गहन कर्मसाहित्य, जिसमें गणित ने अप्रतिमरूप से प्रवेश किया, मुख्यत: दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा निर्मित है। सर्वप्रथम प्राय: ईसा की प्रथम सदी में आचार्य श्री गुणधर स्वामी ने कसायपाहुडसुत्त का २३३ (१८०) गाथाओं में निर्माण किया। यह श्रुत के चतुर्थ अङ्ग के ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस (राग—द्वेष) नामक तृतीय पाहुड से निर्मित हुआ है। तत्पश्चात् प्राय: ईसा की द्वितीय सदी में आचार्य श्री धरसेन स्वामी के विलक्षण शिष्यों, आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबली स्वामी ने महाबन्धसहित षट्खंडागम ग्रन्थों की रचना की। यह श्रुत के दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के चतुर्थ पूर्वगत के अग्रायणी नामक द्वितीयपूर्व की चयनलब्धि नामक पंचमवस्तु के कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृत के २४ वें अनुयोगद्वार से अवतरित माना जाता है।
इस प्रकार द्वादशांगश्रुत का अत्यन्त अल्पभाग सुरक्षित रहा जिसमें से कर्मविज्ञान को गणित की आधारशिला पर भव्य ग्रन्थों के रूप में विशाल रचनाएं बनाने का श्रेय इन आचार्यों तथा उनकी शिष्य परम्परा को है। यद्यपि उपरोक्त ग्रन्थों पर विशालतम टीकाएं आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी, आचार्य तुम्बुलूर स्वामी आदि के द्वारा लिखी गई मानी जाती हैं तथापि जो ग्रन्थ अब हमारे समक्ष सुरक्षित परम्परागत चले आये उनके सम्बन्ध में जानकारी देना आवश्यक है ताकि विज्ञान के विद्यार्थी कर्म विज्ञान के गणितीय पक्ष में रुचि लेकर शोध को गहराई तक ले जा सवेंâ। सारिणी सूचना निम्न प्रकार है—
प्राय: ईस्वी सदी | जैनाचार्य का नाम कुन्दकुन्द | ग्रन्थ (कर्मसिद्धान्तमय एवं सम्बन्धित) |
तृतीय | कुन्दकुन्द | (१) पंचास्तिकाय (१७३ गाथाएं) |
(२) समयसार (४१५ गाथाएं) | ||
(३) प्रवचनसार (२७५ गाथाएं) | ||
तृतीय | उमास्वामी | तत्त्वार्थसूत्र (प्रवेशपक्ष) |
४७३ से ६०९ | यतिवृषभ | (१) कषायपाहुड़ पर चूर्णिसूत्र (गहनपक्ष—कर्मविज्ञान—पक्ष) (७००९ गाथा प्रमाण) |
(२) तिलोयपण्णत्ति (प्रमाणविज्ञान पक्ष—५६७७ गाथाएं) | ||
पांचवी | पूज्यपाद | सवार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र की टीका) (अर्थ एवं संख्या पक्ष) |
आठवीं | अंकलंक | तत्त्वार्थराजवार्तिकम् (तत्त्वार्थसूत्र की टीका) (विज्ञान, न्याय एवं तक पक्ष) |
८१६ | वीरसेन | (१) धवला टीका सहित षट्खंडागम (गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (७२००० गाथा प्रमाण) |
(२) जय धवला टीका (अपूर्ण) सहित कषायपाहुड सुत्त गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (२०००० गाथा प्रमाण) | ||
८३७ | जिनसेन | शेष जय धवला टीका सहित शेष कषायपाहुड सुत्त (गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (४०००० गाथा प्रमाण) |
११वीं सदी | नेमिचन्द्र | (१) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) (गणित, विज्ञान पक्ष — ७३४ गाथाएं)
