जैनधर्म की प्राचीनता और स्वतंत्रता के विषय में समय-समय पर अदालतों में पेश किए गए देश की उच्चतम एवं प्रदेशों की उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों ने निष्पक्ष होकर जैनधर्म के बारे में जो अपने सटीक निर्णय प्रस्तुत किए थे उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ दी जा रही है—
१९२७—मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा, १९२७ मद्रास २२८ मुकदमे के निर्णय में ‘जैनधर्म को स्वतंत्र’ प्राचीन व ईसा से हजारों वर्ष पूर्व का माना।’
१९३९—बम्बई उच्च न्यायालय ने बम्बई ३७७ मुकदमे के निर्णय में कहा कि ‘जैनधर्म वेदों को स्वीकार नहीं करता है, श्राद्धों को नहीं मानता है व अनुसंधान बताते हैं कि भारत में जैनधर्म ब्राह्मण धर्म से पहले था।’
बम्बई सरकार ने १९ अगस्त, १९४८ की अपनी अधिसूचना में इस तथ्य को स्वीकार किया कि ‘यद्यपि जैनों पर हिन्दू लॉ लागू है परन्तु जैनों को हिन्दुओं के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता।
१९५१—बम्बई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एम. सी. छगला और न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर ने याचिका ९१/१९५१ पर यह निर्णय दिया कि ‘हरिजनों को जैनों के मंदिरों में प्रवेश करने का कोई अधिकर नहीं है क्योंकि वे हिन्दू मंदिर नहीं हैं। यह विदित है कि जैन हिन्दुओं से भिन्न मतावलम्बी हैं।’
१९५४—उच्चतम न्यायालय ने १९५४ /२८२ के निर्णय में माना कि ‘भारत में जैनधर्म व बौद्ध अपनी पहचान रखते हैं व वैदिक धर्म से भिन्न हैं।’
१९५८—उच्चतम न्यायालय ने केरल शिक्षा बिल मामले में कहा कि ‘जैन समाज अल्पसंख्यकता प्राप्त करने के लिए उपयुक्त हैं।’
१९६३—उच्चतम न्यायालय ने ६४३ (५०/ १०१) के निर्णय में कहा था हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई व जैनों में ब्राह्मण, बनिया व कायस्थ समुदाय के अलावा सभी समुदायों को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े माना गया है।
१९६८-कलकत्ता उच्च न्यायालय ने १९६८ कलकत्ता ७४ के निर्णय में कहा है कि जैन हिन्दू नहीं हैं केवल उनके पैâसले हिन्दू लॉ के अनुसार किए जाते हैं।
१९६८—कलकत्ता उच्च न्यायालय ने ७४ (१४) के निर्णय में ‘जैनों को हिन्दू नहीं माना।’
१९७५—उच्चतम न्यायालय ने १९७५ (९६) के निर्णय में जैनों को दिल्ली में अपने शिक्षण संस्थानों का प्रबंधन करने का निर्णय दिया था।
१९७६—दिल्ली उच्च न्यायालय ने १९७६ दिल्ली २०७ के निर्णय में कहा था संविधान का अनुच्छेद २५-जैनों को स्वतंत्र रूप से मानता है जो कि सर्वोच्च नियम है।
१९९३—उच्चतम न्यायालय ने बाबरी मस्जिद मुकदमे के निर्णय में (१९९३, १९५४) जैनधर्म को अन्य अल्पसंख्यक धर्म की तरह हिन्दूधर्म से भिन्न माना था।
२००३—उच्चतम न्यायालय ने २००३/७२४ में कहा कि ‘राष्ट्रीय गान में जैनों को पृथव्â रूप से दिखाया गया है।’
२००६—भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस. बी. सिन्हा और श्री दलबीर भण्डारी की खण्डपीठ ने अपने एक पैâसले में कहा कि ‘यह अविवादित तथ्य है कि जैनधर्म हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है’।
