भारत की धरती पर प्राचीनकाल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है, जो विशेष रूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है। जैनधर्म के प्राचीन मनीषी आचार्यों ने इस धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है—‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’, ‘‘जिनो देवता यस्यास्तीति जैन:’ अर्थात् कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं और जिन को देवता मानने वाले उपासक ‘जैन’ माने गये हैं। इस विस्तृत व्याख्या वाले जैनधर्म के प्रति अनेक विद्वान भी अपनी यह विचारधारा प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘जैनधर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है। जैन तीर्थंकरों की महान आत्माओं ने संसार के राज्यों के जीतने की चिंता नहीं की थी। राज्यों का जीतना कुछ ज्यादा कठिन नहीं है। जैन तीर्थंकरों की महान् आत्माओं ने संसार के राज्यों के जीतने की चिंता नहीं की थी। राज्यों का जीतना कुछ ज्यादा कठिन नहीं है। जैन तीर्थंकरों का ध्येय राज्य जीतने का नहीं बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का रहा है। यही एक महान ध्येय है और मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है।’’
इस धर्म के विषय में डॉ. विशुद्धानन्द
इस धर्म के विषय में डॉ. विशुद्धानन्द पाठक व डॉ. जयशंकर मिश्र ने ‘‘पुराना भारतीय इतिहास और संस्कृति’’ के (१९९—२००) पृष्ठ पर लिखा है—‘‘विद्वानों का अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और प्राग्वैदिक है। सिन्धु घाटी की सभ्यता से मिली योग: मूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों में ऋषभदेव तथा अरिष्टनेमि जैसे तीर्थंकरों के नाम इस विचार के मुख्य आधार है। भागवत और विष्णुपुराण में मिलने वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा भी जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है।’’ जैनधर्म के विषय में कुछ लोगों की धारणा यह है कि यह निरीश्वरवादी और नास्तिक धर्म है तथा इसकी स्थापना ईसा से ५४० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने की है किन्तु इस धर्म के प्राचीन ग्रंथों से विदित होता है कि सृष्टि का कर्ता कोई महासत्ता ईश्वर नहीं है अपितु प्रत्येक जीवात्मा अपने—अपने कर्मों का कर्ता स्वयं होता है। वही जब कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मोक्ष में चला जाता है तो ईश्वर, भगवान, परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है और ऐसा ईश्वर जैन मान्यतानुसार पुन: संसार में कभी जन्म नहीं धारण करता है, प्रत्युत् लोकशिखर पर निर्मित एक सिद्धशिला नामक सर्वसुखसम्पन्न स्थान पर वह सदा—सदा के लिए अनन्तसुख में निमग्न रहता है। ईश्वर के प्रति यही मान्यता उनकी ईश्वरवादिता एवं आस्तिकता समझी जाती है। ईश्वर सृष्टिकर्तृत्व एवं पुन:— पुन: उनके संसार में जन्म धारण करने की बात जैनधर्म में दोषास्पद मानी गई है, अष्टसहस्री नामक ग्रंथ में इस विषयक अतिसुन्दर सामग्री उपलब्ध होती है।
इस प्रकार जैनधर्म जाति के रूप में नहीं
