आगम में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों के मनुष्य को ही जैनेश्वरी दीक्षा का आदेश दिया है।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है—
वण्णेसु तीसु एक्को, कल्लाणंगो तवो सहो वयसा।
सुमुहो कुंछारहिदी, िंलगग्गहणे हवदि जोग्गो।।
गाथार्थ—ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य इन तीन वर्णों में से एक वर्ण वाला आरोग्य शरीरधारी, तपस्या को सहन करने वाला, अवस्था से सुन्दर मुख वाला तथा अपवाद रहित पुरुष साधु भेष के लेने योग्य होता है। (पृ. ५३७)
श्री कुन्दकुन्ददेव ने आचार्यभक्ति में भी कहा है—
देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिहमंगलमत्थु मे णिच्चं।।१।।
आप देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त हैं। ऐसे हे आचार्यदेव! आपके पादकमल इस लोक में हमारे लिए नित्य ही मंगलस्वरूप होवें।१
सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं परमार्हंन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा।।
१. सज्जाति, २. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत), ३. पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत),
४. सुरेन्द्रपद, ५. साम्राज्य (चक्रवर्ती पद) ६. अरहंतपद और ७. निर्वाणपद ये सात परम स्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परमस्थानों को प्राप्त कर लेता है।
इन्हें कर्त्रन्वय क्रिया भी कहते हैं। इन सप्तपरमस्थानों का कर्त्रन्वय क्रियाओं के नाम से आदिपुराण२ में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।
।।१।। सज्जाति परमस्थान—
सनृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते।।८३।।
पितुरन्वयशुद्धिर्यो तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते।।८५।।
विशुद्धिरूभयस्यास्य सज्जतिरनुवर्णिता।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिरयत्नोपनतैगुणैः।।८६।।
इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है।।’’ दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परमस्थान होता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी संपदा सज्जाति है। इस सज्जाति से ही पुण्यवान् मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम-उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को ‘‘सज्जाति’’ कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुये गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है।
आर्यखंड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है। यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही वर्णन की गई है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूल कारण यही एक सज्जाति है। संस्कार रूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मा कहलाता है अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुई पुनः व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की ‘‘द्विज’’ यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है। जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना ‘‘सज्जातित्व’’ नहीं बन सकती। इसी बात को श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं—
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णोः शेषा शूद्राः प्रकीर्तिता।।४९३।।
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः।
तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात्।।४९४।।
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः।
एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।।
‘‘जिनमें शुक्लध्यान के लिये कारण ऐसे जाति, गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं। उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं। विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहीं उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में जाति की परम्परा चलती है। जिनागम में मनुष्यों का वर्ण-विभाग इस प्रकार बतलाया गया है१।
कृतयुग की आदि में जब प्रजा भगवान् के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई तब भगवान् ने उसे आश्वासन देकर विचार किया—
पूर्वापरविदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूप्रजाः।।१४३।।
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च प्रथग्विधाः।।१४४।।
‘‘पूर्व और पश्चिम विदेहक्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मसि आदि षटकर्म हैं, जैसी क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिये। अनन्तर भगवान् के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इंद्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान् की आज्ञानुसार मांगलिक कार्यपूर्वक अयोध्या के बीच में ‘‘जिनमन्दिर’’ की रचना की एवं चारों दिशाओं में चार जिनमंदिर बनाये। पुनः सर्वप्रथम ग्राम, नग्ार आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया।‘‘पुनः भगवान् ने असि, मसि आदि षट् कर्मों का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसलिये उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) नहीं होती थी। उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान् की आज्ञानुसार ही होते थे३ अर्थात् कर्मभूमि की आदि में भगवान् वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर उसी के सदृश ही यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी अतः जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा पंचम और छठे काल में मोक्ष नहीं होता है वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना मोक्ष नहीं है।
सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री नेमिचंद्राचार्य भी कहते हैं—
दुब्भावअसुयसूदगपुप्फवईजाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९१४।।
‘‘दुर्भाव, अशुचि, सूतक-पातक दोष से युक्त, रजस्वला स्त्री और जातिसंकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं तथा जो कुपात्र में दान देते हैं वे भी कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं।१
जाति व्यवस्था मानने पर ही ‘‘जातिसंकर’’ दोष बनेगा अन्यथा नहीं।
उपासकाध्ययन में भी कहा है—
पित्रोः शुद्धौ यथापत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता।।९६।।
‘‘जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर संतान की शुद्धि देखी जाती है। वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता२ है। ‘‘द्रव्य, दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है।
जैनेन्द्र व्याकरण में श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है—
वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानाम् ।।९७।।३
जो वर्ण से—जाति विशेष से अर्हंत रूप-निर्ग्रंथता के अयोग्य हैं उनमें द्वंद्व समास करने पर नपुंसकलिंग का एकवचन होता है। यथा—
तक्षायस्कारं—बढ़ई और लुहार, रजकतंतुवायं—धोबी और जुलाहा। ‘‘वर्ण से’’ ऐसा क्यों कहा ? तो ‘‘मूकबधिरौ’’ गूँगा और बहरा, इसमें वर्ण का सम्बन्ध नहीं होने से एकवचन नहीं हुआ। ‘‘अर्हद्रूप के लिए अयोग्य हो’’ ऐसा क्यों कहा तो ‘‘ब्राह्मण क्षत्रियौ—’’ब्राह्मण और क्षत्रिय, ये वर्ण से अर्हंत िंलग के लिए अर्थात् दिगम्बर मुनि रूप जिनमुद्रा के लिए योग्य हैं इसलिए इनमें भी द्वन्द्व समास में द्विवचन होता है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही जिनमुद्रा के योग्य हैं।