जो कर्म शत्रुओं को जीत लेते हैं वे ‘जिन’ कहलाते हैं। यथा ‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’ तथा ये जिनदेव जिनके आराध्य देव हैं वे ‘‘जैन’’ कहलाते हैं-‘जिनो देवतास्येति जैन:’।
धर्म की व्युत्पत्ति है-‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’ जो प्राणियों को स्वर्ग-मोक्षरूप उत्तम सुख में ले जाकर धरे-पहुँचावे, वही सर्वोत्तम धर्म है और वह धर्म अहिंसामय ही है।
श्री गौतमस्वामी-इन्द्रभूति गणधर देव ने कहा है-
धर्म: सर्वसुखाकरो हितकरो धर्मं बुधाश्चिन्वते।
धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नम:।।१।।
धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया।
धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म!मां पालय१।।२।।
धर्म सम्पूर्ण सुखों की खान है और हितकारी है, विद्वान् जन धर्म का संचय करते हैं, धर्म से ही मोक्ष सुख प्राप्त होता है ऐसे धर्म के लिए मेरा नमस्कार हो। संसारी जीवों के लिए धर्म से बढ़कर अन्य कोई मित्र नहीं है, धर्म का मूल दया है, ऐसे धर्म को मैं अपने हृदय में नित्य ही धारण करता हूँ। हे धर्म! तुम मेरी नित्य ही रक्षा करो।
अन्यत्र भी-‘अहिंसा परमोधर्म: यतो धर्मस्ततो जय:।’
अिंहसा सर्वश्रेष्ठ परम धर्म है और जहाँ धर्म है, वहाँ सर्व प्रकार से जय होती है।