(२) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) (गणित, कर्म विज्ञान पक्ष —९७२ गाथाएं) (३) लब्धिसार—क्षपणसार (गणित चरम कर्मविज्ञान पक्ष — ६४९ गाथाएं) |
१३ वीं सदी | अभयचन्द्र सैद्धान्ती | मंदप्रबोधिनी संस्कृत टीका सहित गोम्मटसार (सरल पक्ष) |
१३ वीं सदी | माधवचन्द्र | त्रिलोकसार पर एवं क्षपणसार पर संस्कृत टीकाएं त्रैविद्यदेव (अर्थसंदृष्टिमय प्रमाण एवं कर्म विज्ञान) |
१४ वीं सदी | केशववर्णी | जीवतत्त्वप्रदीपिका कन्नड़ (संस्कृत मिली जुली) टीका सहित गोम्मटसार (अर्थसंदृष्टि गणित सहित कर्मविज्ञान पक्ष) |
१६ वीं सदी | भट्टारक नेमिचन्द्र (श्री ज्ञानभूषण शिष्य) | केशववर्णी टीका पर आधारित संस्कृत टीका सहित गोम्मटसार (अर्थसंदृष्टि गणितसहित कर्मविज्ञान पक्ष) |
१७६१ | पं. टोडरमल जी | (१) सम्यग्ज्ञानचंद्रिका ढूंढारी टीका सहित गोम्मटसार (अर्थसंदृष्टि गणित मय कर्मविज्ञान) (२) लब्धिसार एवं क्षपणसार की अर्थसंदृष्टि अधिकार सहित |
ढूंढारी भाषा में टीका (अर्थसंदृष्टिमय कर्म विज्ञान) (३) त्रिलोकसार की टीका (प्रमाण विज्ञान पक्ष) |
इस प्रकार कर्मविज्ञान को यथासम्भव गणित सिद्धान्त द्वारा प्रदर्शित करते हुए विश्व की सूक्ष्मतम तथा स्थूल घटनाओं को समझाने के प्रयास में उक्तग्रन्थों में जैनाचार्यों तथा पंडितों द्वारा अगम्य सामग्री निर्मित की गई। विगत २००० वर्षों का इतिहास ही अिंहसा और सत्यपक्ष को उज्जवल बनाने के उपरोक्त रचनात्मक निर्माण कार्यों से भरपूर है।
यह सुनिश्चित है कि कर्मसम्बन्धी विज्ञान (जिसे वीतरागविज्ञान भी कहा जा सकता है) के साहित्य का निर्माण करने हेतु नवीन पदों का निर्माण करना आवश्यक था। चौबीसवें तीर्थज्र्र वर्धमानस्वामी के काल से ही क्या हम इन शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ होना नहीं मान सकते हैं। क्रान्ति के उस युग में इन गणितीय शब्दों का निर्माण इसलिए माना जा सकता है कि गणितीय प्रमाण देना आवश्यक हो गया होगा। नवीं सदी तक दक्षिण में महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह का विशेष प्रचार था, उनका ‘ज्योतिषपटल’ ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। उक्तग्रन्थ में लौकिकगणित का समावेश था। शेष का अध्ययन आगम ग्रन्थों में प्रचलित था। महावीराचार्य ने वास्तव में एक विशाल गणितग्रन्थ की रचना की थी। जगत् इतिहास में १९१२ ई. के पश्चात् अब उनका नाम अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है उनके ग्रन्थ में निम्नलिखित गणितीय प्रकरण हैं जिन सभी का उपयोग आगम के गणित में भी होता है—
संज्ञा अधिकार—गणित शास्त्र प्रशंसा, क्षेत्र परिभाषा, काल परिभाषा, धान्यपरिभाषा, स्वर्ण परिभाषा, रजत—परिभाषा, लोह परिभाषा, परिकर्म नामावलि, शून्य तथा धनात्मक एवं ऋणात्मक राशि सम्बन्धी नियम, संख्या परिभाषा, स्थान नामावलि, गणक गुणनिरूपण।
परिकर्म व्यवहार—प्रत्युत्पन्न (गुणन), भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल संकलित, संकलित (श्रेणियों का संकलन) व्युत्कलित।
