जैनदर्शन में पर्यावरण संरक्षण से संबन्धित विषयों पर जितना अधिक विश्लेषण किया गया है उनी सूक्ष्मता से अन्य दर्शनों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। जैन साधुओं एवं श्रावकों में पर्यावरण के विभिन्न अवयवों के समुचित उपयोग एवं संरक्षण की भावना एवं कार्यशैली निश्चित रूप से पर्यावरण के संरक्षण के प्रति पराकाष्ठा ही दर्शाती है। जैन साधुओं द्वारा अति अल्प सामग्री का उपयोग एवं विशालकाय से लेकर अति सूक्ष्म जीवों तक के प्रति दयाभाव ने अहिंसा के रूप में प्रकृति के जैविक संरक्षण को संबल प्रदान किया है। इतना ही नहीं अजैविक पदार्थों की उपयोगिता की मर्यादाओं ने भी पर्यावरण के विभिन्न घटकों के पारस्परिक संबन्धों को सुदृढ़ किया है। पर्यावरणीण अध्ययन को विज्ञान की भाषा में ‘‘पारिस्थितिकी तन्त्र’’ अथवा ‘‘इकोलॉजी’’ भी कहा जाता है। परिस्थितिकी वास्तव में प्रकृति में उपस्थित समस्त जैविक एवं अजैविक अवयवों के आपसी सम्बन्ध एवं बाह्य वातावरण से सम्बन्धों का अध्ययन ही है। चूँकि विभिन्न प्रकार के जीव एवं मनुष्य एक निश्चित समूह एवं वातावरण में ही राहते हैं अत: इन समूहों की रचनात्मक एवं क्रियात्मक तंत्र ही ‘‘परिस्थितिकी तंत्र’’ अथवा ‘‘इकोसिस्टम’’ कहलाता है। जैन धर्म में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह को पांच पापों की श्रेणी में रखा गया है। वास्तव में अगर देखा जाये जो यह पांच पाप ही पर्यावरण के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। जैन दर्शन में विज्ञान के अनेक सिद्धान्त एवं सूत्र छिपे हुये हैं। यदि उन सिद्धान्तों का समुचित पालन किया जावे तो कोइ्र संदेह नहीं कि पर्यावरण में कहीं भी असंतुलन अथवा विनाश की स्थिति उत्पन्न हो। प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव इस युग के पहिले पर्यावरणविद् कहे जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम गृहस्थों को जीवन जीने की कला सिखाई थी। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण हेतु मनुष्यों को जीवदया एवं अपरिग्रही होने पर बल दिया। यही कारण था कि भगवान ऋषभदेव के पश्चात् एक लम्बे समय तक प्रकृत्ति में पर्यावरण संतुलन की स्थिति बनी रही।
पारिस्थतिकी तंत्र
परिस्थितिकी तंत्र के अन्तर्गत प्रकृति के विभिन्न घटकों का उनके उत्पत्ति स्थान अथवा निवास के अंतर्गत ही अध्ययन किया जाता है। ओइम (१९६३) नामक वैज्ञानिक ने इसकी परिभाषा देते हुये कहा कि यह समस्त जीवों का आपसी (परस्पर) एवं उनके आसपास मौजूद अजैविक पदार्थों से सम्बन्ध ही है। उन्होंने कहा कि जैविक एवं अजैविक घटका में सतत रूप से विभन्न पदार्थों का आदान-प्रदान चलता रहता है जिसे कि ‘पदार्थों का चक्रण’ कहा जाता है। यदि पर्यावरण के विभिन्न संघटक व्यवस्थित रूप में हो तब वहाँ का पारिस्थितिकी तंत्र सुदृढ़ होता है। अव्यवस्थित होने पर यही अवयव समूचे पर्यावरण को अनुपयोगी एवं प्रदूषण सुक्त बना देते हैं।
जैन धर्म के सिद्धान्त
सबसे पहिला एवं प्रमुख जैन सिद्धान्त ‘‘अहिंसा’’ का पालन करना है। सबसे मुख्य बात यह है कि जैन धर्म में बड़े जीवों की अहिंसा के साथ सूक्ष्मतम निगोदिया जैसे जीवों के संरक्षा को भी प्रमुख कर्तव्य बताया गया है। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से भी सिद्ध हो गया है कि वैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मतम एवं अदृश्य जीवों को प्रकृति की विभन्न क्रियविधियों के संचालन में महती भूमिका होती है। जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने, वातावरण की नाइट्रोजन को प्रोटीन जैसे तत्तवों में परिवर्तित करने, विशाल वृक्षों की जड़ों में रहकर उनकी वृद्धि में सहायक होने, अनेक प्रकार की जीवन रक्षक दवाओं के निर्माण, दुग्ध उद्योग आदि में इन वैक्टीरिया की महती आवश्यकता होती है। इसी प्रकार अनेक प्रकार की सूक्ष्म फपूंâदियां भी प्रकृति की अनेक क्रियाविधियों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। आंकड़ों के अनुसार इस पृथ्वी पर लगभग १३-१४ मिलियन (१ मिलियन-दस लाख) प्रजातियों के जीव मौजूद हैं। थोड़ा सा भी परिवर्तन इन जीवों को संकट में डालने के लिये काफी होता है। उदारण के तौर पर वर्तमान में हो रहे ‘‘ग्लोबल वार्मिंग’’ के कारण हजारों जलीय एवं स्थलीय पशु-पक्षियों का जीवन संकटापन्न स्थिति में आ गया है। ‘‘परिग्रह’’ को जैनधर्म में पापरूप माना गया है। यहां परिग्रह का है कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रहण अथवा उपयोग करना। वास्तव में जैनधर्म का यह सिद्धान्त ही इस प्रकृति के विनाश को काफी हद तक बचा सकता है। आवश्यकता से अधिक संग्रहण के कारण ही वनों का विनाश एवं प्रदूषण जैसी समस्यों उत्पन्न हुई उत्पन्न हुई हैं। जैनधर्म तो श्रावक को परिग्रह मर्यादा के पालन का उपदेश सर्वप्रथम ही देता है।
