जैनाचार्यों द्वारा कर्म सिद्धान्त के गणित का विकास
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, प्राचार्य (शासकीय महाविद्यालय, सिहोरा)
एवं—चक्रेश जैन, (रिसर्च स्कालर)
‘‘यह निशित है, कि प्राकृतिक घटनाओं के साथ हस्तक्षेप करने वाले व्यक्तिगत ईश्वर का सिद्धान्त विज्ञान के द्वारा वस्तुत: कभी भी झूठ सिद्ध नहीं किया जा सकेगा; क्योंकि यह सिद्धान्त सदैव ऐसे क्षेत्रों में शरण ले सकता है, जिनमें विज्ञानमय ज्ञान अपने कदम नहीं जमा सका है’ —अलबर्ट आइन्स्टाइन प्रस्तुत लेख में अतिसंक्षेप में गणित के उस पक्ष का विवरण है जो जैनाचार्यों द्वारा कर्मसिद्धान्त को पुष्ट करने मेें विकास को प्राप्त हुआ। यह एक परम विज्ञान है जो बिना गणित की सहायता के न तो सही रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है और न ही सही रूप में समझा जा सकता है। अत: गणित साधन द्वारा परमलक्ष्य और साध्य की प्राप्ति का प्रयास परम अहिंसा के उपदेशक एवं वीतरागी जिनसाधुओं ने किया है। कर्मविज्ञान—साहित्य निर्माता— गहन कर्मसाहित्य, जिसमें गणित ने अप्रतिमरूप से प्रवेश किया, मुख्यत: दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा निर्मित प्रतीत होता है। सर्वप्रथम प्राय: ईसा की प्रथम सदी में आचार्य गुणधर ने कसायपाहुडसुत्त का २३३ (१८०) गाथाओं में निर्माण किया। यह श्रुतके चतुर्थ अङ्ग के ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु पेज्जदोस (राग—द्वेष) नामक तृतीय पाहुड से निर्मित हुआ है। तत्पश्चात् प्राय: ईसा की द्वितीय सदी में आचार्य धरसेन के विलक्षण शिष्यों, आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबली ने महाबन्धसहित पट्खंडागम ग्रन्थों की रचना की। यह श्रुत के दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगके चतुर्थ पूर्वगत के अग्रायणी नामक द्वितीयपूर्व की च्यनलब्धि नामक पंचमवस्तु के कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृत के २४ वें अनुयोगद्वार से अवतरित माना जाता है। इस प्रकार द्वादशांगश्रुत का अत्यन्त अल्पभाग सुरक्षित रहा आया जिसमें से कर्मविज्ञान को गणित की आधारशिला पर भव्यग्रन्थों के रूप में विशाल रचनाएं बनाने का श्रेय इन आचार्यों तथा उनकी शिष्य परम्परा को है। यद्यपि उपरोक्त ग्रन्थों पर विशालतम टीकाएं आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य तुम्बुलूर आदि द्वारा लिखी गर्इं मानी जाती हैं तथापि जो ग्रन्थ अब हमारे समक्ष सुरक्षित परम्परागत चले आये उनके सम्बन्ध मेें जानकारी देना आवश्यक है ताकि विज्ञान के विद्यार्थी कर्म विज्ञान के गणितीय पक्ष में रूचि लेकर शोध को गहराई तक ले जा सकें। सारिणी सूचना निम्न प्रकार है— प्राय: ईस्वी सदी जैनाचार्य नाम ग्रन्थ (कर्मसिद्धान्तमय एवं सम्बन्धित) तृतीय कुन्दकुन्द (१) पंचास्तिकाय (१७३ गाथाएं) (२) समयसार (४१५ गाथाएं) (३) प्रवचनसार (२७५ गाथाएं) तृतीय उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र (प्रवेशपक्ष) ४७३ से ६०९ यतिवृषभ (१) कषायपाहुड़ पर चूर्णिसूत्र (गहनपक्ष—कर्मविज्ञान पक्ष (७००९ गाथा प्रमाण) (२) तिलोयपण्णत्ति (प्रमाणविज्ञान पक्ष—५६७७ गाथाएं) पांचवी पूज्यपाद सवार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र की टीका) (अर्थ एवं सं ख्या पक्ष) आठवीं अकलज्र् तत्त्वार्थराजवार्तिकम् (तत्त्वार्थसूत्र की टीका) (विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) ८१६ वीरसेन (१) धवला टीका सहित षट्खंडागम (गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (७२००० गाथा प्रमाण) (२) जय धवला टीका (अपूर्ण) सहित कषायपाहुड सुत्त गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (२०००० गाथा प्रमाण) ८३७ जिनसेन शेष जय धवला टीका सहित शेष कषायपाहुड सुत्त (गणित विज्ञान, न्याय एवं तर्क पक्ष) (४०००० गाथा प्रमाण) ११वीं सदी नेमिचन्द्र (१) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) (गणित, विज्ञान पक्ष— ७३४ गाथाएं) (२) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) (गणित, कर्म विज्ञान पक्ष —९७२ गाथाएं) (३) लब्धिसार—क्षपणसार (गणित चरम कर्मविज्ञान पक्ष ६४९ गाथाएं) (४) त्रिलोकसार (गणित प्रमाण—विज्ञानपक्ष—१०१८ गाथाएं) १३ वीं सदी अभयचन्द्र मंदप्रबोधिनी संस्कृत टीका सहित गोम्मटसार (सरलपक्ष) सैद्धान्ती १३ वीं सदी माधवचन्द्र त्रिलोकसार पर एवं क्षपणसार पर संस्कृत टीकाएं१ विद्यदेव संदृष्टिमय प्रमाण एवं कर्म विज्ञान) १४ वीं सदी केशववर्णी जीवतत्त्वप्रदीपिका कन्नड़ (संस्कृत मिली टीका सहित गोम्मटसार (अर्थसंदृष्टि गणित सहित कर्मविज्ञान पक्ष) १६ वीं सदी भट्टारक नेमिचन्द्र केशववर्णी टीका पर आधारित संस्कृत टीका सहित (ज्ञानभूषण शिष्य) गोम्मट—सार (अर्थसंदृष्टि गणितसहित कर्मविज्ञानणिप्तौड़वासी पक्ष) १७६१ पंडित टोडरमल (१) सम्यग्ज्ञानचंद्रिका