स्याद्वादो वर्तते यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते। नास्ति परिपीडनं यस्मिन्, जैनधर्मो स उच्यते।।
‘जिसमें वस्तुतत्व-प्रतिपादन का माध्यम स्याद्वाद हो, प्रत्येक वस्तु में रहने वाले अनन्त धर्मों का निरूपण रूप से किया गया हो, परपीड़ा का जिसमें लवलेश भी नहीं रहे, वही जैनधर्म है।’ इस कथन से स्पष्ट है कि जिनागम वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित है। उसमें जो भी व्यवस्था निरूपित है, वह निर्दोष है, पक्षपातरहित है और यथार्थ सत्यरूप में ही प्रतिपादित है। वर्ण-व्यवस्था सामाजिक जीवन की बाड़ है। जिस प्रकार शस्य श्यामला खेती बाड़ के अभाव में सुरक्षित नहीं रह सकती, उसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था के बिना समाज सुरक्षित, जीवन्त नहीं रह सकता है। समाज क्या है ? मनुष्यों के समूह का नाम समाज है। विचार यह करना है कि मनुष्य एवं वर्ण का परस्पर क्या संबंध है ? और कब से है ? वर्तमान युग में जाति, वर्ण और समाज के संबंध में अनेक भ्रांतियाँ उत्पन्न हो गई हैं जिनके कारण न केवल भारत के सामाजिक क्षेत्र में अपितु धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी महान् संक्रान्ति, उथल-पुथल और अशांति व्याप्त हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है मानो भारतीय संसार-क्षितिज पर धूमकेतु का उदय हो गया है जिसने धार्मिक क्षेत्र में गहरा क्षोभ पैदा कर मानवता की रीड़ ही ता़ेड डाली है। कोई जाति व्यवस्था का उल्लंघन कर अपने को समाज सुधारक मानने लगा है तो कोई वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन करने में अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन कर रहा है। इन निराधार घातक भ्रान्तियों का उन्मूलन परमावश्यक है। इसके लिए हमें पहले प्रत्येक शब्द का वाच्यार्थ जानना चाहिए। यह सुनिश्चित सिद्धांत है कि प्रत्येक वाच्यार्थ अपने वाचक शब्द में सुनिहित रह कर ही कार्यकारी होता है। ‘जाति’ शब्द ‘जनि प्रादुर्भावे’ धातु से क्तिन् प्रत्यय लगाने पर बनता है। प्रादुर्भाव का अर्थ उत्पत्ति, जन्म या पैदाइश है। वास्तव में जन्म और जाति में आधेय आधार संबंध है, जैसे हथेली और रेखा। हथेली आधार है और रेखा आधेय। स्पष्ट है कि जब से हाथ है तब से रेखाएँ हैं और जब से रेखाएँ हैं तभी से हाथ हैं। इसी प्रकार जब से जन्म है तब से जाति है और जब से जाति है तब से जन्म है। चूँकि जीव अनादिकाल से है अत: अनादि से जन्म-सन्तति है तो यह भी मानना होगा कि जाति भी अनादि है। जन्म और जाति का तादात्म्य संबंध है। ‘‘जयते यस्यां सा जाति:’’ जिसमें उत्पत्ति या जन्म हो, उसे जाति कहते हैं। जाति के अनेक भेद हैं-८४ लाख जातियाँ कही जाती हैं। जाति और योनी प्राय: एकार्थक हैं। श्री आचार्य अकलंकदेव स्वामी ने ‘‘तत्त्वार्थ राजवार्तिक’’ में जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है
–तत्राव्यभिचारि सादृश्यैकीकृतोऽर्थात्मा जाति:।
अर्थात् व्यभिचारी सादृश्य से जो समान अर्थस्वरूप है, उसका नाम जाति है। वह सादृश्य बिना किसी व्यभिचार के एक जातिगम समानार्थ का द्योतक है। इस सिद्धांत की आधारशिला है कर्म। कर्म-सिद्धान्त के सूक्ष्म विवेचन से ज्ञात होता है कि जाति-कर्म के मूल पाँच भेद होने पर भी उसके अवान्तर भेद अनेक हैं। प्रत्येक भेद अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता के लिए विद्यमान रहता है क्योंकि प्रत्येक के अपने-अपने स्वतंत्र गुण, धर्म और पर्याय हैं। उदाहरणार्थ हम पंचेन्द्रिय जाति को ही