प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के पंचम परिच्छेद में देखें-
‘‘अथ ध्वजारोहण विधि:’’
ॐ सर्वद्रव्यपर्यायविषयवैशद्यपराकाष्ठाधिष्ठितकेवलज्ञाननिष्ठपरमेष्ठि-प्रतिष्ठादिवसात् षष्ठेऽहनि बृहच्छान्तिकयागमंडलाराधनां समासत: समापूर्य पंचदशा-द्यंतवितस्तिरूपषड्विधदैघ्र्यान्तमदैघ्र्यस्य, एकोनविंशत्यंगुलादिचतुर्विंशत्यंगुलांत-षड्विधव्यासान्यतमव्यासस्य, पदोनतद्व्याससमदैघ्र्य-सरज्जुपार्श्वमूलाग्र पौष्टिक-क्रमहानिरूपकपुल्लिकालंकृतशिखोपलक्षितस्य, शिखासमाभ्यंतरं मूलाग्रपौष्टिकक्रम-हानिरूपपादद्वयविराजितस्य, अष्टत्रयोदशाद्यंतयवव्यासकदलिच्छेदकलितशिखा-पादवर्जितपाश्र्वस्य, शिखापादविस्तारतिर्यग्गूढेषिकाभूषितस्य, शिखामूलैषिकामध्य-घटितरज्जुबंधस्य, हटद्धाटकघंटिकापुल्लिकासमुल्लसितस्यसुधौतसुश्लिष्टश्वेत-नूतनवास: परिकल्पितस्यास्य ध्वजस्य, ध्वजमस्तकाध: प्रथमे पदे छत्रत्रयं, द्वितीये पदे जिननाथपद्मयानप्रदर्शकं पद्मवाहनं, तृतीये पूर्णकलशं, तत्पाश्र्वयो: स्वस्तिवं, स्वस्तिकचूलिकाया: पार्श्वदीपदंडद्वयमुज्वलज्ज्वालवं, चतुर्थे श्वेतातपत्रं, तदुभयपार्श्वयो कुंदेंदुविशदचारुचामरद्वयं, पंचमे पदे छत्रं, तस्याध:प्रदेशे तत्र विलिखितध्वजे वा श्वेतगजपृष्ठ्य्याधिष्ठितमिंद्रनीलप्रभमध: करद्बयरचितांजलिं, ऊध्र्वकरद्वयधृतधर्मचव्रं, जिनबिंबेद्धमूर्धानं एकछत्रसमन्वितं अनेकालंकारालंकृत-सर्वाण्हयक्षम्, तत्पाश्र्वयोर्दीपदंडचामरस्वस्तिकानि यथाशोभं शिल्पिना विलिख्य तदेतन्महाध्वजं तद्यागमंडलस्याग्रतो वेदिकातले पूर्वस्यां दिशि समवस्थाप्य, हस्तद्वयोदयहस्तविस्तारप्रमितान् शिखापादकदलिच्छेदपुल्लिकाशोभितान्, दिक्पालकेतून् तथा विधानेन मंगलार्घ्दिक्कन्यकाकेतून्, एकहस्तोदय-हस्तार्धव्यासशिखाद्यलंकृत मालामृृगेन्द्राद्यंकितपंचवर्ण केतून् तद्ध्वजपाश्र्वयोरव-स्थाप्य, यक्षादि सर्वध्वजदेवानां आवाहनस्थापनसन्निधापनानि समंत्रं विधाय। तन्महाध्वजाग्रत: सर्वौषधिमिश्रतीर्थोदकपूर्णामृतमंत्राभिमंत्रितनवकलशान् गंधाक्षतपुष्प-फलादीन् मंगलोपकरणानि निधाय। दर्पणप्रतिबिंबितानां सर्वाण्हयक्षादिध्वजदेवतानां तज्जलेन संप्रोक्षणमनुलेपनं विधाय। मुखवस्त्रं दत्वा नयनोन्मीलनं सुलग्ने विरचय्याभ्यर्च्य विविधालंकारालंकृतानामेषां सर्वध्वजानां पुरि महोत्सवेन विहारमिदानीं विधातुमिमे वयमुत्सहामहे।।
इसका अभिप्राय यह है कि श्री जिनेन्द्रदेव के केवलज्ञान कल्याणक के छह दिवस पूर्व ‘‘बृहत्शांतिक-यागमंडलाराधन विधि’’ करके ध्वजारोहण करें। यह ध्वजा कैसी हो? इस विषय का वर्णन ध्वजा के चित्र में जो दिया है उसी में से समझना चाहिए। इस ध्वजा के दोनों तरफ लघुध्वजायें २८ होना चाहिए। यह महाध्वज यागमंडल के सामने और वेदी के नीचे होना चाहिए। महाध्वज के वस्त्र पर सर्वाण्हयक्ष की मूर्ति होना चािहए। इस ध्वज के दोनों तरफ दिक्पाल और दिक्कन्याओं के लघुध्वज और माला, मृगेन्द्र आदि चिन्ह के पाँच वर्ण के लघु ध्वज रहते हैं। इन सर्वध्वज देवताओं का आह्वानन-स्थापन-सन्निधीकरण मंत्र विधि से करें। पुन: ध्वजा के सन्मुख नव कलश स्थापित करें। उन कलशों में सर्वोषधि डालें, अमृतमंत्र से अभिमंत्रित जलयात्रा विधि से लाये गये तीर्थोदक-तीर्थ के जल को भरें। गंध, अक्षत, पुष्प, फल और मंगलद्रव्य, उपकरण आदि पास में रखकर महाध्वज के सामने बड़ा सा दर्पण स्थापित करें। उसमें सभी ध्वजाओं का प्रतिबिंब पड़ना चाहिए। उस दर्पण में बिंबित सर्वाण्हयक्ष आदि देवताओं का कलशों के जल से अभिषेक व अनुलेपन करें। तदनंतर मुखवस्त्र लगाकर (पर्दा डालकर) शुभलग्न में नय्नाोन्मीलन विधि करें और पूजा करें। अनंतर इस महाध्वज को सजाकर शहर में बड़े वैभव के साथ जुलूस निकालें। इसमें विद्वज्जन् ध्यान दें कि घंटिका, फुल आदि से सुसज्जित सुधौतसुश्लिष्टश्वेतनूतनवास: परिकल्पितस्यास्य ध्वजस्य….का अर्थ है अच्छी प्रकार से धुला हुआ कोमल-चिकना सफेद नया वस्त्र महाध्वज के लिए प्रयोग करें। अनेक प्रकार के स्वस्तिक-दण्ड-चामर आदि चित्रों से समन्वित इस महाध्वज को यागमण्डल के आगे वेदिकातल की पूर्व दिशा में स्थापित करके पुनः महाध्वज के नीचे आजू-बाजू में (दोनों पाश्र्वभागों में) माला, मृगेन्द्र आदि चिन्हों से अंकित पंचवर्ण की लघु ध्वजाएँ स्थापित करके यक्षादि सभी ध्वजदेवों के आह्वान का विधान है अर्थात् दश दिक्पाल की १० ध्वजाएँ, आठ दिक्कन्याओं की ८ ध्वजाएँ और माला-मृगेन्द्र आदि दश चिन्हों से अंकित १० ध्वजाएँ, इस प्रकार कुल २८ लघु ध्वजाएँ होती हैं।
