मनुष्य में सोचने-समझने की योग्यता है उसके फलस्वरूप उसे अपने विषय की चिन्ता ने अनादिकाल से सताया है। वर्तमान की चिन्ताओं के अतिरिक्त उसे इस बात की बड़ी जिज्ञासा रही है कि भविष्य में उसका क्या होने वाला है? आने वाले कल की बात आज जान लेने के लिये वह इतना आतुर हुआ है कि उसका नाना प्रकार के आधारों से भविष्य का अनुमान करना स्वाभाविक ही है।
भारतवर्ष का ज्योतिष शास्त्र भी बहुत प्राचीन है, संस्कृत तथा प्राकृत में इस विषय के अनेकों ग्रंथ पाये जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र के मुख्य भेद हैं। गणित और फलित। गणित ज्योतिष विज्ञानात्मक है जिसके द्वारा ग्रहों की गति और स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर काल गणना में उसका उपयोग किया जाता है। ग्रहों की स्थिति व गति से जो शुभ-अशुभ फल का निरूपण किया जाता है उसे फलित ज्योतिष कहते हैं।
फलित ज्योतिष का एक अंग है अष्टांगनिमित्त। इसमें शरीर के तिल, मसा आदि व्यंजनों, हाथ-पैर आदि अंगों, ध्वनियों व स्वरों, भूमि के रंग-रूप, वस्त्र-शस्त्रादिक के छिद्रों, ग्रह-नक्षत्रों के उदय-अस्त, शंख, चक्र, कलश आदि लक्षणों तथा स्वप्न में देखी गई वस्तुओं व घटनाओं का विचार कर शुभाशुभरूप भविष्य फल कहा जाता है।
जैन परम्परा के अनुसार ज्ञात होता है कि आज से लाखों वर्ष पूर्व कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समय में जब मनुष्यों को सर्वप्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े तो वे इनसे सशंकित हुए और अपनी उत्कण्ठा शान्त करने के लिये प्रतिश्रुति नामक कुलकर (मनु) के पास गए। मनु ने ही सौर जगत सम्बन्धी सारी जानकारी बतलाई और ये ही सौर जगत की ज्ञातव्य बातें ज्योतिष शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुईं। आगमिक परम्परा अविच्छिन्न रूप से अनादि होने पर भी इस युग में ज्योतिष शास्त्र की नींव का इतिहास यहीं से आरम्भ होता है। सौर जगत के सिद्धान्तों के आधार पर गणित और फलित ज्योतिष का विकास प्रतिश्रुति मनु के सहस्रों वर्ष के बाद हुआ तथा यह ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर भावी फलाफलों का निरूपण भी उसी समय से होने लगा।
ज्योतिष के मुख्य तीन भेद—
सिद्धांत, संहिता तथा होरा।
संहिता ग्रंथों में भूशोधन, दिक् संशोधन, शल्योद्धार, मेलापक, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, उल्कापात वृष्टि, ग्रहों के उदयास्त का फल, ग्रहाचार का फल, शकुन विचार, निमित्त एवं ग्रहण फल आदि बातों का विचार किया जाता है।
‘होरा’ इसकी उत्पत्ति, अहोरात्र शब्द से है, आदि अक्षर ‘अ’ और अन्तिम अक्षर ‘त्र’ का लोप कर देने से होरा शब्द बन जाता है। ‘होरा’ शास्त्र में जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति के अनुसार व्यक्ति के लिए फलाफल का निरूपण, जातक की उत्पत्ति के समय नक्षत्र, तिथि, योग, करण आदि का फल, ग्रहों के व राशियों के वर्ण, स्वभाव, गुण, आकार-प्रकार आदि बातों का प्रतिपादन बड़ी सफलतापूर्वक किया गया है। जन्मकुण्डली का फलादेश कहना तो इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है। इसमें परस्पर तात्कालिक साहचर्यादि सम्बन्ध से फल विशेष शुभाशुभ रूप में परिणत हो जाता है, जिसका प्रभाव पृथ्वी स्थित प्राणियों पर भी पूर्ण रूप से पड़ता है। इस शास्त्र में देह, पराक्रम, सुख, सुत, शत्रु, कलत्र, मृत्यु, भाग्य, राज्य, पद, लाभ और व्यय इन बारह भावों का वर्णन रहता है। जन्म-नक्षत्र और जन्म-लग्न से फलादेश का वर्णन होरा शास्त्र में पाया जाता है।