लें। मनुष्य, तिर्यंच, सैनी-असैनी के भेद से यह अनेक उपभेदों में विभक्त है। तिर्यंच जाति, पंचेन्द्रिय जाति का ही एक उपभेद है। परन्तु गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, शेर, ऊंट, बकरी, हरिण, सर्प एवं पक्षियों में तोता, मैना, कबूतर, चिड़िया, कौआ आदि अनेक भेदों में विभक्त है। इनमें पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-जातित्व समान होने पर भी मैथुन कर्म अपनी-अपनी जातियों में ही मान्य है, वांछनीय है, अन्य-अन्य विजातियों में सर्वथा निषिद्ध है, आपत्ति और विनाश का हेतु है। इसी प्रकार मनुष्य समाज में विविध जातियाँ हैं। जैसे-अग्रवाल, खण्डेलवाल, जैसवाल, चतुर्थ, पंचम, पद्मावती पोरवाल आदि-आदि चौरासी जातियाँ हैं और भी हो सकती हैं, आगम अगाध है। ये सभी जातियाँ मनुष्यत्व धर्म की अपेक्षा एक है परन्तु मैथुन संज्ञा की प्रवृत्ति को शान्त करने के लिए अपनी-अपनी जाति में ही प्रवृत्ति करती हैं। इससे स्पष्ट है कि विवाह संबंध स्व-स्व जाति में ही होना चाहिए, होता आया है, और होता रहेगा, तभी ये जातियाँ जीवित रह सकती हैं। इनका अस्तित्व बना रहना उतना ही जरूरी है जितना मनुष्य के जीवन का। तभी तो जाति को अनादि सिद्ध करते हुए आचार्यश्री सोमदेव सूरि ने यशस्तिलनचम्पू में कहा गया है-
जातयोऽनादय: सर्वास्तत्क्रियापि तथविधा। श्रुतिशास्त्रान्तरं वास्त प्रमाणं कात्र न: क्षति:।।८/१७।।(अर्थात् सम्पूर्ण जातियाँ अनादि हैं और इनकी क्रियाएँ भी जैसी हैं वैसी ही हैं या रहें, यदि इस बात में वेद और शास्त्र भी प्रमाण हों तो हमारे लिए क्या हानि है।) जैनदर्शन में वस्तु की व्यवस्था अनेकान्त के आधार पर स्वीकार की गई है-आदिपुराण पर्व ३८ में कहा है-मनुष्यजातिरेकैव, जातिनामोदयोद्भवा। वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।।४५।। ब्राह्मणा: व्रतसंस्कारात्, क्षत्रिया: शास्त्राधारणात्। वणिज्योऽर्थार्जानान्नायायात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।।४६।।
(जाति कर्म के उदय से मनुष्य जाति एक है परन्तु जीविका के भेद से वह भिन्न-भिन्न हो गई है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शास्त्रधारा से क्षत्रिय, न्यायोपार्जित धन कमाने से वैश्य और नीच आजीविका करने से शूद्र कहलाते हैं।) उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यदि ऐसा अर्थ लगाया जाये कि ‘योग्यतानुसार वर्ण बनाये जा सकते हैं’ तो वर्ण व्यवस्था सादि ठहरती है, किन्तु ऐसा सोचना अयुक्त है, आगम और युक्ति के विरुद्ध है। अब, जरा सैद्धान्तिक दृष्टि से वर्ण के संबंध में विचार करें-वर्ण का अर्थ है रंग-रूप। प्रत्येक वस्तु में कोई न कोई वर्ण रहता ही है। परन्तु जीव के साथ इनका क्या संबंध है ? संसारी जीव कर्माधीन है। कर्मसिद्धान्त में आठ कर्मोें में एक नामकर्म हैं जिस प्रकार जाति कर्म नाम कर्म के अन्तर्गत है उसी प्रकार वर्ण-नाम का कर्म भी नाम कर्म का उत्तर भेद है। इसके भी पाँच भेद हैं-१. कृष्णा, २. नीला, ३. पीला, ४. लाल और ५. सफेद। ये वर्ण शरीर के साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। कोई सफेद कोई लाल, काला, पीला और नीला अर्थात् जिसके जिस नाम कर्म का उदय होता है, उसके वही वर्ण जन्मजात रहता है और यह स्थिति जीवन भर रहती है। चूँकि मानव जाति अनादि से है इसलिए वर्ण भी अनादि है। श्वेत वर्ण ब्राह्मणों का, लाल वर्ण क्षत्रियों का, पीत वैश्यों का और कुरुण अस्प्रश्य शूद्रों का तथा नीला स्पृश्य शूद्रों का वर्ण है। ये पाँच नामकर्म के वर्णों