ढूंढारी टीका सहित गोम्टसारआसपास (अर्थसंदृष्टि गणित मय कर्म विज्ञान) (२) लब्धिसार एवं क्षपणसार की अर्थसंदृष्टि अधिकार सहित ढूंढारी भाषा में टीका (अर्थसंदृष्टिमय कर्म विज्ञान) (३) त्रिलोकसार की टीका (प्रमाण विज्ञान पक्ष) इस प्रकार कर्मविज्ञान को यथासम्भव गणित सिद्धन्त द्वारा प्रदर्शित करते हुए विश्व की सूक्ष्मतम तथा स्थूल घटनाओं को समझाने के प्रयास में उक्तग्रन्थों में जैनाचार्यो तथा पंडितों द्वारा अगम्य सामग्री निर्मित की गई। विगत २००० वर्षों का इतिहास ही अिंहसा और सत्यपक्ष को उज्जवल बनाने के उपरोक्त रचनात्मक निर्माण कार्यों से भरपूर है। कर्मविज्ञान सम्बन्धित गणितीय शब्द— यह सुनिश्चित है कि कर्मसम्बन्धी विज्ञान (जिसे वीतरागविज्ञान भी कहा जा सकता है) के साहित्य का निर्माण करने हेतु नवीन पदों का निर्माण करना आवश्यक था। तीर्थज्र्र वर्धमानस्वामी के काल से ही क्या हम इन शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ होना नहीं मान सकते हैं। क्रान्ति के उस युग में इन गणितीय शब्दों का निर्माण इसलिए माना जा सकता है कि गणितीय प्रमाण देना आवश्यक हो गया होगा। नवीं सदी तक दक्षिण में महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह का विशेष प्रचार था, उनका ‘ज्योतिषपटल’ ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। उक्तग्रन्थ में लौकिक गणित का समावेश था। शेष का अध्ययन आगम ग्रन्थों मे प्रचलित था। महावीरचार्य ने वास्तव में एक विशाल गणितग्रन्थ की रचना की थी। जगत् इतिहास में १९१२ ई. के पश्चात् अब उनका नाम अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है उनके ग्रन्थ में निम्नलिखित गणितीय प्रकरण हैं जिन सभी का उपयोग आगम के गणित में भी होता है—२ संज्ञा अधिकार—— गणित शास्त्र प्रशंसा, क्षेत्र परिभाषा, काल परिभाषा, धान्यपरिभाषा स्वर्ण परिभाषा, रजत—परिभाषा, लोह परिभाषा, परिकर्म नामावलि, शून्य तथा धनात्मक एवं ऋणात्मक राशि सम्बन्धी नियम, संख्या परिभाषा, स्थान नामावलि, गणक गुणनिरूपण। परिकर्म व्यवहार— प्रत्युत्पन्न (गुणन), भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल संकलित संकलित (श्रेणियों का संकलन) व्युत्कलित। कलासवर्ण व्यवहार— भिन्न प्रत्युत्पन्न, भिन्न भागहार, भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल , घन, घनमूल भिन्न संकलित भिन्न व्युत्कलित, कलासवर्ण षड्जाति, भागजाति, प्रभाग और भाग—भाग जाति, भागानुबन्ध जाति, भागापवाहजाति, भागमातृ जाति। प्रकीर्णक व्यवहार— —भाग और शेष जाति, मूल जाति, शेष मूल जाति, द्विरग्र शेष मूल जाति, अंश मूल जाति, भाग संवर्ग जाति उनाधिक अंश वर्ग जाति, मूल मिश्र जाति, भिन्न दृश्य जाति। त्रैराशिक व्यवहार—— अनुक्रम त्रैराशिक, व्यस्त त्रैराशिक, व्यस्त पंचराशिक, व्यस्त सप्तराशिक, व्यस्त नवराशिक, गति निवृत्ति, भाण्ड प्रति भाण्ड (विनिमय), क्रय—विक्रय। मिश्रक व्यवहार— —संक्रमण और विषम संक्रमण, वृद्धि विधान (ब्याज), प्रक्षेपक कुट्टीकार (समानुपात), बल्लिका कुट्टीकार, विषय कुट्टीकार, सकल कुट्टीकार, सुवर्ण कुट्टीकार, विचिग कुट्टीकार, श्रेणिबद्ध संकलित। क्षेत्रगणित व्यवहार— व्यावहारिक गणित, सूक्ष्म गणित, जन्य व्यवहार, पैशाचिक व्यवहार। खात व्यवहार— —सूक्ष्म गणित, चिति (र्इंट) गणित, क्रकचिका (आरा) व्यवहार। छाया व्यवहार—— छाया सम्बन्धित गणित। इस ग्रन्थ में संख्याओं का अभियान करने वाले सामान्य और संख्यात्मक अर्थबोधक शब्द निम्नलिखित हैं, कोष्ठक में वह संख्या है जिसे निरूपित करते हैं— अक्षि (२), अग्नि (३), अंक (९),अंग (६), अचल (७), अद्रि (७) अनन्त (०), अनल (३),अनीक (८), अन्तरिक्ष (०), अब्धि (४), अम्बक (२), अम्बर (०), अम्बुधि (४), अम्भोधि (४), अश्व (७), आकाश (०), इन (१२), इन्दु (१),इन्द्र (१४), इन्द्रिय (५), इभ (८), इषु (५),ईक्षण (२), उदधि (४),उपेन्द्र (९),ऋतु (६) कर (२), करणीय (५),करिन (८), कर्मन् (८), कलाधर (१), कषाय (४), कुयार वरून (६), केशव (९), क्षपाकर (१), ख (०) खर (६),गगन (०),गज (८), गति (४), गिरि (७), गुण (३), ग्रह (९) चक्षुस् (२), जिन (२४), तत्त्व (७), तनु (८),तर्क (६), तीर्थंकर (२४), दुर्गा (९), दिक् (८) दिक्(१०) भी, दिक् (० भी ), द्रव्य (६), द्वीप (७), धातु (७), धृति (१८), नग (७), नन्द (९),नय (२),नाग (८), निधि (९), पदार्थ (९), पन्नग (७),पुर (३), बन्ध (४),बाण (५), भ (२७), भय (७), भाव (५),भास्कर (१२), भुवन (३), भूत (५), मद (८), मुनि या ऋषि (७) रुद्र (११),रत्न (३) रत्न (९ भी ), रस (६), रन्ध्र (९),रूप (१),लब्धि (९), लेख्य (६), लोक (३),वर्ण (६), वसु (८), विषय (५) विश्व (१३),वेद (४) व्यसन (७), व्रत (५), शिलीमुखपद (६), स्वर (७),हरनेत्र (३)। उपर्युक्त के अतिरिक्त कुछ और भी शब्द हैं जो आगम में आने वाले शब्दों से सम्बन्धित हैं यथा—आदि धन, अंगुल, अन्त्य धन