अहिंसा, जैनधर्म का प्राण है। जैनधर्म की अहिंसा का मूल आधार समता है। समता से आत्मसाम्य की निर्मलदृष्टि प्राप्त होती है। विश्व में जितनी भी आत्माएँ हैं, उन सभी के प्रति समत्वदृष्टि रखना चाहिए क्योंकि जितनी भी आत्माएँ हैं, सभी जीव हैं; उन सभी में एक समान ज्ञान-दर्शन की ज्योति है, सभी के गुण—धर्म समान हैं, सभी को एक ही सदृश सुख—दु:ख की अनुभूति होती है, सभी को जीने में आनन्द आता है और मरने में कष्ट होता है। कूकर, शूकर और गन्दगी में बिलबिलाते हुए कीड़ों में भी जिजीविषा है। उन सबकी भी यही इच्छा है कि हमें मृत्यु न आए और यही इच्छा स्वर्ग में रहने वाले देव और इन्द्र की भी है।
जिसका जीवन सुख के सागर में निमग्न है, वह भी जीना चाहता है और दु:ख—दावाग्नि में जिसका जीवन सुलग रहा है, वह भी जीना चाहता है। जब यह मानव अपनी आत्मा के समान अन्य प्राणियों को समझता है तो वह हिंसा जैसे निकृष्टतम कृत्य को वैâसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। इस प्रकार जैनधर्म के अनुसार द्रव्य दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं।
जैनधर्म के अनुसार संसार के समस्त प्राणी ‘त्रस’ और ‘स्थावर’ के रूप में दो प्रकार के हैं। स्वत: जो चल फिर नहीं सकते ऐसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति, ये पाँच स्थावर या स्थिर जीव हैं, इनमें मात्र एक ‘स्पर्शन इन्द्रिय’ ही होती है। इनके अतिरिक्त जो स्वयं चलते-फिरते दिखायी देते हैं, वे सब त्रस या जङ्गम जीव हैं, ये दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले होते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं से लेकर जलचर, नभचर और थलचर, पशु-पक्षी, मनुष्य, नारकी और देव आदि सृष्टि के समस्त प्राणी, इस त्रस या जङ्गम की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं।
गृहस्थ व्यक्ति को अपना जीवन निर्वाह करने के लिए जो कार्य करने पड़ते हैं, उनमें स्थावर जीवों की हिंसा निरन्तर होती ही रहती है, वह लौकिक जीवन की अनिवार्यता है; अत: उसके सर्वथा त्याग का उपदेश नहीं दिया गया है। इतनी अपेक्षा अवश्य की गई है कि अहिंसा का आदर करने वाले व्यक्ति के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि का भी यत्नाचारपूर्वक उपयोग किया जाए, उसका आचरण करने से इन स्थावर जीवों का भी निरर्थक विनाश नहीं होगा और इससे पर्यावरण भी सुरक्षित एवं सन्तुलित रहेगा। यदि हमारी असावधानी, लापरवाही या प्रमादवश इन स्थावर जीवों का भी आवश्यकता से अधिक घात होता है तो वह अपराध माना जाता है। आज पर्यावरण प्रदूषण और असन्तुलन की समस्या का भी यह मूलभूत कारण है कि हमने इन स्थावर जीवों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया है।
त्रस जीवों की रक्षा के लिए मनुष्य को प्रतिक्षण तैयार रहना चाहिए। सुविचारित जीवनशैली में कहीं भी, एक भी त्रस जीव का विघात अनिवार्य नहीं है अत: उससे तो बचना ही चाहिए।
जैनधर्म में हिंसा के दोष का निर्णय उसकी कषाय और प्रमाद के आधार पर ही किया जाता है। क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषायें और अज्ञान, ये हिंसा की नींव हैं। कषाय होती है तो हिंसा होती है, कषाय नहीं होती तो हिंसा भी घटित नहीं होती है। इसी प्रकार कषाय जितनी मन्द होती है, हिंसा उतनी ही कम होती है और कषाय जितनी तीव्र होती है, हिंसा उतनी अधिक होती है।
