दोष अनन्त नष्ट कर, जिनने गुण अनत को प्राप्त किया ।
तीर्थंकर अनन्त बन कर इस जगती का उपकार किया ।।
नमन करें हम आज उन्हें और निज अनन्त पद पायें ।
सोलहकरण भावना भायें, औ जिन अनन्त बन जायें ।।
धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से उत्तर की ओर विद्यमान अरिष्ट नामक नगर में राजा पद्मरथ राज्य करता था। एक दिन उन्होंने स्वयं प्रभु जिनेन्द्र के पास जाकर धर्मोपदेश सुना और चिन्तन किया कि जीवों का शरीर के साथ और इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ जो संयोग होता है वह अनित्य है; क्योंकि इस संसार में सभी जीवों के आत्मा और शरीर तथा इन्द्रियाँ और उनके विषय इनमें से एक अभाव होता ही रहता है –
संयोगो देहिनां देहैरक्षाणा च स्वगोचरै: ।
अनित्योऽन्यतराभावे सवैषामाजवंजवे ।।
इस तरह वैराग्य उत्पन्न होने पर राजा पद्मरथ ने अपने घनरथ नामक पुत्र को राज्य देकर संयम धारण कर लिया। ग्यारह अंग रूप सागर का पारगामी होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अंत में सल्लेखना धारण कर मरण को प्राप्त हो अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में बाईस सागर की आयुवाला इन्द्रपद प्राप्त किया। वहाँ शरीर की ऊँचाई साढ़े तीन हाथ, लेश्या शुक्ल थी। वह ग्यारह मास में एक बार श्वास लेता था, बाईस हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता था, मानसिक प्रवीचार से सुखी रहता था, तभ: प्रभ नामक छठवीं पृथिवी तक उसका अवधिज्ञान था और वहीं तक उसका बल, विक्रिय और तेज था। उस जीव ने सुखोपभोगपूर्वक अच्युत स्वर्ग में अपनी आयु व्यतीत की। यही जीव अगले भव में जैनधर्म के १४वें तीर्थंकर के रूप में अवतरित हुआ।
वृत्तान्तर इस प्रकार है – जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वांकुवंशी काश्यप गोत्री महाराज सिंहसेन अपनी महारानी जयश्यामा (सर्वयशा) के साथ सुखोपभोग करते थे। कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा के दिन प्रात: काल रेवती नक्षतके रहते रानी जयश्यामा (सर्वयशा) ने सोलह स्वप्न देखे और मुख में हाथी को प्रवेश करते हुए देखा; जिसका प्रतिफल राजा सिंहसेन ने प्रकार बताया कि तुम्होरे गर्भ में अच्युतेन्द्र नाकर जन्म ले तीर्थंकर बनेंगे। तदनन्दर देवों ने अयोध्या आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाकर राजा सिंहसेन और रानी जयश्यामा (सर्वयशा) की वस्त्र, माला और आभुषण आदि से अलंकृतकर पूजा की। रानी ने नौ माह व्यतीत होने पर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन पूषा योग, रेवती नक्षत्र में पुण्यवान पुत्र को उत्पन्न किया। जन्म की सूचना जानकर सौधर्म इन्द्र अयेध्या में राजा सिंहसेन के राजप्रासाद में आया ओर शची के द्वारा नवजात तीर्थंकर शिशु को मँगवाकर मेरुपर्वत की पाण्डुक शिला पर ले गया। जहाँ उनका क्षीरसागर के जल से भरे १००८ कलशों से देवों ने अभिषेक किया तथा अनन्तजित् (अनन्तनाथ) नाम रखकर भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। १३वें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान् के बाद नौ सागर और पौन पल्य व्यतीत हो जाने पर तथा अंतिम समय धर्म का विच्छेद हो जाने पर तीर्थंकर जिन अनन्तनाथ का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी। उनकी कुल आयु तीस लाख वर्ष, शरीर पचास धनुष ऊँचा, रंग देदीप्यमान स्वर्ण के समान था, वे एक हजार आठ शुभ लक्षणों से सुशोभित थे।
उनका चिन्ह सेही था। बचपन एवं कुमार काल पचहत्तर हजार वर्ष व्यतीत होने पर वे राजा बने, उन्होंने पन्द्रह लाख वर्ष पर्यन्त राज्य किया। उन्होंने विवाह कर कामसुख भोगा। उनके पुत्र का अन्नतविजय था। एक दिन उल्कापात देखकर उनके मे में ऐसा विचार आया कि संसार का स्वभाव ऐया ही है कि जो जहाँ आता है वह जाता ही है। यह दुष्कर्म रूपी बेल अज्ञान रूपी बीज से उत्पन्न हुई है, असंयत रूपी पृथिवी के द्वारा धारण की हुई है, प्रमादरूपी जल से सींची गई है, कषाय ही इसकी स्कन्धयष्टि है। बड़ी मोटी शाखा है, योग के आलम्बन से बढ़ी हुई है, अनेक रोग ही इसके पत्ते हैं, और दु:ख रूपी फलों से झुक रही है।