के आधार जन्मजात हैं, अनादि हैं इसलिए वर्ण भी अनादि है। कुछ विचारकों का कहना है कि वर्ण-व्यवस्था श्री आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने चलाई परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से विचार करने पर यह बात मिथ्या सिद्ध होती है। जैसा कि सिद्धान्त है-‘सत् का कभी नाश नहीं होता, होता नहीं असत् उत्पाद’ अर्थात् सत् का विनाश और असत् का प्रादुर्भाव कभी नहीं हो सकता है। यह ध्रुव सत्य हैं। भगवान आदिनाथ ने वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति की। यहाँ उत्पत्ति शब्द भी विचारणीय है-उत् उपसर्गपूर्वक पत् धातु में क्तिन् प्रत्यय के योग से उत्पत्ति शब्द बना है जिसका अर्थ है प्रकट करना या होना। इसी से स्पष्ट है कि भगवान ने तिरोहित वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भूत प्रकट या आविर्भूत किया था, जो स्वयंसिद्ध अनादि से चली आ रही थी और काल प्रभाव से तिरोहि हो गई थी। काल-परिवर्तन सिद्धान्तसम्मत है ही। उमास्वामी आचार्य ने लिखा है-
भरतक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र और देवकुरु, उत्तरकुरु को छोड़कर विदेह क्षेत्र में कुल १५ कर्मभूमियाँ हैं, परन्तु भरतैरावतयोर्वृद्धि ह्यसो षसमयाभ्यामुत्सप्र्पिण्यवसप्प्णिीभ्याम।।३/२७।। अर्थात् भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तित होते हैं। तद्नुसार कर्मभूमि के बाद भागभूमि और भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की रचना का आविर्भाव एवं तिरोभाव होता रहता है। अस्तु, तृतीयकाल में वर्ण व्यवस्था का तुच्छाभाव मानना। सिद्धान्त का अपलाप करना है। हाँ, इतना अवश्य है तिरोहित शक्ति बाह्य निमित्त से ही उद्भूत होती है। यथा-लकड़ी में अग्नि है तो दियासलाई या आग का संयोग पाकर प्रकट हो जाती है। दूध में मक्खन, रत्न में कांति आदि अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। उसी प्रकार मानवजाति में वर्णत्व धर्म अनादि है। भोगभूमि के काल में अनावश्यक होने से जो तिरोहित हो गया था, भगवान आदीश्वर प्रभु ने प्रजा की आवश्यकतानुसार उसे ही अपने अवधिलोचन से ज्ञात कर प्रकट किया। देखिए-आदिपुराण, पर्व १६
भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्ष थे। उनसे दिव्य भोग सामग्री प्राप्त हो जाने से जाति, वर्ण, क्रिया, कर्म आदि की उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती थी। जब कर्मभूमि का काल आया तो वे सब कल्पवृक्षादि-लुप्त तिरोहित हो गए। उनके तिरोधान से त्रस्त प्रजा को अपना भूतकाल याद आया किन्तु ज्ञान की अल्पता के कारण वे अपने खोए वैभव को समझ नहीं सके और न पा सके। तब श्री आदिब्रह्मा ऋषभदेव की शरण में गए। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से अनादिकालीन चतुर्थकाल की रचना को विदेहक्षेत्र के समान यहाँ भी प्रकट किया विदेह क्षेत्र में यह चतुर्थकाल की वर्ण-व्यवस्था अनादि है, सतत् प्रकट रहती है। एक समान क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वहाँ प्रचलित रहते हैं। अनादि से बीज वृक्ष की सन्तानवत् चले आ रहे हैं और अनन्तकाल तक चलते रहेंगे। इस अनादि परम्परा को आचार्य श्री जिनसेनस्वामी ने स्वयं सिद्ध कर दिया है।