इस महाध्वजा का चित्र प्रतिष्ठा-तिलक में इस प्रकार है-
१. इस प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रारंभ में सफेद महाध्वजा बनाकर ध्वजारोहण विधि सम्पन्न करना चाहिए किन्तु परम्परा में केशरिया ध्वज से ध्वजारोहण करने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है, कुछ विद्वान् सफेद ध्वजा से भी कराते हैं।
२. इसी प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के पंचम परिच्छेद में ‘‘भेरीताड़न विधे: प्रयोग:’’ के अंतर्गत भेरीताड़न विधि में प्रतिष्ठा मंडप की दशों दिशाओं में अलग-अलग रंगों की दश ध्वजाएँ लगाने का विधान है। यथा-दश प्रकार के चिन्हों से सहित दश ध्वजाओं को क्रम से दश दिशाओं में स्थापित करें। इन दशचिन्हों के नाम-माला, सिंह, कमल, वस्त्र, गरुड़, हाथी, बैल, चकवा, मयूर और हंस। ये दशों ध्वजाएँ क्रम से पाँच वर्ण की मानी हैं। उनके वर्ण-पीत, लाल, काली, हरी, श्वेत, नीली, काली, पंचवर्णी, पंचवर्णी और पंचवर्णी ऐसी ध्वजायें बनावें और क्रम से श्लोक व मंत्र बोलकर उन-उन दिशाओं में लगाते जावें। यहाँ अधो और ऊध्र्व दिशा के लिए ईशान और पूर्व के बीच को अधो दिशा और नैऋत्य तथा पश्चिम दिशा के बीच की दिशा को ऊर्ध्व मानकर वहाँ-वहाँ लगाते हैं।
३. मंदिर वेदी प्रतिष्ठा-कलशारोहण विधि (पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य-सागर द्वारा संपादित) पुस्तक में भी ध्वजा के तीन आकार दिये हैं। यथा-
४. आज भी भारत के अधिकतम मंदिरों के शिखरों पर या तो रेशमी केशरिया ध्वज लहरा रहे हैं अथवा धातुनिर्मित स्थिर ध्वजा भी लगाने की वर्तमान में परम्परा चल रही है । उदाहरणस्वरूप हस्तिनापुर के प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर के ऊपर पीतल की ध्वजा लगी है वहाँ प्राय: सभी मंदिरों पर कहीं त्रिकोणाकार केशरिया ध्वजा है, कहीं द्वित्रिकोणाकार की ध्वजा है एवं कहीं कपड़े की केशरिया ध्वजा हैं। हस्तिनापुर के श्वेताम्बर मंदिरों पर लम्बी तीन पट्टी की ध्वजा है जिसमें बीच में सफेद और आजू-बाजू की पट्टी लाल है। ऐसी तीन पट्टी की लम्बी ध्वजा गुजरात में भी प्राय: सभी श्वेताम्बर मंदिरों में देखी जाती हैं।
५. इन्दौर के एक सज्जन (राजकुमार जैन) ने बताया कि वहाँ कई मंदिरों पर लालरंग की आयताकार ध्वजा हैं ।
६. पहले बचपन में भी मैंने झण्डारोहण के समय विद्वानों को गीत गाते सुना है- लहर लहर लहराए, केशरिया झण्डा जिनमत का हो जी दूसरा गीत भी आपने इसी प्रकार सुना होगा- स्वस्तिकमय केशरिया प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा ।
७. पं. श्री गुलाबचन्द्र पुष्प-टीकमगढ़ द्वारा सम्पादित ‘‘प्रतिष्ठा रत्नाकर’’ ग्रंथ (जिसमें आचार्यश्री विमलसागर जी, आचार्य श्री विद्यानंद जी, आचार्य श्री कुंथुसागर, उपाध्यायश्री भरतसागर आदि के आशीर्वचन भी लिखे हैं) में पृ. ८७ पर ध्वजगान है- मंगलमय केशरिया प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
८. इसी ग्रंथ में पृ. ९३ पर वेदी का चित्र बना है उस पर भी लहराती हुई त्रिकोणाकार केशरिया ध्वजा ही बनी है। पृ. ३०३ के बाद रंगीन चित्रों में सर्वप्रथम मंदिर की वेदी के चित्र में ऊपर त्रिकोणाकार केशरिया ध्वजा हैं। इन्हीं रंगीन चित्रों में पृष्ठ ३०५ पर जन्मकल्याणक के पृष्ठों से पूर्व मोक्ष कल्याणक के प्रतीक में पावापुरी का जलमंदिर है उसके ऊपर भी लम्बी पट्टी वाली केशरिया ध्वजा है। इस ग्रंथ को खोलते ही सर्वप्रथम अस्तर के दो पृष्ठों में ध्वजारोहण से लेकर पांचों कल्याणक के चित्र हैं उनमें ध्वजा त्रिकोणाकार एक रंग वाली ही है। ग्रंथ के अंत वाले अस्तर के २ पृष्ठों में छपे गजरथ के चित्र में भी त्रिकोणी केशरिया ध्वजाएँ ही हैं।