प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकारों ने समाज एवं मनुष्य को व्यवस्थित और नियंत्रित रखने के लिए जिन मान्य परंपराओं, प्रथाओं तथा विधानों को लिपिबद्ध किया है, उन्हीं नियमों को विधि और कानून की संज्ञा प्रदान की गयी। इन विधिक सिद्धांतों को राज्य संस्था द्वारा स्वीकृत किया गया। इसी कारण इनके अनुपालन के लिए राज्यशक्ति का प्रयोग आवश्यक हुआ। वैदिक युग से ही विधि एवं विधिक संस्थाओं की स्थापना प्रारंभ हो गयी थी। वैदिक साहित्य में विधि द्वारा न्याय करने के संकेत मिलते हैं। उत्तर वैदिक काल में धर्मशास्त्रों, सूत्रसाहित्यों तथा स्मृतिग्रंथों में विभिन्न प्रकार से विधि का स्वरूप निर्मित हुआ। सूत्र साहित्य में विधि का मुख्य आधार वेदों को ही माना गया। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार धर्म व्यवस्था के मूल स्रोत वेद हैं तथापि इतिहास, स्मृति और आचार से भी धर्म व्यवस्था का बोध होता है।
वैदिक युग में वरुण को प्रशासन और न्याय का अधिष्ठातृ देवता कहा गया है, जिसके प्रतिनिधि के रूप में राजा इस लोक में राज्य करता है, जो पापियों को दण्ड देता है और सज्जनों की रक्षा करता है। महावीर चरित नाटक में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रजाजनों के विरुद्ध आचरण करता है और जान-बूझकर पाप और अपराध करता है, उसको राजा अवश्य दण्ड देता है। प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था उन व्यक्तियों द्वारा निर्मित की गयी थी, जो समस्त जीवन का अनुभव प्राप्त किये हुए मनुष्य की चरम अवस्था को प्राप्त कर, सांसारिक जीवन के स्वार्थों से निर्लिप्त थे और जो समाज की व्यवस्था-निर्माण के लिए सबसे अधिक योग्य थे। यह व्यवस्था ‘आप्त’ वाक्यों के रूप में श्रुति—साहित्य; वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में दी गयी थी और आगे चलकर जिनका स्पष्टीकरण नियमों तथा उपनियमों के रूप में स्मृतियों, धर्मसूत्रों तथा वेदांगों आदि में किया गया था।
भारतीय विचारकों तथा समाज व्यवस्थापकों की धारणा थी कि राजतंत्रात्मक, गणतंत्रात्मक या कुलीनतंत्रात्मक किसी भी राज्य का अधिकार जिन लोगों के पास रहता है वे सांसारिक दृष्टि से महत्त्वाकांक्षी होते हैं और अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अथवा अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे समस्त उपायों या युक्तियों व्ाâो करने के लिए तत्पर रहते हैं, वे निष्पक्ष और निर्लिप्त रूप में सांसारिक जीवन के संघर्षों और स्वार्थों से ऊपर उठकर विचार कर ही नहीं सकते अत: ऐसे व्यक्तियों के हाथों में समाज के नियम बनाने का अधिकार देना उन्हें मान्य नहीं था। यही कारण है कि समाज के नियम तथा उन नियमों के स्पष्टीकरण के अधिकार के लिए ‘परिषद्’ नाम की एक संस्था का निर्माण किया गया। ‘परिषद्’ के विषय में मनुस्मृति में कहा गया है कि इस स्मृति में बताये गये धर्म के विषय में यदि कोई शंका हो तो जिस नियम को शिष्ट ब्राह्मण मान्यता दे उसी को शंकारहित होकर धर्म समझना चाहिये अथवा दस या तीन श्रेष्ठ ब्राह्मण की ‘परिषद्’ में धर्म का निर्णय होना चाहिए। याज्ञवल्क्य व पाराशरस्मृतियों तथा गौतमधर्मसूत्र में भी परिषद् के संबंध में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये गये हैं कि धर्म-संशय के निर्णय के लिए तीन व्यक्तियों की परिषद् में ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता ही रहने चाहिए। समाज व्यवस्था के नियमों का समावेश सर्वप्रथम धर्मशास्त्रों; जिनके अन्तर्गत श्रुति, स्मृति, इतिहास-पुराण आदि आते हैं; में किया गया; इनमें राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, वैयक्तिक, शैक्षिक, वैवाहिक आदि सभी प्रकार के नियमों का समावेश किया गया था। इस दृष्टि से धर्मशास्त्रों के नियम भी विधि के रूप में मान्यता रखते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि राज्य कोई नियम ही नहीं बना सकता था। राज्य की आज्ञा द्वारा जो नियम लागू किये जाते थे, उन्हें ही ‘राज्यानुशासन’ कहा गया है। कौटिल्य ने विधि के चार स्रोतों का वर्णन करते हुए कहा है कि धर्म, व्यवहार, चरित्र और राज्यानुशासन व्यवहार के चार पद हैं। इनमें धर्म सत्य में, व्यवहार साक्षियों पर, चरित्र मनुष्यों के संग्रह में और राज्यानुशासन राज्य की आज्ञा में स्थित है।
