प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति का एकाग्र रूप से अध्ययन करने की दृष्टि से जैन शिक्षा पद्धति का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत में श्रमण और ब्राह्मण (या वैदिक) शिक्षा पद्धतियों का समानान्तर विकास हुआ है। श्रमण परम्परा के अंतर्गत ही जैन और बाद में बौद्ध शिक्षा पद्धति विकसित हुई है। प्राचीन भारत में शिक्षा का विकास मूलत: ब्राह्मण और श्रमण विचारधारा जैन और बौद्ध दो धाराओं में विभक्त हो गयी। फलस्वरूप शिक्षा का भी तीन धाराओं में विकास हुआ – १. वैदिक शिक्षा पद्धति २. जैन शिक्षा पद्धति ३. बैद्ध शिक्षा पद्धति जैन शिक्षा वैदिक शिक्षा की तरह नि:श्रेयस् या मोक्ष मूलक रही है, किन्तु वैदिक शिक्षा के साथ अनेक समानताएँ होने पर भी जैनशिक्षा के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर है। वैदिकशिक्षा जिस प्रकार ऋषियों पर केन्द्रित थी, उसी प्रकार जैन शिक्षा के केन्द्र भी मुनि या श्रमण थे। किन्तु ऋषियों की तरह आश्रम-व्यवस्था स्वीकार न करने के कारण जैन शिक्षा का स्वरूप वैदिक शिक्षा से भिन्न रूप में विकसित हुआ। आश्रम पद्धति को स्वीकार न करने के कारण जैन शिक्षा के प्राय: वैसे केन्द्र न बन सके, जैस कि ऋषियों के आश्रम या तपोवन के रूप में वैदिक शिक्षा में विकसित हुए बाद में मन्दिर, तीर्थ, स्वाध्यायशाला आदि के रूप में जैन परम्परा शिक्षा और संस्थानों का विकास हुआ। जैन परम्परा में पांच परमेष्ठी माने गए हैं। इन्हें ही वास्तविक गुरु माना गया है। अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों के रूप में परिणमन किया गया है। उपाध्याय का कार्य मुख्य रूप से शिक्षा का होता था। जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षण की सोलह विधियाँ बताई गई हैं- १. निसर्ग विधि २. अधिगम विधि ३. निक्षेप विधि ४. प्रमाण विधि ५. नय विधि ६. (क) स्वाध्याय विधि (ख) प्रश्नोत्तर विधि ७. पाठ विधि ८. श्रवण विधि ९. पद विधि १०. पदार्थ विधि ११. प्ररूपणा विधि १२. उपक्रम विधि १३. व्याख्या विधि १४. शास्त्रार्थ विधि १५. कथा, रूपक, तुलना उदाहरण विधि १६. संगोष्ठी विधि। जैन परम्परा में शिक्षा विधि का व्यवस्थित क्रम सदकाल से चला आ रहा है। भगवान महावीर ने कहा था- जैसे पक्षी अपने शावकों को चारा देते हैं, वैसे ही शिष्यों को नित्य प्रतिदिन और प्रतिरात शिक्षा देनी चाहिए।श्री आचारांगसूत्रम् १/६/३ पु. १०६: संपादक शोभाचन्द्र भारिल्ल श्री अमोल जैन ज्ञानालय, धुलिया, नवम्बर २९६०
१. निसर्ग विधिनिसर्ग स्वभाव: इत्यर्थ:। यद्वाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नेसकिकम् (सर्वार्थसिद्ध १/३/१२/३) निसृज्यत इति निसग: प्रवर्ततम् सर्वार्थसिद्ध १/९/३२६/६ राजवार्तिक १/३/२२/१६ तथा ६/९/२/५१६/२ – निसर्ग का अर्थ-स्वभाव। स्वयंप्रज्ञ व्यक्ति को आचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रहती। प्राप्त जीवन में वे स्वत: ही ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न विषयों को पूर्व संस्कारवश सीखते जाते हैं- तत्वों का संम्यक्-बोध स्वत: प्राप्त करते हैं। उसका जीवन ही प्रयोगशला होता है। यह निसर्ग विधि है।