मैं इस दुष्ट कर्मरूपी बेल को शुक्लध्यान-रूपी तलवर के द्वारा आत्मकल्याण के लिए जड़मूल से काटना चाहता हूँ। इस तरह विचार करते हुए संसार से हो गया है वैराग्य जिनको; ऐसे राजा श्री अनन्तजित् (अनन्तनाथ) की भावना का अनुमोदन करने के लिए लौकान्तिक देव आये और राजा अनन्तजित् (अनन्तनाथ) की पूजा की। राजा अनन्तजित् (अनन्तनाथ) ने अपने योग्यपुत्र अनन्तविजय को राज्यभार सौंप दिया। तदन्तर श्री अनन्तजित् (अनन्तनाथ) सागरदत्त नामक पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और वहाँ बेला का नियम लेकर ज्येष्ठकृष्णा द्वादशी के दिन सायंकाल (अपरान्ह) एक हजार राजाओं के साथ पंचमुष्ठि केशलोंच कर वस्त्र त्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण की। मुनिव्रत ग्रहण करते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान हो गया। दीक्षा के दूसरे दिन (तृतीय भक्त दीक्षोपवासी) मुनि अनन्तनाथ आहार चर्या के लिए साकेतपुर में गये। वहाँ स्वर्ण के समान कांतिवाले विशाख नामक राजा के यहाँ आहार किया।
देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किए। अनन्तनाथ तपश्चरण हेतु स्थित हो गये। छद्मस्थ्ज्ञ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर चैत कृष्णा अमावस्या के दिन सांयकाल रेवती नक्षत्र में सहेतुकवन में अश्वस्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे अयोध्या में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। देवों ने आकर केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया। केवलज्ञान होने के उपरान्त सौधर्मइन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना की जिसका क्षेत्रफल ५.५ योजन (कहीं-कहीं छ: योजन विस्तार भी बताया है) था। समवशरण के मध्य अन्तरिक्ष में विराजमान तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ भगवान् की दिव्य ध्वनि से प्राणियों ने आत्मोद्धार का मार्ग जाना। उनके इस विस्तृत बारह सभाओं से युक्त समोशरण में १,००० पूर्वधारी, ३९,५०० शिक्षक, ४,३०० अवधिज्ञानी, ५,००० केवलज्ञानी, ८,००० विक्रियाऋद्धिधारक, ५,००० मन:पर्ययज्ञानी ३,२०० वादी, इस तरह ६६,००० मुनि तीर्थंकर भगवान् की स्तुति करते थे। सर्वश्री सहित १,०८,००० आर्यिकाएं थीं। २,००,००० श्रावक तथा ४,००,००० श्राविकाएं थीं। मुख्य श्रोता ‘पुरुष पुंडरीक’ थे। उनके मुख्य गणधर अरिष्ट थे। कुल गणधर ५० थे। असंख्यात देव-देवियां और संख्यात तिर्यंच उनके समोशरण में थे। उनका केवल्यकाल ७,४९,९९८ वर्ष का था। श्री अनन्तनाथ भगवान् के तीर्थ में सुप्रभबलभद्र और पुरुषोत्तम नामक नारायण हुए थे। धर्मोपदेश पूर्वक विहार करते हुए तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ भगवान् अंत में सम्मेदशिखर पहुंचे वहाँ उन्होंने एक माह का योग निरोध कर ६,१०० मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया। अनन्तर चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के प्रथम भाग में चतुर्थ शुक्ल ध्यान धारण कर खड्गासन से निर्वाण को प्राप्त कियां श्री अनन्तनाथ के निर्वाण के साथ मुक्त हुए जीवों की संख्या ७,००० हैं। सौधर्म इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान् का निर्वाण कल्याणक मनाया और अग्निकुमार देवों ने केश और नख के साथ मायामयी शरीर का निर्माण कर अग्निसंस्कार के साथ अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ भगवान् ने जीवों के कल्याण हेतु बताया कि जब तक यह जीव कषायों का शोषण नहीं करेगा तब तक उसे आत्म विजय प्राप्त नहीं होगी। ध्यान रूपी औषधि के द्वारा आत्मा को पाया जा सकता है। कामदेव के प्रभाव को भी आत्मध्यान की शक्ति से जीता जा सकता है।त्तप साधना रूव परिश्रम से आत्मा में लगे हुए कर्म मल जल कर नष्ट हो जाते हैं और उत्तम मोक्ष रूप लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। संसार में चतुर्गति रूप दु:ख लगे हुए हैं।
पुण्य के फल से साता (सुख) की प्राप्ति होती है किन्तु संसार का सुख भी आत्मार्थी के लिए दु:ख रूप ही प्रतीत होता है। वह तो इनसे मुक्त होना चाहता है। अत: आत्मार्थी सुख और दु:ख दोनों की स्थिति में उदासीन होत है। संसारी उदासीनता ही मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ होती है। हे भगवन् ! आपका बताया जिनमार्ग हम सबके कल्याण के लिए कार्यकारी बने इस भावना के साथ आपको हमारा बारंबार नमस्कार है।