जैन ज्योतिष का विकास—
जैनागम की दृष्टि से ज्योतिषशास्त्र का विकास विद्यानुवाद और परिकर्मों से हुआ है। समस्त ‘गणित सिद्धांत’ ज्योतिष परिकर्मों में अंकित है। अष्टांग महानिमित्त का विवेचन विद्यानुवाद में किया गया है। जैन समाज के मुख्य सिद्धांत ग्रंथ षट्खण्डागम-धवला टीका में रौद्र, श्वेत, मैत्र दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य वरुण, अर्यमान और भाग्य ये पन्द्रह मुहूर्त आये हैं। मुहूर्तों की नामावली वीरसेन स्वामी की अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व परम्परा से आगत श्लोकों को उन्होंने उद्धृत किया है। अत: मुहूर्त चर्चा प्राचीन है।
नक्षत्र वर्णन प्रणाली का संहिता-शास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा भी है कि घनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढ़ा ये नक्षत्र कुलसंज्ञक, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुल संज्ञक और अभिजित्, शतभिषा, आर्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल का विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है। श्रवण मास के घनिष्ठा श्रावण और अभिजित, भाद्रपद मास के उत्तराभाद्रपद-पूर्वाभाद्रपद और शतभिषा, आसोज मास के अश्विनी और रेवती, कार्तिक मास के कृतिका और भरणी, मार्गशीर्ष के मृगशिरा और रोहिणी, पौष मास के पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा, माघ मास के मघा और आश्लेषा, फाल्गुनी, चैत्र मास के चित्रा और हस्त, वैशाख मास के विशाखा और स्वाति, ज्येष्ठ मास के ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं आषाढ़ मास के उत्तराषाढ़ा और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र बताये गये हैं। प्रत्येक मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुल संज्ञक, दूसरा उपकुल संज्ञक और तीसरा कुलोपकुल संज्ञक होता है।
सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक अंगविज्जा, गणितसार संग्रह, लोकविजय, केवलज्ञान हीरा, ज्योतिष प्रकाश, रिष्ट समुच्चय, जातक तिलक, केवलज्ञान प्रश्नचूड़ामणि, भद्रबाहु संहिता, मेघ महोदधि, मानसागरी, सामुद्रिक शास्त्र, करलक््âखण आदि जैन ज्योतिष के सैकड़ों ग्रंथ उपलब्ध हैं।
जैनाचार्यों ने ज्योतिष को दो भागों में विभक्त किया है—एक गणित सिद्धान्त तथा दूसरा फलित सिद्धांत। गणित भाग में ग्रहों की गति, स्थिति, वक्री, मार्गी, फल, व्यास, परिधि आदि का प्रतिपादन किया है, साथ ही आकाशमंडल में विकीर्णित तारिकाओं का ग्रहों के साथ कब कैसा सम्बन्ध होता है, इसका ज्ञान गणित प्रक्रिया से ही संभव है। आचार्यों ने ज्योतिर्लोकाधिकार नामक एक अधिकार पृथक् देकर ज्योतिषी देवों के रूप, रंग, आकृति, भ्रमणमार्ग आदि का विवेचन किया है, यों तो बीजगणित, रेखागणित, प्रतिभागणित, पंचांग निर्माणगणित, जन्मपत्री निर्माण