२. अधिगतम विधिअधिगमोऽर्थावबोध: । यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यगमनिमित्तं तदुत्तरम्। सर्वार्थसिद्धि १/३/१२ – अधिगम का अर्थ – पदार्थ ज्ञान। दूसरों के उपदेशपूर्वक पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह अधिगमज कहलाता है। इस विधि के द्वारा प्रतिभावना तथा अल्पप्रतिभा सुत सभी प्रकार के व्यक्ति तत्वज्ञान प्राप्त करते हैं। निसर्ग विधि में प्रज्ञावान व्यक्ति की प्रज्ञा का स्फुरण स्वत: होता है किन्तु अधिगम विधि में गुरु का होना अनिवार्य है। गुरु के उपदेश से जीवन और जगत् के तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना, यही अधिगम विधि है। अधिगम विधि के दो भेद हैं – १ स्वार्थाधिगम २. परार्थाधिगम।
३. निक्षेप विधि – संकेत-काल में जिस वस्तु के बोध के लिए जो शब्द गढ़ा जाता है वह वही रहे तब कोई समस्या नहीं आती है। किन्तु ऐसा होता नहीं। वह आगे चलकर अपने क्षेत्र को विशाल बना लेता है। उससे फिर उलझन पैदा होती है और वह शब्द इष्ट अर्थ की जानकारी देने की क्षमता खो बैठता है। इस समस्या का समाधान पाने के लिए निक्षेप पद्बति है। जैन ग्रन्थों में निपेक्ष का सामान्य लक्षण इस प्रकार- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप वस्तु को निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं।धवला ४/३/, १/२/६, १/१, १, १/१०/४, १३/५/३, ५/३/११, १३/५ ?५, ३/१९३/४-कसायपाहुडं अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। निक्षेप का दूसरा नाम न्यास भी है। तत्वार्थसूत्रकारनामास्थापनाद्रव्यभावतस्तन्नयास: – तत्वार्थसूत्र, १/५ पृ. ११, विवेचनकर्ता पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री। षट्खण्डागम १३/५, ५ सूत्र ४/१९८ – धवला १/१, १, १/८३/१ ने निक्षेप के स्थान पर न्यास शब्द का प्रयोग किया है।
४. प्रमाण विधिप्रकर्षेण मानं प्रमाणं, सकलादेशीत्यर्थ:। धवला भाग ९, ४/१, ४५/१६६/१ – संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्ण रूप से ज्ञान करना प्रमाण विधि है। इस विधि के अंतर्गत ज्ञेय वस्तु के विषय में संपूर्ण जानकारी दी जाती है। जैन आचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। सर्वाथसिद्धि में प्रमाण की परिभाषा इस प्रकार दी गई है – ‘‘जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रतितिमात्र प्रमाण है।’’प्रमिणोति प्रमीयते अनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् । १ सर्वार्थसिद्धि, १/१०, ९८/२ २ राजवार्तिक, १/१०/१/४९/१३ कसायपाहुड के अनुसार – ‘‘जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाए, उसे प्रमाण कहते हैं।’’प्रमायतेऽनेनेति प्रमाणम् । कसायपाहुड १/१/१, २७/३७/६ । आप्तपरीक्षा ८१स्याद्वादमंजरी, २०/३०७/१८ । न्यायदीपिका १/१०/११