इस प्रकार जैनधर्म जाति के रूप में नहीं बल्कि एक धर्म के रूप में ही भारतदेश की धरती पर कब से चल रहा है यह किसी को पता नहीं है किन्तु समय—समय पर तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर इस जैनधर्म की सार्वभौतिकता से परिचित कराया है। इस तीर्थंकर परम्परा में वर्तमान जैन इतिहास के अन्दर २४ नाम प्रमुखता से आते हैं— १. ऋषभदेव (आदिनाथ) २.अजितनाथ ३. संभवनाथ ४. अभिनंदननाथ ५. सुमतिनाथ ६. पद्मप्रभ ७. सुपार्श्वनाथ ८. चन्द्रप्रभ ९. पुष्पदंतनाथ १०. शीतलनाथ ११. श्रेयांसनाथ १२. वासुपूज्यनाथ १३. विमलनाथ १४. अनंतनाथ १५. धर्मनाथ १६. शांतिनाथ १७. कुंथुनाथ १८. अरहनाथ १९. मल्लिनाथ २०. मुनिसुव्रतनाथ २१. नमिनाथ २२. नेमिनाथ २३. पार्श्वनाथ २४. महावीर स्वामी जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त:- —उपर्युक्त सभी तीर्थंकर अपने—अपने समय पर धरती पर क्षत्रिय कुल में जन्में बड़े राजा के रूप में माने गये हैं। एक तीर्थंकर के निर्वाण प्राप्ति के बाद ही दूसरे तीर्थंकर अवतरित होते थे और जब तक दूसरे का जन्म नहीं होता था तब तक पहले वाले तीर्थंकर का ही शासनकाल माना जाता था, क्योंकि उनकी वाणी परम्परा से उनके मुनि शिष्यगण आगे भक्तों तक प्रेषित करते थे। जैनधर्म ने भगवान बनने के बाद किसी भी जीव के अवतारवाद को पूर्णत: अस्वीकार करते हुए सिद्ध महापुरुषों का संसार में पुनरागमन नहीं माना है। ये सभी तीर्थंकर मूलत: पाँच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) को धारण कर दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण करते थे पुन: मयूरपंख की पिच्छिका और काष्ठ का कमण्डलु इनकी मुख्य पहचान मानी जाती थी। दीक्षा के बाद मौन धारण करके ये तपस्या करते थे और कभी—कभी जंगल से नगर में आकर जैन गृहस्थों के घरों में ही जैनविधि अनुसार करपात्र में शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करते थे। उनको भोजन देने के लिए लोग बड़े भक्तिभाव के साथ अपने—अपने घर के द्वार पर खड़े होकर आदरपूर्वक बोलते थे—
‘‘हे स्वामिन् ! नमोस्तु—नमोस्तु—नमोस्तु, अत्र तिष्ठ—तिष्ठ आहार जल शुद्ध है’’
पुन: अपने दरवाजे पर पधारे उन अतिथि महापुरुष को घर के अंदर ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार (भोजन) देकर गृहस्थजन अपने को धन्य समझते थे। जैन पुराणों के अनुसार तो उनके ऐसे आहार के अवसरों पर आकाश से देवता भी रत्न, पुष्प एवं गंधोदक आदि पंचाश्चर्यों की वृष्टि करते थे जिसे पूरा नगर एकत्रित होकर देखता था। आज के कलियुग में नहीं दिखने वाला यह दृश्य कुछ लोग काल्पनिक मानकर उन महान जैन सन्तों को भिक्षुक के रूप में जानने लगते हैं किन्तु परमसत्यता एवं जितेन्द्रियता का पाठ पढ़ाने वाली यह दिगम्बर मुनिचर्या आज भी भारत के विभिन्न भागों में पदविहार करने वाले प्रत्येक दिगम्बर जैन मुनि के भोजन के समय देखी जा सकती है। आज के इस कलियुग में देवता द्वारा रत्नवर्षा आदि तो नहीं होती है किन्तु उनकी भोजन प्रक्रिया से तीर्थंकरों की कठिन चर्या का सहज ही ज्ञान हो सकता है। इन सभी तीर्थंकरों ने अनादि परम्परानुसार दीक्षा एवं तपस्या के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा प्रमुखरूप से निम्न पांच व्रतों का उपदेश दिया—१. अहिंसा २. सत्य ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह
इन पांच व्रतों को पूर्णरूप से पालन
इन पांच व्रतों को पूर्णरूप से पालन करने वाले दिगम्बर मुनि होते हैं और इन्हें तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी ग्रहण करते हैं इसलिए ये ‘महाव्रत’ नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं पांचों व्रतों का आंशिकरूप में पालन गृहस्थ जन करते हैं अत: ‘अणुव्रत’ संज्ञा से भी इनकी पहचान होती है। आज भी जैन समाज के पुरुष—स्त्रियां अपनी—अपनी श्रद्धा, शक्ति व सामथ्र्य के अनुसार महाव्रत एवं अणुव्रत को ग्रहण करते हुए अपनी सांसारिक इच्छाओं पर अंकुश लगाते देखे जाते हैं। इन पांचों महाव्रतों को ग्रहण करने वाले पुरुष, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन श्रेणियों में विभक्त हैं तथा जो स्त्रियां (कुंवारी कन्या, सौभाग्यवती अथवा विधवा) इन महाव्रतों को धारण करती हैं उन्हें दिगम्बर जैन परम्परा में आर्यिका तथा उनकी संघ प्रधान साध्वी को गणिनी की संज्ञा प्राप्त होती है। ये साध्वियाँ एक सफेद साड़ी धारण कर मुनियों के समान ही समाज में अपने संघों के साथ विचरण करती हुई धर्मोपदेश एवं साहित्य लेखन एवं धार्मिक कार्यकलापों की प्रेरणा प्रदान करती हैं। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भद्रबाहु मुनिराज के समय से दो भागों में विभाजित जैन समाज दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नाय में से दिगम्बर आम्नाय के ग्रंथों में पांचों महाव्रतों की बात सभी तीर्थंकरों द्वारा अपनाने और उपदेश देने की बात कही गई है जबकि श्वेताम्बर मान्यतानुसार पाश्र्वनाथ तीर्थंकर के द्वारा ब्रह्मचर्य को छोड़कर चार व्रतों का उपदेश देने की बात कही है और महावीर को उसमें ब्रह्मचर्य को जोड़कर पांच महाव्रतों का उपदेष्टा माना है। उपर्युक्त पांचों व्रतों के विपरीत पांच पाप होते हैं— १.हिंसा २. झूठ ३. चोरी ४. कुशील ५. परिग्रह
इन पापों में लिप्त रहने वाले
इन पापों में लिप्त रहने वाले मनुष्य तामसीवृत्ति के धारक और नकर—पशु आदि गतियों के दु:ख भोगते हैं जबकि व्रतों से सहित सदाचारी जीवन जीने वाले स्वर्ग सुखों को प्राप्त करते हैं ऐसा पुनर्भव का सिद्धान्त मानने वाले सभी जैन (आस्तिकवादी) मानते हैं। इसी प्रकार से जैन ग्रंथों में मानव को सदाचारी जीवन व्यतीत करने हेतु व्यसनों से दूर रहने की प्रेरणा प्रदान की गई है। वे व्यसन सात होते हैं— १. जुआ खेलना, २. मांसाहार करना, ३. मदिरा (शराब) पीना, ४. वेश्यासेन करना, ५. शिकार खेलना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना। इन सातों व्यसनों का सेवन करने वाले मानव अगले जन्म में सातों नरकों में जाने का मानों द्वार ही खोल लेते हैं, इनके विपरीत व्यसनमुक्त जीवन देवताअें का सुख प्रदान करने वाला माना गया है। जैनधर्म का मूल मंत्र भी अनादि प्राकृतिक रूप से चला आ रहा है, जो निम्न प्रकार हैं—
इस मंत्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच उत्तम पद के धारी महापुरुषों को नमर करते हुए उन्हें पंचपरमेष्ठी के रूप में स्वीकार किया गया है। इनमें से अरिहंत और सिद्ध तो ईश्वर परमात्मा हैं जो पूर्ण कृतकृत्य अवस्था में रहते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी वर्तमान में भी चतुर्विध संघ के साथ विचरण करते हुए आत्मकल्याण एवं जनकल्याण में प्रवृत्त देखे जाते हैं। जैनधर्म ने अहिंसा के सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है, जो केवल पशु—पक्षियों के प्रति ही नहीं वरन् पेड़—पौधे और जल—अग्नि आदि के रूप में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की आत्मा के लिए भी वह दयाभाव रखने का उपदेश देता है तथा किसी अन्य के प्रति होने वाले गलत विचारों को भी जैनधर्म ने भाव हिंसा माना है इसलिए अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म की अहिंसा अत्यधिक व्यापक कही गई है किन्तु हिंसक व्यक्ति से अपने परिवार की, धर्म की एवं देश की रक्षा के लिए अस्त्र—शस्त्र उठाने को इस धर्म ने विरोधी हिंसा कहकर गृहस्थ के लिए स्वीकार किया है। श्रमण और गृहस्थ इन दो रूपों में उपदिष्ट जैन शासन के सूत्रों ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में भी भारी सहयोग किया है और आज भी विश्व भर में फैल आतंकवाद को उन्हीं अहिंसा प्रधान सिद्धान्तों के द्वारा समाप्त किया जा सकता है, ऐसी जैनधर्म की मान्यता है।
तीर्थंकर महावीर का जैनधर्म के प्रवर्तन में योगदान