अणु, अर्बुद, आवलि, अयन, बीज, दण्ड, दश, कोटि, सहस्र, लक्ष, घटी, गुण धन, हस्व, इच्छा, कर्मान्तिक, खर्व, कोश, कृति, क्षेपपद, क्षित्या, क्षोभ, क्षोणि लव, मध्यधन, शंख पद्म, मेरु मृदंग, माष मुख, मुरज, न्यर्बुद, पाद, पक्ष, पण, पणव, फल, प्रक्षेपक—करण,प्रमाण, प्रस्थ, प्रवर्तिका, ऋतु, समय, सर्वधन, शतकोटि, शोडशिका, शोध्य, स्तोक, त्रसरेणु, त्रिप्रश्न, तुला, उच्छ् वास, उत्तरधन वाह, यव, योजन। तिलोयपण्णति ग्रन्थ में जो गणितीय शब्द हैं उनका यथोचित उपयोग कर्मग्रन्थों में हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है मानों गणितीय सामग्री को समझने हेतु सर्वप्रथम तिलोयपण्णत्ति पढ़ना पड़ती रही हो, क्योंकि गणितीय प्रमाण, संख्या, राशि आदि विषयक सामग्री उसी ग्रन्थ में उपलब्ध रही चली आई। यथा—अक्षोभ, अनित्य, अचलात्म अटट, अटटांग अद्धापल्य, अनुभाग, अर्थकत्र्ता, अवसर्पिणी, अव्याबाध, असंख्येय, गुणश्रेणि, अंगुल, आवलि, आवृत्ति, उच्छ्वास उत्सर्पिणी, उत्सेधसूच्यंगुल, उदय, उदीरणा, अद्धारपल्य, उवसन्नसन्न, काल, कुमुदांग, कोश राशि, घनलोक, गगनखण्ड, घनांगुल, जगत्प्रतर, जगच्छे्रणीय, त्रसरेणु, त्रृटितांग, ऋुटिरेणु, दण्ड, दिवस, ध्रुव भागहार, ध्रवराशि, नभखण्ड, नोकर्म, परमाणु , पल्योपम, पाद, पुद्गल प्रतरांगुल, प्रदेश, प्रमाणांगुल, भिन्नमुहूर्त, मध्यम, महालतांग, मास, मुहूर्त, मूल, मूसल, यव, युग, योजन, रथरेणु, रिक्कू, राजू लक्षण, लतांग, लव लीख, लोक, वर्ष, व्यवहारपल्य, विक्रिया, वितस्ति, विषुप, विस्रसोपचय, शंख, श्रेणी, सन्नासन्न, सप्तभंगी, समचतुरस्र्र, समय, सागरोपम, सूच्यंगुल स्कन्ध, हस्त, हस्तप्रहेलित, हाहांग, हुण्डावसर्पिणी, हूहांग। उपरोक्त कथन में अंगुल स्कन्ध से और योजन अंगुल से परिभाषा क्रम में उत्पन्न किया गया है। इन्हीं से जगश्रेणी, जगत्प्रतर और घनलोक उत्पन्न होते हैं। राजू जगच्छेणी का सातवां भाग होता है। पल्य और सागर समय से परिभाषा क्रम में उत्पन्न होता है। इसीप्रकार प्रदेश संख्या और समयसंख्या में निम्नसूत्रों द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया गया है— (पल्य के अद्र्धच्छेद ´ असंख्यात) जगश्रेणी · (घनांगुल) (पल्य के अद्र्धच्छेद) सूच्यंगुल ·(पल्य) इस प्रकार ये सूत्र क्षेत्रप्रमाण और काल प्रमाण मैं सम्बन्ध स्थापित करते हुए एक दूसरे में परिर्वितत किये जा सकते हैं। त्रिलोकसार में उपरोक्त शब्दावलि परिभाषा क्रम से उत्पन्न शब्दों के बारे में मिलती है, किन्तु चौदह धाराओं का विवरण जो ‘वृहद्धारापरिकर्म’ से अवतरित किया गया है, विलक्षण है। ये चौदह धाराएं क्रमश: इस प्रकार हैं— सर्व, सम विषम, कृति, अकृति, धन, अधन, कृतिमातृका, आकृतिमातृका, धनमातृका, अधनमातृका, द्धिरूपवर्ग, द्विरूपघन तथा द्विरूपघनाधन धारा। आधुनिक गणित की दृष्टि से इन धाराओं का विकास अभूर्तपूर्व है। इसमें अद्र्धच्छेदों का प्रयोग तथा स्थल विज्ञान का प्रयोग अप्रतिम है। उपर्युक्त ग्रन्थों में उपमा प्रमाण तथा संख्या प्रमाण (संख्येय, असंख्येय और अनन्त) का विशद मिलता है। लोक के विभिन्न प्रकार के आकर सम्बन्धी क्षेत्रगणित भी अतिविस्तार से प्राप्य है। संख्याप्रमाण की सिद्धि हेतु चौदह धाराओं का विवरण महत्वपूर्ण है। त्रिलोकसार में प्राप्य शब्दावली जो अन्त की तीन धाराओं में प्राप्य है अत्यन्त महत्वपूर्ण है। द्विरूपवर्गधारा में निम्नलिखित हैं— बादाल, एकट्ठी, जधन्यपरीतासंख्यात, वर्गशलाका, अद्र्धच्छेद, प्रथमवर्गमूल, आवली, प्रतरावली, असंख्येयस्थान, अद्धापल्य की वर्गशला का, पल्य, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, जगश्रेणीका प्रथम घनमूल, जघन्य परीतानन्त, जघन्ययुक्तानन्त जघन्य अनन्तानन्त, जीवराशि, पुद्गलराशि कालराशि, आकाशश्रेणिराशि, आकाशप्रतरराशि, अनन्तस्थान, धर्म एवं अधर्मद्रव्य के अगुरुल गुण के अविभाग प्रतिच्छेद, एक जीवद्रव्यके अगुरुलघुगुण—सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों की राशि, सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जघन्यपर्याय नाम श्रुतज्ञान की अविभगप्रतिच्छेदराशि, जघन्य क्षायिक लब्धिकी वर्गशलाकाएं, अद्र्धच्छेद, आठवां, सातवां आदि वर्गमूल, केवलज्ञानराशि के अविभागी प्रतिच्छेद। केवलज्ञानराशि प्रत्येकराशि के अन्तिमस्थान के अन्तिमपद से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित है। द्विरूपघनधारा में प्राप्य शब्द इसप्रकार हैं— आवलिघन, प्रतरावलिघन, पल्यघन, घनांगुल, जगश्रेणी, जगत्प्रतर, जीवराशिका घन, सवकिाशका प्रथमवर्गमूल तथा सर्वाकाश. संख्येय—असंख्येय व अनन्त वर्गस्थान केवलज्ञान के द्वितीयवर्गमूल की घन अविभागप्रतिछेदराशि केवलज्ञान की वर्गशलाकाराशि से दो कम स्थान। इसीप्रकार द्विरूपघनाघनधारामें निम्नलिखित शब्दों का उपयोग है। ये सभी राशियां हैं जो धारा के स्थानक्रम से उत्पन्न होती है— द्विरूपवर्गघारा में वर्गरूप राशि