५. नय विधि –वक्ता के अभिप्राय या वस्तु के एकांशग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। धवला ने नय का निरुत्यर्थ इस प्रकार दिया है – जो उच्चारण किए गए अर्थपद और उसमें किए गए निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वह नय कहलाता है।धवला १/१, १/३, ४/१० तत्वार्थधिगमभाष्य में भी – जीवादि पदार्थों को जो ले जाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रकट कराते हैं, उसे नय कहते हैं।तत्वार्थसूत्र ९/२५, पृ. ४३४ : विवेचक पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री (पचविहे सज्झाये प्रण्णत्ते, तं जहा-वाचणा १ पुच्छाण्धा २ मूलभू नय दो हैं – १. द्रव्यार्थिकनय २. पर्यायर्थिकनय द्रव्य नित्य है ……………….. पर्यायार्थिक नय कहलाता है।
६. (क) स्वाध्याय विधि– विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय विधि का उपयोग किया जाता था। आर्चाय जिनसेन ने स्वाध्याय की महिमा का वर्णन महापुराण में इस प्रकार किया है- ‘स्वाध्यायेन मनोरोधस्ततो क्षणां विमिजैय…….. ’ अर्थात स्वाध्याय करने से मन का निरोध होता है और मन का निरोध होने से इन्द्रियों का निरोध होता है। तत्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के लिए पांच तरीके बताये गये है – वाचनापृच्छनानुपेक्षाम्नायधर्मोंपदेशा:परियटठणा ३, अनुप्पेहा ४, धममकहा ५ ।। सूत्र २७।।)- स्थानांगसूत्रम् (चतुर्थोभाग) अर्थात् १. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. आम्नाय ५. धर्मोपदेश से पाँच प्रकार के स्वाध्याय हैं।
१. वाचना – भव्य जीवों के लिए शक्त्यनुसार ग्रंथ की प्ररूपणा एवं शिष्यों को पढ़ने का नाम वाचना है।‘शिष्याध्यापनं वाचना’-धवला ९/४,१-५४, २५२/६
२. पृच्छना – संशय का उच्छेद करने के लिए अथवा निश्चत विषय को पुष्ट करने के लिए प्रश्न करना पृच्छना है।संशयोच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोग: पृच्छना। सर्वाथ्ज्र्ञसिद्धि ९/२५/४४३/४
३. अनुप्रेक्षा –सुने हुये अर्थ का श्रुत के अनुसार चिंतन करने को भी अनुपे्रक्षा कहते है।कम्मणिज्जरणटठमटिठ- मज्जाणुगयस्स सुदणाणरस परिमलणमणुपेक्खणा णा।-धवला ९/४,१,५५/२६३/१ सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहणं णाम। धवला १४, ४६, १४/९/५
४. आम्नाय – उच्चारण की शुद्धिपूर्वक पाठ को पुन: पुन: दोहराना आम्नाय है।‘घोष शुद्धं परिवर्तनाम्नायं’ – सर्वार्थसिद्धि ९/२५/४४३/५, तत्वार्थसार, ७/१९, अनगार धर्मामृत ७/८७/७१६
५. धर्मोपदेश – इस विधि का उपयोग उसी समय किया जाता है, जब शिष्य प्रौढ़ हो जाता है और उसका मस्तिक विकसित हो प्रमुख विषयों को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। आदिपुराण में आदि तीर्थंकर इसी विधि के अंतर्गत लिया जा सकता है।आदिपुराण (महापुराण) २१/९६, २३/६९-७२, २४/८५-१८०
