प्राणी मात्र का चरम लक्ष्य दु:ख से निवृत्ति एवं शाश्वत सुख—शान्ति की प्राप्ति है। प्रत्येक विवेकशील प्राणी यह तो निर्विवाद स्वीकार करता है कि कर्म से आबद्ध जीव इस जगत में परिभ्रमण करता है और विविध पर्यायों में जन्म—मरण करते हुए अनेक प्रकार के दु:खों का अनुभव करता है तथा उन दु:खों से निवृत्त होने का सतत प्रयास करता है। दु:खों से छुटकारा अर्थात् कर्मबन्ध से मुक्ति, अनन्तसुख, शाश्वत आनन्द एवं परमशान्ति की प्राप्ति। परमपद की प्राप्ति में ही शाश्वत आनंद निहित है। जैनधर्म के अनुसार इसी परमपद की प्राप्ति के लिये साधना का निरूपण जैनाचार में किया गया है। साधना का उद्देश्य किसी बाह्य वस्तु की प्राप्ति करना न होकर बाह्यप्रभाव के कारण छिपे हुए आत्मा के शुद्धस्वरूप को प्रकट करना है। इस शुद्धस्वरूप की प्राप्ति के लिये ही जैनाचार द्वारा जीव अपने विकारों को दूर करता हुआ क्रमश: आगे बढ़ता है।
जैनदर्शन में प्रत्येक धार्मिक क्रिया को प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से आध्यात्मिक विकास के साथ सम्बद्ध किया गया है। इस दृष्टिकोण से आत्मसाधना के मार्ग को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं—प्रथम तो श्रमणसाधना और द्वितीय गृही साधना। श्रमणसाधना को हम मुनिधर्म और गृहीसाधना को श्रावकधर्म कह सकते हैं। श्रमणसाधना में निरत साधक सम्पूर्णत: अपने को आत्मसाधना या मोक्ष की आराधना में लगा देते हैं। भौतिक जीवन उनके लिये सर्वथा गौण होता है। दूसरे प्रकार के साधक गार्हस्थ जीवन के साथ—साथ आत्मसाधना के अभ्यास में यथाशक्य संलग्न रहते हैं। श्रमणधर्म और गृहस्थधर्म को हम क्रमश: निवृत्तिमूलक और प्रवृत्तिमूलक धर्म भी कह सकते हैं।
यद्यपि निवृत्तिमूलक मार्ग कठिन है तथापि लक्ष्य की ओर शीघ्र पहुँचाने वाला है। समस्त पर पदार्थों से ममत्व का परित्याग कर वीतराग आत्मतत्त्व की उपलब्धि हेतु श्रमणदीक्षा स्वीकार करना तथा इन्द्रिय और मन को स्वाधीन (आत्माधीन) कर आत्मस्वरूप में रमण करना निवृत्ति या पूर्णतया त्यागमार्ग है। यह आचारमार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ नहीं है, बिरले महापुरुष ही इस मार्ग पर चंक्रमण करते हैं। नि:सन्देह निवृत्तिमार्ग का अनुसरण करने से राग—द्वेष, मोहादि से रहित निर्मल आत्मतत्त्व की उपलब्धि शीघ्र ही होती है। यह सकलचारित्र साक्षात् मोक्षमार्ग है। इससे विपरीत प्रवृत्तिमार्ग में संलग्न गृहस्थ साधक श्रमणपद के उक्त आदर्शों की मर्यादा का निर्वाह करने में सद्य: समर्थ नहीं होने के कारण शनै:—शनै: क्रम—क्रम से मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने का अभ्यास करते हैं। प्रस्तुत निबन्ध में गृहस्थ साधक को लक्ष्य करके ही श्रावकधर्म के वर्णन का उद्देश्य है अत: उद्देश्यानुसार श्रावकधर्म का वर्णन जैनागम के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है।
श्रावक शब्द तीन वर्णों के संयोग से बना है और इन तीनों वर्णों के क्रमश: तीन अर्थ हैं—१. श्रद्धावान, २. विवेकवान, ३. क्रियावान। जिसमें इन तीनों गुणों का समावेश पाया जाता है वह श्रावक है। व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक और सागार आदि नामों से अभिहित किया गया है।
श्रावकाचार का विभाजन तीन दृष्टियों से आगम में (आचारग्रंथों में) पाया जाता है—१. द्वादशव्रत २. एकादश प्रतिमाएं, ३. पक्ष, चर्या और साधन अथवा पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक की अपेक्षा श्रावक तीन प्रकार के कहे गये हैं।
सर्वज्ञ—वीतराग—हितोपदेशी देव, वीतराग धर्म और निर्ग्रन्थ गुरु को मानना पक्ष है। ऐसे पक्ष को रखने वाला अर्थात् जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का श्रद्धान करने वाला पाक्षिक श्रावक कहलाता है अथवा असि—मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भरूप कार्यों से गृहस्थों के िंहसा होना सम्भव है तथापि पक्ष, चर्या और साधकपना इन तीनों से िंहसा का निवारण किया जाता है। इनमें सदा अिंहसारूप परिणाम करना पक्ष है। इस पक्ष को करने वाला पाक्षिक श्रावक कहलाता है।
जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म की श्रद्धा करते हुए पाक्षिक श्रावक सर्वप्रथम मद्य—मांस—मधु और पंच उदुम्बर फलों का परित्याग करता है। देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दानरूप षडावश्यक कर्त्तव्यों का यथासंभव नित्य पालन करता है। अिंहसा में वृद्धि करने वाली मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों की भावना भाता है। पाक्षिक श्रावक अपनी आजीविका न्यायोपार्जित धन के द्वारा ही निर्वाह करता है। देव—शास्त्र—गुरु के प्रति निष्ठा रखने वाला सद्गृहस्थ अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करता है तथा सन्तोषवृत्ति से तृष्णा पिशाची पर विजय प्राप्त करते हुए ‘‘कम से कम आरम्भ हो’’ इस बात का ध्यान रखता है एवं अपने परिवार के भरण—पोषण के लिये अन्याय—अनीति के प्रयोग बिना आजीविकोपार्जन करता है क्योंकि गार्हस्थिक कार्यों को सम्पादित करने के लिये आजीविकार्जन आवश्यक है। इस प्रकार ‘न्यायोपात्तधनोपार्जन’ यह पाक्षिक श्रावक का सर्वप्रथम गुण है।