घनाधन, लोक, गुणकारशलाका, वर्गशलाका, अद्र्धच्छेद और प्रथमवर्गमूल, तेजस्कायिक जीवराशि, असंख्यात वर्गस्थान जाने पर जेस्कायिक स्थिति की वर्गशला का, अद्र्धच्छेद एवं प्रथमन्ल, अवधिज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र की वर्गशलाका, अद्र्धच्छेद, प्रथमवर्गमूल तथा ये राशियां, स्थितिबन्ध में कारणभूत कषाय परिणामों की वर्गशलाकाएं अद्र्धच्छेद एवं प्रथम वर्गमूल तथा स्थान राशि, अनुभाग बन्धस्थान के कारणभूत परिणामों की वर्गशलाकाएं अद्र्धच्छेद, प्रथमवर्ग मूल तथा परिणामराशि, निगोदजीवों के शरीरों की उत्कृष्ट संख्या, निगोदकाय स्थिति की वर्गशलाकाएं, अद्र्धच्छेद प्रथमवर्गमूल तथा स्थितिराशि, वर्गशलाकादि भय के साथ योग के सर्वोत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदराशि, अनन्तस्थान ऊपर जाकर केवलज्ञानराशि के चतुर्थ वर्गमूल के घनको इसी चतुर्थ वर्गमूल के घन को वर्ग से गुणा करने पर प्राप्त राशि। अब कर्मग्रन्थों की शब्दावलि पर उपर्युक्त विचार करना होगा। कषायपाहुुड़सुत्त में स्थिति और अनुभाग, प्रदेश तथा प्रकृतिसम्बन्धी प्रमाणों में गणितीय शब्दों का प्रयोग है। संक्रम सम्बन्धी प्रक्रियाओं में भी गणितीय शब्दों का उपयोग है। इस प्रकार सम्यक्त्वलब्धि तथा क्षपणा की प्रक्रियाओं को गणितीय रूप देकर शब्दों की नयी रचना है। यतिवृषभचार्य द्वारा चूर्णि सूत्रों में जो शब्द गणितीय आये हैं वे निम्नलिखित हैं— प्रकृतिस्थानराशिके काल—अन्तर—नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय—अल्पबहुत्व; भुजाकार—अल्पतर अवस्थित विभक्ति—कालनिरूण; प्रकृतिविभक्ति में पदनिक्षेप और वृद्धिका अनुमार्गण; मिथ्यात्वादिकर्मों की उत्कृष्टस्थिति विभक्ति: जघन्य; सन्निकर्ष; अवक्तव्य; स्थितिसत्कर्मस्थानराशि; अनिवृत्तिकरण आदि पदों कालसम्बन्धी अल्पबहुत्व; कर्म सर्वघाती—देशघाती अंश विभाजन अनुभागति भतिम अल्पवदुत्व; प्रदेशविभक्ति का जघन्य प्रदेश सत्कर्म अल्पबहुत्व: अनुभागविभक्ति अल्पबहुत्व; प्रदेशविभक्ति; जघन्य प्रदेश सत्कर्म अल्पबहुत्व; कर्मघाती—देशघाती उत्कर्षण; अपकर्षण; संक्रमण; उदय; क्षीणस्थितिक; उत्कृष्टनिषेक—यथानिषेक उदयस्थिति प्राप्तक; स्थिति प्राप्तक कर्मों का अल्पबहुत्व; उत्कर्षण; अपकर्षण; संक्रमण; उदय; क्षीणस्थितिक; उत्कृष्टनिषेक—यथानिषेक उदयस्थिति प्राप्तक; स्थिति प्राप्तक कर्मों का अल्पबहुत्व; प्रतिगृहस्थानों में संक्रमस्थान; सत्त्वस्थान—गुणस्थान—मार्गणास्थानमें संक्रम एवं प्रतिग्रहस्थान; मोहकम सत्त्व—बन्धस्थानों में संक्रमस्थान; स्थिति के निक्षेप तथा अति—स्थापना; निव्र्याघातापेक्ष निक्षेप एवं अल्पबहुत्व; पदनिक्षेप एवं वृद्धि; अनुभागसंक्रम सन्निकर्ष भंगविचय एवं अल्पबहुत्व; प्रदेशसंक्रमसन्निकर्ष अल्पबहुत्व; उदीरणास्थानराशिभंग—काल—अन्तर—भंंगविचय—सन्निकर्ष अल्पबहुत्व; स्थिति एवं अनुभाग उदीरणा; प्रदेश उदीरणा; प्रकृति उदीरणादि; कषायोपयोग काल अल्पबहुत्व; कषायोपयोग परिवर्तन बार एवं उनका अल्पबहुत्व; कषायोदयस्थानों में कषायोपयोग कालसम्बन्धी अल्पबहुत्व; कषायोपयोग वर्गणाएं; अतीतकाल; अतीतकाल में मान—नोमान और मिश्रकाल, कषायत्रिकाल; अल्पबहुत्व श्रेणियां; अध:प्रवृत्तादि तीनकरण; चरमसमय; क्षपणा; स्थितिघात—स्थितिकाण्डकघात; कृतकृत्त्यवेदक; पूर्वबद्ध कर्मस्थिति गुणश्रेणी; एकान्तानुवृद्धि; तीव्रमन्दता अल्पबहुत्व; लब्धिस्थानराशि अल्पबहुत्व; चारित्रमोहोपशम क्रियाएं, अन्तरकरण; अनुभागकृष्टिकरण; लेश्या; अपवर्तना; आनुपूर्वी संक्रमण; अवस्थान; निक्षेप; अतिस्थापन; अश्वकर्णकरण; अपूर्वस्पर्धक; सत्त्व; प्रदेशाग्र; यवमध्यरचना भजनीयता—अभजनीयता; समयबद्ध; भवबद्ध; बध्यमान; सम्भवता; समयप्रबद्ध शेषप्रदेशाग्र; निर्लेपन स्थान; अबध्यमान; संग्रहकृष्टिराशि; दृश्यमानप्रदेशाग्रश्रेणि; वेदक—अवेदक; सम्भववीचार; समुद्घात इत्यादि। इसी प्रकार षट्खण्डागम (पांच खण्डों) में कुछ और नवीनगणितीय शब्द आते हैं— अक्खर संजोग, अगहण दव्ववग्गणा, अगुरुलहुअणाम, अग्ग, अणंतगुणपरिवड्ढी, अणंतगुणहीण, अणंत भागहाणी, अणंतर, अणंताणंत, अणुगामी, अणुभागबंध्ज्झवसाणट्ठाण, अणेयखेत्त, अण्णोण्यब्भास, अद्धोग्गलपरियट्ट, अद्धअप्पबहुअ; अप्पाबहुआणुगम, अवत्तव्वकदी, अवलंबणा, अवहारकाल, अविभापच्चय, असंखेज्जवेणब्भहिय,वस्साउअ, असंखेपद्धा, असादद्धा, अंगुलपुधत्त, अंगुलवग्गमूल, अंतकोड़ाकोड़ी, अंतोमुहुत्त, अंतोमुहुत्त, आबाधा, आबाधाकंडय, आयाम, आवलियपुघव्व, उदिण्णफलपत्तविवागा, उदिण्णवेयणा, उस्सप्पिणी, एयक्खेत्त,एयपदेसिय परमाणु, ओगाहणगुणगार, ओज जुम्म, ओरालियपदेस, ओसप्पिणी, कम्मअणंतरविहाण, कम्मअपाबहुअ, कम्मकाल, खेत्त, गइ, ट्ठिदि विहाण, दव्वविहाण, कम्म, णिम्खेव, णिरोअ, पच्चय, परिमाण, फास, भागाभाग विहाण,भावविहाण, भूमिपडिभाग, करणकदी, कालहाणी, केवलणाण, कोडाकोडाकोडाकोडि,कोडिपुधत्त, कंदयवग्गावग्ग, खेत्तहाणि, खंधवग्गण,गच्छ, गणणकदि, गणिद, गाउअपुधत्त, गुणगार, गुणसेडिकाल, गणहाणि, घणहत्थ, छेदणा, जगपदर, जवमज्झ, जहण्णोहि,जुग