६. (ख) प्रश्नोत्तर विधि – प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग जैन वाड्.मय में कई जगह आया है। अनेक प्रकार के प्रश्न उपस्थित कर उन प्रश्नों के उत्तर द्वारा विषयों का अध्ययन करना तथा समस्या पूर्तियों या पहेलियों द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करना इसका उद्देश्य है। यद्यपि इस विधि को पृच्छना के अंतर्गत भी रखा जा सकता है। यहाँ ज्ञानवद्र्धन हेतु कतिपय प्रश्नों और उत्तरों को प्रस्तुत किया जाता है –वट वृक्ष: पुरो यं ते धनच्छाय: स्थितो महान् । इत्यक्तो पि न तं धर्मेश्रित: कोऽपिवदाद्रुतम् ।।महापुराण, १२/२२६ (स्पष्टान्धकम्)उपनिषदों की शिक्षा एवं समयसार की शिक्षा प्रश्नोत्तर विधि से ही संपन्न की जाती थी।
७. पाठ विधि – गुरु शिष्यों को पाठविधि द्वारा अंक और अक्षर-ज्ञान की शिक्षा देता है। वह किसी काष्ठ पटिटका के ऊपर अंक या अक्षर लिख देता है। शिष्य उन अक्षरों या अंकों का अनकरण करता है। बार-बार उन्हें लिखकर कण्ठस्थ करता है। आजकल भी यह शिक्षा प्राथमिक शालाओं (प्राइमरी स्कुलों) में दी जाती है। ऋषभदेव ने अपनी कन्याओं को इसी विधि से शिक्षित किया था। यथा –इत्युक्त्वा मुहुराशस्य विस्तीर्णे हेमपट्ठके । अधिवास्य स्वचितस्थां श्रतदेवी सपर्यया ।। विभु: करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् ।। उपादिशल्लिपिं संख्यास्थानं चांकेरनुक्रमात् ।।महापुराण, षोडश पर्व, १०३,-१०४, पृ. ३५५इस विधि में मूलत: तीन शिक्षा तत्व परिगणित है – १ उच्चारण की स्पष्टता, २. लेखनकला का अभ्यास और तर्कात्मक संख्या प्रणाली।
८. श्रवण विधि – जिनभ्रद गणी ने अपने विशेषावश्यकभाष्यविशेषावश्यकभाष्य, सं० डॉ. नथमल टाटिया, पृ. १६८-६९ ग्रन्थ में श्रवण विधि में कई तरह से श्रवण के तरीको का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम गुरु के मुख से चुप होकर सुने। दूसरी बार उसे हाँ करके स्वीकार करें। तीसरी बार ‘बहुत अच्छा’ कहकर अनुमादन करें। चौथी बार उस विषय की मीमांस करें। पांचवी बार उक्त प्रसंग को पूरी तरह पारायण कर लें और छठी बार गुरु के समान स्वयं उस विषय को अभिव्यक्त करें। शिक्षा के किसी भी विषय-विशेष में पारंगत होने का यह क्रम है। इससे विवक्षित विषय का पूरा व्याख्यान करने को शिष्य पूरी तरह समर्थ हो जाता है।
९. पद विधि – ‘पद्यन्ते ज्ञासन्तेऽनेनेति पदम्’ – जिसके द्वारा (अर्थ) जाना जाता है, वह पद है।न्यायबिन्दु, टीका १/७/१४०/१९ जिसका जिसमें अवस्थान है वह पद अर्थात् स्थान कहलाता है।जस्स जम्हि अवटठाणं तस्य तं पदं पयत गम्यते परिच्छिद्यते इति पंद।-धवला १०/४/,२,४. १/१८/६ जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश भाग ३, पृ. ५ इसके पाँच भेद है। – १. नामिक २. नैपातिक ३. औपसर्गिक ४. आख्यानिक और ५. मिश्र।
१०. पदार्थ विधि – द्रव्य और भावपूर्ण पदों की आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत करना इस विधि का लक्ष्य है। वेदिक परम्परा में वेद के अध्ययन के हेतु स्वर पाठविधि का जिस प्रकार प्रचलन था उसी प्रकार पदार्थविधि द्वारा आगमों के अध्ययन के लिए इस विधि का उपयोग किया जाता था।
११. प्ररूपणा विधि – वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्य-प्रतिपादक एवं विषय-विषयी भाव की दृष्टि से शब्दों का आख्यान करना प्ररूपणा विधि है। प्ररूपणा विधि के आठ भेद हैंसर्वार्थसिद्धि १/८ – १ सत् २. सख्या ३. क्षेत्र ४. स्पर्शन ५. काल ६. अन्तर ७. भाव ८. अल्प बहुत्व।