व्यवहार का अर्थ पारस्परिक विवाद के विविध संदेहों को हरण करने के साधन से है। व्यवहार के नियम धर्मसम्मत होते थे। शुक्रनीति और याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है कि स्मृतियों और आचार के उल्लंघन से यदि कोई दूसरों द्वारा पीड़ित हो और वह राजा के यहाँ आवेदन करे, तो वह क्रिया व्यवहार पद है। प्राचीन भारतीय मनीषियों एवं राजनैतिक िंचतकों ने राज्य संरचना एवं समाज संरचना में ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया कि सभी प्रकार की विधियों का निर्णय उपयुक्त व्यक्तियों द्वारा हो, जो उन नियमों की भावनाओं को ठीक प्रकार से समझ सकें और जो उन नियमों के प्रयोग में अधिकृत रीति से बोल सकें।
इनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने धर्म का उल्लंघन कर अन्य व्यक्तियों को कष्ट अथवा हानि पहुँचाता है, जो समाज में कलह और द्वेष भावना की वृद्धि का कारण बन जाता है, उस द्वेष और कलह की भावना को रोकने के लिए प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने न्याय व्यवस्था का विधान किया था। राज्य एवं शासन-संस्था के विकास के साथ-साथ प्राचीन काल में न्याय व्यवस्था का भी समुचित विकास हुआ। सर्वमान्य जनता को अराजक स्थिति से मुक्ति दिलाने तथा सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए एक सुव्यवस्थित शासनपद्धति ने जन्म लिया। इस व्यवस्था के लिए आवश्यक था कि सामान्य जन भी परस्पर न्यायोचित व्यवहार कर राज्य के नियमों का पालन करें। प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था और प्रशासन के दो मुख्य उद्देश्य थे। पहला सत्य का ज्ञान करना और दूसरा न्याय से सम्बन्धित वादों के नियमों का पालन करना और कराना। राजा की तुलना एक शल्यचिकित्सक से करते हुए कहा गया है कि वह आवश्यकता पड़ने पर अंगच्छेदन भी करता है। न्यायालय विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों, नियुक्तों-अनियुक्तों एवं चरों आदि से सत्य की जानकारी प्राप्त करके ही विधि का कार्यान्वयन करता है क्योंकि सत्य का ज्ञान प्राप्त करना ही न्याय का मुख्य उद्देश्य है।
न्यायाधीशों पर भी विधि के अतिरिक्त अन्य कोई दबाव नहीं था। कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्षेत्र अलग-अलग निर्धारित थे। यद्यपि दोनों का अध्यक्ष एक ही होता था। न्यायिक प्रशासन में समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का विशेष प्रभाव था और न्यायिक प्रशासन भी सामाजिक परिवर्तनों को स्वीकार करता था। अश्वघोष के अनुसार न्याय का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र में सुख और समृद्धि का प्रसार करना था, ताकि सबल व्यक्ति दुर्बलों को न सताने पाए। दण्ड्य व्यक्ति दण्ड से मुक्त न हो और अदण्ड्य व्यक्ति दण्डित न हो। प्राचीन भारत में राज्य प्रशासन का महत्त्व न्यायिक प्रशासन में अधिक नहीं था और वह स्वयं ऐसा कोई आदेश नहीं कर सकता था जो देशदृष्ट एवं शास्त्रसम्मत नियमों के विरुद्ध हो। स्वाभाविक रूप से प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे निर्देश विद्यमान हैं, जिनसे पता चलता है कि स्वयं राजा भी विधि के अधीन था और न्याय से ऊपर नहीं था। अपराध सिद्ध हो जाने पर राजा भी दण्डित होता था। मनुस्मृति में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है कि जिस अपराध के लिए साधारण व्यक्ति को एक कार्षापण का दण्ड दिया जाए, उसके लिए राजा को एक सहस्र कार्षापण का दण्ड दिया जाना चाहिए।