जुम्म, जोयणपुधत्त ठिदिखंडयधात, णिकाचिद, णिधत्त, णोकदी, णोजीव, दव्वपमाण, दिवसपुधत्त, धुवखंध, सुण्ण, पओग परिणदखंध, संठाण, पक्ख, पदेसग्ग पमाण, पुघकोडिपुघत्त, भापमाण, भासद्वा भिण्णमुहुत्त, भंगविधि, भंगाविचय, महाखंधदव्व वग्गण, रज्जू, लोग, वग्ग, वग्गणा, वग्गमूल, फड्ढय, समयपबद्ध सागरोवमसदपुधत्त, सादद्धा, साहिय, संखेज्जगुणब्भहिय, संग्रह, सांतरणिरन्तर दव्ववग्गणा। इसीप्रकार गोम्मटसारादि ग्रन्थोें में कुछ और नवीन शब्द भी प्राप्य हैं— संखा, पत्थार, परियट्टण, णट्ट समुद्दिट्ठं भंग, अक्ख, णिक्खिविय, पिण्ड, अंतगद, आदिगद, संकम, पद, रूवपक्खेव, संगुणित्तु, सगमाण; अविणज्ज, उद्दिट्ठ,सरिस अणाईणिहण, आसव, अणंतकम्मंस, गुणक्कम, विंदंगुल, अवरं, उग्गाहण, जहाजोग्ग विच्चाल, विअप्प, रासि, कदिघ्द आउड्डरासिवार, दिण्णच्छेदेणवहिद, इट्ठच्छेद, पयदधण, ओरालिय, गुणिदकम्मंसे, संचय, गलिदवसेस, सलागा, संदिट्ठि, ठिदिरयण, दलसला, णिसेयछिंदी, सहत्थणकाल, तिरच्छिेण वट्टमाण, तियकोणसरूव, हेट्ठिमखंड, णिवग्गं।
लब्धिसार में भी कुछ भी नवीन गणितीय शब्द हैं यथा— पडलसत्ती, बंधोसरण, अणुक्कस्स पदेसबंध, अपुणरुत्ता, ठिदिसखंडं, विसोहि वडढीहिं, पडिवज्जमाणगस्स, अणुकट्ठीए, अद्धा पडिखंडना, छट्ठाणाणी, अट्ठुव्वंकादिअंतगया, असरिसखंडाणोलि, वरपंती, अहिगदिणा, पूरण, खंडुक्कीरणाकाला, गलिदवसेसे, उदयावलिबाहिर, समकरण, वज्जिय, सुज्झमाण, फालि, सत्तग्ग, बोलिय, अदि, जुदा, जेट्ठ, अग्ग, उदयाखमावलि, खिवणट्ठं, उक्कट्टणो हारो, सिंचदि, णिसेयहार, संचदिय, अप्पसत्थ, बंधुज्झिय, संजादि, संजोजण, सायरपुधत्त, णिवडण,अइत्थावण, णिप्पत्ती, थोवाणि, सीसं, संशुहदि, अंतरकड, पडि आवलि, णत्थि आगला, पडिआगाला, उवइट्ठादूण, तिधा, भजियकमा, विज्झादो, हदिकाल, गुणियकमा, णिरासाण, तियरण, पव्व दूरावकिट्ठि, उच्छिट्ठ, उदधि, णासेइ, वस्स किचूणदिवपड्ढ, कमोवट्टण, सपहियं, पुव्विल्लादो, णिसिंचिदे, गोउच्छ, तक्काले, दिस्सं उवरिमठिदि, दत्तिकमो, मूल, कदकणिज्जयोपत्ती, परावत्ती, अणुसमओवट्टणयं, पुव्वकिरिया, संकिलेस, विसेसाहिय, पदसंखा,णादिक्कदि, सेस, सगजोग्गं, एयंतबुद्धि, पडिउट्ठदे, अणुभय, पडिवादगया, उक्कीरयं, बोच्छिण्णा, तेत्तियमेत्ते, परिभोगं, अंतर—समत्ती, थीयद्धा जाव, संछुहदि, णंतगुणणं, संधी, लोह, विवरीयं, कमकरण, लक्खपुधत्तं तावदियं, चडपड, अंतरयं अणुभवण, पदेसअंगेण, गणणादिकंत सेढी,ओव्ववट्ठणि उट्ठण, आदोलं, पक्खेवकरण, वग्गण संगह विभागा, हयकण्ण, ऊ अंतरजादो, लोकपूरण,आवज्जिदकरण, अणुसमओवट्टण। इसप्रकार ईस्वी सदी के प्रारम्भ से लेकर प्राय: १००० वर्ष तक लगातार कर्मसिद्धान्त की गाथाओं पर विशाल पैमाने पर कार्य चलता रहा। उसका गणितीय रूप आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त —चक्रवर्ती के गोम्मटसार, लब्धिसार आदि ग्रन्थों की टीकाओं में निखरा है। इसी में संदृष्टियों पर विशेष जोर दिया गया है। इसके पूर्वके ग्रन्थों , यहां तक कि धवला टीका में भी गणित के समीकरणों आदि को केवल वाक्यों में ही लिखा गया है। एक साथ संदृष्टिमय प्ररूपण आश् चर्यजनक है। केवलवर्णी कृत कर्णाटकीवृत्तिमें ही यह बस आ जाना केवल २०० वर्ष का प्रयास यदि है तो अत्यन्त श्रेयस्कर है। धवला टीका की विकल्पपद्धित अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वीरसेनाचार्य द्वारा राशियों के प्रमाण का विश्लेषण खण्डित, भाजित, विरलित आदि प्रक्रियाओं से सिद्ध किया गया है। अनन्त बडे अनन्तकी सिद्धि की विधियां वीरसेनाचार्य की धवला टीका में उपलब्ध हैं। इन अनन्तात्मक राशियों के बीच लागयेरद्म ( त्दुarग्ूप्स्) विधि से सम्बन्ध स्पष्ट किये गये हैं। अगले खंड में हम देखेंगे कि किस प्रकार अर्थसंदृष्टियों का खुलकर गोम्मटसारादि की टीकाओं में उपयोग होने लगा। कुछ अर्थसंदृष्टियों का उपयोग यतिवृषभ एवं धवलाकार वीरसेनाचार्य ने भी किया है, किन्तु वह भी कहीं—कहीं। उदाहरणार्थ १६,३ ख ख ख तिलोयपण्णत्ति में उपयोग में आया है। १६ जीवराशि का प्रतीक है; ३ लोक का प्रतीक है। १६ ख पुद्गल प्रतीक तथा १६ ख ख काल समय राशि का प्रतीक है १६ ख ख ख आकाश प्रदेश राशि का प्रतीक है। धवलाकार ने + चिन्ह ऋण के लिए; ‘रि’ भी ऋण के लिए यतिवृषभाचार्य ने, तथा भी रिण के लिए तिलोययपण्णत्ति में उपयोग में आया है।
कर्मगणित के विकास में अर्थसदृष्टि