हिंसा का स्तर निर्धारित करने के लिए जैनधर्म में दो साधन माने गये हैं—जीवों का अन्तर (भेद) और कषायभावों की मात्रा। यदि सभी जीवों की हिंसा का कुफल समान होता या हिंसा का पाप हिंसित जीवों की संख्या पर निर्भर होता तो एक व्यक्ति जो चार गाजर मूली उखाड़ लता है और दूसरा व्यक्ति जो एक मनुष्य की हत्या कर देता है, दोनों को समान पापी माना जाता, बल्कि मनुष्य का हत्यारा कम पापी माना जाता क्योंकि उसने तो सिर्फ एक प्राणी की ही हत्या की है परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि जिन जीवों का विघात हुआ है, उन दोनों जीवों के इन्द्रियविषयक विकास में महान अन्तर है। एक, एक इन्द्रिय वाला है और दूसरा पाँच इन्द्रिय वाला है।
स्थावर जीवों की हिंसा के समय उसकी ओर से न कोई प्रतिकार होता है, न किसी तरह दु:ख की भावना व्यक्त होती है; अत: इन पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु और वनस्पति इन एकेन्द्रिय स्थावरकायिक जीवों की हिंसा के समय हिंसक के मन में विशेष क्रूरता या कषायभाव आना अनिवार्य नहीं है, इसलिए उस हिंसा का अल्पदोष माना है लेकिन जैसे—जैसे-हम एक इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय के जीवों की हिंसा की ओर क्रमश: आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे मारने वाले के मन में कषाय की मात्रा बढ़ती जाती है, आत्मपरिणामों में क्रूरता अनिवार्य होती जाती है; अत: उसमें उत्तरोत्तर अधिक हिंसा होती है, उसका फल भी वैसा ही अधिक होता है।
जैनधर्म का एक प्रसिद्ध सूत्र है—‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’। यह सूत्र जैनधर्म के प्रतीक चिह्न के साथ अंकित है। इस सूत्र का अर्थ है कि ‘जीवों में परस्पर उपकार अर्थात् निमित्तपना होता है’; वास्तव में कोई जीव किसी अन्य का भला-बुरा कर नहीं सकता क्योंकि सभी जीव अपने-अपने भले-बुरे कर्मों का ही फल भोगते हैं परन्तु व्यवहार से जीवधारियों में विशेषकर विवेकशील मानव का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह दूसरे जीवों की सहायता करे, उनकी रक्षा करे; उन्हें सताये नहीं और उन्हें दु:ख पहुँचाने में भी निमित्त नहीं बने।
इसी पवित्र भावना को लक्ष्य में रखकर जैनधर्म में पाँच व्रतों का प्रतिपादन हुआ—ये पाँच अणुव्रत भी होते हैं और महाव्रत भी। इन पाँच व्रतों का आंशिक पालन अणुव्रत कहलाता है; इसे गृहस्थ लोग पालन करते हैं तथा इन्हीं पाँच व्रतों का पूर्णरूप से निर्दोष पालन महाव्रत कहलाता है, जिसे मुनिराज पालन करते हैं।
जैनधर्म के अनुयायी अहिंसाभावना के अनुरूप दैनिक क्रियाओं में ऐसी अनेक क्रियाएँ करते हैं जो उनकी शुद्ध अहिंसक जीवनशैली को प्रगट करती हैं। उन क्रियाओं में कुछ प्रमुख क्रियाओं का उल्लेख यहाँ आवश्यक है—
१. शाकाहार—आहार शुद्धि पर जैनधर्म अत्यधिक बल देता है। जैनधर्म में माँसाहार का कड़ा निषेध है। अण्डा, माँस, शराब आदि पदार्थों का सेवन किसी भी मनुष्य को नहीं करना चाहिए। ‘म’ से प्रारम्भ होने वाले तीन मकार ‘मद्य-माँस-मधु’ गृहस्थ श्रावकों को अनिवार्य रूप से त्यागने योग्य हैं। जैनधर्म में शुद्ध शाकाहारी पदार्थों को भी उनकी कालावधि के बाद सेवन करने का निषेध है क्योंकि एक समय सीमा के बाद उनमें भी सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं; उनका सेवन करने से हिंसा तो होती ही है, स्वास्थ्य भी खराब होता है।
जमीन के भीतर उत्पन्न होने वाले प्याज लहसुन आदि जमीकन्द पदार्थों का सेवन भी नहीं करना चाहिए क्योंकि उनमें अनन्त सूक्ष्म जीव रहते हैं, उनकी हिंसा होती है और इनका सेवन तामसिकता को बढ़ाता है। बाजार में बनी वस्तुओं को भी अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि उनकी निर्माण विधि शुद्ध, स्वच्छ नहीं होती और मिलावट का भय बना रहता है। इन सभी नियमों का पालन जिससे जितना भी बन सके, अपनी-अपनी क्षमता और विवेक के अनुसार करना ही चाहिए।