गणित, ग्रहयुति उदयास्त सम्बन्धी गणित आदि का निरूपण किया है। फलित सिद्धान्त में तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार, ग्रहयोग जातक के जन्मकालीन ग्रहों का फल, मुहूर्त, समय शुद्धि आदि विषयों का परिज्ञान करने के लिये वर्ष प्रबोध, लग्न विचार और ज्योतिष रत्नाकर आदि ग्रंथों की रचना आचार्यों ने की। फलित विषय के विस्तार में अष्टांगनिमित्त ज्ञान भी शामिल है। निमित्तज्ञान संहिता विषय के अन्तर्गत आता है। प्रश्नशास्त्र और सामुद्रिक शास्त्र का समावेश भी संहिता शास्त्र में किया है।
जिन लक्षणों को देखकर भूत और भविष्य में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरूपण किया जाता है। कारक और सूचक वस्तु को सम्पन्न कराने में सहायक होते हैं उसे कारक निमित्तक कहते हैं, दूसरा है सूचक निमित्त जिससे कार्य की सूचना मिलती है। ज्योतिषशास्त्र में सूचक निमित्तों की विशेषताओं पर विचार किया गया है तथा प्रतिपाद्य विषयसूचक निमित्त ही हैं। प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में विकार उत्पन्न होता है। ग्रह कर्मफल के अभिव्यंज्यक हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ कर्म तथा मोहनीय के दर्शन और चारित्रमोह के भेदों के कारण कर्मों के प्रधान ८ भेद आगम में बताये गये हैं। नव ग्रह इन्हीं कर्म फलों की सूचना देते हैं। किसी भी जातक की जन्म कुण्डली की ग्रह स्थिति के साथ गोचर ग्रह की स्थिति समन्वयकर उक्त बातें सहज कही जा सकती हैं अत: अभिचारी सूचक निमित्तों का विवेचन किया गया है। इन्हीं सूचक निमित्तों के संहिता ग्रंथों में आठ भेद किये गये हैं–व्यंजन, अंग, स्वर भौम, छन्न, अंतरिक्ष, लक्षण एवं स्वप्न।
व्यंजन निमित्त—
तिल, मस्सा आदि देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना व्यंजन निमित्तज्ञान है। सामान्य पुरुष के शरीर में दाहिनी ओर तिल, मस्सा, लहसुन शुभ समझा जाता है और स्त्री के शरीर में इन्हीं व्यञ्जनों का बाईं ओर होना शुभ माना जाता है। पुरुष की हथेली में तिल होने से उसके भाग्य की वृद्धि होती है और पदतल में होने से राज्य मान्यता प्राप्त होती है। पितृरेखा पर तिल होने से विष द्वारा कष्ट है, वाम पार्श्व या भौहों में तिल के होने से कार्य नाश और आशाएं समाप्त हो जाती हैं, नेत्र के कोने में तिल होने से व्यक्ति शास्त्रविनीत होता है, गले में तिल का रहना दु:ख का सूचक है, कान पर तिल होने से यश तथा भाग्य की वृद्धि होती है। नितम्ब में तिल होने से अधिक सन्तान प्राप्त होती है, दाहिनी जांघ का तिल धनी होने का सूचक है, बायी जांघ पर तिल दरिद्र और रोगी होने की सूचना देता है। दाहिने पैर में तिल होने से मनुष्य ज्ञानी होता है तथा अपने जीवन काल में व्रती जीवन व्यतीत करता है। दाहिनी बाहु में तिल होने से दृढ़ शरीर, धैर्यशाली एवं बायीं बाहु में तिल होने से व्यक्ति कठोर प्रकृति वाला, क्रोधी और विश्वासघातक होता है।
यदि नारियों के बायें कान, कपोल, कण्ठ, हाथ में तिल हो तो पुत्रवान होती है, छाती में तिल होने से बुद्धिमान रहती है, हृदय में तिल रहने से सौभाग्यवती होती है। नारी के नाक पर तिल, मसा आदि हों तो उसको वैधव्य जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पीठ में तिल आदि का चिन्ह सुलक्षणा, पतिपरायण, सौभाग्यदायिनी होता हैं बायीं भुजा में रहने से स्वेच्छाचारिणी, असत्यभाषिणी होती है। नाभि के बायें भाग में तिल रहने से चंचलता और नाभि के दाहिने भाग में तिल होने से सुलक्षणा होती हैं।