राजा को ‘न्याय का आस्पद’ कहा गया है। न्याय करना राजा के पद का कर्त्तव्य माना गया है। भास के अनुसार राजा दुष्टों को दण्ड देकर प्रजा के पारस्परिक विवादों को शान्त कर राज्य में शांति स्थापित करता है। मालविकाग्निमित्र में राजा अग्निमित्र प्रजा को न्याय देने में संलग्न बताया गया है। राजा के लिए सबसे बड़ा यज्ञ उचित न्याय की व्यवस्था मानी गयी है, यही कारण है कि वह समाज और विधि की मर्यादाओं के अंतर्गत रहकर न्याय का आयोजन करता था। राजा का कर्त्तव्य था कि अपराधी को दण्ड मिले तथा निरपराध व्यक्ति दण्डित न होने पाये। बुद्धचरित में अश्वघोष ने राजा शुद्धोधन की धर्मनिष्ठा और कर्त्तव्यपरायणता का उल्लेख करते हुए कहा है कि राजा अपराध करने वालों को दण्ड देता था, यद्यपि उसे क्षमा का भी अधिकार था किन्तु अपराधियों को छोड़ा नहीं जाता था। निष्पक्ष न्याय करने वाले राजा को वही फल मिलता है जो पवित्र यज्ञ करने से प्राप्त होता है। निरपराधियों को दण्ड देने वाले राजा के लिए न केवल नरक का भय था अपितु प्रजा भी उसके प्रति विद्रोह कर सकती थी। राज द्वारा न्याय के नियमों का पालन न करने पर राज्य में क्रांति का भी भय हो सकता था। राजा स्वयं समस्त राज्य के विवादों का निर्णय नहीं कर सकता था अत: ग्रामस्तर से लेकर राष्ट्रस्तर तक के न्यायालयों की स्थापना करके उनमें न्यायाधीशों की नियुक्ति करता था किन्तु अन्तिम निर्णय राजा का ही मान्य होता था। राजा ही न्याय का अंतिम उत्तरदायी था। राजा कर्त्तव्यानुसार राजसभा में स्वयं उपस्थित होकर समस्त विवादों का निर्णय करता था। उत्तररामचरित में भवभूति ने राजा को धर्मासन पर बैठकर स्वयं न्याय करते हुए बताया है।
राज्यों के विस्तार और साम्राज्यों की स्थापना के साथ-साथ न्याय का क्षेत्र भी बढ़ गया था। समस्त विवादों का समाधान राजा द्वारा किया जाना संभव नहीं था अत: राजा न्याय-निर्णय हेतु अमात्यों, पुरोहितों और न्याय सभा की सहायता लेने लगे थे। प्राचीन भारतीय विधिशास्त्रों में राजा द्वारा न्यायनिष्पादन हेतु न्यायालयों की स्थापना का सिद्धान्त मान्य था। प्राचीन भारतीय साहित्य में इनको ‘अधिकरण’ कहा गया है। स्मृति साहित्य में इन न्यायालयों के लिए धर्मस्थान, धर्मासन, धर्माधिकरण आदि शब्द प्रयुक्त किये गये हैं। मृच्छकटिक में इनको व्यवहार मण्डप और अधिकरण मण्डप नामों से अभिहित किया गया है। व्यवहार प्रकाश में पृथ्वीचन्द ने वात्स्यायन के मत को उद्धृत करते हुए न्यायालय को धर्माधिकरण शब्द से संबोधित किया है क्योंकि वहाँ धर्मशास्त्रों के आधार पर ही विवादों का निर्णय किया जाता था। प्राचीन साहित्य में स्थूल रूप में दो प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख मिलता है—१. राज न्यायालय, २. अन्य न्यायालय।