कलासवर्ण व्यवहार—भिन्न प्रत्युत्पन्न, भिन्न भागहार, भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल , घन, घनमूल भिन्न संकलित भिन्न व्युत्कलित, कलासवर्ण षड्जाति, भागजाति, प्रभाग और भाग—भाग जाति, भागानुबन्ध जाति, भागापवाहजाति, भागमातृ जाति।
प्रकीर्णक व्यवहार—भाग और शेष जाति, मूल जाति, शेष मूल जाति, द्विरग्र शेष मूल जाति, अंश मूल जाति, भाग संवर्ग जाति ऊनाधिक अंश वर्ग जाति, मूल मिश्र जाति, भिन्न दृश्य जाति।
त्रैराशिक व्यवहार—अनुक्रम त्रैराशिक, व्यस्त त्रैराशिक, व्यस्त पंचराशिक, व्यस्त सप्तराशिक, व्यस्त नवराशिक, गति निवृत्ति, भाण्ड प्रति भाण्ड (विनिमय), क्रय—विक्रय।
मिश्रक व्यवहार—संक्रमण और विषम संक्रमण, वृद्धि विधान (ब्याज), प्रक्षेपक कुट्टीकार (समानुपात), बल्लिका कुट्टीकार, विषय कुट्टीकार, सकल कुट्टीकार, सुवर्ण कुट्टीकार, विचित्र कुट्टीकार, श्रेणिबद्ध संकलित।
क्षेत्रगणित व्यवहार—व्यावहारिक गणित, सूक्ष्म गणित, जन्य व्यवहार, पैशाचिक व्यवहार ।
खात व्यवहार—सूक्ष्म गणित, चिति (ईंट) गणित, क्रकचिका (आरा) व्यवहार।
छाया व्यवहार—छाया सम्बन्धित गणित।
कोष्ठक में वह संख्या है जिसे निरूपित करते हैं—अक्षि (२), अग्नि (३), अंक (९),अंग (६), अचल (७), अद्रि (७) अनन्त (०), अनल (३),अनीक (८), अन्तरिक्ष (०), अब्धि (४), अम्बक (२), अम्बर (०), अम्बुधि (४), अम्भोधि (४), अश्व (७), आकाश (०), इन (१२), इन्दु (१),इन्द्र (१४), इन्द्रिय (५), इभ (८), इषु (५),ईक्षण (२), उदधि (४),उपेन्द्र (९),ऋतु (६) कर (२), करणीय (५),करिन (८), कर्मन् (८), कलाधर (१), कषाय (४), कुयार वरून (६), केशव (९), क्षपाकर (१), ख (०) खर (६),गगन (०),गज (८), गति (४), गिरि (७), गुण (३), ग्रह (९) चक्षुस् (२), जिन (२४), तत्त्व (७), तनु (८),तर्क (६), तीर्थंकर (२४), दुर्गा (९), दिक् (८) दिक््â (१०) भी, दिक् (० भी ), द्रव्य (६), द्वीप (७), धातु (७), धृति (१८), नग (७), नन्द (९),नय (२),नाग (८), निधि (९), पदार्थ (९), पन्नग (७),पुर (३), बन्ध (४),बाण (५), भ (२७), भय (७), भाव (५),भास्कर (१२), भुवन (३), भूत (५), मद (८), मुनि या ऋषि (७) रुद्र (११),रत्न (३) रत्न (९ भी ), रस (६), रन्ध्र (९),रूप (१),लब्धि (९), लेख्य (६), लोक (३),वर्ण (६), वसु (८), विषय (५) विश्व (१३),वेद (४) व्यसन (७), व्रत (५), शिलीमुखपद (६), स्वर (७),हरनेत्र (३)।
उपर्युक्त के अतिरिक्त कुछ और भी शब्द हैं जो आगम में आने वाले शब्दों से सम्बन्धित हैं यथा—आदि धन, अंगुल, अन्त्य धन, अणु, अर्बुद, आवलि, अयन, बीज, दण्ड, दश, कोटि, सहस्र, लक्ष, घटी, गुण धन, हस्व, इच्छा, कर्मान्तिक, खर्व, क्रोश, कृति, क्षेपपद, क्षित्या, क्षोभ, क्षोणि लव, मध्यधन, शंख, पद्म, मेरु, मृदंग, भाष मुख, मुरज, न्यर्बुद, पाद, पक्ष, पण, पणव, फल, प्रक्षेपक—करण,प्रमाण, प्रस्थ, प्रवर्तिका, ऋतु, समय, सर्वंधन, शतकोटि, शोडशिका, शोध्य, स्तोक, त्रसरेणु, त्रिप्रश्न, तुला, उच्छ्वास, उत्तरधन, वाह, यव, योजन ।
तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में जो गणितीय शब्द हैं उनका यथोचित उपयोग कर्मग्रन्थों में हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है मानों गणितीय सामग्री को समझने हेतु सर्वप्रथम तिलोयपण्णत्ति पढ़ना, क्योंकि गणितीय प्रमाण, संख्या, राशि आदि विषयक सामग्री उसी ग्रन्थ में उपलब्ध रही चली आई। यथा—अक्षोभ, अनित्य, अचलात्म अटट, अटटांग अद्धापल्य, अनुभाग, अर्थकर्त्ता, अवसर्पिणी, अव्याबाध, असंख्येय, गुणश्रेणि, अंगुल, आवलि, आवृत्ति, उच्छ्वास उत्सर्पिणी, उत्सेधसूच्यंगुल, उदय, उदीरणा, अद्धारपल्य, उवसन्नासन्न, काल, कुमुदांग, कोश राशि, घनलोक, गगनखण्ड, घनांगुल, जगत्प्रतर, जगच्छ्रणीय, त्रसरेणु, त्रृटितांग, ऋुटिरेणु, दण्ड, दिवस, ध्रुव भागहार, ध्रवराशि, नभखण्ड, नोकर्म, परमाणु , पल्योपम, पाद, पुद्गल प्रतरांगुल, प्रदेश, प्रमाणांगुल, भिन्नमुहूर्त, मध्यम, महालतांग, मास, मुहूर्त, मूल, मूसल, यव, युग, योजन, रथरेणु, रिक्कु, राजू लक्षण, लतांग, लव, लीख, लोक, वर्ष, व्यवहारपल्य, विक्रिया, वितस्ति, विषुप, विस्रसोपचय, शंख, श्रेणी, सन्नासन्न, सप्तभंगी, समचतुरस्र्र, समय, सागरोपम, सूच्यंगुल स्कन्ध, हस्त, हस्तप्रहेलित, हाहांग, हुण्डावसर्पिणी, हूहांग।
उपरोक्त कथन में अंगुल स्कन्ध से और योजन अंगुल से परिभाषा क्रम में उत्पन्न किया गया है। इन्हीं से जगश्रेणी, जगत्प्रतर और घनलोक उत्पन्न होते हैं। राजू जगच्छ्रेणी का सातवां भाग होता है। पल्य और सागर समय से परिभाषा क्रम में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार प्रदेश संख्या और समयसंख्या में निम्न सूत्रों द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया गया है—
जगश्रेणी · (घनांगुल) (पल्य के अर्द्धच्छेद ´ असंख्यात)
सूच्यंगुल ·(पल्य)(पल्य के अर्द्धच्छेद)
इस प्रकार ये सूत्र क्षेत्र प्रमाण और काल प्रमाण में सम्बन्ध स्थापित करते हुए एक दूसरे में परिवर्तित किये जा सकते हैं।
त्रिलोकसार में उपरोक्त शब्दावलि परिभाषा क्रम से उत्पन्न शब्दों के बारे में मिलती है, किन्तु चौदह धाराओं का विवरण जो ‘वृहद्धारापरिकर्म’ से अवतरित किया गया है, विलक्षण है। ये चौदह धाराएं क्रमश: इस प्रकार हैं—
सर्व, सम, विषम, कृति, अकृति, घन, अघन, कृतिमातृका, आकृतिमातृका, घनमातृका, अघनमातृका, द्धिरूपवर्ग, द्विरूपघन तथा द्विरूपघनाघन धारा। आधुनिक गणित की दृष्टि से इन धाराओं का विकास अभूतपूर्व है। इसमें अर्द्धच्छेदों का प्रयोग तथा स्थल विज्ञान का प्रयोग अप्रतिम है।
उपर्युक्त ग्रन्थों में उपमा प्रमाण तथा संख्या प्रमाण (संख्येय, असंख्येय और अनन्त) का विशद मिलता है। लोक के विभिन्न प्रकार के आकार सम्बन्धी क्षेत्रगणित भी अतिविस्तार से प्राप्य है। संख्याप्रमाण की सिद्धि हेतु चौदह धाराओं का विवरण महत्वपूर्ण है।