१२. उपक्रम विधिकसायपाहुड (जयधवला) १/९/११/७ – जिसके द्वारा श्रोता प्राभृत (शास्त्र) को उपक्रम्यते अर्थात् समीप करता है उसे उपक्रम कहते हैं। जिन मनुष्यों ने किसी शास्त्र के नाम, आनुपूर्वी, प्रमाण, व्यक्तव्यता और अर्थाकार नहीं जाने हैं वे शास्त्र के पठन-पाठन आदि क्रियाफल के लिए प्रवृत्ति नहीं करते हैं। अर्थात् नाम आदि जाने बिना मनुष्यों की प्रवृत्ति प्राभृत के पाठन में नहीं होत है, अत: उनकी प्रवृत्ति कराने के लिए उपक्रम कहा जाता है।
१३. व्याख्या विधिविशेषावश्यकभाष्य (श्रीमज्जिनाद्रगणि क्षमाश्रमण विरचिंत श्री मत्कोटयाचार्य कृतवृत्त विभूषितम्) संपादक डॉ. नथमल टाटिया, प्रथम सं. पृ. ३५१-५२ – शब्दों द्वारा सामान्य या विशेष रूप से जितना भी व्याख्यान किया जाता है वह सब भाषा के अन्तर्गत आता है। भाषा ही अभिव्यक्ति का माध्यम है। व्यक्ति की वाणी द्वारा द्वारा सामान्य सीधी-सीधी अभिव्यक्ति ही भाषा है। विभाषा अभिव्यक्ति या व्याख्या की ऊपर की कड़ी है। इसमें पर्यायवाची शब्दों द्वारा मूल का विशेष व्याख्यान किया जाता है। विभाषा के सम्बन्ध में धवलाकार लिखते है –‘विविहा भासा विहासा, परुपणा निरूपणा वक्खाणमिदि एयट्ठो।’अर्थात् विविध प्रकार के भाषण अथवा कथन करने को विभाषा कहते हैं।धवला- ६, १, ९-१, ३/५/३ विभाषा, प्ररूपणा, निरूपणा और व्याख्यान ये सब एकार्थक नाम है।
१४. शास्त्रार्थ विधि – शास्त्रार्थ विधि प्राचीन शिक्षा पद्धति की एक प्रमुख विधि है। इस विधि में पूर्व और उत्तरपक्ष की स्थानापूर्वक विषयों की जानकारी प्राप्त की जाती है। एक ही तथ्य की उपलब्धि विभिन्न प्रकार के तकों, विकल्पों और बैद्धिक प्रयोगों द्वारा की जाती है। जैन वाड़् मय में शास्त्रार्थ के दो रूप उपलब्ध होते हैं – १. पत्र परीक्षा २. ग्रन्थ परीक्षा। शास्त्रार्थ का दूसरा नाम विजिगीषु कथा है।
१५. कथा, रूपक, तुलना उदाहरण विधि –प्राचीन जैन वाड़्मय में भी वैदिक और बौद्ध साहित्य की तरह कथा रूपक, तुलना, उदाहरणादि से दर्शन, न्याय, नीति आदि की शिक्षा देने के अनेक दृष्टन्त मिलते हैं। गुरु को किस प्रकार अपने गुरुकुल में शिष्य को अच्छी तरह परीक्षण कर स्थान देना चाहिए और किसी प्रकार उसे उचित शिक्षा देनी चाहिए। इसके लिए विशेषावश्यकभाष्य और आवश्यक निर्युक्ति की एक गाथा से स्पष्ट है –गोणी चंदण कंथा चेडीसों सा वए वहिर गोहे । टंकण ववहारो पडिवक्खो आयरिय-सीसे ।।(क) विशेषावश्यकभाष्यम् ।। १४३७।। निर्युक्ति १३१, (ख) आवश्यकनिर्युक्ति दीपिका ४६/१३६। विशेष सन्दर्भ मूल टीका में