तिल ३ रंग के होते हैं। लाल रंग के उत्तम फल वाले, काले रंग के मध्यम फल वाले और नीले रंग के अशुभ फल वाले होते हैं। मस्सों, चिन्हों और लहसुनों का शुभाशुभ फल भी तिलों के समान ही समझना चाहिए। निमित्तशास्त्र में व्यंजनों का विचार विस्तारपूर्वक किया गया है।
अंगनिमित्त ज्ञान—
हाथ, पांव, ललाट, मस्तक और वक्षस्थल आदि शरीर के अंगों को देखकर शुभाशुभ फल का निरूपण करना अंग निमित्त है। नासिका, नेत्र, दन्त, ललाट, मस्तक तथा वक्षस्थल में छह अवयव उन्नत होने से मनुष्य सुलक्षणी होता है। करतल, पदतल, नयनप्रान्त, नश्व, तालु, अधर, ओष्ठ और जिव्हा, ये सात अंग लाल हों तो शुभप्रद हैं। जिसकी भुजाएं लम्बी होती हैं वह व्यक्ति श्रेष्ठ होता है। जिसका हृदय विस्तीर्ण है वह धन-धान्य से युक्त तथा पूजनीय होता है। जिस व्यक्ति का नयनप्रान्त लाल होता है वह अतुल धन-धान्य का स्वामी होता है। जिसकी हथेली चिकनी और मुलायम हो वह ऐश्वर्य का भोग करता है। जिसके पैर का तलुवा लाल हो वह सवारी आदि का उपभोग सदा करता है। पैर के तलुवों का चिकना होना शुभ माना गया है, जिस मानव की जिह्वा इतनी लम्बी हो जो नाक का अग्रभाग स्पर्श कर ले तो वह योगी या सन्यासी जीवन व्यतीत करेगा, जिसके दांत विरल हों उसको अन्य दूसरे व्यक्ति का धन प्राप्त होता है। ओठों पर विचार करते हुए आचार्यों ने कहा है कि भोंडे ओंठ वाला व्यक्ति मूर्ख अर्थात् जड़बुद्धि वाला होता है तथा आर्थिक रूप से कष्ट पाता है। पतले ओंठ वाला धनी तो होता है किन्तु कंजूसी स्वभाव का होता है। सरस, सुन्दर और आभायुक्त पतले ओंठ होने पर धनी, सुखी और सर्वप्रिय होता है। रुक्ष ओठ अजीर्ण, ज्वर रोग एवं दारिद्र्य को प्रगट करते हैं। दाँतों के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि चमकीले दांतवाला व्यक्ति कार्यशील और उत्साही होता है, छोटे दांत वाला विचारवान या बुद्धिमान होता है। जिस मुख में ये दांत स्वभावत: खुले हों, स्वच्छ हों, आभायुक्त हों तो व्यक्ति में शील, सौजन्यता तथा नम्रता का गुण अवश्य होता है।
गर्दन के पिछले भाग को पिछला मस्तक तथा अगले भाग को कण्ठ कहते हैं। पिछले मस्तक में सुन्दर गठाव हो तो व्यक्ति का स्वावलम्बन और स्वाभिमान प्रगट होता है, गर्दन सीधी दृढ़ और भारी होने से व्यक्ति विचारशील, श्रेष्ठ राजकर्मचारी या न्यायाधीश होता है।
मस्तक की बनावट पर ४ बातों का मुख्य रूप से निरूपण किया है—नसजाल, विस्तार, आभा तथा बनावट।
मस्तक के नसजाल से विद्या, विचार और प्रतिभा का परिज्ञान होता है, विचारशील मानव के माथे पर सिकुड़न और ग्रंथियाँ देखी जाती हैं, रेखाविहीन चिकना मस्तक प्रमाद, अज्ञान और लापरवाही का सूचक है।