बादाल, एकट्ठी, जघन्यपरीतासंख्यात, वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, प्रथमवर्गमूल, आवली, प्रतरावली, असंख्येयस्थान, अद्धापल्य की वर्गशलाका, पल्य सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, जगश्रेणीका प्रथम घनमूल, जघन्य परीतानन्त, जघन्ययुक्तानन्त जघन्य अनन्तानन्त, जीवराशि, पुद्गलराशि, कालराशि, आकाशश्रेणिराशि, आकाशप्रतरराशि, अनन्तस्थान, धर्म एवं अधर्मद्रव्य के अगुरुलघु गुण के अविभाग प्रतिच्छेद, एक जीवद्रव्यके अगुरुलघुगुण सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों की राशि, सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जघन्यपर्याय नामक श्रुतज्ञान की अविभगप्रतिच्छेदराशि, जघन्य क्षायिक लब्धिकी वर्गशलाकाएं, अर्द्धच्छेद, आठवां, सातवां आदि वर्गमूल, केवलज्ञानराशि के अविभागी प्रतिच्छेद। केवलज्ञानराशि प्रत्येकराशि के अन्तिमस्थान के अन्तिमपद से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित है ।
द्विरूपघनधारा में प्राप्य शब्द इस प्रकार हैं—आवलिघन, प्रतरावलिघन, पल्यघन, घनांगुल, जगश्रेणी, जगत्प्रतर, जीवराशिका घन, सर्वाकाशका प्रथमवर्गमूल तथा सर्वाकाश. संख्येय—असंख्येय व अनन्त वर्गस्थान केवलज्ञान के द्वितीयवर्गमूल की घन अविभागप्रतिच्छेदराशि केवलज्ञान की वर्गशलाकाराशि से दो कम स्थान।
इसी प्रकार द्विरूपघनाघनधारामें निम्नलिखित शब्दों का उपयोग है। ये सभी राशियाँ हैं जो धारा के स्थानक्रम से उत्पन्न होती हैं—
द्विरूपवर्गधारा में वर्गरूप राशि घनाघन, लोक, गुणकारशलाका, वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद और प्रथमवर्गमूल, तेजस्कायिक जीवराशि, असंख्यात वर्गस्थान जाने पर तेजस्कायिक स्थिति की वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद एवं प्रथममूल, अवधिज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र की वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, प्रथमवर्गमूल तथा ये राशियां, स्थितिबन्ध में कारणभूत कषाय परिणाम के स्थानों की वर्गशलाकाएँ अर्द्धच्छेद एवं प्रथम वर्गमूल तथा स्थान राशि, अनुभाग बंधस्थान के कारणभूत परिणामों का वर्गशलाकाएं अर्द्धच्छेद, प्रथमवर्ग मूल तथा परिणामराशि, निगोदजीवों के शरीरों की उत्कृष्ट संख्या, निगोदकाय स्थिति की वर्गशलाकाएं, अर्द्धच्छेद प्रथमवर्गमूल तथा स्थितिराशि, वर्गशलाकादि भय के साथ योग के सर्वोत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदराशि, अनन्तस्थान ऊपर जाकर केवलज्ञानराशि के चतुर्थ वर्गमूल के घनको इसी चतुर्थ वर्गमूल के घन को वर्ग से गुणा करने पर प्राप्त राशि।
अब कर्मग्रन्थों की शब्दावलि पर विचार करना उपयुक्त होगा। कषायपाहुड़सुत्त में स्थिति और अनुभाग, प्रदेश तथा प्रकृतिसम्बन्धी प्रमाणों में गणितीय शब्दों का प्रयोग है। संक्रम सम्बन्धी प्रक्रियाओं में भी गणितीय शब्दों का उपयोग है। इस प्रकार सम्यक्त्वलब्धि तथा क्षपणा की प्रक्रियाओं को गणितीयरूप देकर शब्दों की नयी रचना है।
