जैनधर्म सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत है और यह प्ररूपण द्वादशांगरूप में प्ररूपित किया गया है। इस प्ररूपण में विश्व का कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। इसमें सम्पूर्ण विषयों का सर्वांगीण निरूपण है। सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट के दो भेदों में विभजित किया गया है। सम्पूर्ण विश्व की रचना और उसके क्षेत्र व स्थानों में होने वाली क्रम प्रक्रिया का विशद् वर्णन है। अनन्त जीवों के विविध योनिस्थान, स्वरूप, रंगों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन जहाँ है, वहां इनके प्राकृतिक परिवर्तन तथा हलन—चलन रूप क्रिया कलापों का भी विशद विवेचन है। प्रत्येक वस्तु का गुण, अवगुण, परिपाक, विपाक और उससे होने वाले प्रभाव को भी खुलासा किया गया है। उसी के आधार पर जैनाचार्यों ने दर्शन, कला, काव्य, ज्योतिष व वैद्यक, व्याकरणादि सभी विषयों पर अपने महान ज्ञानानुभव के आधार पर अनेक ग्रंथों की रचना की है। ११ अंग और १४ पूर्वों के अन्तर्गत सभी विषय आ जाते हैं। दुर्भाग्य से कहिये या हमारे प्रमाद के कारण इन अंग और पूर्वों के ज्ञान के आधार पर परम्परागत आचार्यों द्वारा रचित नानाविध विषयों पर ग्रंथ थे उनमें से अनेक शास्त्र या तो दीमकों ने भक्षण कर लिये हैं या धर्मान्ध द्वेषियों ने उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर अग्नि में समर्पित कर दिये। इसी कारण वे महान ग्रंथ आज हमें दृष्टिगोचर नहीं हैं, किन्तु जो कुछ हमारे समक्ष हैं उनके वाचन से हमें उन आचार्यों की सर्वतोमुखी प्रतिभा का और उनके अगाध ज्ञान का परिचय अवश्य होता है। जैनाचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथों को छोड़कर वैद्यक ग्रंथ आज हमें उपलब्ध नहीं हैं तथापि उपलब्ध आयुर्वेदीय ग्रंथों का अवलोकन करते हैं तो आयुर्वेद शब्द की व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ इस प्रकार है—‘‘आयुरस्मिन् विद्यते अनने वा आयु: विदंति इत्यायुर्वेद:’’ इससे सिद्ध होता है कि आयुर्वेद आयु—जीवन का शास्त्र है। अत: आयु का संरक्षण जिससे हो वही आयुर्वेद है। वर्तमान आयु के अन्त तक पूर्ण स्वस्थता ही आरोग्य है। स्वस्थता के विरोधी रोग हैं। व्याधि रोग का पर्यायवाची शब्द है।
१. वातज, २. पित्तज, ३. कफज, ४. संसर्गज।
वातोत्पादक पदार्थों का सेवन वातज व्याधियों का जनक है, पित्तज पदार्थों के सेवन से पित्तप्रधान व्याधियाँ होती हैं तथा कफोत्पादक वस्तुओं का सेवन कफज व्याधियों को उत्पन्न करता है। एक—दूसरे के संसर्ग से होने वाली व्याधियाँ संसर्गज कहलाती हैं। संसर्गज व्याधियों में शीतला, मोतीज्वर, राजयक्ष्मा (टी. बी.) उपदंश आदि को लिया जा सकता है। प्रकृति ने अनेक भोज्य पदार्थ उत्पन्न किये हैं जैसे—अन्न, विविध फल, विविध शाक, पत्र—पुष्पादि ये सब अपने—अपने समय पर सर्वत्र उत्पन्न होते रहते हैं। ये नानाविध खाद्य पदार्थ विभिन्न प्रकार की व्याधियों से मुक्त कराने की शक्ति से युक्त हैं इनमें अपूर्व शक्ति है, जिनके सेवन से ही विविध रोग शान्त हो सकते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी पदार्थ हैं जिनके सेवन से नानाविध रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिए विवेकियों ने—मनीषियों ने विवेक से काम लेने को