९. पं. गुलाबचन्द पुष्प के संयोजकत्व में प्रकाशित ‘‘प्रतिष्ठा पराग’’ नामक पुस्तक के पृ. ७१ पर प्रकाशित दो प्राचीन ध्वजगीत सभी के लिए दृष्टव्य हैं-
मंगलमय केशरिया प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा । लहर लहर लहराए, केशरिया झण्डा जिनमत का हो जी । देश के विभिन्न प्रान्तों के मंदिरों की ध्वजाओं के जो वर्तमान प्रमाण प्राप्त हुए हैं उनमें सभी ध्वजाएँ केशरिया त्रिकोणाकार ही हैं। कतिपय तीर्थों के मंदिरों पर लहराती ध्वजाओं के चित्र यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं- प्रिय बन्धुओं! इस विषय में राग-द्वेष की भावनाओं से दूर होकर जिनधर्म की प्रभावना का प्रमुख लक्ष्य रखते हुए प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों परम्पराओं का निर्वाह करके श्वेत, केशरिया अथवा पंचरंगी ध्वजाओं से ध्वजारोहण करके एवं जिनमंदिरों पर ध्वजाओं को लहराकर विश्वशांति की मंगल भावना करना चाहिए तथा किसी पर छींटाकशी न करके अनेकांत मतानुसार जिनेन्द्रदेव के जिनमत की प्रभावना करना चाहिए क्योंकि सन् १९७४ से पूर्व तो एकमत से पूरे देश की जैनसमाज द्वारा केशरिया ध्वज ही फहराया जाता था और वर्तमान में ९० प्रतिशत स्थानों पर केशरिया एवं १० प्रतिशत स्थानों पर केशरिया तथा पंचरंगी दोनों प्रकार की ध्वजाओं के चित्र प्राप्त हुए हैं।
अथ मालामृगेन्द्रादिदशविधध्वजपूजनम्
आर्याछन्द:-
मालाहरिकमलांबरगरुडेभगवेशचक्रशिखिहंसै:।
उपलक्षितध्वजानि न्यसामि दशदिक्षु पंचवर्णानि।।
पुष्पांजलि: ।। (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
अनुष्टुप्छन्द:-
पीतप्रभाव्हया देवी, पीतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, पूर्वस्यां दिशि तिष्ठतु।।१।।
ॐ पीतप्रभायै स्वाहा ।।(पूर्व दिशा में पीली ध्वजा लगावें)
पद्माख्यदेवी पद्माभा, पद्मवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, आग्नेय्यां दिशि तिष्ठतु।।२।।
ॐ पद्मायै स्वाहा।। (आग्नेय दिशा में लाल ध्वजा लगावें)
सा मेघमालिनी कृष्णा, कृष्णवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, अपाच्यां दिशि तिष्ठतु।।३।।
ॐ मेघमालिन्यै स्वाहा।। (दक्षिण दिशा में काली ध्वजा लगावें)
हरिन्मनोहरा देवी, हरिद्वर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, नैऋत्यां दिशि तिष्ठतु।।४।।
ॐ मनोहरायै स्वाहा।। (नैऋत्य दिशा में हरी ध्वजा लगावें)
श्वेताभा चंद्रमालेयं, श्वेतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, प्रतीच्यां दिशि तिष्ठतु।।५।।
ॐ चंद्रमालायै स्वाहा।। (पश्चिम दिशा में सफेद ध्वजा लगावें)
नीलाभा सुप्रभा देवी, नीलवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, वायव्यां दिशि तिष्ठतु।।६।।
ॐ सुप्रभायै स्वाहा।। (वायव्य दिशा में नीली ध्वजा लगावें)
श्यामप्रभा जयादेवी, श्यामवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मुदीच्यां दिशि तिष्ठतु।।७।।
ॐ जयायै स्वाहा।। (उत्तर दिशा में काली ध्वजा लगावें)
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, ईशान्यां दिशि तिष्ठतु।।८।।
ॐ विजयायै स्वाहा।। (ईशान दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें)
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम् ।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मधरादिशि तिष्ठतु।।९।।
ॐ विजयायै स्वाहा।। (अधो दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें)
विजयापंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम् ।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मूर्ध्वायां दिशि तिष्ठतु।।१०।।