प्रकृतिस्थानराशिके काल—अन्तर—नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय—अल्पबहुत्व; भुजाकार—अल्पतर अवस्थित विभक्ति—कालनिरूपण; प्रकृतिविभक्ति में पदनिक्षेप और वृद्धिका अनुमार्गण; मिथ्यात्वादिकर्मों की उत्कृष्टस्थिति विभक्ति जघन्य; सन्निकर्ष; अवक्तव्य; स्थितिसत्कर्मस्थानराशि; अनिवृत्तिकरण आदि पदों, जघन्य प्रदेश सत्कर्म अल्पबहुत्व; उत्कर्षण; अपकर्षण; संक्रमण; उदय; क्षीणस्थितिक; उत्कृष्टनिषेक—यथानिषेक उदयस्थिति प्राप्तक; स्थिति प्राप्तक कर्मों का अल्पबहुत्व; प्रतिगृहस्थानों में संक्रमस्थान; सत्त्वस्थान—गुणस्थान—मार्गणास्थानमें संक्रम एवं प्रतिग्रहस्थान; मोहकर्म सत्त्व—बन्धस्थानों में संक्रमस्थान; स्थिति के निक्षेप तथा अति—स्थापना; निर्व्याघातापेक्ष निक्षेप एवं अल्पबहुत्व; पदनिक्षेप एवं वृद्धि; अनुभागसंक्रम सन्निकर्ष भंगविचय एवं अल्पबहुत्व; प्रदेशसंक्रमसन्निकर्ष अल्पबहुत्व; उदीरणास्थानराशिभंग—काल—अन्तर—भंंगविचय—सन्निकर्ष अल्पबहुत्व; प्रदेश सक्रमन्निकर्ष अल्पबहुत्व, उदीरणास्थानराशि भंग—काल—अन्तर—भंग विचय—सन्निकर्ष अल्पबहुत्व। स्थिति एवं अनुभाग उदीरणा; प्रदेश उदीरणा; प्रकृति उदीरणादि; कषायोपयोग काल अल्पबहुत्व; कषायोपयोग परिवर्तन बार एवं उनका अल्पबहुत्व; कषायोदयस्थानों में कषायोपयोग कालसम्बन्धी अल्पबहुत्व; कषायोपयोग परिवर्तन बार एवं उनका अल्पबहुत्व, कषायोदय स्थानों में कषायोपयोग कालसंनधि अल्पबहुत्व कषयोपयोग वर्गणाएं; अतीतकाल में मान—नोमान और मिश्रकाल, कषायत्रिविधकाल; अल्पबहुत्व श्रेणियां; अध:प्रवृत्तादि तीनकरण; चरमसमय; क्षपणा; स्थितिघात—स्थितिकाण्डकघात; कृतकृत्त्यवेदक; पूर्वबद्ध कर्मस्थिति गुणश्रेणी; एकान्तानुवृद्धि; तीव्रमन्दता अल्पबहुत्व; लब्धिस्थानराशि अल्पबहुत्व; चारित्रमोहोपशम क्रियाएं, अन्तरकरण; अनुभागकृष्टिकरण; लेश्या; अपवर्तना; आनुपूर्वी संक्रमण; अवस्थान; निक्षेप; अतिस्थापन; अश्वकर्णकरण; अपूर्वस्पर्धक; सत्त्व; प्रदेशाग्र; यवमध्यरचना भजनीयता—अभजनीयता; समयबद्ध; भवबद्ध; बध्यमान; सम्भवता; समयप्रबद्ध शेषप्रदेशाग्र; निर्लेपन स्थान; अबध्यमान; संग्रहकृष्टिराशि; दृश्यमानप्रदेशाग्रश्रेणि; वेदक—अवेदक; सम्भववीचार; समुद्घात इत्यादि।
अक्खर संजोग, अगहण दव्ववग्गणा, अगुरुलहुअणाम, अग्ग, अणंतगुणपरिवड्ढी, अणंतगुणहीण, अणंत भागहाणी, अणंतर, अणंताणंत, अणुगामी, अणुभागबंध्ज्झवसाणट्ठाण, अणेयखेत्त, अण्णोणयब्भास, अद्धपोग्गलपरियट्ट, अद्धअप्पबहुअ; अप्पाबहुआणुगम, अवत्तव्वकदी, अवलंबणा, अवहारकाल, अविभाग—पच्चय, असंख्ेज्जगुणब्भहिय,वस्साउअ, असंखेपद्धा, असादद्धा, अंगुलपुधत्त, अंगुलवग्गमूल, अंतकोड़ाकोड़ी, अंतोमुहुत्त, अंतोमुहुत्त, आबाधा, आबाधाकंडय, आयाम, आवलियपुधव्व, उदिण्णफलपत्तविवागा, उदिण्णवेयणा, उस्सप्पिणी, एयक्खेत्त,एयपदेसिय परमाणु, ओगाहणगुणगार, ओज जुम्म, ओरालियपदेस, ओसप्पिणी, कम्मअणंतरविहाण, कम्मअप्पाबहुअ, कम्मकाल, खेत्त, गइ, ट्ठिदि विहाण, दव्वविहाण, कम्म, णिम्खेव, णिसेअ, पच्चय, परिमाण, फास, भागाभागविहाण,भावविहाण, भूमिपडिभाग, करणकदी, कालहाणी, केवलणाण, कोडाकोडीकोडाकोडि,कोडिपुधत्त, कंदयवग्गावग्ग, खेत्तहाणि, खंधवग्गण,गच्छ, गणणकदि, गणिद, गाउअपुधत्त, गुणगार, गुणसेडिकाल, गणहाणि, घणहत्थ, छेदणा, जगपदर, जवमज्झ, जहण्णोहि, जुग, जुम्म, जोयणपुधत्त ठिदिखंडयघात, णिकाचिद, णिधत्त, णोकदी, णोजीव, दव्वपमाण, दिवसपुधत्त, धुवखंध, सुण्ण, पओग परिणदखंध, संठाण, पक्ख, पदेसग्ग पमाण, पुव्वकोडिपुघत्त, भापमाण, भासद्वा भिण्णमुहुत्त, भंगविधि, भंगविचय, महाखंधदव्व वग्गणा, रज्जु, लोग, वग्ग, वग्गणा, वग्गमूल, फड्ढय, समयपबद्ध सागरोवमसदपुधत्त, सादद्धा, साहिय, संखेज्जगुणब्भहिय, संगह, सांतरणिरन्तर दव्ववग्गणा।