जैनशासन की धार्मिक मान्यतानुसार प्रत्येक सतयुग (दु:षमासुषमा नामक चतुर्थकाल) में २४—२४ महापुरुष जन्म लेते हैं जिन्हें तीर्थंकर कहते हैं। इस तीर्थंकर शृंखला में अनेक बार २४ तीर्थंकर इस धरती पर पहले हो चुके हैं और आगे भविष्य में भी अनेक बार २४ तीर्थंकर होंगे, जिनके जन्म सदा से ‘अयोध्या’ में ही होने का वर्णन प्राचीन जैन शास्त्रों में मिलता है किन्तु ऋषभदेव से महावीर तक वर्तमानकालीन २३ तीर्थंकरों में से कुछ तीर्थंकर (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, अनंतनाथ) का जन्म ही इस बार अयोध्या में हुआ तथा शेष तीर्थंकरों ने कालदोष से अलग—अलग नगरों में जन्म ले लिया। उन अनेक स्थानों में बिहार प्रान्त भी विशेष सौभाग्यशाली हो गया क्योंकि वह धरती २४वें तीर्थंकर महावीर के जन्म से पावन हुई। महावीर को जीवनवृत्त निम्न प्रकार है— आज से लगभग २६१२ वर्ष पूर्व (ईसा से लगभग ५९९ वर्ष पूर्व) बिहार प्रान्त के ‘कुण्डलपुर’ (वर्तमान नालंदा जिले में स्थित) नगर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला (प्रियकारिणी) ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार की रात्रि में तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया था। उनका बचपन का नाम ‘वर्धमान’ और दूसरा नाम ‘वीर’ था। नाथवंश के राजघराने में जन्मे वर्धमान के नाना बिहार प्रान्त में ही ‘वैशाली’ नगरी के राजा थे, उनके दस पुत्र थे तथा सात पुत्रियों में से सबसे बड़ी ‘त्रिशला’ को वर्धमान की मां बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वर्तमान में कुछ आधुनिक इतिहासकार महावीर की जन्मभूमि के रूप में ‘वैशाली’ के कुण्डग्राम को बताते हैं किन्तु इस विषय में प्राचीन दिगम्बर जैन आगम में बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर का वर्णन आता है कि वहां के राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के सिद्धार्थ नामक पुत्र थे। वे युवराज सिद्धार्थ ही आगे चलकर कुण्डलपुर के महाराजा सिद्धार्थ कहलाये, उनका विवाह वैशाली के राजा चेटक और रानी सुभद्रा की पुत्री त्रिशला के साथ हुआ। पुन: त्रिशला के गर्भ में जब तीर्थंकर महावीर आये, तो उनके ‘नंद्यावर्त महल’ के आंगन में कुबेर ने रत्नों की वर्षा की थी और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि को महावीर का जन्म हुआ था। श्वेताम्बर जैनों के अनुसार बिहार के ही एक ‘लिछवाड़’ ग्राम को महावीर की जन्मभूमि माना जा रहा है। कतिपय शोधकर्ताओं ने वैशाली के कुण्डग्राम को भी महावीर की जन्मभूमि माना है। महावीर ने ३० वर्ष की युवावस्था में राजसुखों का त्यागकर जैन दीक्षा धारण की थी और बारह वर्ष कठोर तपस्या के बाद उन्हें वैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी। श्वेताम्बर जैन साहित्य के अनुसार महावीर का यशोदा नामक राजकुमारी के साथ विवाह होना और एक पुत्री का पिता होना माना गया है। दिगम्बर जैन साहित्य ने सर्वत्र उन्हें बाल ब्रह्मचारी स्वीकार कर पंच बालयतियों में (वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्र्व और महावीर) उनकी विशेषता बतलाई है। इन आगम ग्रंथों में चौबीस तीर्थंकरों में से उन्नीस को विवाहित और राज्य व्यवस्था संचालित करने के कारण राजा माना है एवं पांच तीर्थंकरों ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा कर युवावस्था में ही दीक्षा ले ली इसलिए वे युवराज ही रहे और बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों की गणना में आये। प्रभु महावीर अपने बारहवर्षीय दीक्षित जीवन के मध्य एक बार कौशाम्बी नगरी में गये, वहां वैशाली के राज चेटक की सबसे छोटी कन्या चन्दना एक सेठानी द्वारा सताई जाने के कारण बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। महावीर को देखते ही उसकी बेड़ियाँ स्वयं टूट गर्इं, उसके मुंडे सिर पर केश आ गये। कोदों का भात सुन्दर खीर बन गई अत: प्रसन्नतापूर्वक चंदना ने उन्हें आहार देकर अपने सतीत्व का परिचय दिया। बाद में यही चन्दना महावीर के समवसरण की प्रमुख साध्वी (गणिनी) बनीं और इतिहास में उनकी घटना विशेष उल्लेखनीय बन गई।