अर्थात् यहाँ पर उनके वंशज जो स्व-पर रक्षण में उद्यत हैं क्षत्रिय कहलाएं। यह अन्वय वृक्ष और बीज की भांति अनादि सन्तति से चला आ रहा है। विशेषत: उसकी उत्पत्ति (प्रादुर्भाव) क्षेत्र और काल की अपेक्षा से होती है। यहाँ उत्पत्ति शब्द का अर्थ पूर्व में लिखे अनुसार पुनरुत्थान, पुनरुज्जीवित करना या प्रकट करना समझना चाहिए। अन्य अर्थ असंभव है। अस्तु, वर्ण व्यवस्था न सादि है और न अटकलपच्चू कल्पित ही किन्तु अनादि और ध्रुव सत्य है। ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ में भी वर्ण शब्द का प्रयोग द्वन्द्व समास के प्रकरण में आया है। ‘ये वर्णेनार्हद्रू परस्यायोग्यास्तेषां द्वन्द्व एकवद्भवति’ अर्थात् जो वर्ण अर्हद्रूपं के अयोग्य हैं, उनमें समाहारद्वन्द्व समास होता है। किन्तु ‘अर्हद्रूपयोग्यानमिति किम्’’ ब्राह्मणक्षत्रियौ अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय अर्हदूप के योग्य है। इसलिए इनमें समाहार द्वन्द्व नहीं होता किन्तु इतरतर द्वन्द होता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शूद्र चाहे वह स्पृश्य हो या अस्पृश्य जिनदीक्ष धारण करने का अधिकारी नहीं हो सकता। उत्तरपुराण में श्री गुणभद्रस्वामी लिखते हैं कि-
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव:। येषु ते स्युस्त्रयों वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तिता:।।पर्व ७४।।अर्थात् जातिगोत्रादि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं। ये जिनमें पाये जाते हैं, वे तीन वर्ण हैं, बाकी सब शूद्र हैं। यहाँ वर्ण साध्य और जात्यादि साधन हैं, इसलिए जाति और वर्ण भिन्न-भिन्न है, यह भी फलित होता है। गोत्र का अर्थ कुल और कर्म का अभिप्राय क्रिया से है। इन सबका उत्तम होना मोक्षमार्ग का साधन है। श्री आदिपुराण में भी यही प्रकरण आया है-जैनोपासकदीक्षास्यात् समय: समयोचितम्। दधतो गोत्रजात्यादि नामान्तरमत: परम्।।५६।। (पर्व ३९)अर्थात् जैनोपासक दीक्षा के समय गोत्र, जाति आदि से वर्ण, कुल और कर्म आदि के नाम बदलने चाहिए। दूसरे शब्दों में श्रुतज्ञान तप बलादि की अपेक्षा नामादि करना चाहिए न कि वर्ण, जाति बदलना। जन्मजात स्वभावजन्य वस्तु में आजन्म परिवर्तन नहीं होता। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जाति-वर्ण परम्परा अनादि है। यह मानव-समाज को पनपने और जीवन्त रखने के लिए प्राण स्वरूप है। इनके आधार पर ही मानवता, सभ्यता, समृद्धि और आदर्श टिके रहते हैं और आगे भी रह सकेंगे। अत: वर्ण व्यवस्था को बनाये रखना मनुष्य समाज को बनाये रखना है। जाति-व्यवस्था का पोषण व स्थिति मानव समाज को नैतिक और आध्यात्मिक आधार प्रदान करते हैं तथा उभयलोक हितकारी हैं। शिष्टता और सदाचार का मूल जाति धर्म है। इसके सुव्यवस्थित रहने पर ही धर्म, न्याय, राज्य, राष्ट्र, देश, समाज समृद्ध रह सकते हैं अन्यथा नहीं। वर्ण और जाति व्यवस्थाहीन मनुष्य निरा पशु है, धर्मकर्मबहिर्भूत म्लेच्छ है। शील, संयम, व्रतविहीन जीवन मरण तुल्य है। आजकल कुछ तथाकथित सुधारवादी यह कहने लगे हैं कि जाति बन्धन और वर्ण व्यवस्था मनुष्य समाज को संकीर्ण घेरे में बंद कर देती है, उसके सर्वांग विकास को रोक देती है परन्तु उनका यह आरोप निराधार है। यह व्यवस्था मानवता की रोधक नहीं, पोषक है, नाशक नहीं, प्राणदायक है। इनकी स्थिति अत्यावश्यक है। जितना इनका जीवन्त रहना जरूरी है, उतना ही इनका शुद्ध रूप, अभिश्रपना रहना भी आवश्यक है। ‘कन्याव्रत को भंग करने से (विवाह पूर्ण किसी पुरुष का सम्पर्क होना) प्राप्त हुआ गोत्रस्खलन कुल, धर्म और मानवता को दूषण लगाने वाला तथा शीलव्रत का नाशक ही है। भौतिकता की चकाचौंध में, काम के आवेग में अथवा-भव विभव के व्यामोह में फंसकर जिसने कन्याव्रत को भंग कर दिया, उसे शीलव्रत कुलीनता और धर्मनिष्ठा सबको ही कलंकित किया है।’