२. पानी छानना—जल मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकता है। यदि मनुष्य अशुद्ध जल पिएगा तो उसका जीवन संकट में आ जाएगा। जैनधर्म ने मनुष्यों से कहा कि पानी छान कर पिओ क्योंकि उसमें असंख्य जीव रहते हैं। पहले लोगों को विश्वास नहीं होता था कि पानी में जीव कहाँ से आये ? हजारों-लाखों वर्षों से जैनधर्म ने अपने इस विश्वास को नहीं छोड़ा और अपनी बात कहता रहा। अब जाकर आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित किया है कि एक बूँद जल में ३६,४५० जीव होते हैं। पानी विधिपूर्वक नहीं छानने से इन जीवों की हिंसा तो होती ही है, साथ ही इससे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। एक पुरानी कहावत है—
पानी पिओ छानकर, जीव जन्तु बच जायें।
लोग कहें धर्मात्मा, रोग निकट निंह आयें।।
यदि जीवों की हिंसा से बचना चाहते हो तो पानी को विधिपूर्वक छानकर ही प्रत्येक कार्य में उपयोग लेना चाहिए।
३. रात्रिभोजन त्याग—जैनधर्म में रात्रि भोजन का निषेध है। जैनधर्म के अनुसार सूर्य की किरणों से वातावरण शुद्ध रहता है और सूर्यास्त के बाद रात्रि में अनेक जीव उत्पन्न होते हैं, जो वातावरण को अशुद्ध करते हैं। रात्रि में भोजन बनाने और खाने से बहुत हिंसा होती है। साथ ही रात्रि में पाचन क्रिया मन्द होने से भोजन करने से स्वास्थ्य पर भी गलत प्रभाव पड़ता है; अत: रात्रि में भोजन न बनाना चाहिए और न ही करना चाहिए।
रात्रि में अन्न ग्रहण करना खाने के प्रति अत्यधिक आसक्ति को दर्शाता है। जैन परम्परा में तो सभी आचारशास्त्र रात्रिभोजन का कड़ा निषेध करते ही हैं साथ ही वैदिक परम्परा में भी रात्रि के भोजन को उचित नहीं माना गया है। महाभारत में लिखा है—
‘‘श्वभ्रद्वाराणि चत्वारि प्रथमं रात्रिभोजनम्।’’
तथा—
ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयंति सुमेधस:।
तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते।।
अर्थात् रात्रिभोजन नरक का प्रथम द्वार है तथा जो रात्रि में आहार नहीं करते उन्हें महीनें में १५ दिन के उपवास का फल मिल जाता है।
स्कन्दपुराण के अनुसार दिन में भोजन करने वाला तीर्थयात्रा के जैसा फल पा लेता है—
‘‘अनस्तभोजिनो नित्यं तीर्थयात्रा फलं भजेत्’’।
इस प्रकार रात्रि का भोजन सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अहिंसा के अनुकूल नहीं है।
४. लोकोपकारी कार्य—जीव कल्याण और समाजसेवा की भावना से अहिंसाधर्म के लिए अनेक लोकोपकारी कार्य करने चाहिए। जैसे—निर्धनों को वस्त्र आदि देना, जनता के सेवार्थ चिकित्सालय खोलना, धर्मशाला बनवाना, शिक्षा के लिए विद्यालय खोलना, गोशाला तथा पशु-पक्षी चिकित्सालय का संचालन करना, समाज में व्यसन मुक्ति हेतु कार्य करना, आदि-आदि। जैनधर्म के अनुयायी इन सब कार्यों को जीव दया की दृष्टि से करते हैं। उनके ये कार्य सिर्फ जैनों के लिए ही नहीं हैं वरन् सभी मनुष्यों के लिए हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों। सहृदय अहिंसक भावना वाला गृहस्थ मनुष्य, मानव सहित सभी जीवों के हित के लिए जितना कर सकता है उतना कार्य अवश्य करना चाहिए। नि:स्वार्थभाव से किए गए इन कार्यों से सामाजिक सौहार्द बढ़ता है और सम्पूर्ण विश्व शान्ति की ओर बढ़ता है।