मस्तक नीचे की ओर चौड़ा और ऊपर की ओर छोटा हो तो वह झक्की होता है नीचे चपटे और चौड़े माथे में विचार तथा कार्यशील कल्पना की कमी रहती है। चौड़ा और ढालू मस्तक चालाक, चतुर एवं पेट के मलीन होते हैं। उन्नत ललाट वाले विद्वान होते हैं, चौकोन मस्तक के ऊपरी भाग में गोलाई हो तो वह हठीला और दृढ़ होता है। ऊंचा—सीधा और आभापूर्ण ललाट लेखकों, कवियों, राजनैतिक नेताओं और अर्थशास्त्रियों का होता है। आभा चमक को कहते हैं। आभा के रहने से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। जिसके मस्तक में तेज नहीं, वह दुखी रहता है। बनावट में विद्या और धार्मिकता के माप का पता चलता है, अच्छी सुन्दर बनावट से सुखी, सम्पन्न और बेढंगी बनावट से उत्तम गुणों का अभाव होता है।
स्वर निमित्त—
प्राणियों की अचेतन वस्तुओं के शब्द को सुनकर शुभाशुभ का निरूपण करना स्वर निमित्त ज्ञान कहलाता है। इस निमित्त में काक, उल्लू, बिल्ली, कुत्ता आदि के शब्दों को कठोर फल देने वाला माना गया जैसे—उल्लू का दिन में बोलना अशुभ माना जाता है। रात्रि में कठोर शब्द करे तो भय प्राप्ति, अनिष्टसूचक। मधुर शब्द करे तो कार्य सिद्धि, सम्मान, लाभ की सूचना समझना चाहिए। हाथी, मोर, बिल्ली, गाय, भैंस, शृगाल आदि के स्वर का भी फल भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। अचेतन पदार्थों की आवाज आना जैसे चिरिचिरि, चिलि चिलि, कीतु कीतु, चच आदि का भी फल आगम ज्योतिष ग्रंथों में पाया जाता है।
भौम निमित्त—
भूति के रंग, चिकनाहट, रूखेपन आदि के द्वारा शुभ-अशुभ का ज्ञान करना भौम निमित्त कहलाता है। इस ज्ञान से देवालय निर्माण, जलाशय स्थल, गृहनिर्माण आदि योग्य भूमि की जानकारी मिलती है। भूमि के रूप, रस, गंध और स्पर्श द्वारा इसकी शुभ-अशुभ की सूचना मिलती है।
जैसे जिस स्थान की मिट्टी पीतवर्ण की हो तथा उसमें से मधु जैसी गंध निकलती हो तो वहां जल निकलता है, नीले रंग की मिट्टी हो तो नीचे खारा पानी, कपोत रंग की मिट्टी भी खारे जल के स्रोत की सूचना देती है। पीतवर्णी दूध के समान गंध वाली मिट्टी मीठे जल की सूचना देती है परन्तु एक बात का ध्यान अवश्य होना चाहिये कि मिट्टी चिकनी हो, रूक्ष मिट्टी में जल का अभाव होता है। धूम्र वर्ण की मिट्टी गहराई पर जल मिलने की सम्भावना की द्योतक है।
छिन्न निमित्त—
कपड़ा, आसन, शस्त्र आदि को छिदा हुआ देखकर उसके फल का निरूपण करना छिन्न निमित्त है। जैसे—नये वस्त्र में स्याही, गोबर, कीचड़, तेल, घी लग जावे या वस्त्र जल जाय, फट जाए, कट जाए तो इसके भी शुभाशुभ फल का ज्ञान करना चाहिए। जैसे नया वस्त्र पहनते ही फट जाए तो समझना चाहिये वस्त्र के स्वामी को असाध्य बीमारी होती है या मृत्यु होती है। वस्त्र के जलते समय वस्त्र में मेंढ़क, उल्लू, काक, गधा, ऊंट, सर्प आदि के आकार का होना धन विनाश का सूचक है, अपमान तथा तिरस्कार की भी सूचना देता है तथा छत्र, ध्वज, स्वस्तिक, कलश, तोरण आदि के चिन्ह बनने से लक्ष्मी की वृद्धि, सम्मान तथा सभी प्रकार के अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। सिर के ऊपर के भाग, टोपी, पगड़ी जल जाने से अति ही उत्कृष्ट कष्टदायक फल मिलता है। रविवार, मंगलवार, शनिवार को वस्त्र कटने, जलने या फटने से कष्ट का सामना करना पड़ता है।
अन्तरिक्ष निमित्त—
