विश्व के अनेक दार्शनिक और साधारणजन भी एक ऐसी सर्वशक्तिमान ईश्वर नाम की सत्ता को मानते हैं, जिसने उनकी मान्यता के अनुसार इस सृष्टि की रचना की है जो उसके प्रबंध-संचालन की सारी व्यवस्था करता है। बिना उसकी इच्छा-आज्ञा के पत्ता तक नहीं हिलता। जैनदर्शन ऐसे किसी भी अनादिसिद्ध ईश्वर-परमात्मा की सत्ता को नहीं मानता-स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार प्रत्येक जीवात्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता को लिये हुए अपने ही पुरुषार्थ से रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) धारण कर तप-साधना द्वारा नवीन कर्मों के उदय में आने का संवरण तथा पूर्व में बंधे सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा कर सर्वोच्च शुद्धावस्था (ईश्वरत्व) को प्राप्त कर सकता है। ‘‘सम्पूर्ण कर्मों का क्षय—नाश होना ही जिनशासन में मोक्ष कहा गया है।’’ सभी जीव तो नहीं किन्तु उनमें से जो अतिशय पुण्यशाली आत्माएँ कषाय रहित शुद्धभाव से विशिष्ट कर्म करती रहती हैं और मुक्त होने से पहले समस्त प्राणीजगत को मुक्त होने का मार्ग दिखाती हैं, जैन परम्परा उन्हें ही ईश्वर-परमात्मा मानती है और वे ‘‘धर्मतीर्थ’’ के प्रवर्तक होने से ‘‘तीर्थंकर’’ कहलाते हैं।
जो तिरा दे-पार करा दे अथवा तिरने-पार होने में सहायक-साधक हो उसे ‘‘तीर्थ’’ कहते हैं। जिस धर्ममार्ग से जन्म-मरण और दु:खरूप संसार सागर से पार होकर मुक्ति प्राप्त की जा सके उसे ‘‘धर्मतीर्थ’’ कहते हैं। (‘‘रयणत्तय संजुत्तो जीवो वि हवेई उत्तमं तित्थं’’ अर्थात् रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम धर्मतीर्थ हैं।) उसके प्रवर्तक को ‘‘तीर्थंकर’’ कहते हैं। इन तीर्थंकरों के पावन निर्वााणस्थलों को जैन परम्परा में ‘‘तीर्थ’’ कहते हैं। इन जिनवरोें के मार्ग पर चलकर आत्मकल्याणार्थ एकनिष्ठ साधना करने वाले मुनि, आर्यिका आदि सच्चे गुरुओं को ‘‘जंगमतीर्थ’’ कहते हैं। ये तीर्थंकर अनादिकाल से अनंत हो चुके हैं और आगे भी अनंत होते रहेंगे। ये मनुष्यगति से ही होते हैं अन्य किसी से नहीं और वह भी क्षत्रिय कुल में भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रों में पायी जाने वाली कर्मभूमियों में ही होते हैं।
तीर्थंकर प्रकृतिसम्पन्न जीव जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारी होते हैं। उनके गर्भ में आने से पूर्व उनकी माताओं को सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं जो उनके गर्भ में आने के शुभ सूचक होते हैं। गर्भ में आते ही स्वर्ग की देवियाँ उन माताओं की सार-सम्हार और सेवा-सुश्रूषा करने लग जाती हैं। जन्मते ही ऐरावत हाथी पर आरूढ़ इन्द्र इन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं और वहाँ क्षीरसागर के निर्मल जल से भरे एक हजार आठ कलशों से अभिषेक करते हैं जो उनकी अनंत शक्ति का परिचायक है। उनके जीवन से संबंधित गर्भ, जन्म, दीक्षा (तप), ज्ञान और निर्वाण कल्याणक होते हैं। ये पाँचों ही कल्याणक कल्याणकारी होने से कल्याणक कहे जाते हैं। चार घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय) कर्मों के क्षय से केवलज्ञान होने पर सर्वज्ञता को प्राप्त तीर्थंकर अरहंतावस्था में समवसरण नाम से अभिहित धर्मसभाओं में तीर्थंकर प्रभु की चतुर्मुख दिव्यध्वनि खिरती है, जो जगत के प्राणियों को जन्म-जरा के दुष्चक्र और दु:ख रूप संसार सागर से छुटकारा पाने का मार्ग दिखाते हैं। तीर्थंकर प्रभु की उन धर्मसभाओं में देव, मनुष्य और पशु-पक्षी सभी होते हैं। आयु सहित शेष बचे चार अघातिया कर्मों के क्षय होने पर वे निर्वाण-मोक्ष प्राप्त कर अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अव्याबाध सुख, अनंतवीर्य, सम्यक्त्व, अगुरुलघु, अवगाहनत्व और सूक्ष्मत्व इन गुणों के धारक सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर माता के आँगन में त्रिकाल में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा प्रतिदिन करता है। इस प्रकार छह महीने पहले से लेकर नौ महीने पर्यंत पन्द्रह महीने तक रत्न और सुवर्ण की वर्षा होती रहती है। अनन्तर गर्भावतरण के प्रसंग में रात्रि के पिछले प्रहर में माता को सोलह स्वप्न दिखते हैं। वह माता प्रातःकाल राजसभा में आकर अपने पतिदेव से उन स्वप्नों का फल पूछती हैं और वे राजा उन स्वप्नों का फल अपने अवधिज्ञान से बतलाते हैं।