अन्य प्रकार के न्यायालयों को क्षेत्रीय न्यायालय कहा जा सकता है, जो क्रमानुसार छोटे-बड़े स्तर के होते थे। राज न्यायालय के भी दो रूप थे—एक में मुख्य न्यायाधीश के रूप में राजा स्वयं उपस्थित होता था, दूसरे प्रकार के न्यायालयों के लिए वह किसी योग्य व्यक्ति को न्यायाधीश नियुक्त कर देता था। अन्य न्यायालयों में कुल, श्रेणी, पूग एवं गण आदि के अपने न्यायालय थे, जिन्हें केवल सीमित क्षेत्र में ही न्याय करने का अधिकार प्राप्त था। एक ही प्रकार की वृत्ति करने वाले राज्यसम्मत व्यापारिक संगठनों को श्रेणी कहा जाता था। राजा द्वारा श्रेणियों को नियमों, परम्पराओं आदि के अनुसार अपने स्वयं के विवादों को सुलझाने हेतु मान्यता प्रदान की गयी थी। इन श्रेणियों अथवा संघों के नियमों को राजकृत नियमों के समान ही मान्यता प्राप्त थी। ये संघ स्वयं अपने विवादों को हल करते थे तथा अयोग्य और भ्रष्ट कर्मचारियों को दण्ड देते थे। यदि श्रेणीप्रमुख दुर्भावना अथवा घृणावश किसी व्यक्ति के साथ अन्याय करता था तो राजा उसे दण्डित करने का अधिकारी था क्योंकि श्रेणी प्रमुख राजा से ही अधिकार प्राप्त करके न्याय करते थे। चाणक्य ने दो प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख किया है—धर्मस्थीय और कण्टकशोधन। धर्मस्थीय न्यायालयों के न्यायाधीशों को धर्मस्थ और कण्टकशोधन न्यायालयों के न्यायाधीश को प्रदेष्टा नाम से अभिहित किया गया है। राजकीय न्यायाधिकरणों के अतिरिक्त विभिन्न विभागों के अपने प्रशासनिक न्यायाधिकरण भी होते थे, जिन्हें अपने विभागों के अधिकारियों के मामलों में विवादों के निस्तारण का अधिकार था। एक वेश्या द्वारा अपनी पुत्री को आधे पण के लिए कुमारामात्य के अधिकरण में ले जाने का उल्लेख श्यामिलक के पादताडितक नामक भाण में प्राप्त होता है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय विशेष सतर्कता बरती जाती थी। इसके लिए यह आवश्यक था कि वह व्यक्ति गुणसंपन्न, योग्य, उदार, कुलीन, उद्वेगरहित, स्थिर, क्रोध रहित और धर्मनिष्ठ होना चाहिए। न्यायाधीश के लिए धर्मशास्त्रों का ज्ञाता होने के साथ-साथ चरित्रवान होना भी आवश्यक था। मत्तविलास प्रहसन के अनुसार उसे कुटिलतारहित, स्थिरस्वभाव, कोमलवृत्ति, उत्तम कुल में उत्पन्न तथा आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता, दण्डनीति, श्रुति, स्मृति आदि में पारंगत होना चाहिए। व्यवहारप्रकाश के अनुसार न्यायाधीश ब्राह्मण वर्ण का होना चाहिये, योग्य ब्राह्मण के न मिलने पर क्षत्रिय या वैश्य को भी न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है किन्तु शूद्र को किसी भी अवस्था में न्याय संबंधी कार्य में नहीं लगाया जा सकता।
न्याय के इच्छुक वादी को अपनी याचिका के साथ न्यायालय में उपस्थित होना पड़ता था। न्यायालय में प्रस्तुत मुकदमों को ‘व्यवहार’ तथा व्यवहार के लिए आने वाले व्यक्ति को ‘अभ्यर्थी ’ कहा जाता था। याचिकाओं को प्रस्तुत करने के विशेष नियम थे। याचिका लिखित रूप में शुद्ध और संक्षिप्त होनी आवश्यक थी। याचिका के अशुद्ध होने पर वादी की याचिका अमान्य कर दी जाती थी। याचिका में सभी तथ्यों का समावेश तथा वह दायें हाथ से न्यायालय में प्रस्तुत की जाये, इस प्रकार का विवरण युक्तिकल्पतरु तथा नारदस्मृति में दिया गया है। जो व्यक्ति; जैसे स्त्री, बालक, वृद्ध, अनाथ, रुग्ण अथवा जिन व्यक्तियों को न्यायालय में उपस्थित होने की छूट थी, जैसे—देव, ब्राह्मण, ऋषि, तपस्वी आदि; शारीरिक रूप से स्वयं उपस्थित होने में असमर्थ होते थे, उनके पक्ष को राजकर्मचारी प्रस्तुत कर सकता था। अभ्यर्थी की याचिका प्रस्तुत होने पर प्रतिवादी अथवा प्रत्यर्थी को उसकी सूचना भेजी जाती थी। यह कार्य श्रावणिक नामक कर्मचारी द्वारा संपन्न किया जाता था। निर्धारित सुनवाई के दिन धर्मासनिक के आदेश पर श्रावणिक वादी तथा प्रतिवादी को पुकारता था तथा वाद पर सुनवाई प्रारंभ होती थी। न्यायाधीश दोनों पक्षों को सुनकर एवं न्यायसभा के सदस्यों के परामर्श करने के उपरांत या तो स्वयं निर्णय देता था अथवा महत्त्वपूर्ण विवादों को राजा के निर्णय के लिए सुरक्षित रख लेता था। किसी भी ‘व्यवहार’ पर अंतिम निर्णय का अधिकार राजा के पास सुरक्षित होता था। मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि चारुदत्त बसन्तसेना की हत्या का अपराधी था। अपराध के प्रमाणित होने पर न्यायाधिकरण द्वारा देश निर्वासन के दण्ड की संस्तुति की गयी थी परन्तु राजा ने इस संस्तुति को अमान्य करते हुए चारुदत्त को मृत्युदण्ड दिया।