कहा। जैसे—बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और पाकर ये पंच उदुम्बर फल कहलाते हैं। इनमें अनेक जीव हैं जो चलते—फिरते दिखाई देते हैं तो फिर इनके खाने से शरीर वैâसे स्वस्थ रह सकता है। कुछ शाक आदि ऐसे हैं जिनमें चलते फिरते जीव तो नहीं दिखाई देते हैं, किन्तु अनेक निगोदिया जीवों का पिण्ड स्वरूप ही है, जैसे आलू, शकरकन्दी आदि जमीकन्द। उनके भक्षण करने से भी बुद्धि में प्रमाद, भारीपन और मन्दता आ जाती है साथ विष्टम्भ तो होता ही है।
ये बुद्धि को विपरीत व कुण्ठित करने वाले हैं तथा क्रूरता उत्पन्न करने वाले हैं। ये पदार्थ मन व मस्तिष्क में क्षोभ उत्पन्न करते हैं, हेयोपादेय के बोध से रहित करते हैं। ये पदार्थ स्वयं ही अभक्ष्य हैं इनको भक्षण करने वाला अन्य भी अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने में संकोच नहीं करता है। जैन—चिकित्सा पद्धति में भी इनका प्रयोग निषिद्ध माना गया है और कल्याणकारक ग्रंथ में चिकित्सा करने में भी इनको ग्राह्य नहीं माना है। अत: यह तो निर्बाध सिद्ध है कि आयुर्वेद और जैनाचार का बड़ा निकटतम सम्बन्ध रहा है। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जैनधर्म के अनुयायियों को जिन प्रारम्भिक नियमों का पालन करने को कहा है उनके अतिरिक्त सद्गृहस्थ और साधु पुरुषों की जो भी दिनचर्या शास्त्रों में कही गई जिनमें आहारचर्या की प्रमुखता है, का बड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखा गया है। जैन धर्मानुसार विहित नियमोपनियम धार्मिकता के साथ—साथ स्वास्थ्य रक्षा में ही अत्यन्त सहायक साधन हैं।
जैनसाधु २४ घण्टे में सूर्योदय के कम से कम ७२ मिनट पश्चात् और सूर्यास्त से कम से कम ७२ मिनट पूर्व दिन में एक बार आहार ग्रहण करते हैं। दूसरी बार पानी भी नहीं लेते। अत: आंतों को भोजन पचाने के लिए समय अधिक मिलता है। इसके अतिरिक्त गरिष्ट, अमर्यादित व कंद मूलादि, प्रमाद बढ़ाने वाले पदार्थ, अनिष्टकारक व अनुपसेव्य पदार्थों का वे प्रयोग नहीं करते। सात्त्विक भोजन करते हैं और यथावसर अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग आदि तपों को भी करते हैं, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने में भी ब्ाहुत सहयोग मिलता है और अिंहसा प्रधान धर्म का भी परिपालन होता है। समय—समय पर विभिन्न रसों का परित्याग वे करते रहते हैं जिससे जब जैसे रस की आवश्यकता शरीर को होती है, वह उसे मिलता है और जिसकी आवश्यकता नहीं होती उसका सेवन भी बच जाता है, क्योंकि बदलते हुए आहार में वे प्राय: रसों का परिवर्तन करते रहते हैं।
साधुचर्या में प्रासुक (गर्म) पानी के सेवन की ही प्रमुखता है अत: स्वास्थ्य की रक्षा में गर्म पानी का भी योगदान मिलता रहता है। आयुर्वेद में भी प्राय: सामान्य रोगों की चिकित्सा तो आहार (खान—पान) शुद्धि से ही हो जाया करती है।
पथ्य रूप आहार—विहार ही अनेक रोगों का चिकित्सक है। कहा भी है—
पथ्ये सति गदार्त्तस्य किमौषधनिषेवणै:।
अपथ्ये सति गदार्त्तस्य किमौषधनिषेवणै:।।
