प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के पंचम परिच्छेद में देखें-‘‘अथ ध्वजारोहण विधि:’’ नामक ॐ सर्वद्रव्यपर्यायविषयवैशद्यपराकाष्ठाधिष्ठितकेवलज्ञाननिष्ठपरमेष्ठि-प्रतिष्ठादिवसात् षष्ठेऽहनि बृहच्छान्तिकयागमंडलाराधनां समासत: समापूर्य पंचदशा-द्यंतवितस्तिरूपषड्विधदैर्घ्यान्तमदैर्घ्यस्य, एकोनविंशत्यंगुलादिचतुर्विंशत्यंगुलांत-षड्विधव्यासान्यतमव्यासस्य, पदोनतद्व्याससमदैर्घ्य-सरज्जुपार्श्वामूलाग्र पौष्टिक-क्रमहानिरूपकफुल्लिकालंकृतशिखोपलक्षितस्य, शिखासमाभ्यंतरं मूलाग्रपौष्टिकक्रम-हानिरूपपादद्वयविराजितस्य, अष्टत्रयोदशाद्यंतयवव्यासकदलिच्छेदकलितशिखा-पादवर्जितपार्श्वस्य, शिखापादविस्तारतिर्यग्गूढेषिकाभूषितस्य, शिखामूलैषिकामध्य-घटितरज्जुबंधस्य, हटद्धाटकघंटिकाफुल्लिकासमुल्लसितस्यसुधौतसुश्लिष्टश्वेत-नूतनवास: परिकल्पितस्यास्य ध्वजस्य, ध्वजमस्तकाध: प्रथमे पदे छत्रत्रयं, द्वितीये पदे जिननाथपद्मयानप्रदर्शकं पद्मवाहनं, तृतीये पूर्णकलशं, तत्पार्श्वयो: स्वस्तिकं, स्वस्तिकचूलिकाया: पार्श्वद्वये दीपदंडद्वयमुज्वलज्ज्वालकं, चतुर्थे श्वेतातपत्रं, तदुभयपार्श्वयो: कुंदेंदुविशदचारुचामरद्वयं, पंचमे पदे छत्रं, तस्याध:प्रदेशे तत्र विलिखितध्वजे वा श्वेतगजपृष्ठ्य््याधिष्ठितमिंद्रनीलप्रभमध: करद्बयरचितांजलिं, ऊर्ध्वकरद्वयधृतधर्मचक्रं, जिनबिंबेद्धमूर्धानं एकछत्रसमन्वितं अनेकालंकारालंकृत-सर्वाण्हयक्षम्, तत्पार्श्वयोर्दीपदंडचामरस्वस्तिकानि यथाशोभं शिल्पिना विलिख्य तदेतन्महाध्वजं तद्यागमंडलस्याग्रतो वेदिकातले पूर्वस्यां दिशि समवस्थाप्य, हस्तद्वयोदयहस्तविस्तारप्रमितान् शिखापादकदलिच्छेदफुल्लिकाशोभितान्, दिक्पालकेतून् तथा विधानेन मंगलार्घ्यकरदिक्कन्यकाकेतून्, एकहस्तोदय-हस्तार्धव्यासशिखाद्यलंकृत मालामृगेन्द्राद्यंकितपंचवर्ण केतून् तद्ध्वजपार्श्वयोरव-स्थाप्य, यक्षादि सर्वध्वजदेवानां आवाहनस्थापनसन्निधापनानि समंत्रं विधाय। तन्महाध्वजाग्रत: सर्वौषधिमिश्रतीर्थोदकपूर्णामृतमंत्राभिमंत्रितनवकलशान् गंधाक्षतपुष्प-फलादीन् मंगलोपकरणानि निधाय। दर्पणप्रतिबिंबितानां सर्वाण्हयक्षादिध्वजदेवतानां तज्जलेन संप्रोक्षणमनुलेपनं विधाय। मुखवस्त्रं दत्वा नयनोन्मीलनं सुलग्ने विरचय्याभ्यर्च्य विविधालंकारालंकृतानामेषां सर्वध्वजानां पुरि महोत्सवेन विहारमिदानीं विधातुमिमे वयमुत्सहामहे।।
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इसका अभिप्राय यह है कि श्री जिनेन्द्रदेव के केवलज्ञान कल्याणक के छह दिवस पूर्व ‘‘बृहत्शांतिक-यागमंडलाराधन विधि’’ करके ध्वजारोहण करें। यह ध्वजा वैâसी हो? इस विषय का वर्णन ध्वजा के चित्र में जो दिया है उसी में से समझना चाहिए। इस ध्वजा के दोनों तरफ लघुध्वजायें २८ होना चाहिए। यह महाध्वज यागमंडल के सामने और वेदी के नीचे होना चाहिए। महाध्वज के वस्त्र पर सर्वाण्हयक्ष की मूर्ति होना चािहए। इस ध्वज के दोनों तरफ दिक्पाल और दिक्कन्याओं के लघुध्वज और माला, मृगेन्द्र आदि चिन्ह के पाँच वर्ण के लघु ध्वज रहते हैं।इन सर्वध्वज देवताओं का आह्वानन-स्थापन-सन्निधीकरण मंत्र विधि से करें। पुन: ध्वजा के सन्मुख नव कलश स्थापित करें। उन कलशों में सर्वोषधि डालें, अमृतमंत्र से अभिमंत्रित जलयात्रा विधि से लाये गये तीर्थोदक-तीर्थ के जल को भरें। गंध, अक्षत, पुष्प, फल और मंगलद्रव्य, उपकरण आदि पास में रखकर महाध्वज के सामने बड़ा सा दर्पण स्थापित करें। उसमें सभी ध्वजाओं का प्रतिबिंब पड़ना चाहिए। उस दर्पण में बिंबित सर्वाण्हयक्ष आदि देवताओं का कलशों के जल से अभिषेक व अनुलेपन करें। तदनंतर मुखवस्त्र लगाकर (पर्दा डालकर) शुभलग्न में नय्नाोन्मीलन विधि करें और पूजाकरें। अनंतर इस महाध्वज को सजाकर शहर में बड़े वैभव के साथ जुलूस निकालें।इसमें विद्वज्जन् ध्यान दें कि घंटिका, फूल आदि से सुसज्जित सुधौतसुश्लिष्टश्वेतनूतनवास: परिकल्पितस्यास्य ध्वजस्य….का अर्थ है अच्छी प्रकार से धुला हुआ कोमल-चिकना सफेद नया वस्त्र महाध्वज के लिए प्रयोग करें। अनेक प्रकार के स्वस्तिक-दण्ड-चामर आदि चित्रों से समन्वित इस महाध्वज को यागमण्डल के आगे वेदिकातल की पूर्व दिशा में स्थापित करके पुनः महाध्वज के नीचे आजू-बाजू में (दोनों पार्श्वभागों में) माला, मृगेन्द्र आदि चिन्हों से अंकित पंचवर्ण की लघु ध्वजाएँ स्थापित करके यक्षादि सभी ध्वजदेवों के आह्वान का विधान है अर्थात् दश दिक्पाल की १० ध्वजाएँ, आठ दिक्कन्याओं की ८ ध्वजाएँ और माला-मृगेन्द्र आदि दश चिन्हों से अंकित १० ध्वजाएँ, इस प्रकार कुल २८ लघु ध्वजाएँ होती हैं। इस महाध्वजा का चित्र