तदनुसार व्यवहारमण्डप के मुख्य द्वार पर एक दौवारिक या द्वारपाल नियुक्त रहता था, जो दण्डनायक की अनुमति पाने पर पूछता था कि कौन लोग कार्यार्थी हैं अर्थात् मुकदमा दायर करना चाहते हैं। उसके उपरांत वादी न्यायालय में अपना वाद प्रस्तुत करता था। तदुपरांत न्यायालय से सूचना मिलने पर प्रतिवादी निश्चित तिथि पर उपस्थित होकर अपना पक्ष रखता था। न्यायालय द्वारा वाद के पक्ष में प्रमाण माँगा जाता था और सम्बन्धित पक्षों की गवाही भी ली जाती थी। तपस्वी, दानशील, कुलीन, सत्यवादी, पुत्रवान्, धर्मनिष्ठ तथा धनी व्यक्तियों का साक्ष्य उचित माना जाता था। स्त्री, बालक, वृद्ध, पाखण्डी, उन्मत्त (पागल), लूले एवं लँगड़े व्यक्ति गवाही के योग्य नहीं माने जाते थे। न्यायालयों में वादी-प्रतिवादी तथा गवाहों को शपथ लेनी होती थी—ब्राह्मण को सत्य, क्षत्रिय को वाहन या आयुध, वैश्य को गाय, बीज अथवा सुवर्ण तथा शूद्र को समस्त पापों से शपथ लेनी पड़ती थी। झूठी शपथ लेना िंनदनीय भी था और अपराध भी।
प्राचीन समय में दो प्रकार के साक्ष्य प्रचलित थे—मौखिक साक्ष्य और लिखित साक्ष्य। वादी और प्रतिवादी अपने-अपने कथनों को सिद्ध करने के लिए मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत करते थे। साक्ष्य देने से पूर्व साक्षी को सत्य बोलने की शपथ ग्रहण करनी होती थी। न्यायालय द्वारा बुलाये जाने पर साक्षी का न्यायालय में उपस्थित न होना दण्डनीय अपराध था, जिसके लिए अर्थ दण्ड का प्रावधान था। मौखिक साक्ष्य की अपेक्षा लिखित साक्ष्य को अधिक प्रामाणिक माना जाता था। साक्ष्य में उभय पक्ष के हस्ताक्षर न होने पर उसे प्रमाणित नहीं माना जाता था। लिखित साक्ष्य चार वर्गों में विभाजित थे—स्वहस्तलिखित, अन्यहस्तलिखित, लौकिक तथा राजकीय मुद्रा से अंकित। लौकिक साक्ष्यों के अभाव में दिव्य साक्ष्यों की व्यवस्था की गयी थी। मृच्छकटिक में चार प्रकार के दिव्य साक्ष्यों अथवा परीक्षाओं का उल्लेख आया है—विष, जल, तुला और अग्नि के माध्यम से परीक्षा जो वर्णाश्रित थीं। ब्राह्मण, बालक, वृद्ध, अन्धे तथा रुग्ण व्यक्ति के लिए तुला परीक्षा, क्षत्रियों के लिए अग्नि, वैश्यों तथा शूद्रों के लिए विष परीक्षा लिये जाने की जानकारी प्राप्त होती है। हनुमन्नाटक में सीता की अग्नि परीक्षा का उदाहरण है। अपने सतीत्व को प्रमाणित करने के लिए सीता अग्नि में कूद गयी थी परन्तु अग्नि उसको जला नहीं सकी।
प्राचीन भारत में यद्यपि न्याय व्यवस्था अत्यधिक सरल, सुव्यवस्थित एवं पक्षपातरहित थी तथापि चौथी शताब्दी ई. तक आते-आते उसमें पक्षपात एवं भ्रष्टाचार प्रारंभ हो गया था। मृच्छकटिक में विवरण आया है कि राजा का साला शकार, चारुदत्त पर न्यायालय में बसन्तसेना की हत्या करने का अभियोग प्रस्तुत करते समय, न्यायाधीश को राजा का भय दिखाकर प्रभावित करने का प्रयास करता है। पादताडितक भाण से ज्ञात होता है कि उस समय न्याय व्यवस्था काफी पंगु हो गई थाr उसमें भ्रष्टाचार तथा पक्षपात व्याप्त हो गया था। इस संबंध में एक उदाहरण मिलता है कि मदयन्ती नामक एक