पंडित टोडरमल जी के समय कोई ऐसा शिक्षक नहीं था जो आगम में प्रयुक्त संदृष्टियों का यथोचित बोध करा सके। केशववर्णी ने भी अर्थसंदृष्टियों पर प्रकाश डालने हेतु कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार नही किया। इससे प्रतीत होता है कि या तो उनके द्वारा लिखा ऐसा कोई ग्रन्थ विलुप्त हो गया। अथवा उनके पूर्व से ही उनके काल तक इन संदृष्टियों को जानने वाले रहे होंगे अथवा इन संदृष्टियों का विशेष प्रचार रहा होगा तथा पाठशालाओं में पढ़ाने की कोई मौखिकपद्धति रही होगी। उनके पश्चात् चार वर्षों के पश्चात् पंडित टोडरमलजी हुए जिन्हें इस ओर जाने की रुचि हुई। इस मध्य कर्णाटकीवृत्ति की संस्कृत टीका अवश्य बनी, किन्तु अर्थसंदृष्टि पर कोई स्वतन्त्रग्रन्थ नहीं लिखा गया। चामुण्डराय द्वारा कोई टीका लिखे जाने की चर्चा मिलती है, किन्तु उक्त ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। इसके पूर्व का कोई ऐसा ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है जो इस तथ्य पर प्रकाश डाल सके। यह भी हो सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्रादि की टीकाओं में अर्थ संदृष्टियों का विकास हुआ हो जिसे साधारण विद्वानों की पहुंच के बाहर होने से अधिक प्रचार न हो पाया हो। यह अवश्य है कि कहीं—कहीं तिलोयपण्णत्ति एवं धवला टीका में अर्थसंदृष्टियों तथा खुले रूप में अंकसंदृष्टियों का उपयोग हुआ है।कर्णाटकवृत्ति आदि में इन दोनों का पृथक्—पृथक उपयोग हुआ है। इसी प्रकार रेखा रूप संदृष्टियों का भी उपयोग पहले से चला आया है, किन्तु इन सभी को समझाने का अथक प्रयास पंडित टोडरमल जी द्वारा हुआ है। पंडित टोडरमलजी के समक्ष गोम्मटसार की संस्कृतटीकाएं थीं तथा लब्धिसार की माधवचन्द्र त्रैविद्य देव की संस्कृत टीका (?) थी। उन्होंने उक्त सभी टीकाओं का सर्वप्रथम अध्ययन किया। इसके पश्चात् उन्होेंने यह योजना बनाई कि अर्थसंदृष्टि विधिपूर्वक पृथक् से बनाई जावे तथा शेष सामग्री गणितरहितरूप में पृथक् संकलित कर टीका निर्मित की जावे। तदनुसार उन्होंने दो अर्थसंदृष्टि अधिकार निर्मित किये जो क्रमश: गोम्मटसार और लब्धिसार में आयी गणितीय सामग्री को समाविष्ट किये हुए थे। साथ ही इनके प्रारम्भ में भूमिका थी, जिसमें समस्त प्रतीकों का विवरण, उनके प्रयोगसम्बन्धी विधि तथा उदाहरण दिये हुए थे। प्रतीकों के सम्बन्ध में एक और कठिनाई थी। एक ही प्रतीक विषयानुसार विभिन्न अर्थ के संकेतरूप में प्रयुक्त हुआ था तथा एक ही अर्थ हेतु विभिन्न प्रतीक भी प्रयुक्त हुए थे। अतएव इन सभी का विश्लेषण करते हुए पंडित टोडरमलजी ने अगली पीढ़ियोें के लिए महान् अंशदानरूप में उक्त दो अर्थसंदृष्टि अधिकार निर्मित किये। इस प्रकार जो जैन कर्मसिद्धान्त में प्रतीकबद्ध गणितका विकास हुआ उसका संक्षेप में विवरण निम्नप्रकार है— (१) शून्यका उपयोग बिन्दु अथवा लघुवृत्तरूप में हुआ है। (अ) ऋण चिन्ह के रूप में यथा कोटि ऋण दो को ० २ को अथवा को ० २ रूप में लिखा गया है। (अर्थसंदृष्टि—) (ब) एकेन्द्रियजीव, दो इन्द्रियजीव आदि को ०, ००, आदि रूप में निरूपित किया गया है। (देखो ध० पु० १०) (स) जीव की अगृहीतावस्था के लिए जबकि पुद्गल परिवर्तन काल में वह कर्मग्रहण नहीं करता है। (अर्थसंदृष्टि—१) (द) रिक्तस्थानों की आपूूत्र्ति हेतु (यथा महाबन्ध में)। अर्थसंदृष्टि में भी, से ५१२ के बीच निषेकों को प्ररूपित करने हेतू ९ इत्यादि। ० ०० ५१२ (ई) स्थानमान संंकेतना में : तिलोयपण्णती में गुणनफल के पूर्व ऽ० का अर्थ तीन शून्य बढ़ाये जाने हेतु हुआ है। (पृ० ३ भाग१………..?) (फा) अर्थसंदृष्टि में ६५००० को लिखने हेतु निम्नलिखितरूप में व्यक्ति है ६५—०/३ (क) शून्यका उपयोग स्थानमान संकेतना में कई प्रकार से हुआ है: षट्खंडागमग्रन्थ में कोडा— कोड़ा—कोडि अर्थात् (१०७)४ के बीच की संख्या का उल्लेख है जो २२/६ और २२/७ के बीच भी स्थित बतलाई गई है। (ध० पु० ३ पृ० २५३, १—२—४५) इसी प्रकार धवलाकार ने अनेक गाथाओं में विभिन्न प्रकास से द्रव्य प्रमाणानुगम में प्रचलित संख्याओं का दसार्हापद्धति के विभिन्न रूपोें में निरूपित किया है यथा— ६१, ९७, ०८, ४६, ६६, ८१, ६४, १६, २०, ००, ००, ००० संख्या को निम्नलिखितरूप में गाथा द्वारा प्रस्तुत किया है। (ध० पु० ३, पृ० २५५, १—२—४५—७१) गयणट्ठ—णय कसाया चउसट्ठि—मियंक—वसु खरा दव्वा। छायाल—वसु—णभाचड—पयत्थ चंदो रिदू कमसो।। इसीप्रकार निम्न संख्या भी दृष्टव्य है (पृ० ९८, वही १—२—१४—५१) सत्तादी अट्ठंता छण्णव मज्झा य संजदासव्वे। तिगभजिदा विगगुणिदापमत्त रासी पमत्ता दु।। इसीप्रकार तिलोयपण्णत्ती भाग—१ में अ० ४ सू० ३०८ पृ० १७८ पर (८४)३१(१०)९० संख्या अचलात्म को निरूपित करती है। इसे ग्रन्थकार ने ८४/३१/९० रूप में दर्शाया है तथा निम्नलिखित गाथा प्रस्तुत की है— एक्कत्तीसट्ठाणे चउसीहिं पुह पुह ट्ठवेदूणं। अण्णोण्णहदे लद्धं अचलप्पं हो णउदि सुण्संगं।। इस संख्याके आगे इसी क्रमसे उत्कृष्ट संख्यात तक की संख्याओं को उत्पन्न करने हेतु ग्रन्थकार ने संकेत किया है। (२) घटाने हेतु स्थानमानका प्रयोग विलक्षण है। एक गुणनफल निम्न रूप में दिया गया है—ल²५²४²३ जहां ल लक्ष संख्या की प्ररूपक है।