संखा, पत्थार, परियट्टण, णट्ट, समुद्दिट्ठं भंग, अक्ख, णिक्खिविय, पिण्ड, अंतगद, आदिगद, संकम, पद, रूवपक्खेव, संगुणित्तु, सगमाण; अवणिज्ज, उद्दिट्ठ, सरिस, अणाईणिहण, आसव, अणंतकम्मंस, गुणक्कम, विदंगुल, अवरं, उग्गाहण, जहाजोग्ग, विच्चाल, विअप्प, रासि, कदिहद, आउड्डरासिवार, दिण्णच्छेदेणवहिद, इट्ठच्छेद, पयदधण, ओरालिय, गुणिदकम्मंसे, संचय, गलिदवसेस, सलागा, संदिट्ठि, ठिदिरयण, दलसला, णिसेयछिदी, सहत्थणकाल, तिरच्छिेण वट्टमाण, तियकोणसरूव, हेट्ठिमखंड, णिवग्गं।
पडलसत्ती, बंधोसरण, अणुक्कस्स पदेसबंध, अपुणरुत्ता, ठिदिरसखंडं, विसोहि वड्ढीहिं, पडिवज्जमाणगस्स, अणुकट्ठीए, अद्धा पडिखंडना, छट्ठाणाणी, अट्ठुव्वंकादिअंतगया, असरिसखंडाणोलि, वरपंती, अहिगदिणा, पूरण, खंडुक्कीरणाकाला, गलिदवसेसे, उदयावलिबाहिर, समकरण, वज्जिय, सुज्झमाण, फालि, सत्तग्ग, बोलिय, अदि, जुदा, जेट्ठ, अग्ग, उदयाणाखमावलि, खिवणट्ठं, उक्कट्टणो हारो, सिंचदि, णिसेयहार, संचदिय, अप्पसत्थ, बंधुज्झिय, संजादि, संजोजण, सायरपुधत्त, णिवडण,अइत्थावण, णिप्पत्ती, थोवाणि, सीसं, संशुहदि, अंतरकड, पडि आवलि, णत्थि आगाला, पडिआगाला, उवइट्ठादूण, तिधा, भजियकमा, विज्झादो, हदिकाल, गुणियकमा, णिरासाण, तियरण, पव्व दूरावकिट्ठि, उच्छिट्ठ, उदधि, णासेइ, वस्स किचूणदिवड्ढ, कमोवट्टण, सपहियं, पुव्विल्लादो, णिसिंचिदे, गोउच्छ, तक्काले, दिस्सं उवरिमठिदि, दत्तिकमो, मूल, कदकणिज्जोयपत्ती, परावत्ती, अणुसमओवट्टणयं, पुव्वकिरिया, संकिलेस, विसेसाहिय, पदसंखा,णादिक्कदि, सेस, सगजोग्गं, एयंतबुद्धि, पडिउट्ठदे, अणुभय, पडिवादगया, उक्कीरयं, बोच्छिण्णा, तेत्तियमेत्ते, परिभोगं, अंतर—समत्ती, थीयद्धा जाव, संछुहदि, णंतगुणणं, संधी, लोह, विवरीयं, कमकरण, लक्खपुधत्तं तावदियं, चडपड, अंतरयं अणुभवण, पदेसअंगेण,गणणादिकंत सेढी,ओव्ववट्ठणि उट्ठण, आदोलं, पक्खेवकरण, वग्गण अविभागा, हयकण्ण, संगह अंतरजादो, लोकपूरण,आवज्जिदकरण, अणुसमओवट्टण।
इस प्रकार ईस्वी सदी के प्रारम्भ से लेकर प्राय: १००० वर्ष तक लगातार कर्मसिद्धान्त की गाथाओं पर विशाल पैमाने पर कार्य चलता रहा। उसका गणितीय रूप आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त—चक्रवर्ती के गोम्मटसार, लब्धिसार आदि ग्रन्थों की टीकाओं में निखरा है। इसी में संदृष्टियों पर विशेष जोर दिया गया है। इसके पूर्व के ग्रन्थों , यहां तक कि धवला टीका में भी गणित के समीकरणों आदि को केवल वाक्यों में ही लिखा गया है। एक साथ संदृष्टिमय प्ररूपण आश्चर्यजनक है। केशववर्णी कृत कर्णाटकीवृत्ति में भी यह सब आ जाना केवल २०० वर्ष का प्रयास यदि है तो अत्यन्त श्रेयस्कर है। धवला टीका की विकल्पपद्धति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। श्री वीरसेनाचार्य द्वारा राशियों के प्रमाण का विश्लेषण खण्डित, भाजित, विरलित आदि प्रक्रियाओं से सिद्ध किया गया है। अनन्त से बड़े अनन्तकी सिद्धि की विधियां वीरसेनाचार्य की धवला टीका में उपलब्ध हैं। इन अनन्तात्मक राशियों के बीच लागयेरिथ्म ( त्दुarग्ूप्स्) विधि से सम्बन्ध स्पष्ट किये गये हैं।