वेश्या, उपगुप्त से आधा पण धन के लिए न्यायालय की शरण में गयी थी। ये विवरण भी मिलते हैं कि मुकदमा सुनते समय प्राड्विवाक विष्णुदास ऊँघता रहता था और न्यायालय के अधिकारी, पुस्तपाल, कायस्थ, काष्ठक और महत्तर रिश्वत माँगते थे। यह सब भ्रष्टाचार और अव्यवस्था देखकर उपगुप्त ने सोचा कि रिश्वत देने से अच्छा तो यही है कि वेश्या को ही धन दे दिया जाये। मत्तविलासप्रहसन’ से भी यही संकेत मिलता है कि न्यायालय के कर्मचारी रिश्वत लेकर न्याय के विपरीत निर्णय दे देते थे।
प्राचीन भारतीय साहित्य से जानकारी प्राप्त होती है कि न्यायाधीशों के अतिरिक्त न्याय प्रक्रिया में सहायता प्रदान करने हेतु विभिन्न कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी यथा—धर्माधिकारी, प्राड्विवाक, सभ्य, पुरोहित, ग्रामणी, कायस्थ, पुस्तपाल, काष्ठक, महत्तर, बलदर्शक, श्रावणिक, कालपाशिक, दण्डपाशिक, घातक आदि जिनका विवरण अधोदत्त है—
धर्माधिकारी—
न्याय आसन पर बैठने वाले व्यक्ति को धर्मासनिक, धर्मस्थल, धर्माधिकारी आदि पदों से अभिहित किया जाता था। अर्थशास्त्र में कण्टकशोधन न्यायालयों के न्यायाधीशों को प्रदेष्टा, मानसोल्लास में उन्हें धर्माधिकारी तथा मृच्छकटिक में आधिकरणिक कहा गया है। धर्मशास्त्रों और राजनीतिपरक ग्रंथों में न्यायाधीशों के पद के लिए ‘धर्मवेत्ता’ शब्द प्रयुक्त करते हुए कहा गया है कि धर्माध्यक्ष या धर्माधिकारी, कुलीन, शीलवान्, गुणसंपन्न, सत्यवादी, धर्मपरायण, चतुर, प्रज्ञासंपन्न और दक्ष होना चाहिए।
प्राड्विवाक—
राजा को धर्मनिर्णय में सहायता देने के लिए जिस न्यायाधीश अथवा मंत्री की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है उसे प्राड्विवाक नाम दिया गया है। न्यायाधीश विवादियों से प्रश्न करने के कारण ‘प्राड्’ तथा विवेक के अनुसार निर्णय करने के कारण ‘विवाक’ कहलाता था। दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण इस अधिकारी को प्राड्विवाक कहते थे। कार्याधिक्य के कारण न्यायिक व्यवस्था में अधिक समय न देने के कारण राजा प्रधान न्यायाधीश के रूप में प्राड्विवाक की नियुक्ति करता था। प्राड्विवाक राजा के स्थानापन्न न्यायिक कार्य संपन्न करता था। वीरमित्रोदय में प्रधान न्यायाधीश को वक्ता और राजा को शासक कहा गया है। प्राचीन साहित्य में मुख्य न्यायाधीश की योग्यता पर अत्यधिक ध्यान दिया गया है। प्राड्विवाक को विद्वान्, कुलीन, वृद्ध, प्रज्ञासंपन्न और धर्म के प्रति जागरुक आदि गुणों से संपन्न होना आवश्यक माना गया है। प्राड्विवाक मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी अथवा मंत्री भी होता था, जिसकी सहायता के लिए सात, पांच अथवा तीन सभ्यों की नियुक्ति की जाती थी।
सभ्य—
प्राड्विवाक के न्यायालय, जिसमें कभी-कभी स्वयं राजा भी उपस्थित होकर निर्णय घोषित करता था; को ‘सभा’ तथा उस सभा के सदस्यों को ‘सभ्य’ कहा गया है। प्रधान न्यायाधीशों के साथ कम से कम तीन विद्वान् ब्राह्मण सभ्यों को सहायक के रूप में नियुक्त किया जाता था। प्राड्विवाक सभ्यों के साथ सभा की कार्यवाही संपन्न करता था। राजा सभाभवन में प्राड्विवाक, अमात्य, ब्राह्मण, पुरोहित और अन्य सभ्यों के साथ प्रवेश कर न्यायिक प्रक्रिया संपन्न करता था। सभ्य, राजा द्वारा नियुक्त किये जाते थे किन्तु वे राजा के स्थान पर धर्मशास्त्रों के प्रति उत्तरदायी थे। राजा को न्याय तथा कर्त्तव्य मार्ग पर लाना सभ्यों का परमदायित्व था। धर्मशास्त्रों में मुख्य न्यायाधीश तथा सभ्यों के विषय में कहा गया है कि सभ्य यथासंभव ब्राह्मण, धार्मिक, नि:स्वार्थी तथा चरित्रवान् होने चाहिए।