पाक्षिक श्रावक की योग्यता के लिये अगला गुण है ‘गुणपूजा’। गुणों से गुरुओं का पूजन, बहुमान आदि करना श्रावक का परम कर्त्तव्य है क्योंकि गुणपूजा से आत्मा में अभिमान का ह्रास होकर मार्दव धर्म प्रकट होता है। गुणपूजा से आत्मा का अहंकार नष्ट होता है अत: धर्म के प्रति निष्ठावान श्रावक स्व—परोपकारी सदाचार, सज्जनता, उदारता, दानशीलता, हित—मित—प्रिय वचनशीलता गुणों को प्राप्त करने हेतु गुणीजनों की पूजा-प्रशंसादि करता है। पर-निन्दा, कठोरता आदि दोषों से रहित प्रशस्त वचनों का व्यवहार करता है क्योंकि ये जीवन के लिये हितकर और उपयोगी हैं। यह ‘प्रशस्तवचन’ नाम का तृतीय गुण है। इसी प्रकार पाक्षिक श्रावक निर्बाध त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का सेवन, धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम, भवन का सेवन, उचित लज्जा, योग्य आहार—विहार, आर्यसमिति (आत्मगुणों के विकास में सहयोगी सदाचारी पुरुषों की संगति), विवेक, कृतज्ञता, जितेन्द्रियता, धर्मविधि का श्रवण करने वाला, दयालुता और पापभीति आदि गुणों से सहित होते हुए आत्मा को धर्मधारण के योग्य बनाता है।
श्रावक के द्वादश व्रतों और एकादश प्रतिमाओं का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस चर्या का आचरण करने वाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है। देशसंयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदि ग्यारह संयम स्थान होते हैं।
दर्शन—ज्ञान–चारित्र की त्रिपुटी ही मुक्ति का मार्ग है अत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान से संयुक्त गृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र को भी प्राप्त करते हुए मोक्षमार्ग में प्रवेश करता है। श्रावक द्वादश व्रतों के माध्यम से चारित्र का एकदेशरूप अंश अपने जीवन में ग्रहण करता है और उन व्रतों के पालन से महाव्रतों को (सकलचारित्र को) ग्रहण करने योग्य सामर्थ्य प्राप्त करने का अभ्यास करता है।
निरन्तर प्रवाहमान नदी के प्रवाह को दो तट नियंत्रित करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य की जीवनशक्ति को केन्द्रित करने के लिये, छिन्न—भिन्न नहीं होने देने के लिये व्रत तट रूप हैं, वे भी मानव जीवन को नियंत्रित करते हैं तथा आत्मविकास में सहायक होते हैं। श्रावक के द्वादश व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गई है। वस्तुत: इन व्रतों का मूल अिंहसा है, अिंहसा को आध्यात्मिक जीवन की नींव कह दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह इन पांच दोष या पापों से स्थूलरूप या एकदेश रूप से विरत होना अणुव्रत है। अणु शब्द का अर्थ है लघु या छोटा। जो स्थूल रूप से उक्त पंच पापों का परित्याग करता है वही अणुव्रती है। अणुव्रत पांच हैं—
अहिंसाणुव्रत—
स्थूल रूप से जीवों की हिंसा से विरत होना अहिंसाणुव्रत है। ‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा’ अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों के विनाश को हिंसा कहा जाता है। कषायजन्य राग—द्वेष की प्रवृत्ति प्रमाद कहलाता है अत: हिंसारूप कार्य में प्रमाद कारण है। प्राण दो प्रकार के हैं—१. द्रव्यप्राण, २. भावप्राण। प्रमत्तयोग के होने पर द्रव्य प्राणों का विनाश हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है किन्तु प्रमत्तयोग से भाव प्राणों का विनाश अनिवार्य है अत: राग द्वेष की निवृत्तिरूप अिंहसा ही वस्तुत: अहिंसा है।
संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं—त्रस और स्थावर। द्वीन्द्रिय से लेकर संज्ञीपंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस और एकेन्द्रिय जीव—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर कहलाते हैं। इन षट्काय के जीवों की विराधना द्रव्य हिंसा है। हिंसा चार प्रकार की होती है—आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी हिंसा। जीवन निर्वाह, परिवार के पालन—पोषण के लिये अनिवार्य रूप से होने वाली हिंसा आरम्भी हिंसा है। आजीविका चलाने के लिये कृषि, गोपालन, व्यापार आदि जो-जो उद्योग किये जाते हैं, उनमें हिंसा की भावना व संकल्प न होने पर भी अनिवार्यत: जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा है। अपने प्राणों की रक्षा एवं परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की रक्षा के लिये प्रतिरक्षात्मक रूप में की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा है। निरपराध प्राणी को जान-बूझकर मारने की भावना से हिंसा करना संकल्पी हिंसा है। इन चारों ही प्रकार की िंहसा में से श्रावक संकल्पी िंहसा का तो पूर्ण रूप से त्यागी होता है और शेष तीन प्रकार की हिंसा का भी यथासम्भव त्याग करते हुए अिंहसाणुव्रत का पालन करता है। संकल्पी हिंसा का त्याग करने से भी बहुत कुछ हिंसा से श्रावक बचता है। साथ ही अहिंसाणुव्रती जीव त्रसिंहसा का त्याग तो करता ही है, स्थावर प्राणियों की हिंसा का भी यथाशक्ति त्याग करता है। अहिंसाणुव्रत का निर्दोष पालन करने के लिये निम्नलिखित अतिचार (दोष) त्याज्य हैं—