पंडित टोडरमल जी के समय कोई ऐसा शिक्षक नहीं था जो आगम में प्रयुक्त संदृष्टियों का यथोचित बोध करा सके। केशववर्णी ने भी अर्थसंदृष्टियों पर प्रकाश डालने हेतु कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार नहीं किया। इससे प्रतीत होता है कि या तो उनके द्वारा लिखा ऐसा कोई ग्रन्थ विलुप्त हो गया। अथवा उनके पूर्व से ही उनके काल तक इन संदृष्टियों को जानने वाले रहे होंगे अथवा इन संदृष्टियों का विशेष प्रचार रहा होगा तथा पाठशालाओं में पढ़ाने की कोई मौखिकपद्धति रही होगी। उनके पश्चात् चार वर्षों के पश्चात् पंडित टोडरमलजी हुए जिन्हें इस ओर जानने की रुचि हुई। इस मध्य कर्णाटकीवृत्ति की संस्कृत टीका अवश्य बनी, किन्तु अर्थसंदृष्टि पर कोई स्वतन्त्रग्रन्थ नहीं लिखा गया। चामुण्डराय द्वारा कोई टीका लिखे जाने की चर्चा मिलती है, किन्तु उक्त ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। इसके पूर्व का कोई ऐसा ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है जो इस तथ्य पर प्रकाश डाल सके। यह भी हो सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्रादि की टीकाओं में अर्थ संदृष्टियों का विकास हुआ हो जिसे साधारण विद्वानों की पहुंच के बाहर होने से अधिक प्रचार न हो पाया हो। यह अवश्य है कि कहीं—कहीं तिलोयपण्णत्ति एवं धवला टीका में अर्थसंदृष्टियों तथा खुले रूप में अंक संदृष्टियों का उपयोग हुआ है।कर्णाटकीवृत्ति आदि में इन दोनों का पृथक्—पृथक उपयोग हुआ है। इसी प्रकार रेखा रूप संदृष्टियों का भी उपयोग पहले से चला आया है, किन्तु इन सभी को समझाने का अथक प्रयास पंडित टोडरमल जी द्वारा हुआ है।
पंडित टोडरमलजी के समक्ष गोम्मटसार की संस्कृतटीकाएं थीं तथा लब्धिसार की माधवचन्द्र त्रैविद्य देव की संस्कृत टीका थी। उन्होंने उक्त सभी टीकाओं का सर्वप्रथम अध्ययन किया। इसके पश्चात् उन्होेंने यह योजना बनाई कि अर्थसंदृष्टि विधिपूर्वक पृथक् से बनाई जावे तथा शेष सामग्री गणितरहितरूप में पृथक् संकलित कर टीका निर्मित की जावे। तदनुसार उन्होंने दो अर्थसंदृष्टि अधिकार निर्मित किये जो क्रमश: गोम्मटसार और लब्धिसार में आयी गणितीय सामग्री को समाविष्ट किये हुए थे। साथ ही इनके प्रारम्भ में भूमिका थी, जिसमें समस्त प्रतीकों का विवरण, उनके प्रयोगसम्बन्धी विधि तथा उदाहरण दिये हुए थे। प्रतीकों के सम्बन्ध में एक और कठिनाई थी। एक ही प्रतीक विषयानुसार विभिन्न अर्थ के संकेतरूप में प्रयुक्त हुआ था तथा एक ही अर्थ हेतु विभिन्न प्रतीक भी प्रयुक्त हुए थे। अतएव इन सभी का विश्लेषण करते हुए पंडित टोडरमलजी ने अगली पीढ़ियोें के लिए महान् अंशदानरूप में उक्त दो अर्थसंदृष्टि अधिकार निर्मित किये। इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त में प्रतीकबद्ध गणित का विकास हुआ जो कि करणानुयोग ग्रंथों में पठनीय है।