१६. संगोष्ठी विधि –पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल में आधुनिक काल की तरह संगोष्ठी (सेमिनार) का आयोजन होता था जिसमें नाना प्रकार की विद्याओं के सम्बन्ध में चर्चाएँ होती थी। विद्या संवाद गोष्ठी आदिपुराण ७/६५) में सभी विद्याओं की चर्चा-वर्ता होती थी। दर्शन, काव्य, कथा, कामशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, व्याकरण, गणित, ज्यातिष, भूगोल, प्रभृति, विषयों की चर्चा की जाती थी। गोष्ठियों के पुरातन रूप का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि विद्या संवाद गोष्ठी में ग्यारह या पन्द्रह सदस्य भाग लेते थे। एक-एक विद्या का जानकार एक-एक विद्वान होता था। ये सभी विद्वान शास्त्रार्थ- शास्त्र चर्चा वीतराग कथा के रूप में करते थे।आदिपुराण में प्रतिपादित भारत डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री, पृ. २५०
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं –
१. प्राचीन भारत में ब्राह्मण और श्रमण शिक्षा पद्धतियों का समानान्तर रूप में विकास हुआ।
२.जैन शिक्षा पद्धति में श्रमण या साधु शिक्षा के केन्द्र अवश्य थे, किन्तु आचार विषयक नियमें के कारण वे एक-स्थान पर स्थिर होकर नहीं रह सकते थे।
३.ब्राह्मण शिक्षा पद्धति में शिक्षा प्रवृत्तियमूलक थी, जबकि श्रमण शिक्षा निवृत्तिमूलक।
४.जैन शिक्षा मूलत: मोक्षमूलक थी, किन्तु उसका उददेश्य, सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र द्वारा व्यक्तित्व का समग्र विकास करना था।
५. जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षा विधि की अपनी विशेषताएँ थी।
६. जैन शिक्षा बहुआगामी थी। ज्ञान विज्ञान का कोई जैन आचार्यों ने अछूता नहीं छोड़ा।
७.जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षा के माध्यम के विषय में किसी भाषा विशेष पर आग्रह नहीं देखा जाता। विश्व के पहले शिक्षाशास्त्री जैनाचार्य हैं। जिन्होंने सर्वप्रथम शिक्षा का माध्यम मातृभाष एवं लोकभाषाओं को बनाने में विशेष योगदान दिया। कारण है कि उस समय की लोकभाषाओं को बनाने में विशेष बल दिया। यही कारण है कि उस समय की लोकभाषाओं-अर्धमागधी, शैरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश आदि में उन्होनें यथेष्ट साहित्य का सृजन भी किया। जिसके आधार पर अधिकारपूर्ण कहा जा सकता है कि आधुनिक बुनियादी शिक्षा (Basic Education) के मूल बीज का वपन आज से २५०० वर्ष पूर्व उन्होंने कर दिया था।
वर्तमान में प्रासंगिकता
आज वर्तमान में हम यदि जैन शिक्षा के तत्वों को अपनी आधुनिक शिक्षा पद्धति में समावेश करें तो हम काफी हद तक शिक्षा में व्याप्त विसंगतियों से निजात पा साकते हैं जैसे – जैन शिक्षा में गुरु की महत्ता निस्प्रेय थी, आज वर्तमान में यही एक बहुत बड़ी महत्ता है। देश में हिंसा, झूठ, चोरी अपराध इतना भयंकर बढ़ा हुआ है, परन्तु दूसरी तरफ जैन नैतिक शिक्षा का प्रभाव जन-जीवन पर इतना अधिक हुआ कि सहस्रों वर्षों के बाद आज भी जैन धर्मावलम्बियों में अपराध वृत्ति नहीं के बराबर देखी है।Mrs. Sinclair Stevenson, M.A.I, Sc.D. : The Heart of Jainism, Chapter 2 P.20 O.U.P. 1915 यह तथ्य सर्वेक्षण द्वारा भी प्रमाणित हुई। यह नैतिक शिक्षा का ही प्रभाव है जैन परम्परा में शाकाहार को ही प्रतिष्ठा मिली तथा मादक द्रव्यों को कठोरतापूर्वक निषेध किया।
Dr. Vilas Adinath Sangave : Jain Community :
A Social Survey, P. 341 Popular Book Depot, Bombay, 1959.