पुरोहित—
न्यायिक प्रक्रिया के दौरान राजा के साथ पुरोहित का होना सदैव अनिवार्य था। राजा सभ्यों के साथ परामर्श करने के उपरांत अन्त में पुरोहित से ही निर्णय की घोषणा करता था। न्यायिक प्रशासन में पुरोहित राजा के कार्यों, व्यवहार एवं निर्णय के निरीक्षणकर्ता के रूप में कार्य करता था। न्यायिक प्रक्रिया के समय यदि राजा उपस्थित होता था तो उस समय पुरोहित का स्थान प्राड्विवाक से भी महत्त्वपूर्ण हो जाता था लेकिन दोनों पद अलग-अलग थे। कौटिल्य ने माना है कि न्यायाधीश एवं अन्य कर्मचारियों के न्याय संबंधी कार्यों के निरीक्षण का अधिकार पुरोहित को होना चाहिये, यद्यपि पुरोहित का न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप अधिक नहीं था। रामायण में भी यह कार्य हेय दृष्टि से देखा गया है क्योंकि उस समय उसका विशेष संबंध ‘प्रायश्चित्त’ से ही रह गया था।
ग्रामणी—
न्यायिक प्रशासन में ग्रामणी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। ग्रामणी की नियुक्ति सीधे राजा द्वारा की जाती थी। प्राचीन भारतीय साहित्य में राजकर्मचारी के रूप में ग्रामणी को अनेक न्यायिक एवं प्रशासकीय अधिकारों से युक्त माना गया है। व्यवहार विधि में विवाद के निर्णय में उसे महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त थे। ग्रामणी का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं था।
कायस्थ एवं पुस्तपाल—
न्यायिक प्रक्रिया में कायस्थ नामक कर्मचारी का उल्लेख भी प्राचीन साहित्य में मिलता है। कायस्थ शब्द का अर्थ है—काये न्यायालये तिष्ठति इति कायस्थ: अर्थात् जो ‘काय’ अर्थात् न्यायालय में बना रहता है। कायस्थ का प्रमुख कार्य अभ्यर्थी अथवा याची की याचिकाओं को लेकर, न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करना होता था, साथ ही वह व्यवहार मुकदमों के सभी तथ्यों को लेखबद्ध कर उनका रिकार्ड रखता था। कायस्थ की नियुक्ति न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य विभागों में भी होती थी। कायस्थ मुख्यत: लेखन कार्य से संबंधित कर्मचारी था, जो सभी विभागों की कार्यवाही को क्रमबद्ध एवं लिपिबद्ध करता था।
कायस्थ के अतिरिक्त न्यायालय प्रक्रिया में पत्रजात, फाइल और अन्य अभिलेखों को सुरक्षित रखने का कार्य पुस्तकाल नामक कर्मचारी द्वारा किये जाने का उल्लेख मिलता है।
अन्य न्यायिक कर्मचारी—
न्यायालय में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कर्मचारी ‘काष्ठक महत्तर’ होता था। जिसके हाथ में एक दण्ड रहता था। यह राजदण्ड के प्रतीक के रूप में न्यायाधीश के साथ उपस्थित रहता था। ‘श्रावणिक’ नामक कर्मचारी मुकदमों के समय वादी तथा प्रतिवादी को पुकारने तथा उन्हें न्यायालय के आदेश पहुँचाने का कार्य करता था। ‘बलदर्शक’ न्यायालयों के निर्णयों, विशेष रूप से ऋण संबंधी निर्णयों का पालन करता था। न्यायालय द्वारा दिये गये दण्ड को कार्यान्वित करने का कार्य ‘कालपाशिक’ नामक कर्मचारी द्वारा किया जाता था। फौजदारी मुकदमों में निर्णय होने पर दण्ड देने की व्यवस्था का कार्य ‘दण्डपाशिक’ नामक कर्मचारी द्वारा किया जाता था। मृत्युदण्ड ‘घातक’ अथवा ‘बोधिक’ नामक कर्मचारी द्वारा दिया जाता था। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में विवरण मिलता है कि राजा के न्याय करने वाले कुछ अधिकारी भ्रमण करते हुए यह देखते थे कि प्रजा निर्विघ्न रूप से कार्य कर रही है अथवा नहीं। अपराधी का पता लगाने के लिए गुप्तचरों या गूढपुरुषों की सहायता भी ली जाती थी।