सोलह स्वप्न-वे कहते हैं कि हे देवि! सबसे प्रथम ऐरावत हाथी के देखने से तुम्हें उत्तम पुत्र प्राप्त होगा। धवल, उत्तम बैल को देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा। सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त होगा। मालाओं के देखने से समीचीन धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा। लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा। चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा। सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा। दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा। मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा। सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा। समुद्र के देखने से केवली होगा। सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा। देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा। नागेन्द्र का भवन देखने से वह अवधिज्ञान लोचन से सहित होगा। चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्न्िा के देखने से कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर भगवान अपना शरीर धारण करेंगे।
इस प्रकार पतिदेव के वचन सुनकर रानी हर्ष से रोमांचित हो जाती हैं। उस समय भगवान स्वर्ग से अवतीर्ण होकर माता के गर्भ में सीप के सम्पुट में मोती की तरह सब बाधाओं से निर्मुक्त होकर स्थित हो जाते हैं। उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आते हैं और नगर की प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिता को नमस्कार करके संगीत, नृत्य, महोत्सव आदि से अनेकों उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थानों पर वापस चले जाते हैं, उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये षट्कुमारियाँ और दिक्कुमारियाँ माता के समीप रहकर माता की सेवा, स्तुति और तत्त्वगोष्ठियों से माता का मन अनुरंजित करने लगती हैं।
तीर्थंकर का जन्म होते ही इन्द्रों के आसन कम्पित हो जाते हैं, देवों के मुकुट स्वयं झुक जाते हैं, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगती है। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से अपने आप ही घंटा, सिंहनाद, भेरी और शंखों के शब्द होने लगते हैं। इन चिन्ह विशेषों से देवगण भगवान के जन्म को समझ लेते हैं। तीन लोक के नाथ का जन्म होते ही सर्वत्र सुख की लहर दौड़ जाती है।
इन्द्र की आज्ञा पाकर सभी चतुर्निकाय के देवगण और देवों की सेनाएँ स्वर्ग से निकलती हैं। सौधर्म इन्द्र अपनी शचि इन्द्राणी सहित एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी पर चढ़कर आकर नगरी की त्रिप्रदक्षिणा देकर अयोध्या नगरी में पहुँच जाता है। इन्द्राणी द्वारा प्रसूतिगृह से लाये गये जिनबालक का दर्शन कर सौधर्म इन्द्र उसे गोद में लेकर हाथी पर बैठकर सुमेरुपर्वत की ओर प्रस्थान कर देता है। उस समय करोड़ों बाजों की ध्वनि से, नृत्यगीत महोत्सव से सर्वत्र आनंद मंगल हो जाता है। सुमेरु पर्वत पर ईशान कोण की पांडुकशिला पर सिंहासन पर भगवान को विराजमान करके इन्द्र अपनी हजारों भुजाओं के द्वारा हजारों कलशों को एक साथ लेकर जिनबालक का अभिषेक करता है। सभी इन्द्र-देवगण अभिषेक, पूजा, स्तुति आदि से महान् सातिशय पुण्य का बंध कर लेते हैं।