ग्रह-नक्षत्रों के उदयास्त का निरूपण करना अन्तरिक्ष निमित्त है। शुक्र, बुध, मंगल, गुरु और शनि इन पाँच ग्रहों के उदयास्त द्वारा ही शुभाशुभ्ा का निरूपण किया गया है या उदय-अस्त के समय इसकी आकृति आदि के द्वारा शुभ-अशुभ फल का निरूपण किया जाता है। यत: सूर्य और चन्द्रमा का उदयास्त प्रतिदिन होता है अत: उन ग्रहों में इसकी आवश्यकता नहीं रहती, तथापि सूर्य उदय-अस्त के समय के रंगों को देखकर उसकी प्ररूपणा की गई है या उदय-अस्त के समय इसकी आकृति आदि के द्वारा शुभ-अशुभ की सूचना मिलती रहती है। ग्रहों के अस्तोदय के समय मार्गी वक्री का विचार करना चाहिये। ग्रहों की विभिन्न जातियों के अनुसार शुभाशुभ फल का निरूपण करना अन्तरिक्ष निमित्त का कार्य हैं।
लक्षण निमित्त—
स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र, पद्म, मछली, हल, ध्वजा, मन्दिर, सूर्य, चन्द्रमा, धनुष, हाथी, घोड़ा, लक्ष्मी, वीणा, माला, त्रिशूल, कमंडलु, सिंहासन, कल्पवृक्ष, सरोवर, कच्छप, शीशा, तोरण, त्रिकोण, षट्कोण आदि चिन्हों के द्वारा, हस्त, पैर, मस्तक की रेखाओं द्वारा शुभाशुभ का निरूपण करना लक्षण निमित्त है। मनुष्य लाभ-हानि, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, जय-पराजय, स्वास्थ्य एवं अस्वास्थ्य, रेखाओं के बल से प्राप्त करता है। इस प्रकार लक्षण निमित्तसम्बन्धी ग्रंथों का अवलोकन करके उसके फलादेश को जानना चाहिए।
स्वप्न निमित्त—
स्वप्न के द्वारा शुभाशुभ का निरूपण करना भी निमित्त ज्ञान का अंग है दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित, भाविक और दोषज इन सात प्रकार के स्वप्नों में से भाविक स्वप्न का फल यथार्थ निकलता है। स्वप्नों के द्वारा आगामी शुभाशुभ की सूचना मिल जाती है। यह स्वप्न निमित्त है।
प्रश्नशास्त्र निमित्तज्ञान का ही एक अंग है। इसमें धातु, मूल, जीव, नष्ट, मुष्ठि, लाभ, हानि, रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, नदियों की बाढ़, अतिवृष्टि, फसल, जय, पराजय, लाभालाभ, विवाह, सन्तान, यश एवं जीवन के विभिन्न आवश्यक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। जैनाचार्यों ने अनेकों ग्रंथ लिखे हैं, जिसमें मुख्य केवलज्ञान प्रश्नचूड़ामणि, केवल प्रश्नावलि आदि ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।
भूत-भविष्य वर्तमान के शुभाशुभ दृष्टि, पांच मार्ग, चार केन्द्र, बलाबल, आसन, छत्र, वर्ण, उदयबल, अस्तबल, क्षेत्र, नर, नारी, नपुंसक, मृग तथा मनुष्यादिक के रूप, किरण, योजना, आयु, रस एवं उदय आदि की परीक्षा करके फल का निरूपण करना चाहिये। प्रश्न निमित्त का विचार तीन प्रकार से ज्योतिष ग्रंथों में किया गया है। प्रश्नाक्षर, प्रश्नलग्न और स्वर विज्ञान। प्रश्नाक्षर का आधार मनोविज्ञान है अत: विभिन्न परिस्थितियों के आधीन मानव मन की भीतरी तह में जैसी-जैसी भावनाएँ छिपी रहती हैं, वैसे ही प्रश्नाक्षर निकलते हैं अत: प्रश्नाक्षरों के निमित्त को लेकर फलादेश का विचार किया गया है। इस प्रकार अष्टांगनिमित्त का विचार हमारे देश में प्राचीनकाल से होता आ रहा है।
निमित्तज्ञान के द्वारा वर्षण, अवर्षण, सुभिक्ष, सुख, लाभ, हानि, जय, पराजय आदि का पता लगाकर व्यक्ति अपने लौकिक और पारलौकिक जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। निमित्तज्ञान का विशेष वर्णन भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रंथ में आचार्य श्री भद्रबाहुजी ने किया है।