इस प्रकार और भी अनेक नियम व कार्य हैं जो जैनधर्म की अहिंसाभावना को प्रगट करते हैं। यहाँ अहिंसा सिर्फ सिद्धान्त के रूप में ही नहीं बल्कि प्रायोगिक रूप में भी स्पष्ट दिखलाई देती है।
जैनधर्म ने सापेक्ष चिन्तन पर जोर दिया है हम कभी किसी भी घटना या परिस्थिति को सिर्फ अपनी ही दृष्टि से न सोचें; दूसरों के सम्यक् दृष्टिकोण का भी ख्याल रखें, हो सकता है कि वह सही हो। इसे जैनधर्म का ‘अनेकान्त चिन्तन’ कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार ‘हिंसा’ का मूल कारण ‘एकान्त चिन्तन’ ही है। जैनदर्शन ‘मेरा सो खरा’ वाली नीति पर विश्वास नहीं करता। उसे तो ‘खरा सो मेरा’ वाली ही नीति पसन्द है और यही उसका अनैकान्तिक दृष्टिकोण है। सत्य अनेकान्त स्वरूप ही है। अपने अलावा दूसरों के सम्यक््â विचारों का भी चिन्तन करना और वस्तु में गर्भित अनन्त और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का विचार करना, यह चिन्तन में अनेकान्त है, इसे ‘मानसिक अहिंसा’ का नाम दिया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार ‘‘जो वस्तु तत् (जैसी) है, वही अतत् (वैसी नहीं) है; जो एक है, वही अनेक है; जो सत् है वही असत् है; जो नित्य है वही अनित्य है; इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उत्पन्न करने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशन होना अनेकान्त है।’’
वचनों का संसार भी अद्भुत है। हम वचनों को भी सापेक्ष बनाकर उन्हें शुद्ध कर सकते हैं। एकांगी या मिथ्या वचनों का प्रयोग अशान्ति फैलाता है इसीलिए वाणी की पवित्रता व सत्यता बहुत जरूरी है; अत: जैनधर्म वाणी में स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रयोग की बात कहता है।
स्याद्वाद का अर्थ है कि सापेक्ष अर्थात् किसी अपेक्षा से कथन करना। जैसे—मैं कहूँ कि ‘मैं पुत्र हूँ ’ तो यहाँ संशयपूर्ण वचन होगा परन्तु यदि मैं कहूँ कि ‘मैं माता-पिता की अपेक्षा पुत्र हूँ ’ तो यह वचन अधिक शुद्धवचन होगा तथा किसी को संशय नहीं होगा और न ही संघर्ष होगा अत: यदि शुद्ध बोलें और हित-मित-प्रिय वचन बोलें तो सभी को अच्छा लगता है। ऐसा नहीं बोलें जिससे दूसरों को दु:ख पहुँचता हो, उससे हिंसा होती है।
जैनधर्म के अनुसार वचनों की अहिंसा का व्यावहारिक जीवन में भी प्रयोग किया जाना चाहिए अर्थात् हिंसक शब्दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे—‘सब्जी या फल काट दो’ कहने की अपेक्षा ‘सब्जी या फल बना दो या सुधार दो’ कहना अहिंसक वचन है। ‘काटना’ शब्द हिंसक है अत: इसके कहने में हिंसा का वातावरण बनता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि सोचने और कहने का अन्दाज अलग-अलग है। इसी प्रकार मनुष्यों के वैचारिक स्तर में भी अन्तर हो जाता है।
किसी भी प्राणी को नहीं मारना, उसे दु:ख नहीं पहुँचाना, यह सामान्य अर्थ में अहिंसा है। व्यापक अर्थ में मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना से प्राणीमात्र को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना या उनके प्राणों का घात न करना अहिंसा है। मन, वचन और काय (शरीर) में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीव की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है; ऐसे जीवन को निरन्तर धारण करना ही अहिंसा है।