ॐ व्यक्तांतरायै स्वाहा।। (ऊर्ध्व दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें) ।।
(इति पंचवर्णपताकार्चनम्।। पंचवर्ण ध्वजार्चन विधि पूर्ण हुई)।।
यहाँ यह ध्यान देना है कि भेरीताड़न विधि का ध्वजारोहण कार्यक्रम से कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उपर्युक्त भिन्न-भिन्न वर्ण की दश प्रकार की ध्वजाएँ तो प्रतिष्ठा मण्डप के चारों ओर विधिपूर्वक स्थापित की जाती हैं इन्हीं में पंचवर्ण की तीन ध्वजाएँ हैं इनके लिए और भिन्न-भिन्न वर्ण की ध्वजाओं के लिए ‘पंचवर्णकेतून्’ शब्द वहाँ आया है। ये सभी ध्वजाएँ दश देवियों की कल्पना के साथ स्थापित की जाती हैं। ३. प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रंथ के पृ. ७८ पर भी अलग-अलग वर्ण की आठ पताका स्थापित करने का विधान है, जिनका ध्वजारोहण वाले महाध्वज से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यथा
पीता प्रभारुणा पद्मा, कृष्णाभा मेघमालिनी।
हरिन्मनोहरा श्वेता, चंद्रमालेंद्रनीलभा।।२०८।।
सुप्रभाख्या जया श्यामा, विजया पंचवर्णभा।
दिक्षु तिष्ठत्विमा देव्य:, सवर्णध्वजपाणय:।।२०९।।
इसी प्रतिष्ठा ग्रन्थ में (अध्याय-२, पृष्ठ-४६ पर) श्लोक नं. १४५ में यागमण्डल विधान के अंतर्गत मण्डल पर पंचचूर्ण स्थापित करने का श्लोक एवं मंत्र है, उसका भी ध्वजा के रंगों से कोई तात्पर्य नहीं है-
नागेंद्रार्थपते हरित्प्रभजपां भासासिताभप्रिया युक्ता एत्य सवर्णचूर्णनिचयै: प्रीतेंद्रवेद्यामिव।
वेद्यां द्वित्रिचतुर्गुणाष्टदलयुक्पद्मं चतुर्धाश्चतुष्- कोणं वर्तयतात्र मंडलमथो वङ्कााल्लिखेंद्राश्रिषु।।१४५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्वेतपीतहरितारुणकृष्णमणिचूर्णं स्थापयापि स्वाहा ।
चूर्णस्थापनमंत्र:।
तथा यहीं पर पंचचूर्ण अलग-अलग भी स्थापित करने के लिए पाँच श्लोक एवं मंत्र पृथक्-पृथक् भी हैं।
प्रतिष्ठा सारोद्धार के अध्याय ५ में पृ. १२४ पर श्लोक नं. ५० से ७८ तक पठनीय विषय है, जिनमें से निम्न श्लोक विशेष ध्यान देने योग्य हैं
सितं रक्तं सितं पीतं, सितं कृष्णं पुन: पुन:।
यावत्प्रासाददीर्घत्वं, तावत्संघट्टयेत् क्रमात् ।।५२।।
ध्वजा का कपड़ा सपेद, लाल, सपेद, पीला, सपेद, काला फिर इसी क्रम से रंग वाला तैयार करावे ।
चंद्रार्धचंद्रमुक्तास्त्रक्विंकिणीतारकादिभि: ।
नाना सद्रूपयुग्मैश्च, चित्रै: पत्रैर्विचित्रयेत् ।।५३।।
ध्वजा में चंद्रमा, माला, घंटियाँ, तारे इत्यादि अनेक चिन्ह बनाके चित्रित करें ।
अधश्छत्रत्रयं मूर्धस्तस्याध: पद्मवाहनम् ।
तस्याध: कलशं पूर्णं पाश्र्वयो: स्वस्तिवंâ लिखेत् ।।५४।।
दीपदंडौ लिखेत्स्वस्ति शिखाया: पाश्र्वयोस्तथा।
पाश्र्वयोरातपत्रस्य श्वेतचामरयुग्मकम् ।।५५।।
मूर्धाधो धवलच्छत्रे ध्वजे वा यक्षमालिखेत्।
श्यामं चतुर्भुजं हस्तयुग्मेन रचितांजलिम् ।।५६।।
पराम्यां दधतं मूधर््िन धर्मचक्रमृजुस्थितम् ।
जिनबिबोर्धमूर्धाने ह्येकछत्रसमन्वितम् ।।५७।।
दीपदंडादिसंयुत्तं नानालंकरणान्वितम् ।
हस्तिपृष्टसमारूढं सर्वज्ञाख्याममुं लिखेत् ।।५८।।
अशोकासननिर्यासचंपकाम्रकदंबका: ।
पूगवंशादयोन्येपि दंडस्य भवभूरुहा: ।।५९।।
कलश, साथिया, दीपदंड, छत्र, चमर, धर्मचक्र लिखकर ध्वजा के ऊपर जिनबिंब का आकार बनावें। उसमें एक छत्र लगावें। उस ध्वजा में अशोक, चंपा, आम, कदंब, सुपारी, वंश आदि के वृक्ष चिन्हित करें।।५४-५९।।
सादाप्रायाममानार्धं त्रिभागं वा चतुर्थकम् ।
ध्वजदंडस्य मानं तद्यथाशोभं प्रकल्पयेत् ।।६०।।
ध्वजा के दंडे का प्रमाण शोभा के अनुसार होना चाहिए।
प्रासादस्योर्ध्वतुर्यांशे वेदिका वेदिकस्थितम् ।
आधारं धनदंडस्य यथोत्तं परिकल्पयेत् ।।६१।।