एक लाख इसमें घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। इसी प्रकार गुणनफल में से ५ लाख कम करने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। गुणनफल में से २० लाख घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। गुणनफल में से ३ लाख घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। गुणनफल में से १२ लाख घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। गुणनफल में से १५ लाख घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। गुणनफल में से ३० लाख घटाने हेतु ल।१ /५/४/३ प्ररूपण है। इसी प्रकार के प्रयोगों में एक उदाहरण निम्नप्रकार भी है।— २१२२२२१२२ वास्तव श्रे३ a ड२ + आ २२ ढ २२ – १) -१ल़ (आ २२२) (आ २२२) (२) (२) जहाँ श्रे जगश्रेणी है, २ असंख्येय है आ आवलि है तथा २ संख्येय है। क्षैतिज रेखा (—) को निम्नलिखित अर्थों मेें प्रतीकरूप माना गया है— (क) जगश्रेणि के रूप में, अथवा ७ राजू दूरी के रूप में (ति० प० १, गा० १०९) (ख) धन चिन्ह के रूप में, जैन १—व २ का अर्थ छे२छे२ (अं) ±१) है। जहां ‘अं’ अंगुल है और छे२अिद्र्धच्छेद तथा छे२छे२ वर्गशलाका फलन है। अर्थात् अंगुलके प्रदेशरूप राशि की वर्गशलाकाएं निकालने के प्रतीकरूप होकर उसमें एक जोड़ना है। (अर्थसंदृष्टि —। पृ०६ आदि) ‘छे) का अर्थ पल्य के अद्र्धच्छेद होता है। (ग) ऋण चिन्ह के रूपमें यथा—ल—२ का अर्थ है लक्ष—२ है। (घ) किंचिदून के अर्थ में, यथा—ख का अर्थ अनन्त से किंचित् ऊन है। पुन: दो क्षैतिज रेखाओं का अर्थ जो (·) रूप में हो निम्नलिखित है— (अ) रिक्तस्थान की पूर्ति हेतु यथा ६५ · का अर्थ ६५५३६ है । ज ·का अर्थ जघन्य है। (ब) जगत्प्रतर के अर्थ में अथवा ४९ वर्ग राजू क्षेत्र के अर्थ में। क्षेत्रफल प्रदेशसंख्या को निरूपित करने में भी किया गया है। पुन: ‘२’ का उपयोग निम्न अर्थ में हुआ है। (क) जघन्य संख्येय हेतु (ख) संख्या २ के रूप में (ग) आवली प्रतीक अर्थ में (घ) सूच्यंगुल प्रतीक अर्थ में। इसी प्रकार (१) ऊध्र्व रेखा निम्न अर्थ का प्रतीक है—(अ) गुणनफल प्रतीकरूप में । जैसे १६/२ का अर्थ ३२ है। (ब) यहां १६ का अर्थ जघन्यपरीसंख्यात भी है। (स) किंचिदून के प्रतीकरूप में। यथा ख का अर्थ अनन्त से किंचिदून है। (द) योगके अर्थमें, यथा १।१/२ का अर्थ १—१/२ है। (इ) राशि योग के प्रतीकरूप में। (फ) आबाधा और अचलावलि के प्रतीकरूप में। (च) यहां १६ का प्रतीक मध्यम अनन्तानन्त अथवा जीवराशि भी है। व का उपयोग निम्नरूप में हुआ है— (अ) वर्ग करने के रूप में। यथा ज जु१ अव का अर्थ जघन्य अनन्त ऋण एक है जो उत्कृष्ट युक्तानन्त है। साथ ही यह दृष्टव्य है ज जु अ का अर्थ जघन्य युक्तानन्त है जिसका वर्ग जघन्य अनन्तानन्त अथवा ज जु अ व है। (ब) () के अर्थ में जहा का अर्थ अद्र्धच्छेद निकालने वाला फलन है तथा ‘प’ पल्य का प्रतीक है। केवल ऋण चिन्ह ही के लिए निम्नलिखित चिन्ह मिलते हैं। (अ) ‘जैसे १/२ ’ का अर्थ जघन्ययुक्त असंख्येय ऋण एक है जो उत्कृष्ट परीतासंख्येय है। (ब) —, यथा ल—३ का अर्थ लक्ष ऋण ३ है। (स) ०, यथा ल ० का अर्थ लक्ष ऋण ५ है।दूसरे रूप में का अर्थ घनलोक ऋण है।पुन: ल का अर्थ ऋण आठ है। (द) अथवा) ल९) का अर्थ लक्ष ऋण ९ है। (इ) वीरसेनाचार्य द्वारा काक पद ± भी ऋण के लिए प्रयुक्त हुआ है। (ध० पु० १० पृ. १५१,४, २, ४, ३२) उन्होंने स्पष्टरूप में भी लिखा है—बख्शाली हस्तलिपि में भी यही चिन्ह है। ‘‘………. सोजझमाणादो एदिस्से रिण सण्णा’’ (फ) स्स् उदाहरणार्थ को स्स् ३ का अर्थ करोड़ ऋण ३ है। (क) रि अथवा रिण प्रतीक। तियोलपण्णत्ति में इन दोनों का उपयोग हुआ है। यथा—१४—३। यो. १०००००।३ में रि का उपयोग घटाने के लिए हुआ है। ब्राह्मी लिपी के विकास से भी पता लगता है कि रि का उपयोग±प्रतीक में ऋण के लिए हुआ होगा। उपरोक्त सामग्री अर्थसंदृष्टि रूप में अनेक दिगम्बर जैन ग्रन्थों में विकास को प्राप्त हुई है। आगे अर्थसंदृष्टि में कुछ और कर्म गणित सम्बन्धी प्रतीक मिलते हैंं समयप्रबद्ध के लिए ‘स’ है और गुणसंक्रम भागहार ‘गु’ है। अपकर्षणभागहार के लिए ‘औ’ है। किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिको १२लिखा गया है जहां ८ गुणहानि का प्रतीक है। अनुभागकाण्ड में जघन्यवर्गणा को ‘व’ स्पर्धशलाका को ९, नानागुणहानि को ‘ना’ लिया गया है। अन्तर्मुहूर्त का संख्यातवां भाग गुणश्रेणी शीर्ष में लिया गया है। सर्व कर्म परमाणु स व १२— लिए गये हैं।यह एक जीव की अपेक्षा से है। इसमें ७ का भाग देने पर मोह द्रव्य स व १२—होता है। मोहसर्वघाती द्रव्य स व १२—है। दर्शनामोह द्रव्य—स व १२—मिथ्यात्त्व द्रव्य स व १२—गु है। इत्यादि ७।ख ७।ख।१७ ७ ख।१७।गु प्रकरणानुसार अर्थसंदृष्टि का विभन्नरूपों में निरूपण हुआ है। लब्धिसार की टीका में पंडित टोडरमलजी द्वारा रेखागणितीय संदृष्टियों स्पष्टीकरण करने में बहुत कठिन परिश्रम किया गया होगा फिर भी अनेक प्रकरणों में प्रयुक्त अर्थ संदृष्टियां समझ में नहीं आ सकी हैं। यहां ऊध्र्वरूप रचनाएं प्रदेशसंख्या का निरूपण करती हैं तथा क्षैतिजरूप रचनाएं अनुभागसंख्या का निरूपण करती हैं। दोनों में ही घटता हुआ रूप क्रमश:और रूप में लिया गया है।