अहिंसाणुव्रत के अतिचार—
‘‘बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा:’’ बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण, अन्न—पाननिरोध करना ये पांच अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं।
बन्ध—त्रस प्राणियों को कठिन बन्धन से बांधना अथवा उन्हें अपने इष्ट स्थान पर जाने से रोकना। अधीनस्थ व्यक्तियों को अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के पश्चात् भी कार्य करवाना आदि बन्ध के अन्तर्गत आते हैं।
वध—त्रस जीवों को मारना, पीटना या त्रास देना वध है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्राणी की हत्या करना—कराना तथा करते हुए को अनुमोदना करना, किसी को मारना—पीटना या पिटवाना अथवा पिटते हुए की अनुमोदना करना। स्वार्थाभिभूत व्यक्ति वध के इन विविध रूपों में प्रवृत्ति करता है।
छेद—किसी भी प्राणी के अंगों का भंग करना, विद्रूप करना, अपंग बना देना छेद कहलाता है।
अतिभार—अश्व, ऊंट, वृषभ आदि पशुओं पर तथा मनुष्य जाति के मजदूर आदि जीवों पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादना अतिभार है। शक्ति एवं समय होने पर अपना कार्य दूसरों से करवाना तथा उनकी शक्ति का ध्यान नहीं रखना अतिभार के अन्तर्गत आता है।
अन्न—पान निरोध—अपने आश्रित प्राणियों को समय पर भोजन—पानी नहीं देना अन्न—पान निरोध है।
जिस प्रकार बार-बार भावना दी गई औषधि रसायन का रूप धारण कर लेती है और वह रोगी को शीघ्र निरोग करने की सामर्थ्य प्राप्त करती है उसी प्रकार प्रत्येक व्रतों में दृढ़ता प्रदान करने के लिये उन—उन व्रतों की पांच—पांच भावनाओं का भी वर्णन आगम में किया गया है। प्रसङ्गवश यहां भी उसका वर्णन किया जा रहा है—
अहिंसाणुव्रत की भावनाएँ—
‘‘वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च’’ वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण-समिति और आलोकितपान भोजन ये पाँच अिंहसाणुव्रत की भावनाएँ हैं। वचन की प्रवृत्ति को रोकना वचनगुप्ति है। मन की प्रवृत्ति को रोकना मनोगुप्ति है। सावधानीपूर्वक देखकर चलना ईर्यासमिति है। सावधानीपूर्वक देखकर वस्तु को उठाना और रखना आदाननिक्षेपण समिति है। दिन में अच्छी तरह देख—भालकर आहार—पानी ग्रहण करना आलोकित पान भोजन है।
सत्याणुव्रत—
अहिंसा और सत्य का परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध है। एक के अभाव में दूसरे की साधना शक्य नहीं। ये दोनों परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। सत्याणुव्रत श्रावक का दूसरा व्रत है। इसका अभिप्राय है मृषावाद विरमण या असत्य भाषण का स्थूल रूप से परित्याग। स्थूल झूठ का त्याग किये बिना प्राणी अहिंसक नहीं हो सकता है। अहिंसा सत्य को स्वरूप प्रदान करती है और सत्य अहिंसा की सुरक्षा करता है। झूठा व्यक्ति आत्मवंचना भी करता है। मिथ्या भाषण में प्रमुख कारण स्वार्थ की भावना है।
निन्दा करना, चुगली करना, कठोर वचन बोलना एवं अश्लील वचनों का प्रयोग करना, छेदन, भेदन, मारण, शोषण, अपहरण एवं ताड़न सम्बन्धी वचन, अविश्वास, भयकारक, खेदजनक, वैर—शोक उत्पादक, सन्तापकारक आदि अप्रिय वचन मृषावाद हैं। झूठी साक्षी देना, झूठा दस्तावेज या लेख लिखना, किसी की गुप्त बात प्रकट करना, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा करना, सच्ची अथवा झूठी बात कहकर किसी को गलत रास्ते पर ले जाना, यह सब मृषावाद में सम्मिलित हैं।
सत्याणुव्रत के पांच अतिचार—
‘मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदा:’ मिथ्याउपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये पांच सत्याणुव्रत के अतिचार हैं।
सन्मार्ग पर लगे हुए व्यक्ति को अन्य मार्ग ले जाने में सहकारी मिथ्या उपदेश करना, जिससे भ्रम में पड़कर वह सन्मार्ग से उन्मार्ग की ओर अग्रसर हो तथा झूठी गवाही देना और दूसरे पर अपवाद लगाना यह मिथ्योपदेश है। किसी की गुप्त बात को प्रकट करना रहोभ्याख्यान है, विश्वासघात करना भी इसी में गर्भित है। झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना, गलत बही-खाते तैयार करना, नकली सिक्के बनाना अथवा नकली सिक्के चलाना कूटलेखक्रिया है। कोई धरोहर रखकर उसके कुछ अंश को भूल गया तो उसकी भूल का लाभ उठाकर उस भूले हुए धन के अंश को अपहरण की भावना से कहना कि तुम जितनी बता रहे हो उतनी ही धरोहर रखी थी, यह न्यासापहार है। किसी व्यक्ति की चेष्टा आदि से दूसरे के अभिप्राय को ज्ञातकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है।