वह प्रमाण मंदिर की ऊँचाई से चौथाई हो तो अच्छा है और वेदी के ऊपर भी ध्वजा चढ़ाना चाहिये । अर्थात् ध्वजा में पहले सफेद कपड़ा, पुन: लाल, पुन: सफेद, पुन: पीला, पुन: सफेद, पुन: काला फिर इसी क्रम से तैयार करावे । इस विधि से तैयार किये गये ध्वज में तो छह पट्टियाँ और चार रंग आते हैं और साथिया के साथ-साथ दीपदंड, छत्र, चमर, धर्मचक्र लिखकर ध्वजा के ऊपर जिनबिम्ब का आकार बनाने का विधान है जो कि प्रतिष्ठातिलक वाले ध्वज के समान ही आकार को बताता है। इसी में श्लोक नं. ७१ से ७३ तक में ध्वजारोहण के बाद ध्वजा की दिशा से शुभ-अशुभ शकुन देखने का फलादि बताया है ।
श्वेत पताका का वर्णन उत्तरपुराण में भी आया है
शतसंवत्सरे याते कुमारसमये पुरम् ।
चलत्सितपताकाभि: सर्वत्रोद्बद्धतोरणै: ।।३८।।
अर्थात् कुमारकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है, कहीं चञ्चल सफेद पताकाएँ फहराई गई हैं तो कहीं तोरण बाँधे गये हैं । अर्थात् घर के अग्र भाग पर सपेद ध्वजा फहरा रही थी।
पद्मपुराण भाग-१, पर्व – ८, पृ.-१८८ पर मंदिर पर श्वेत ध्वजा का स्पष्ट वर्णन है-
सितकेतुकृतच्छाया: सहस्राकारतोरणा:।
शृङ्गेषु पर्वतस्यामी विराजन्ते जिनालया:।।२७६।।
अर्थात् सपेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे ये जिनमन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं। पद्मपुराण-भाग ३ में सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन के जिनमंदिर के शिखरों पर नाना वर्ण की ध्वजाओं का प्रमाण आता है।
यथा
नानावर्णचलत्केतुकाञ्चनस्तम्भभासुरम्।
गम्भीरं चारुनिव्र्यूहमशक्याशेषवर्णनम्।।४७।।
पञ्चाशद्योजनायामं षट्त्रिंशन्मानमुत्तमम्।
इदं जिनगृहं कान्ते सुमेरोर्मुकुटायते।।४८।।
जिस पर नाना रंग की पताकाएँ फहरा रही हैं, जो सुवर्णमय खम्भों से सुशोभित है, गंभीर है, सुन्दर छज्जों से युक्त है, जिसका सम्पूर्ण वर्णन करना अशक्य है, जो पचास योजन लम्बा है और छत्तीस योजन चौड़ा है। हे कान्ते! ऐसा यह जिनमंदिर सुमेरु पर्वत के मुकुट के समान जान पड़ता है।।४७-४८।।
कारिता हरिषेणेन, सज्जनेन महात्मना।
एतान् वत्स नमस्य त्वं, भव पूतमना: क्षणात् ।।२७७।।
ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर। ७. कुल मिलाकर जैनशासन में ध्वजा के वर्णन में भिन्न-भिन्न वर्ण की ध्वजाओं के प्रमाण मिलते हैं। इस विषय में सन् १९७४ से प्रचलित हुई पंचरंगी ध्वजा के संदर्भ में मैंने पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से वार्ता की, उनसे प्राप्त उत्तर यहाँ यथानुरूप प्रस्तुत है – ‘‘सन् १९७२ मेें मैं दिल्ली के अनेक प्रतिष्ठित महानुभावों (परसादी लाल जी पाटनी, पारसदास जी मोटर वाले आदि) के विशेष आग्रह पर राजस्थान से दिल्ली आई। वहाँ परमपूज्य भारतगौरव आचार्यश्री देशभूषण महाराज ने मुझे भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव को राष्ट्रीय और शासन स्तर पर मनाने की सम्पूर्ण रूपरेखा से परिचित कराया। सन् १९७३ में मुनिश्री विद्यानंद महाराज दिल्ली पधारे, सन् १९७४ में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी का भी ससंघ पदार्पण हुआ और निर्वाण महोत्सवसम्बन्धी सभी मीटिंगों में हम सभी साधुगण भाग लेते थे। एक बार जैनध्वज के सम्बन्ध में जब पंचरंगी ध्वज का प्रारूप आया तो आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने पहले तो उसे पूर्णरूपेण अस्वीकृत कर दिया, क्योंकि तब तक परम्परागतरूप से केशरिया ध्वज ही जैनशासन के ध्वजरूप में मंदिरों के शिखरों पर एवं महोत्सवों के प्रारंभ में किये जाने वाले ध्वजारोहण में फहराया जाता था इसलिए दोनों आचार्य इसे सहज स्वीकार नहीं कर पाए। बात कुछ और आगे बढ़ी, तब दोनों आचार्यभगवंतों ने मुझे आदेशित किया कि ज्ञानमती जी ! क्या कहीं आगम में पंचरंगी ध्वज का कोई प्रमाण आया है…. आदि। मैंने २ दिन का समय माँगा और दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों का आलोडन किया तो जम्बूद्बीप-पण्णत्ति ग्रंथ में सुमेरु पर्वत के मंदिरों के वर्णन में एक जगह वर्णन मिला, उसे यहाँ ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है-