इन्द्राणियाँ भी भगवान का अभिषेक कर पश्चात् भगवान को वस्त्राभरणों से अलंकृत करती हैं। इन्द्र वहीं पर तीर्थंकर का नामकरण कर देते हैं पुनः वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर तांडव नृत्य आदि करके माता-पिता की पूजा करके भगवान की सेवा के लिए समान अवस्था और समान वेष वाले देवकुमारों को निश्चित कर अपने-अपने स्वर्ग को चले जाते हैं। भगवान माता का दूध नहीं पीते हैं किन्तु इन्द्र के द्वारा हाथ के अँगूठे में स्थापित अमृत को पीते हुए-अँगूठे को चूसते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
भगवान अपनी पहली अवस्था में मन्द-मन्द हँसते हुए, देव बालकों के साथ रत्नधूलि में क्रीड़ा करते हुए माता-पिता के आनन्द को बढ़ाते रहते हैं। मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान के धारी होने से समस्त वाङ्मय को प्रत्यक्ष करने वाले सरस्वती के एकमात्र स्वामी भगवान समस्त लोक के स्वयं गुरू कहलाते हैं अतः वे किसी को गुरू नहीं बनाते हैं। भगवान के जन्म से ही दश अतिशय विशेष होते हैं। भगवान के लिए स्वर्ग के रत्नपिटारों से लाई गई भोगोपभोग सामग्री का गृहस्थाश्रम में भगवान उपभोग करते हैं।
किसी निमित्त से या स्वभाव से ही तीर्थंकर को जब वैराग्य होता है—
तब लौकांतिक देव आकर भगवान के वैराग्य की स्तुति करते हुए अपनी भक्ति प्रगट करते हैं। देवों द्वारा लाई गई पालकी पर भगवान आरुढ़ होते हैं और पहले राजागण अनन्तर विद्याधर मनुष्य उस पालकी को ले जाते हैं पश्चात् देवगण पालकी को दीक्षावन तक ले जाते हैं। वहाँ शुद्ध शिला पर भगवान विराजमान होकर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्वपरिग्रह त्याग करके ‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः’ कहते हुए दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भगवान के केशों को इन्द्रगण रत्नपिटारे में रखकर बड़े आदर से क्षीरसमुद्र में क्षेपण करते हैं। भगवान केवलज्ञान प्रकट होने तक छद्मस्थ अवस्था में मौन रखते हैं।
जब भगवान के ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाश हो जाता है—
तब उन्हें तीन लोक और अलोक को स्पष्ट एक समय में प्रत्यक्ष दिखलाने वाला ऐसा केवलज्ञान-पूर्णज्ञान प्रकट हो जाता है। उस समय भगवान का आकाश में पाँच हजार धनुष ऊपर गमन हो जाता है। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। इस भूमि से एक हाथ ऊँचाई से समवसरण की सीढ़ियाँ प्रारंभ हो जाती हैं जो कि एक-एक हाथ प्रमाण की बीस हजार रहती हैं। इन सीढ़ियों को सभी अंधे, लंगड़े, बालक, वृद्ध, रोगी एक अन्तर्मुहूर्त में पार कर लेते हैं।
समवसरण में सबसे पहले धूलिसाल कोट है, उसके बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जल से भरी हुई परिखा है, फिर पुष्पवाटिका-लतावन है, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे और दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएं हैं, उसके आगे दूसरा अशोक आदि का वन है, उसके आगे वेदिका है, तदनंतर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके आगे स्तूप और स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएं हैं, तदनन्तर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान अरहंत देव विराजमान रहते हैं। अरहंत देव स्वभाव से ही पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुखकर जिस समवसरण भूमि में विराजमान होते हैं उसके चारों ओर प्रदक्षिणारूप से क्रमपूर्वक बारह गणों के बैठने योग्य बारह सभाएँ होती हैं।
केवलज्ञान प्रकट होने पर तीर्थंकर भगवान को दश अतिशय और प्रकट हो जाते हैं तथा देवों द्वारा किये गये १४ अतिशय प्रकट हो जाते हैं। भगवान के आठ प्रातिहार्य होते हैं तथा चार अनन्त चतुष्टय भी प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान बहुत काल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते हैं।
अनन्तर योग निरोध कर शेष अघातिया कर्मों का भी नाश कर मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। वहाँ अनन्तानन्तकाल तक स्वात्मजन्य सुख का अनुभव करते रहते हैं।