सत्याणुव्रत की भावनाएं—
‘‘क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच’’ सत्याणुव्रती को क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि का त्याग तथा अनुवीचि भाषा का प्रयोग करना चाहिए ये इस अणुव्रत की पांच भावनाएं हैं।
अचौर्याणुव्रत—
मनसा, वाचा, कर्मणा किसी की सम्पत्ति को बिना आज्ञा के नहीं लेना अचौर्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रती स्थूल चोरी का त्यागी होता है। जिस चोरी के कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालय से दण्डित होता है और जो चोरी लोक में चोरी कही जाती है वह स्थूल चोरी है। मार्ग चलते हुए तिनका या कंकड़ उठा लेना सूक्ष्म चोरी के अन्तर्गत है। किसी के घर में सेंध लगाना, डाका डालना, ताला तोड़ना, किसी की जेब काटना, ठगना यह सब चौर्य कर्म कहलाता है।
अचौर्याणुव्रत के अतिचार—
‘स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमनोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा:’ स्तेन प्रयोग, स्तेनाहृत, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान, प्रतिरूपकव्यवहार ये पांच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं।
चोरी करने के लिए किसी को स्वयं प्रेरित करना, दूसरे से प्रेरित करवाना अथवा ऐसे कार्य में अपनी सम्मति देना स्तेन प्रयोग है। अपनी प्रेरणा या सम्मति के बिना भी किसी के द्वारा चोरी कर लाये हुए द्रव्य को खरीदना स्तेनाहृत है। राज्य में विप्लव होने पर हीनाधिक मान से वस्तुओं का आदान—प्रदान करना विरुद्धराज्यातिक्रम है। राज्य के नियमों का उल्लंघन करके जो अनुचित लाभ उठाया जाता है, वह भी विरुद्धराज्यातिक्रम है। मापने या तौलने के न्यूनाधिक बांटों से देन—लेन करना हीनाधिकमानोन्मान है। असली वस्तु के स्थान में नकली वस्तु चलाना या असली में नकली वस्तु मिलाकर उसे बेचना प्रतिरूपकव्यवहार है। इन अतिचारों के त्याग का उद्देश्य विश्वासघात, अनुचितलाभ आदि का त्याग करना है।
अचौर्याणुव्रत की भावनाएँ—
‘शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसद्धर्माविसम्वादा: पंच’ शून्यागार—निर्जन स्थान में निवास, विमोचितावास—दूसरे के द्वारा त्यक्त आवास, परपरोधाकरण—अपने द्वारा निवास किये जा रहे स्थान में दूसरों का अनवरोध अर्थात् उनको रहने के लिए नहीं रोकना, भैक्ष्यशुद्धि—भिक्षा के नियमों का सम्यक्रीत्या पालन और सधर्माविसम्वाद—साधर्मी जनों से विसंवाद नहीं करना, ये पांच अचौर्यव्रत की भावनाएं हैं।
स्वदारसन्तोषव्रत—
मन—वचन और कायपूर्वक अपनी भार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ विषय सेवन का त्याग करना स्वदारसन्तोषव्रत है। इस व्रत में परायी स्त्री के सहवास का परित्याग तो होता ही है किन्तु स्वस्त्री के साथ भी विषय सेवन का मर्यादितरूप होता है। काम एक प्रकार का रोग है इसका प्रतिकार भोग नहीं त्याग है। यह अणुव्रत काम रोग का आंशिक प्रतिवाद तो है किन्तु आत्मिक उत्थान में भी पूर्ण सहकारी है। जीवन का नियन्त्रण और मैथुन सेवन की मर्यादा इसी व्रत पर अवलम्बित है। यह व्रत सामाजिक सदाचार का मूल है तथा व्यक्तिगत विकास के लिए भी अत्यावश्यक है। इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत के नाम से भी कहा जाता है। जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदारसन्तोषव्रत कहा गया है उसी प्रकार श्राविका के लिए स्वपतिसन्तोष का नियम है। वह भी अपने पति के सहवास के अतिरिक्त समस्त पुरुषों के सहवास का परित्याग करती है तथा स्वपुरुष के साथ भी मर्यादित विषयसेवन करती है यही उनका भी ब्रह्मचर्याणुव्रत है।
स्वदारसन्तोषव्रत के अतिचार—
‘‘परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ाकामतीव्राभिनिवेशा:’’ परविवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वरिका अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेष ये पांच स्वदारसन्तोषव्रत के अतिचार हैं।
अपनी सन्तान एवं अपने आश्रित जनों का, जिनका कि विवाह करना अपना उत्तरदायित्व है उनसे अतिरिक्त अन्य लोगों का विवाह सम्बन्ध सम्पादित करना-करवाना परविवाहकरण है। जो स्त्रियां परदारा की संज्ञा में परिगणित नहीं हैं ऐसी स्त्रियों को धन आदि का लालच देकर अपनी बना लेना अथवा जिनका पति अभी जीवित है किन्तु वह स्त्री पुंश्चली (व्यभिचारिणी) है उनका सेवन करना इत्वरिकापरिगृहीतागमन है। जो स्त्री अपरिगृहीत है उसके साथ अल्पकाल के लिए विषयभोग का सम्बन्ध स्थापित करना इत्वरिका अपरिगृहीतागमन है। वेश्या या अनाथ पुंश्चली स्त्री का नियतकाल सेवन करने में यह अतिचार होता है। काम सेवन के प्राकृतिक अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से सहवास करना अर्थात् अप्राकृतिक मैथुन करना अनङ्गक्रीड़ा है। काम एवं भोगरूप विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना कामतीव्राभिनिवेष है।