रयणमए जगदीए रयद्णमयापीढैतंगसिहरेसु।
मणिमयखंभेसु तहा धयणिवहा होंति णिद्दिट्ठा।।३१।।
सीहगयहंसगोवहसयवत्तमऊरमयरधयणिवहा।
चक्कायवत्तगरुढा दसविहसंखा गुणेयव्वा।।३२।।
अट्ठसयं अट्ठसयं एगेगधयाण होंति परिवारा।
वरपंचवण्णदिव्वा मुक्तामणिदामकयसोहा।।३३।।
(पंचम अधिकार) रत्नमय पृथिवी पर स्थित रजतमय पीठ के ऊपर ऊँचे शिखरों वाले मणिमय खम्भों के ऊपर ध्वजासमूह निर्दिष्ट किये गये हैं। सिंह, गज, हंस, गोपति (वृषभ), कमल, मयूर, मकर, चक्र, आतपत्र और गरुड़, इन दश प्रकार की ध्वजाओं के समूह जानना चाहिए। इनमें से एक-एक ध्वजा के मोतियों व मणियों की मालाओं से शोभायमान उत्तम पाँच वर्णवाली एक सौ आठ-एक सौ आठ दिव्य परिवारध्वजाएँ होती हैं। अर्थात् परिवार ध्वजाओं में यहाँ पंचरंगी लघु ध्वजाएँ ग्रहण की गई हैं। लेकिन वहाँ महाध्वजा के वर्ण का कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। इस प्रमाण को देखकर आचार्यद्वय ने इस पंचरंगी ध्वज के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान की थी । इन सबसे तात्पर्य यह निकलता है कि आगम में जिनमंदिरों के शिखरों पर श्वेत ध्वजा फहराने के उदाहरण तो मिलते हैं किन्तु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, विधि-विधानों के प्रारंभ में केशरिया ध्वज लहराने की ही प्राचीन परम्परा रही है। सन् १९७४ से पूर्व तो पूर्णरूपेण केशरिया ध्वज से ही ध्वजारोहण किया जाता था और सन् १९७४ के बाद से भीr अधिकतम महोत्सवों में केशरिया ध्वज से तथा कतिपय स्थानों पर पंचरंगी ध्वज से भी ध्वजारोहण किया जाता है एवं कहीं-कहीं दक्षिण भारत में विद्वानों द्वारा सफेद ध्वजा लहराने की सूचना भी प्राप्त हुई है। २४ फरवरी २०१० को हस्तिनापुर पधारे एक प्रतिष्ठित महानुभाव से चर्चा हुई तो उन्होंने चर्चा के मध्य बताया कि ‘‘सन् १९७४ से पूर्व सभी मंदिरों में केशरिया ध्वज ही लहराने की परम्परा थी, उसके बाद से अब कहीं-कहीं पंचरंगी ध्वज भी लगाते हैं किन्तु ध्वजारोहण में सर्वत्र आज भी केशरिया ध्वज ही लगाने की परम्परा दक्षिण भारत में है।’’ इसी प्रकार पूज्य मुनिश्री अमितसागर महाराज (आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के शिष्य) ने फरवरी २०१० में बताया कि मैंने स्वयं दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर पंचकल्याणक महोत्सव में केशरिया ध्वज से ही ध्वजारोहण होते देखा है। फरवरी २०१० में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में विराजमान तीर्थंकरत्रय महामस्तकाभिषेक में दक्षिण भारत से पधारे क्षुल्लक श्री निर्वाणसागर जी (शिष्य-मुनि श्री नमिसागर महाराज) ने बताया कि दक्षिण भारत में ध्वजारोहण में अधिकतम केशरिया ध्वज ही प्रयोग किया जाता है, कहीं-कहीं मंदिर के ऊपर पंचरंगी ध्वज भी अब लगाया जाने लगा है। इसी प्रकार अन्य अनेक वरिष्ठ सन्तों, भट्टारकों एवं विद्वान् प्रतिष्ठाचार्यों से ज्ञात हुआ कि ध्वजारोहण में तो सदा हम लोगों ने केशरिया ध्वज ही प्रयुक्त किया है क्योंकि केशरिया ध्वज ही प्राचीन समय से चला आ रहा है ।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा के वरिष्ठतम ब्रह्मचारी थे बाबा सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य, उन्हें भी हमने हमेशा (सन् १९७४ के बाद भी) केशरिया झण्डे से ही झण्डारोहण कराते देखा है। पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री-सोलापुर ने भी सन् १९७५ में हस्तिनापुर के पंचकल्याणक में केशरिया झण्डे से ही ध्वजारोहण कराया था, उस समय आचार्य श्री धर्मसागर महाराज, उपाध्याय श्री विद्यानंद महाराज एवं पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ विराजमान थे। पं. श्री नाथूलाल जी शास्त्री-इन्दौर भी केशरिया एवं पंचवर्णी दोनों प्रकार की ध्वजाओं को मान्यता प्रदान करते थे, तभी उन्होंने अपने ‘‘प्रतिष्ठा प्रदीप’’ ग्रंथ के पृ. २५ पर ‘‘प्रतिष्ठा मंडप आदि का निर्माण’’ हेडिंग के अन्दर लिखा है-मण्डप के आगे पीतवर्णी बड़े झण्डे का स्थान मण्डप से डेढ़ा या दुगुना काष्ठ का या पाइप ऊँचा लगाने को तीन कटनी र्इंटों से मजबूत बनाई जावे।’’ इन्होंने इसी प्रतिष्ठा प्रदीप में पृ. १२६ पर लिखा है- ‘‘सित, रक्त, सित, पीत, सित, कृष्ण (नील) इस प्रकार पुनः मंदिर की दीर्घता के अनुसार रंगीन ध्वजा तैयार करावें ।’’ अर्थात् इस क्रम से छह पट्टी की रंगीन ध्वजा बनाने का प्रमाण पुष्ट होता है। पण्डित श्री शिवजीरामजी जैन पाठक-रांची द्वारा संपादित ‘‘श्री प्रतिष्ठा विधान संग्रह’’ अपरनाम, ‘‘प्रतिष्ठाचंद्रिका’’ के पृ. १३७ पर बनाए गये ध्वजपट्ट का चित्र देखिये-
श्रीभट्टाकलंक रचित ‘‘प्रतिष्ठाकल्प’’ में पृ. १३० पर देखें
एवं सुधौतसुश्लिष्ट, श्वेतनूतनवाससा।
कल्पयित्वा ध्वजं तत्र, शिल्पिना लेखयेदिति ।।३७।।
अर्थात् इस श्लोक के अनुसार श्वेत नूतन वस्त्र से निर्मित ध्वजा से ध्वजारोहण करने का विधान स्पष्ट होता है । इसी में इस श्वेत महाध्वज के मूल में (नीचे) और चारों तरफ कौसुम्भ और लाल वस्त्र की अनेक क्षुद्र ध्वजाएँ स्थापित करने संबंधी श्लोक भी उल्लिखित हैं । इसी ग्रंथ में पृ. ७० पर है कि-प्रतिष्ठामण्डप के समीप ही या शुद्ध नदी या सरोवर के तट पर खनिस्थान नियुक्त करके उस उर्वरा जमीन में एक लाल ध्वजा गड़वा दी जाए । पृ. ८० पर है-इसके साथ ही ऊपर चढ़ाने के लिए एक त्रिकोण पताका को बांस में पहनाकर सतिलक ससूत्र करें । इसमें पृ. १०२ पर नन्दावेदी में ध्वजास्थापन का सुंदर क्रम दिया है- मध्य के कोठे के ऊपर पंचवर्णी ध्वजा को चंद्रोपक में लगा देना चाहिये- अष्टकोठी सिद्धमंडल पर सपेद रंग की, छत्तीस कोठी आचार्यमण्डल पर लाल रंग की, पच्चीस कोठी उपाध्यायमण्डल पर हरे रंग की, अट्ठाईस कोठी साधुमण्डल पर पीले रंग की, २५ कोठी जिनवाणीमण्डल पर सपेद रंग की, १६ कोठी भावनामण्डल पर लाल रंग की, १० कोठी धर्ममण्डल पर हरे रंग की और २९ कोठी रत्नत्रय मण्डल पर पीले रंग की ध्वजाएँ स्थापित करनी चाहिए। इस नव कोठी मण्डल के दक्षिण भाग में रखकर कलशों की और उत्तर भाग में रखकर ध्वजा की प्रतिष्ठा करनी चाहिये ।
श्रीवसुविन्दु आचार्य रचित ‘‘प्रतिष्ठा पाठ’’ के पृ. ९९-१०० पर निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं-
चीनश्लक्ष्ण मृदूत्तरीय पटलैश्छन्नं पुरा निर्मितं, मस्तोपर्यनुयोग सूचिकलशं लंबत्पताकापटं ।
चातुर्दिश्य तिरस्करिण्यधिवृतं गोपानसीभिर्युतं, द्वारोपांतविशोभियक्षयुगलं प्रांशुं मनोल्हादवं ।।३१९-३२१।।
अर्थात् चीन का कोमल सिचक्कण सुंदर आच्छादन वस्त्रनि करि ढक्या हुआ पूर्व निर्मापित किया अरु लम्बायमान है पताका का पट जामैं अरु कोण में उद्भूत है छोटी ध्वजा जामै, अरु उछलती अर दृढ देदीप्यमान रज्जून करि बंधननै प्राप्त भयो तीनलोकपति जिनेन्द्र का पूजन करणेवारेन के हस्तन करि नित्य स्थापन किये, ऐसैं मंंडप के अग्र ध्वजारोहण करना।।३१९-३२१।। २४. ब्र. शीतलप्रसाद जैन द्वारा रचित ‘‘प्रतिष्ठासार संग्रह’’ के पृ. १९६ पर ध्वजा का प्रमाण लिखा है-१२ अंगुल लंबी व ८ अंगुल चौड़ी हो, कपड़ा लाल या पीला हो, उसमें चंद्रमा, माला, नक्षत्र आदि के चिन्ह हों । ध्वजा कहाँ लगाई जाती हैं ? जैन शास्त्रों में वर्णन है कि तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों के शिखरों पर रंग-बिरंगी ध्वजाएँ फहराती रहती हैं जो कि रत्नों की होते हुए भी कोमलवस्त्र के समान लहराती हैं। जैसे-मध्यलोक के ४५८ चैत्यालयों पर अलग-अलग चिन्ह सहित भिन्न-भिन्न रंग की ध्वजाएँ आरोपित करते हुए इन्द्रगण जो पूजा करते हैं, उसका नाम है इन्द्रध्वज पूजा ।
संस्कृत के इन्द्रध्वज विधान में कहा है-
यत्र-यत्र कृता पूजा, तत्र तत्र विडौजसा ।
ध्वजा प्रस्थापिता नित्यं, तस्मादिन्द्रध्वजं स्मृतम्।।