अहिंसा का यह सैद्धान्तिक और नैतिक आधार जैनधर्म दर्शन में उपलब्ध है। अहिंसा का क्षेत्र सीमित नहीं है। अहिंसा का सम्बन्ध अन्तरंग और बहिरंग दोनों रूपों में है। प्राणीमात्र को मन, वचन और काय से किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना, उसका दिल नहीं दु:खाना, यह तो बहिरंग अहिंसा है और राग-द्वेष से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थिर होना अन्तरंग अहिंसा है। इतनी व्यापक परिभाषा हमें पूरब से लेकर पश्चिम तक कहीं भी देखने को नहीं मिलती। कोई भी कार्य या क्रिया, जो राग-द्वेष भाव से की जाती है, वह अहिंसा की श्रेणी में नहीं आती है। वस्तुत: अन्तरंग में आंशिक साम्यता आए बिना अहिंसा की शुरुआत हो ही नहीं सकती।
कहा जाता है कि चारों तरफ हिंसा बढ़ रही है। सम्पूर्ण विश्व में रोजमर्रा की जिन्दगी में हिंसा प्रभावी हो रही है। इस सन्दर्भ में क्या कभी यह विचार किया कि वास्तव में हिंसा कितनी बढ़ रही है ? क्या बाह्य हिंसा की मात्रा बाह्य अहिंसा से अधिक हो गई है ? सामान्यत: मनुष्य चौबीस घण्टे किसी न किसी को सिर्फ मारने-मारने का काम नहीं कर सकता। यह घटना कभी-कभी ही होती है। अधिकांश समय मनुष्य शान्ति से किसी को कष्ट पहुँचाए बिना ही व्यतीत करता है। दंगे-फसाद भी कोई वर्ष भर तो चलते नहीं हैं। कभी-कभी अचानक इस प्रकार की घटनाएँ होती हैं। ऐसी घटनाएँ ज्यादा भी हों तो उन दिनों की संख्या कहीं ज्यादा ही निकलेगी, जिन दिनों में ऐसी घटना या बातें नहीं होती हैं।
बात स्पष्ट है कि हिंसक प्रवृत्ति की प्रधानता वाला मनुष्य या समाज भी सतत हिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि हिंसा प्राणीमात्र का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। मनुष्य का मूलस्वभाव तो अहिंसा है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है किन्तु कभी अग्नि आदि के संयोग से वह गर्म हो जाता है। उष्णता, जल का स्वभाव नहीं है इसलिए अग्नि का निमित्त हट जाने पर कुछ समय बाद वह पुन: स्वत: शीतलता की ओर बढ़ता है और वहाँ पहुँचकर सदा स्वत: वैसा ही बना रहता है।
यद्यपि तथाकथित कुछ मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि हिंसा भी मनुष्य का स्वभाव है परन्तु यह उनके सोचने का अपना तरीका है। उनके हिंसा-अहिंसा के कारणों को खोजने के मापदण्ड भिन्न हैं तथापि धर्म की यह मान्यता है कि मनुष्य में सिर्फ शरीर और मन ही नहीं है बल्कि मनुष्य में एक आत्मा भी वास करती है और उस आत्मा का स्वभाव अहिंसा, क्षमा, शान्ति और करुणा है।
मानसिक अहिंसा—
हिंसा की व्याख्या करते समय प्राय: यह समझा जाता है कि यदि किसी की जान ली जा रही है, उसे दु:ख पहुँचाया जा रहा है तो हिंसा हो रही है और यदि ऐसी घटनाएँ नहीं हो रही हैं तो अहिंसा है किन्तु यह स्थूल व्याख्या है। हमारे जीवन में बाह्य हिंसा से अधिक मानसिक हिंसा होती है। वास्तव में तो लगभग ९९ प्रतिशत बाह्य हिंसा के पीछे मानसिक हिंसा ही कारण होती है इसीलिए मानसिक हिंसा से बचने के लिए सदा सौहार्दभाव, स्वस्थ्य चिन्तन बढ़ाते रहना चाहिए।
अपने मन में किसी के अहित का विचार करना मानसिक हिंसा तो है ही; किसी दूसरे के मन को दु:ख पहुँचाना भी मानसिक हिंसा का ही एक रूप है। किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या समग्र राष्ट्र को दु:खी करने के उद्देश्य से उनके अहित का चिन्तन करना और योजनाएँ बनाना भी मानसिक हिंसा है। जैनदर्शन में मान्यता है कि किसी को तकलीफ पहुँचाना तो दूर, इसके बारे में मन में बुरा ख्याल आना भी हिंसा है। उदाहरण के रूप में हमने किसी को मारने का विचार किया किन्तु मारा नहीं तो भी हमें हिंसा का दोष अवश्य लगेगा। कई बार फिल्म या सीरियल देखते समय खलनायक या अन्य किसी के अनिष्ट का चिन्तन करके हम व्यर्थ ही मानसिक हिंसा के भागी बन जाते हैं।