स्वदारसन्तोष व्रत की भावनाएं—
‘‘स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागा: पंच’’ स्त्रीराग—कथाश्रवण-त्याग, स्त्रीमनोहरअङ्गनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरण, वृष्य—इष्टरसत्याग और स्वशरीर—संस्कार त्याग करना ये पांच स्वदारसन्तोषव्रत की भावनाएं हैं।
परिग्रहपरिमाणव्रत—
परिग्रह संसार का सबसे बड़ा पाप है। जब तक मनुष्य के जीवन में अमर्यादित लोभ, तृष्णा, ममत्व या गृद्धि विद्यमान है तब तक वह शान्ति लाभ नहीं कर सकता। श्रावक के द्वारा अपनी सम्पत्ति की मर्यादा करना परिग्रह परिमाणव्रत है। अनियंत्रित इच्छाओं को नियंत्रित करके परिग्रह का परिमाण करना ही इस व्रत का प्रमुख लक्ष्य है। सम्पत्ति हमारे जीवन निर्वाह का साधन है। साधन वहीं तक उपादेय होता है जहाँ तक साध्य की पूर्ति करता है। धन, धान्य, स्वर्ण, चांदी आदि पदार्थों के प्रति ममत्व या लालसा को घटाकर उन वस्तुओं को मर्यादित करना परिग्रहपरिमाणव्रत है। इस व्रत का यही लक्ष्य है कि अपने योग—क्षेम के योग्य भरण—पोषण की वस्तुओं को ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय व अत्याचार द्वारा धन का संचय नहीं करना चाहिये। परिग्रहपरिमाणव्रत वैयक्तिक जीवन पर स्वेच्छा से अंकुश लगाने का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत में क्षेत्र—उपजाऊ भूमि की मर्यादा, वस्तु—मकान आदि, हिरण्य—चांदी, स्वर्ण—सोना, द्विपद—दासी, दास, धन—गाय, भैंस, घोड़े, बैल, हाथी आदि चतुष्पद पशु, धान्य—गेहूं जौ, चावल, उड़द, मूंग आदि, कुप्य—भाण्ड (बर्तन) आदि की सीमा बांधी जाती है। इनके अतिरिक्त भी हमारी आवश्यक जीवनोपयोगी सामग्री का सीमाबन्धन इस व्रत में किया जाता है।
परिग्रह परमाणाणुव्रत के अतिचार—
‘‘क्षेत्र वास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:’’ क्षेत्र (खेत) व मकान के प्रमाण का अतिक्रमण, हिरण्य व स्वर्ण के प्रमाण का अतिक्रमण, धन—धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण, दासी—दास के प्रमाण का अतिक्रमण और कुप्य—भाण्ड (बर्तन) आदि के प्रमाण का अतिक्रमण, ये पांच परिग्रहपरिमाणव्रत के अतिचार हैं। उक्त पदार्थों की जितनी मर्यादा रखी थी उसका अतिक्रमण—उल्लंघन नहीं करना चाहिये।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत की भावनाएँ—
‘‘मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च’’ पंचेन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष नहीं करना ही इस व्रत की भावनाएँ हैं।
इस प्रकार यहाँ श्रावकाचार के अन्तर्गत नैष्ठिक श्रावक के १२ व्रतों में से अणुव्रतों का वर्णन है, साथ ही उन व्रतों में लगने वाले अतिचारों एवं उनको (व्रतों को) दृढ़ता प्रदान करने वाली पांच—पांच भावनाओं का भी कथन किया है। इसके अनंतर गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विवेचन क्रम प्राप्त है।
अणुव्रतों की सम्पुष्टि, वृद्धि और रक्षा के लिये जिन व्रतों का विधान जैनागम में प्रतिपादित किया है उन अवश्य पालनीय व्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत कहा गया है। इन व्रतों के पालन से मुनिव्रत के ग्रहण की शिक्षा एवं योग्यता प्राप्त होती है। प्रथम गुणव्रत ही प्रतिपाद्य है।
गुणव्रत के तीन भेद हैं—१. दिग्व्रत, २. देशव्रत (इसे देशावकाशिक व्रत भी कहते हैं) और ३. अनर्थदण्डविरतिव्रत।
दिग्व्रत—
परिग्रहपरिमाणव्रत में तो सम्पत्ति आदि का नियमन कराया गया था किन्तु दिग्व्रत में दशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा बांधी जाती है। पूर्वादि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बांधकर जन्मपर्यन्त उससे बाहर नहीं जाना, उसके भीतर ही व्यापारादि कार्य करना दिग्व्रत—दिशा परिमाणव्रत है। दिशा—क्षेत्र की मर्यादा के बाहर िंहसादि पापों का त्याग हो जाने से मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में उस गृहस्थ का जीवन महाव्रती तुल्य हो जाता है।
मनुष्य की अनन्त इच्छाएं हैं और अखिल विश्व पर वह एकछत्र अपना साम्राज्य स्थापित करने की भावना रखता है। इस अर्थयुग में मानव सदा ही तृष्णा वृद्धि के कारण देश—विदेशों में जाकर सुख—दु:ख उठाकर भी व्यापार करता है और व्यापार को सुचारूरीत्या चलाने के लिये कई व्यापारिक संस्थानों की स्थापना भी करता है। अनियन्त्रित इस मानव तृष्णा को एक ओर जहां परिग्रहपरिमाण के द्वारा अंकुश लगाया है वहीं दिग्व्रत भी उस नियंत्रण में सहकारी है।
दिग्व्रत के अतिचार—