समरूप रचना अवस्थित स्थितिका द्योतक है जैसे- प्रतीक समपट्टिका कहलाती है। ऐसे प्रतीकों को मिलाकर विभिन्न प्रकार की निषेक तथा अनुभाग की दशाएं निरूपित की जाती हैं। यथा निषेक स्थिति प्रतीक रूपमें ये हैं— ४ —अवशिष्ट आवली — उपरितन स्थिति — उदयावली ४ — अचलावली ४ कर्मअनुभाग वर्गणायें वर्गणायें समान वर्ग रूप क्रम से हीन वर्ग रूप कर्मनिषेक सूत्र— कर्मसम्बन्धी घटनाओं का निरूपण जैनाचार्योंं की विश्व के लिए एक अभूतपूर्व प्रयोगात्मक सिद्धि और अनुदान रही होगी। अभी भी प्रयोग द्वारा इनकी सिद्धि आवश्यक है और नाभिकीय भौतिक शास्त्र द्वारा इनका अध्ययन अब अत्यन्त सरल होगा। सर्वप्रथम तो विभिन्न कर्मसमूहों में समस्त कर्मराशि का विभाजन हुआ। कर्मराशि भी परमाणुओं के चार अवयवों से प्रदर्शित हुई। किसी समयप्रबद्ध अर्थात् एक समय में बंधने वाली कर्मपरमाणु राशि जो योग और कषाय द्वारा प्रत्येक परमाणु में अनुभाग स्थिति लिए हुए है तथा प्रदेशसंख्या और प्रकृति में निबद्ध है, क्रमश: वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक और गुण हानि द्वारा निरूपित होती है। समयप्रबद्ध को स्थिति रचना द्वारा विभक्त किया जाता है। स्थिति रचना में निषेक बनाए जाते हैं। प्रत्येक निषेक में विशिष्ट अनुभाग अथवा वर्गवाले कर्मपरमाणु होते हैं जिनकी संख्या भी विशिष्ट होती है। साथ ही निषेकमें विशिष्ट प्रकृति वाले कर्मपरमाणु होते हैं। निषेक के बंधे हुए रहने की किसी विशेष अवस्था में स्थिति समय द्वारा दी गई होती है। बंधने पर उसके निर्जरित होने की काल स्थिति तथा आवाधाकाल स्थिति भी होती है। इसप्रकार प्रदेश, प्रकृति, अनुभाग, और स्थितिके प्रमाणों में निबद्ध निषेक के कर्म परमाणुओं में अनेक प्रयोगों द्वारा परिवर्तन होता रहता है। इन्हीं परिवर्तनों में अध्ययन कर्मसम्बन्धी गणितका विषय बनता है। यह गणित विशेषकर लब्धिसार की टीकाओं में उपलब्ध है। कुछ प्राथमिक सूत्रोंका उपयोग हुआ है जो निम्नप्रकार हैं— श्रेणियोग या गच्छ २ (आदि) ± (गच्छ—१) चय) ==सर्वधन== इत्यादि, जहां गच्छ पदों की संख्या है, आदि प्रथमपद है तथा चय पदों के बीच का अन्तर है। कुछ सूत्र कूटस्थिति पर आधारित बनाये गये। गुणितरूप से प्राप्त चयसम्बन्धी श्रेढि योग का सूत्र भी लब्ध है, यथा— ढ (चय)न —१ ढ चय—१ ऱ् आदि श्रेणि योग पदों तक (तिलोयपण्णत्ति भाग १, अ ०३ गा. ३२ के आगे) इसप्रकार यह आश्चर्य की वस्तु है कि प्रकृतिमें इन समान्तर तथा गुणोत्तर श्रेढियों का भावों की गणना में तथा भावों से फलित होने वाले कर्मपरमाणुओं की संरचना में संवाद स्थापित हुआ है। तिलोयपण्णत्ती में भी लोक संरचना में इन श्रेढियों के सूत्रों का स्वरूप एक सा ही प्रतीत होता है। इसी प्रकार द्वीप—समुद्रों के व्यासों अथवा आयामों का द्विगुणित—द्विगुणित होते जाना तथा उनके प्रमाणों के आधार से जीवों के भावों का उनकी कर्म आदि स्थिति का निरूपण एक शृङ्खलाबद्ध निरूपण की कल्पना का या तो विकास है अथवा प्रकृति के नियमों के रहस्य का उद्घाटन रूप प्रतीत होता है। नाभिकीय भौतिकी की संरचनाएं भी सम्मितीयता लिये हुए दो पर आधारित शृङ्खलाबद्ध प्रक्रियाओंका उद्घाटन करती हैं। जैनाचार्यों ने भी आधुनिक काम्प्यूटर संयंत्रों की भाँति २ को आधारभूत बनाकर अनेक स्पर्श से होनेवाली बंध, निर्जरा रूप प्रक्रियाओं का सिद्धान्त बनाया। उपरोक्त लेख हजारों पृष्ठोेंमें पाये जाने वाले कर्म सिद्वान्तसार की एक बूंद मात्र है। इस प्रकार कर्मसिद्धान्त के अध्ययन की गणित साधना द्वारा बड़ी आवश्यकता है। इस हेतु अब भारतीयज्ञान पीठ, दिल्ली द्वारा गोम्मटसारादि की कर्णाटकवृत्ति प्रकाशित हो चुकी है जिनके लिए स्व० डॉ० उपाध्ये तथा पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री अभिनन्दीय हैं। गांधी देवकरण ग्रन्थमाला से प्रकाशित टीकाएं मन्दिरों में उपलब्ध हैं जिसमें पंडित टोडरमलजी कृत अर्थसंदृष्टि अधिकार अत्यन्त उपयोगी हैं। वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, गणहानि आदि के बीच जो सम्बन्ध स्थापित किये गये हैं तथा निषेकस्थिति रचना प्रक्रिया बतलाई गई है उससे आधुनिक तन्त्र सिद्धान्त (एब्ेूास् ूपदrब्) की तुलना की जा सकती है तथा गहरे अध्ययन किये जा सकते हैं।
टिप्पणी
(१) इस लेख के लेखक को यदि क्षपणासार की टीका माधवचन्द्र त्रैवद्यिदेव कृत मिली हो तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु जयपुर के मन्दिर में सरस्वती भण्डार में माधवचन्द्र त्रैविद्य देवकृत संस्कृत क्षपणासार अवश्य है जो कि प्रकाशित होने योग्य है।
(२)देखिए, लक्ष्मीचन्द्र जैन द्वारा सम्पादित गणितसार संग्रह (महावीरचार्यकृत), शोलापुर १९६३. ‘‘चारित्र मनुष्य की स्वसम्पत्ति है। चारित्रवान् कहीं भी जा सकता है।इससे विपरीत चारित्र का उल्लंघन महान अपराध है, क्योंकि चारित्रनैतिक पुस्तक का प्रथमवर्ण और प्रथम पद है।’’