासिक युग का प्रारंभ करते हैं।
अत: उक्त महाभारत युद्ध और कृष्ण को ऐतिहासिक स्वीकार किया जाता है, तीर्थंकर अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता स्वयंसिद्ध है और उनके परवर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ईसा पूर्व ८७७-७७७) तथा वर्द्धमान महावीर (ई. पू. ५९९-५२७) का ऐतिहासिकता तो सर्वथा असन्दिग्ध है ही। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का ही तीर्थ या धर्मशासन गत ढाई हजार वर्षों से चला आ रहा है। उन्हीं की परम्परा के आचार्यपुंगव, तपोधन मुनिराज, दिग्गज साहित्यकार और भक्त श्रावक-श्राविकाएँ उसका अनुपालन, पोषण और प्रभावना करते चले आ रहे हैं।