श्रावकाचार एवं पर्यावरण
वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक नियम एवं कानून बनाये गये हैं। उनमें जल प्रदूषण अधिनियम, वायु प्रदूषण अधिनियम इत्यादि प्रमुख हैं। विभिन्न श्रावकाचारों के माध्यम से जैनाचार्यों ने काफी पहिले ही गृहस्थों को समुचित जीवन यापन के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों के पालन न करने से अनंत पाप का बंध भी बताया गया है। वास्तव में यह श्रावकाचार ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सर्वप्रथम पुस्तक मानी जा सकती है। जीवहत्या अथवा मांस भक्षण ने भी प्रकृति में भयानक असंतुलन पैदा कर दिया है। मांसा भक्षण के अलावा उपयोग में आनी वाली वस्तुओं के निर्माण में चमड़े का उपयोग होता है, इस हेतु भी लाखों पशुओं एवं पक्षियों का संहार किया जाता है। वैज्ञानिक खोजों से सिद्ध हुआ है कि इन ‘‘बध-गृहों’’ के आसपास के वातारण में (हवा में) अनेक प्रकार के ऐसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं जो स्वयं मनुष्यों के लिए हानिकारक होते हैं। पांच उदम्बरों को अभक्ष्य पदार्थों की श्रेणी में रखा गया है। उदम्बर फल वास्तव में अनंत कीटों का निवास स्थान ही है। जैनधर्म में आवश्यकता से अधिक पानी के उपयोग न करने का निर्देश दिया है। वर्तमान में पेय जल की कमी को जैनधर्म के अल्प व्यय सिद्धान्त द्वारा पूरा किया जा सकता है। इसी प्रकार गंदे एवं विषोले पदार्थों को बहाना, जलाना आदि इत्यादि भी प्रदूषण पैदा करते हैं। जैनधर्म में बाईस अभक्ष्यों के सेवन का निषेध है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी अब इस प्रकार के पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होने वाली बीमारियों पर काफी खोज हो रही है।
तीर्थंकरों के चिन्ह
समस्त चौबीस तीर्थंकर के अपने-अपने अलग चिन्ह होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से अवलोकन किया जावे तो ज्ञात होता है कि यह चिन्ह पर्यावरण के विभिनन घटकों (जैविक एवं अजैविक) के प्रतीक हैं। उदाहरणार्थ बैल, बंदर, घोड़ा, सूअर इत्यादि पशु जगत के हैं तो कमल इत्यादि पौधों के वर्ग के हैं एवं जल एकेन्द्रिय जीव का प्रतीक है। ऐसा प्रतीत होता मै कि सभी वर्गों के चिन्ह प्रकृति के विभिन्न संघटकों के संरक्षण की प्रेरणा देते हैं।
पर्यूषण पर्व या वर्षाकाल में हरी-सब्जियों का निषेध –जैनधर्म में भादों के माह में प्रमुख रूप से पर्यूषण पर्व मनाये जाते हैं। इन दिनों किसी भी प्रकार की ताजा-हरी वनस्पतियों के सेवन का निषेध है। वैज्ञानिक दुष्टि से देखें तो पाते हैं कि भादों के माह में वनस्पतियाँ अवनी शैशव अवस्था में होती हैं। अगर ऐसे समय इन्हें निकाल कर सेवन किया जावेगा तो वह अपनी पीढ़ी का निर्माण नहीं कर सकती। क्योंकि उनमें बीज इत्यादि का निर्माण नहीं हो पाता है। इस माह में बरसात का मौसम होने से भी वनस्पतियों में कीड़े एवं अन्य सूक्ष्म जीवों की बहुलता रहती है। चूँकि वनस्पतियां शैशव अवस्था में होती हैं अत: उनमें कई प्रकार के अपरिपक्व रसायनिक तत्व होते हैं जो कि सेवन करने पर हानिकारक हो सकते हैं। अत: प्रत्येक दृष्टिकोण से उक्त माह में वनस्पतियों का सेवन हानिकारक है।
रात्रि भोजन
वर्तमान में वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि सूर्यास्त होते ही वातावरण अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। इनमें कुछ विशेष प्रकार की फपूंâद एवं वैक्टीरिया प्रमुख हैं जो कि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं। उक्त उदाहरण तो अल्पमात्र है। अगर समूचे जैनधर्म के सिद्धान्तों का अवलोकन करें तो पाते हैं कि वहाँ हर कदम पर पर्यावरण संरक्षण पर विचार किया गया है एवं सुखी जीवन यापन हेतु उचित एवं पाप रहित नियम बताये गये हैं। जैन साधु तो वास्तव पर्यावरण संरक्षण के महान् प्रतीक हैं। जिनके किसी भी क्रिया-कलापों से पर्यावरण का कोई भी सिद्धान्त नष्ट नहीं होता है।
प्रो. (डॉ.) अशोक कुमार जैन अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. ४१ से ४४