‘‘ऊध्वार्धस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि’’ ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये पांच दिग्व्रत के अतिचार हैं। लोभादि के वश होकर ऊर्ध्वदिशा के प्रमाण का अतिक्रमण, अधोदिशान्तर्गत समुद्र, वापी, कूप, खदान आदि की सीमा का अतिक्रमण और तिर्यग्व्यतिक्रम अर्थात् पृथ्वीतल पर आठों दिशा सम्बन्धी तिरछे गमन की मर्यादा का उल्लंघन करना तथा किसी एक दिशा का मर्यादित क्षेत्र घटाकर दूसरी दिशा में मर्यादित क्षेत्र को अधिक बढ़ा लेना। निश्चित की गई क्षेत्र की मर्यादा का विस्मरण हो जाना। इन पांचों अतिचारों से रहित दिग्व्रत का पालन श्रावक को करना चाहिये।
देशव्रत (देशावकाशिक व्रत)—
दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिये दिशाओं का जो परिमाण किया था उसमें से कुछ समय के लिये किसी निश्चित स्थान विशेष, देश विशेष, प्रान्त विशेष, गांव विशेष अथवा गांव या नगर में भी मोहल्ला, गली आदि की सीमा बांध लेना देशावकाशिक व्रत है।
देशव्रत के अतिचार—
‘‘आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा:’’ आनयन—मर्यादा से बाहर की वस्तु को मंगाना अथवा सीमा से बाहर स्थित पुरुष आदि को बुलाना। प्रेष्यप्रयोग—मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं तो नहीं जाना किन्तु सेवक आदि को आज्ञा देकर सीमा में बैठे—बैठे ही काम करवा लेना प्रेष्यप्रयोग है। शब्दानुपात—मर्यादा के बाहर स्थित किसी व्यक्ति को शब्द द्वारा बुलाना। रूपानुपात—अपनी आकृति दिखाकर मर्यादित क्षेत्र के बाहर से संकेत द्वारा किसी व्यक्ति को बुलाना। पुद्गलक्षेप—मर्यादित क्षेत्र के बाहर स्थित व्यक्ति को अपने पास बुलाने के लिए पत्र, तार, टेलीफोन आदि का प्रयोग करना। ये पांच देशव्रत के अतिचार हैं।
अनर्थदण्डविरतिव्रत—
जिन कार्यों के करने से अपना कुछ भी लाभ न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता है, ऐसे अप्रयोजनीभूत कार्यों को अनर्थदण्डविरतिव्रत कहा जाता है अर्थात् निष्प्रयोजन कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्डविरतिव्रत कहलाता है।
अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचरित, हिंसादान, अशुभश्रुति ये पांच अनर्थदण्ड के भेद हैं। दूसरों का बुरा सोचना अपध्यान है। पापजनक कार्यों का उपदेश देना पापोपदेश है। आवश्यकता के बिना वन कटवाना, पृथ्वी खुदवाना, पानी गिराना, विकथा या निन्दा आदि कार्यों में प्रवृत्त होना, किसी पर व्यर्थ ही दोषारोपण करना आदि प्रमादचरित है। िंहसा के साधन अस्त्र, शस्त्र, विष, विषैलीगैस आदि सामग्री देना अथवा संहारक अस्त्र—शस्त्रों का आविष्कार करना िंहसादान है। िंहसा और रागादि को बढ़ाने वाली कथाओं का सुनना—सुनाना अशुभश्रुति है।
अनर्थदण्डविरतिव्रत के अतिचार—
‘‘कन्दर्पकौत्कुच्यमौर्ख्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि’’ कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोग—परिभोग अनर्थक्य ये पांच अनर्थदण्डविरति व्रत के अतिचार हैं।
रागभाव की तीव्रतावश हास्यमिश्रित असभ्य वचन बोलना कन्दर्प है। काय की कुचेष्टा सहित असभ्य वचन का प्रयोग करना कौत्कुच्य है। धीठतायुक्त निस्सार बहुत बकवास करना मौखर्य है। प्रयोजन के बिना ही कोई न कोई तोड़—फोड़ करते रहना या काव्यादि चिन्तवन करते रहना असमीक्ष्याधिकरण है। प्रयोजन न होने पर भी उपभोग—परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना उपभोग-परिभोगआनर्थक्य है।
अनर्थदण्डविरतिव्रत प्रयोजन और महत्त्व—
पहले कहे गए दिग्व्रत और देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि एवं विषयसेवनादि सम्बन्धी अतिरेकनिवृत्ति की सूचना के लिये बीच में अनर्थदण्डविरतिव्रत का ग्रहण किया है।
जो पुरुष इस प्रकार अनर्थदण्डों को जानकर उनका त्याग करता है वह निरन्तर निर्दोष अिंहसाव्रत का पालन करता है।
शिक्षाव्रत के चार भेद हैं—१. सामायिक २. प्रोषधोपवास, ३. भोगोपभोगपरिमाण ४. अतिथिसंविभाग।
सामायिक—
तीनों सन्ध्याओं में समस्त पाप कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियतकाल के लिये मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं। समभाव या शान्ति प्राप्ति के लिये सामायिक की जाती है। जितने समय तक व्रती सामायिक करता है उतने समय तक वह महाव्रती तुल्य हो जाता है क्योंकि वह सम्पूर्ण सावद्य क्रियाओं का पूर्ण त्यागी उतने पर्यन्त रहता है।
सामायिकव्रत के अतिचार—
‘योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि’ काययोग दुष्प्रणिधान, वचनयोग दुष्प्रणिधान, मनोयोग दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृति अनुपस्थान ये सामायिकव्रत के पांच अतिचार हैं।
सामायिक करते समय हाथ-पैर आदि शरीर के अवयवों को निश्चल नहीं रखना, नींद का झोंका लेना आदि कायदुष्प्रणिधान है। सामायिक करते समय गुनगुनाने लगना वचनदुष्प्रणिधान है। मन में संकल्प—विकल्प उत्पन्न करना एवं मन को गृहस्थी के कार्य में फंसाना मनोदुष्प्रणिधान है। सामायिक में उत्साह नहीं रखना अनादर है। एकाग्रता न होने से सामायिक की स्मृति नहीं रहना स्मृत्यनुपस्थान है।
प्रोषधोपवास व्रत—