अर्थात् पथ्य पूर्वक रहा जावे तो औषध सेवन की क्या आवश्यकता है और अपथ्यपूर्वक रहने वालों को औषधि का सेवन क्या कार्यकारी होगा ? अपथ्य सेवन से रोगोत्पत्ति होती है। इस प्रकार जैनाचार आयुर्वेद ही है। यदि ऐसा भी कह दिया जावे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आयुर्वेद भी उपवास, भूख से कम खाने, खट्टे रसों के सेव के त्याग पर बल देता है। आयुर्वेद में चलित रसीय पदार्थों का सेवन भी वर्जित है, व्याधिकारक पदार्थों को भी नहीं खाने का आग्रह किया गया है। बिना छना पानी भी वर्जित है। उष्ण किये गये पानी का सेवन करना स्थान—स्थान पर कहा गया है।
संसार में इस समय अनेक प्रकार की भयंकर बीमारियाँ चल रही हैं उनसे बचने के लिए ही सही हमें जैनाचार को अपने जीवन में स्थान देना चाहिए। उसके अनुसार हमारे खान—पान, रहन—सहन का ढंग संयमित होता है और हम भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखते हैं तो स्वस्थ रह सकते हैं।
आयुर्वेद या जीवन विज्ञान विश्व के उन महत्त्वपूर्ण विषयों में से एक है जिसके सिद्धान्तों, उपयोगिता व अनिवार्यता से विश्व के सभी लोग सहमत हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा अनुसंधान के अनुरूप इस विषय की विवेचन प्रणाली में यथा समय परिवर्तन होते रहना स्वाभाविक है। आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम चिकित्सा विज्ञान हैं (जिसका उद्गम भारत वर्ष में हुआ है। शेष प्रचलित चिकित्सा शास्त्र (एलोपेथी, यूनानी, होमियोपैथी इत्यादि) इसके अंग कहे जा सकते हैं। इस तथ्य को विश्व के सभी ऐतिहासिकों ने स्वीकार किया है। वर्तमान युग में कुछ नवीन भौतिक व वैज्ञानिक तथ्यों का सामने आना व उसके प्रकाश में आयुर्विज्ञान में भी नवीनता का आभास अस्वाभाविक नहीं, किन्तु ये सब तथ्य उसी परिधि के अन्दर परिलक्षित होते हैं जिसकी नीव दिव्य ज्ञानधारी विवेचकों ने डाली थी।
आयुर्वेद भारतीय आगम का एक मुख्य अंग है। जिसका मूल स्रोत जैनागम के अनुसार चौदह पूर्वों में से ‘प्राणिवाद’ नामक पूर्व है। जो त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ की वाणी है। इसी पक्ष को अन्य भारतीय आगमों में आयुर्वेद को अथर्ववेद के उपांगरूप में स्वीकार किया है। वहां पर वेदों को अपौरुषेय माना गया है। इन दोनों मान्यताओं का उद्देश्य समान है। वह है इसकी प्रामाणिकता। आप्त वाक्यों को सभी जगह सदेहातीत माना है। आप्तोपदेश का अंश ही आयुर्वेद है। आयुर्वेद एक शाश्वत जीवन शास्त्र है। भले ही इसके उद्गम का इतिहास ४—५ हजार वर्ष से अधिक पुराने उपलब्ध साहित्य के आधार पर न मिलता हो, किन्तु इस ऐतिहासिक धारणा का खण्डन आयुर्वेद शब्द की निरुक्ति एवं अर्थ से ही हो जाता है।
अर्थात् आयु—जीवन या जिन्दगी का जो वेद या शास्त्र है उसे आयुर्वेद कहते हैं। भारतीय शब्द शास्त्रज्ञों ने अनेक निरूक्त्यर्थों द्वारा इसी तथ्य को प्रमाणित किया है। आयु और अनेकार्थक विद्ल धातु से आयुर्वेद शब्द बना है। आयुर्वेद शास्त्र की प्राचीनतम आर्य संहिता सुश्रुत में आयुर्वेद शब्द की कितनी व्यापक विशद निरूक्ति की है सो माननीय है। तथाही—
(१) आयुरस्मिन् विद्यते, अनेनवा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेद:।
(२) आयु: शरीरेन्द्रिय सत्त्वात्मसंयोग :, तदस्मिन्नायुर्वेदे विद्यते अस्तीत्यायुर्वेद:।
(३) आयुर्विद्यते ज्ञायते अनेनेत्यायुर्वेद:।
(४) आयुर्विद्यते, विचार्यते अनेन वेत्यायुर्वेद:।
(५) आयुरनेन विन्दति प्राप्तोतीत्यायुर्वेद:।