अनेक घटनाओं में यह देखा जाता है कि हिंसा का सतत चिन्तन करते रहने के कारण मनुष्य का मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है और वह बड़ी-बड़ी हिंसक घटनाओं को अंजाम देने लगता है इसीलिए मानसिक रूप से अहिंसक भावना को विशेष महत्त्व दिया गया है। मनुष्य जब मन से शान्त रहेगा, हिंसक विचार नहीं करेगा तो बाह्य हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठेगा। मानसिक और वैचारिक शान्ति हमारे अहिंसक व्यवहार का प्रमुख कारण है। मन में राग-द्वेष रूप विचारों को नहीं आने देना और क्षमा, समता, शान्ति आदि अहिंसक विचारधारा को अपने में सतत प्रवाहित होने देना ही मानसिक अहिंसा है।
वाचिक अहिंसा—
हिंसा का द्वितीय स्तर वाचिक हिंसा है। सर्वप्रथम मनुष्य हिंसा का विचार मन में लाता है फिर अपने वचनों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है। कई बार जनसभाओं में ऐसे-ऐसे भाषण दिए जाते हैं कि जनसमुदाय भड़क जाता है और हिंसा पर उतारू हो जाता है, वह वाचिक हिंसा का एक रूप है। अपने वचनों के माध्यम से ऐसे शब्दों को प्रयोग करना, जिससे किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र की शान्ति भंग हो या उन्हें दु:ख पहुँचे, वाचिक हिंसा है। व्यवहारिक रूप में गाली देना, किसी की निन्दा करना, अपशब्दों का प्रयोग करना, यह सब वाचिक हिंसा है और ऐसा नहीं करना वाचिक अहिंसा है।
कई बार लोगों को अनावश्यक बड़बड़ाने या व्यर्थ का अधिक बोलने की आदत होती है, उनसे अनायास ही वाचिक हिंसा होती रहती है; अत: वाणी पर संयम रखना ही वाचिक अहिंसा है। किसी महापुरुष ने कहा है कि अनावश्यक बोलो ही मत; जरूरत पड़े तो कम बोलो ; वह भी बहुत विचारपूर्वक नाप-तोल कर बोलो ; जो भी बोलो, हित-मित-प्रिय बोलो। संयमित वचनों से हमारा व्यक्तित्व निखरता है।
कायिक अहिंसा—
मनुष्य का मन पर संयम नहीं रहता तो वह मानसिक हिंसा करता है, उससे आगे वचनों पर संयम नहीं रहता तो वह वाचिक हिंसा करता है और इसके बाद वह कायिक हिंसा पर उतर आता है। अपने शरीर की क्रियाओं के द्वारा किसी भी प्राणी का अहित करना कायिक हिंसा है। स्वयं हाथ-पैर चलाकर किसी की जान लेना, उसे तकलीफ पहुँचाना, अंगों के इशारों से किसी दूसरे को हिंसा की अनुमति या आदेश देना या फिर क्रोध में आकर स्वयं के अंगों का घात करना कायिक हिंसा है।
अनेक स्थितियों में मनुष्य जाने-अनजाने भी कायिक हिंसा का दोषी बनता है। इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। पार्क या बगीचों में रास्ते पर चलते-फिरते निष्प्रयोजन (ळहहामेarब्) पेड़-पौधों अथवा फूलों को तोड़ना, टहनियाँ या पत्ते तोड़ना, चलते समय पैरों के नीचे छोटे—छोटे निर्दोष जीवों का ख्याल न करना, घास—फूस को कुचलना, उन पर मल—मूत्र त्यागना, बैठे—बैठे हाथ—पाँव चलाना, नदी—तालाब के किनारे बैठकर उसमें पत्थर या कूड़ा—करकट फेंकना इत्यादि अनेक उदाहरण हैं, जब हम अनायास अकारण और निष्प्रयोजन ही कायिक हिंसा करते हैं, जबकि मन में हिंसा की भावना नहीं रहती है। यहाँ प्रमाद, हिंसा का कारण बनता है। इससे पर्यावरण भी बिगड़ता है तथा इस पर हमारी आदतों से बुरा असर पड़ता है। मन—वचन—काय की अहिंसा का पालन करके हम पर्यावरण को भी सन्तुलित रख सकते हैं। मानसिक और वैचारिक प्रदूषण, शोर—शराबे का प्रदूषण और हमारी असंयमित क्रियाओं से अन्य सभी किस्म के प्रदूषण हमारे वातावरण को दूषित बना देते हैं जिससे शान्ति भंग होती है, पर्यावरण असन्तुलित होता है। अहिंसा के द्वारा हम इसे सन्तुलित बना सकते हैं।