प्रोषध—पर्व के दिन उपवास करना प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवास से ध्यान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य और तत्त्वचिन्तन आदि की सिद्धि होती है। सामान्यत: अशन—पान-खाद्य—स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है किन्तु उपवास में पांचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषय से निवृत्त करना भी अपेक्षित समझना चाहिये। इस प्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्ति का होना भी उपवास का लक्षण बनता है। ‘उप’—समीप में ‘वास’—निवास करना अर्थात् आत्मा के समीप रहना। यह तभी सम्भव है जब चतुराहार के त्याग के साथ-साथ पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्ति हो और चूंकि पर्व के दिनों में उपवास किया जाता है अत: प्रोषधोपवासव्रत यह नाम अन्वर्थ है।
प्रोषधोपवास के अतिचार—
‘अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि’ अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमि में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित वस्तु का आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर का उपक्रमण, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान ये पांच प्रोषधोपवास के अतिचार हैं।
जीव-जन्तु को देखे बिना और कोमल वस्त्रादि उपकरण द्वारा बिना प्रमार्जन ही मल—मूत्र—श्लेष्म का त्याग करना, बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही पूजा के उपकरण आदि ग्रहण करना, बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही भूमि पर चटाई आदि बिछाना, प्रोषधोपवास करने में उत्साह नहीं दिखाना, प्रोषधोपवास के समय चित्त की चञ्चलता रहने से स्मृति का अभाव होना ये उक्त पांचों अतिचारों का क्रमश: विवेचन है।
भोगोपभोग परिमाणव्रत—
जो वस्तु एक बार भोगने योग्य हो वह भोग कहलाता है। आहार—पान, गन्धमाला आदि को भोग सामग्री कहते हैं। जिन वस्तुओं को पुन:-पुन: भोगा जा सके उन्हें उपभोग कहते हैं। इन भोग और उपभोग की सामग्री का कुछ समय के लिये अथवा जीवनपर्यन्त के लिये परिमाण कर लेना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है। भोगोपभोगपरिमाणव्रत पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति विशेष पर नियन्त्रण करता है।
भोगोपभोग परिमाणव्रत के अतिचार—
‘सचित्तसम्बन्धसंमिश्राभिषवदु:पक्वाहारा:’ सचित्ताहार, सचित्तसंबंधाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्वाहार ये उपभोग—परिभोगपरिमाणव्रत के पांच अतिचार हैं।
अमर्यादित वस्तुओं का उपयोग और सचित्त पदार्थों का भक्षण करना सचित्ताहार है। जिस अचित्त वस्तु का सचित्त वस्तु से सम्बन्ध हो गया हो उसका उपयोग करना सचित्तसम्बन्धाहार है। चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं से मिश्रित भोजन का आहार अथवा सचित्त से मिश्रित वस्तु का व्यवहार सचित्तसम्मिश्राहार है। इन्द्रियों को मद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का सेवन अभिषवाहार है। अधपके, अधिक पके, ठीक प्रकार से नहीं पके हुए या जले-भुने हुए भोजन का सेवन दु:पक्वाहार है।
इन्द्रिय-विषयों की उपेक्षा नहीं करना, पूर्वकाल में भोगे हुए विषयों का स्मरण रखना, वर्तमान के विषयों में अतिगृद्धता रखना, भविष्य में इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति की तृष्णा रखना और ‘विषय नहीं भोगते हुए भी विषय भोगता हूूं’ ऐसा अनुभव करना आदि भी भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अतिचार हैं।
भोगोपभोग परिमाणव्रत का महत्त्व—
देशव्रती श्रावक के द्वारा भोगोपभोग के निमित्त से होने वाली िंहसा से विरक्त होना ही इस व्रत का सबसे बड़ा महत्त्व है। जो पुरुष भोगोपभोगपरिमाणव्रत के द्वारा तृप्त होते हुए अधिकतर भोगों से विरत होता है उसके बहुत िंहसा का त्याग हो जाने से उसके उत्तम अहिंसाव्रत होता है अर्थात् अहिंसाव्रत का उत्कर्ष होता है।
अतिथिसंविभागव्रत—
अतिथि के लिये संविभाग करना अतिथि संविभाग है। जो मोक्ष के लिये तत्पर हैं, संयम का निरन्तर पालन करते हुए जिनका विहार होता है तथा जिनके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं है उस प्रकार के अतिथि के लिये भिक्षा—आहार, औषध, उपकरण—पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र आदि प्रतिश्रय—रहने के लिये वसतिका आदि निर्दोष विधि से देना अतिथिसंविभागव्रत है।
श्रद्धा आदि गुणों से युक्त जो विवेकी श्रावक उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देता है उसके अतिथिसंविभागव्रत होता है। उक्त चार प्रकार का दान सब सुखों का और सिद्धियों का करने वाला होता है।
अतिथिसंविभागव्रत के अतिचार—
‘‘सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमा:’’ सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य, कालातिक्रम ये पांच अतिथिसंविभागव्रत के अतिचार हैं।