अर्थात् इन्द्रों ने जहाँ-जहाँ पर पूजा की, वहाँ-वहाँ पर अर्थात् उन-उन चैत्यालयों पर ध्वजा आरोपित करते गए, इसलिए इस विधान का ‘‘इन्द्रध्वज’’ यह सार्थक नाम है । इस इन्द्रध्वज मण्डल की चार दिशा एवं चार विदिशाओं में ८ महाध्वजाएँ आरोपित की जाती हैं एवं मण्डल के ऊपर ४५८ ध्वजाएँ आरोपित की जाती हैं जिन पर निम्न प्रकार के दश चिन्ह बनाये जाते हैं- यथा – ‘‘मालामृगेन्द्रकमलांबरवैनतेय मातंगगोपतिरथांगमयूरहंसा:’’ अर्थ-माला, सिंह, कमल, वस्त्र, गरुड़, हाथी, चकवा-चकवी, मयूर और हंस ये दश प्रकार के चिन्ह उन ध्वजाओं में बनवाये जाते हैं। ये अलग-अलग चिन्ह वाली ध्वजाएँ किन मंदिरों पर कौन सी लगती हैं ? इसका वर्णन इन्द्रध्वज विधान की पुस्तक में प्रस्तावना से द्रष्टव्य है । आदिपुराण मेें भगवान ऋषभदेव के समवसरण में द्वितीय कटनी पर आठ दिशाओं में आठ चिन्हों से युक्त महाध्वजाओं का बहुत ही सुन्दर वर्णन है। यथा-‘‘द्वितीय पीठ पर आठ दिशाओं में आठ बड़ी-बड़ी ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं, जो बहुत ऊँची थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो इन्द्रों के आठ लोकपाल ही हों। चक्र, हाथी, बैल, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला चिन्ह से सहित तथा सिद्ध भगवान के आठ गुणों के समान वे ध्वजाएँ बहुत अधिक सुशोभित हो रही थीं ।’’ ‘‘प्रत्येक जिनमंदिर की चारों दिशाओं में ध्वजभूमि के अन्दर सिंह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चंद्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के चिन्हों से चिन्हित, १०८-१०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं । सभी मिलाकर ४७०८८० ध्वजाएँ हैं। वे ध्वजाएँ प्रथम और द्वितीय कोट के अंतराल में हैं ।’’ सिंह, हंस, गज, कमल, वस्त्र, वृषभ, मयूर, गरुड़, चक्र और माला के चिन्हों से सुशोभित दश प्रकार की पंचवर्णी महाध्वजाओं से उन चैत्यालयों की दशों दिशाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानों लहलहाते हुए नूतन पत्तों से ही युक्त हों१। यह तो अकृत्रिम चैत्यालयों एवं भगवान के समवसरण की ध्वजाभूमि में स्थित महाध्वजाओं का वर्णन हुआ है इसी प्रकार से इस धरती पर मनुष्यों द्वारा बनाए जाने वाले कृत्रिम मंदिरों पर शिखर बनाने, उन पर स्वर्ण कलशारोहण करने की एवं कलश से ऊँची ध्वजा आरोपित करने की प्राचीन परम्परा चली आ रही है, जिसके प्रमाण मैंने प्रतिष्ठा ग्रंथों के आधार से दिये हैं । इसके साथ ही पंचकल्याणक महोत्सवों एवं वृहत्पूजा विधानों के प्रारंभ में जो ध्वजारोहण किया जाता है वह महोत्सव की निर्विघ्न सम्पन्नता एवं सर्वजन कल्याणकारी होता है । ऐसे ध्वजारोहण (झण्डारोहण) कार्यक्रमों में प्रायः ध्वजा फहराने के बाद उसकी उड़ती नोक की दिशा देखकर विद्वान् प्रतिष्ठाचार्यगण उसका शुभाशुभ फल बताते देखे जाते हैं । इस विषय में प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथ के अध्याय-५, पृ. ११५ पर लेखक पं. आशाधरजी ने लिखा है-
मुत्ते प्राचीं गते केतौ, सर्वकामानवाप्नुयात् ।
उत्तराशां गते तस्मिन्, स्वस्यारोग्यं च संपद: ।।७१।।
यदि पश्चिमतो याति, वायव्ये वा दिशाश्रये ।
ऐशाने वा ततो वृष्टि:, कुर्यात् केतु: शुभानि सा ।।७२।।
अन्यस्मिन् दिग्विभागे तु, गते केतौ मरुद्वशात्
। शांतिवं तत्र कर्तव्यं, दान पूजा विधानत: ।।७३।।
अर्थात् ध्वजा छोड़ने पर यदि वह पूर्वदिशा की तरफ जाए तो सब इष्ट मनोरथ सिद्ध होते हैं । पश्चिम, वायव्य व ईशान दिशा में ध्वजा की नोक जावे तो सभी के लिए कल्याणकारी होती है अथवा हवा के निमित्त से शेष अन्य दिशाओं में ध्वजा की नोक जाने से दान-पूजा-विधान से शांतिकर्म करना चाहिए। यहाँ ध्वजा के प्रकरण मे साररूप में यह समझना है कि जैनशासन में श्वेत, केशरिया, पंचवर्णी आदि रंग की त्रिकोणाकार एवं आयताकार ध्वजाओं से ध्वजारोहण करने की परम्परा है तथा मंदिरों के ऊपर जो स्थाईरूप से अष्टधातु की ध्वजा या कपड़े की ध्वजा लगाई जाती हैं वे मात्र त्रिकोणाकार, द्वित्रिकोणाकार अथवा केशरिया वस्त्र की ही देखी जाती हैं ।