भगवान महावीर के जीवनकाल में एक विशेष प्रसंग
भगवान महावीर के जीवनकाल में एक विशेष प्रसंग भी आया है कि पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों के समान केवलज्ञान होते ही उनकी दिव्यध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई और वे ६६ दिन तक मौनपूर्वक ही विहार करते रहे। इसका कारण उनके शिष्य रूप गणधर का अभाव बताया गया है पुन: जब इन्द्र ने अपनी बुद्धि से एक गौतम गोत्रीय विद्वान को वहां उपस्थित किया, तो वह महावीर के दर्शनमात्र से प्रभावित होकर अपने ५०० शिष्यों के साथ उनके शिष्य बन गये, उनके दीक्षा धारण करते ही महावीर की दिव्यध्वनि प्रगट हो गई, वह दिन श्रावक कृ. एकम् का था, जो आज भी जैन समाज में ‘वीर शासन जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। बिहार प्रान्त में राजगृही नगर की पंचपहाड़ी में से विपुलाचल नामक पर्वत है जहाँ महावीर देशना के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं। पुन: ३० वर्ष तक तीर्थंकर महावीर ने अपने दिव्य केवलज्ञान से सारे संसार को उपदेश दिया और ७२ वर्ष की आयु में र्काितक कृष्णा अमावस के प्रभातकाल में बिहार के पावापुर नगर में उनका महानिर्वाण हो गया अर्थात् उन्होंने परमात्म पद प्राप्त कर लिया। जैन पुराणों के अनुसार उस दिन स्वर्ग से देवताओं ने भी आकर अंधेरी रात को दीपमालिका से जगमगा दिया था, अत: तभी से वीर निर्वाण के रूप में दीपावली पर्व मनाया जाने लगा है और तब से वीर निर्वाण संवत् भारत में सबसे प्राचीन संवत्सर के रूप में प्रचलित है। महावीर के द्वारा उपदिष्ट समस्त सिद्धान्तों को उनके गणधर शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप में प्रस्तुत किया, वही क्रम परम्परा से आज तक विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध हो रहा है। दिगम्बर जैन शासन ने यह श्रुतज्ञान चार अनुयोग रूप (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग) में प्रतिपादित अंग और पूर्व का अंश माना है और श्वेताम्बर जैन मान्यता ने अंग और पूर्वरूप सभी आगम ग्रंथों का अपने आचार्यों द्वारा लेखन स्वीकार किया है। महावीर के समवसरण में प्रविष्ट होते ही सबसे पहले इन्द्रभूमि गौतम ने संस्कृत भाषा में स्तुति की थी, जो चैत्यभक्ति के रूप में ‘जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचार—विजृम्भिता…..’’ इत्यादि सुन्दर पठनीय है। पुन: उन्होंने भगवान की ऊँकारमयी वाणी को श्रमण और गृहस्थों तक पहुँचाने के लक्ष्य से प्राकृत भाषा में सुदं मे आउस्संतो!……. इत्यादि शिष्ट और मिष्ट भाषा का प्रयोग करके उनके आचार—विचार की बात बताई। जैन शास्त्रों के अनुसार महावीर के जन्म से लेकर निर्वाण जाने तक इन्द्र देवता और बड़े—बड़े सम्राट् राजा सदैव उनकी भक्ति में तत्पर रहते थे तथा उनके व्यक्तित्व में ऐसा चुम्बकीय आकर्षण था कि पास आने वाला प्रत्येक प्राणी उनका भक्त बन जाता था। मनुष्यों की बात तो दूर, शेर और गाय जैसे प्राणी भी उनके पास आकर जन्मजात वैर भाव छोड़कर एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे अहिंसामयी जैनधर्म के पुनरुद्धारक भगवान महावीर की सर्वोदयी शिक्षाएं आज भी विश्वशांति के लिए महान उपयोगी हैं।