सचित्त कमलपत्र आदि पर रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है। आहार को सचित्त कमलपत्र आदि से ढकना सचित्तापिधान है। स्वयं दान न देकर दूसरे से दिलवाना अथवा दूसरे का द्रव्य उठाकर स्वयं दे देना परव्यपदेश है। आदरपूर्वक दान न देना अथवा अन्य दाताओं से ईर्ष्या करना मात्सर्य है। भिक्षा के समय को टालकर अयोग्य समय में भोजन कराना कालातिक्रम है।
श्रमण परम्परा जीवन को अपने आप में लक्ष्य नहीं मानती। उसका कहना है कि साधना का लक्ष्य आत्मा का विकास है और जीवन उसका साधन मात्र है। जिस दिन यह प्रतीत होने लगे कि शरीर शिथिल हो गया है, वह धर्मसाधना में सहायक होने के स्थान पर विघ्न-बाधाएं उपस्थित करने लगा है तो उस समय यह उचित है कि उसका परित्याग कर दें। इसी परित्याग विधि को सल्लेखना व्रत कहा जाता है।
सम्यक् रीति से काय और कषाय को क्षीण करने का नाम सल्लेखना है। जब मरण समय निकट आ जावे तो गृहस्थ को समस्त पदार्थों के ममत्व का परित्याग करके शनै:—शनै: आहार-पानी का भी त्याग कर देना चाहिये। शरीर को कृश करने के साथ-साथ ही कषायों को भी कृश करना तथा धर्मध्यानपूर्वक मृत्यु का आनन्दपूर्वक आिंलगन करना सल्लेखना व्रत्त है। वस्तुत: गृहस्थ अथवा साधु के लिये आत्मशुद्धि का अन्तिम अस्त्र सल्लेखना है। सल्लेखना के द्वारा ही जीवन पर्यन्त किये गये व्रताचरण को सफल किया जाता है।
सल्लेखनाव्रत के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतियां अनभिज्ञ लोगों में चली आ रही हैं। सल्लेखनाव्रत के स्वरूप, विधि और महत्ता से अपरिचित लोग इसे आत्महत्या कहने तक का दु:साहस करते हैं। व्यक्ति आत्महत्या तो तब करता है कि जब वह अपनी किसी मनोकामना को पूरा नहीं कर पाता और वह मनोकामना इतनी बलवती हो जाती है कि उसकी पूर्ति के बिना जीवन बोझ लगने लगता है। उस बोझ को उतारे बिना उसे शान्ति असम्भव प्रतीत होती है। आत्महत्या का एक और कारण यह होता है कि मानव के जीवन में मार्मिक मानसिक आघात लग जाता है जिसे वह सहन नहीं कर पाता और कषाय के वशीभूत होकर वह उसके प्रतिकारस्वरूप आत्महत्या कर डालता है। आत्महत्या में जीवन की आकांक्षा करते हुए मानव की निर्बलता स्पष्ट झलकती है, जबकि सल्लेखनाव्रत धारण करने में वीरता प्रगट होती है। एक में मात्र जीवन की आकांक्षा प्रधान है तो दूसरी का आधारस्तम्भ आत्मविकास और उसके कारणभूत व्रतों की सुरक्षा की भावना। आत्महत्या करने वाला मानव जीवन से निराश होता है और निराश व्यक्ति की विवशता ही आत्महत्या से प्रगट होती है। सल्लेखना में किसी प्रकार का कषायावेश नहीं होता है अत: सल्लेखना व्रत को आत्महत्या कहना बहुत बड़ी भूल है।
सल्लेखनाव्रत के अतिचार—
‘‘जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि’’ जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पांच सल्लेखनाव्रत के अतिचार हैं। सल्लेखनाव्रत धारण करने के पश्चात् मन में जीवित रहने की भावना होना जीविताशंसा है। सल्लेखनारत होने के पश्चात् किसी शारीरिक वेदना आदि कारणों से शीघ्र मरण की भावना करना मरणाशंसा है। मित्रों के प्रति अनुराग उत्पन्न होना मित्रानुराग है। पूर्व में भोगे हुए सुखों का पुन:—पुन: स्मरण करना सुखानुबन्ध है। तपश्चर्या—व्रतपालन का फल पंचेन्द्रिय के विषयभोगरूप में चाहना निदान है।
जैनदर्शन में मृत्यु को एक कला कहा गया है, सल्लेखना उसी का दूसरा नाम है अत: अणुव्रती गृहस्थ और महाव्रती साधु दोनों ही के लिये सल्लेखना अनिवार्य है। सल्लेखना जीवन पर्यन्त पालन किये व्रतरूपी मन्दिर का स्वर्ण कलश है अत: सल्लेखना विधि से मृत्यु के लिये तत्पर रहना चाहिये।
श्रावकाचार के मूलभूत द्वादश व्रतों का विवेचन किया। इसी आधारशिला पर स्थित होकर क्रम से आगे बढ़ते हुए आत्मविकास की ओर अग्रसर होना।
श्रावक अपने विकास के लिये मूलभूत व्रतों का पालन करते हुए सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के साथ चारित्र में प्रवृत्त होता है। चारित्र विकास जिस क्रम से होता जाता है वह श्रावक अपने योग्य ११ संयमस्थानों को प्राप्त हो जाता है। यहां संयमस्थान से अभिप्राय एकादश प्रतिमाओं से है जिन्हें श्रावकापेक्षा आध्यात्मिक सोपान कहा जा सकता है। इन प्रतिमारूप सोपानों पर आरोहण कर उत्तरोत्तर चारित्र का विकास करते हुए श्रमण जीवन के निकट पहुँचने का अधिकारी बन जाता है। एकादश प्रतिमाएं इस प्रकार हैं—१. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्तत्याग प्रतिमा, ६. रात्रिभुक्ति त्यागप्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरम्भत्याग प्रतिमा, ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा, १०. अनुमतित्याग प्रतिमा और ११. उद्दिष्ट त्यागप्रतिमा।
उपर्युक्त प्रतिमाक्रम श्रावक जिस—जिस प्रतिमारूप व्रतों को उत्तरोत्तर धारण करता जाता है उससे पूर्ववर्ती समस्त प्रतिमाव्रतों का परिपालन अनिवार्य है।