अर्थात् इसमें आयु रहती है अथवा इसके द्वारा आयु जानी जाती है अथवा इसके द्वारा आयु के विषय में विचार ऊहापोह किया जाता है अथवा इसके द्वारा आयु को प्राप्त किया जाता है। इसलिये इसे आयुर्वेद कहते हैं। आयु का अर्थ होता है शरीर इन्द्रियाँ मन और आत्मा इनका संयोग। अर्थात् शरीर इन्द्रिय आत्मा और मन का जब तक सम्बन्ध रहता है उसे आयु कहते हैं। इस आयु का सर्वतोमुखी विवेचन जिस शास्त्र में है, वह आयुर्वेद है। आयुर्वेद की दूसरी और प्राचीनतम संहिता चरक में भी आयु शब्द का और भी व्यापक विवेचन किया है। तथाहि—
हिताहितं सुखं दु:खमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेद: स उच्यते।। च. सू. अ १
जीव का हित, अहित, सुख और दुख इसका नाम आयु है। इस आयु के लिये पथ्य (हितकर) अपथ्य (अहितकर) और आयु के परिमाण (स्थिति काल) का विवेचन जिस शास्त्र में है उसे आयुर्वेद कहते हैं। अन्यच्च—
शरीरेन्द्रिय सत्त्वात्म संयोगो धारिजीवितम्।
नित्यगश्चान बन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते।। च. सू. अ. १
शरीर, इन्द्रियाँ, मन और आत्मा इनके संयोग का नाम आयु है। नित्यग, अनुबंध, ये आयु के पर्यायवाची शब्द हैं। इसका सीधा अर्थ हुआ कि जबसे शरीरादि का सम्बन्ध है और जब तक रहेगा तब तक के अपरिमेय काल का नाम आयु है। इस असीम आयु के हिताहित का विशद विश्लेषण करने वाला शास्त्र ही आयुर्वेद है।
वर्तमान आयुर्वेद का आधार चरक संहिता के तात्त्विक विश्लेषण से वैशेषिक दर्शन, और सुश्रुत संहिता की विवेचन शैली व दार्शनिक सिद्धान्तों के अनुरूप सांख्य दर्शन हैं ये दोनों दर्शन आत्मा या जीव की अनादिता व नित्यत्व को स्वीकार करते हैं। जैनदर्शन ने जीव का यह स्वरूप सापेक्ष दृष्टिकोण से मान्य किया है। इस प्रकार दार्शनिक दृष्टिकोण से जीव अनादि व अनन्त है। इसलिये उसका प्रतिपादक साहित्य व उसका मौलिक अस्तित्व भी अनादि है। इसके समर्थक प्रमाणों, उद्धरणों से आयुर्वेदागम भरा पड़ा है। आयुर्वेद की उक्त परिभाषा के अन्तर्गत अनादि—अनिधन जीव के जन्म से लेकर तद्भव मरण पर्यन्त ही नहीं, अपितु असंख्य भव भवान्तरों तक उसके हिताहित के विवेचन के उत्तरदायित्व का भार और अंतगोगत्वा मुक्ति तक पहुँचा देने का उत्तरदायित्व भी आयुर्वेद का है। इसलिये अन्य शास्त्रों की तुलना में इसका महत्त्व कम नहीं है।
जैनागम में आयुर्वेद साहित्य इस समय यद्यपि प्रचुर रूप में उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु प्राचीन काल में अन्य साहित्य की भाँति इस विषय पर भी जैनाचार्यों ने पर्याप्त लिखा है। श्री उग्रादित्याचार्य (लगभग ११ वीं शताब्दी) कृत और पं. श्री वर्द्धमान पार्श्वनाथजी शास्त्री द्वारा संपादित ‘कल्याणकारक’ नामक ग्रंथ ही एक मात्र जैनायुर्वेद का प्रतीक है, किन्तु इसके अलावा भी विशाल साहित्य जैनायुर्वेद का रहा है यह निर्विवाद है। जैन सिद्धान्त के सुप्रसिद्ध आचार्य पूज्यपाद ने भी आयुर्वेद पर कई ग्रंथ लिखे हैं। पूज्यपाद आचार्य के अनेक योग तो अपने मूल रूप में अजैनाचार्यों द्वारा निर्मित आयुर्वेदिक ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसे योगों के अन्त में पूज्यपाद स्वामी का नाम अंकित रहता है। श्वेताम्बर जैनाचार्यों द्वारा निर्मित आयुर्वेदिक साहित्य का पर्याप्त उल्लेख भी मिलता है। जैनाचार्यो के आयुर्वेदिक ग्रंथों में जैन सिद्धान्तों की छाप स्पष्टतया रहती है। जैनाचार का प्राण अिंहसा सिद्धान्त का इसमें पूर्णतया संरक्षण किया है।
आयुर्वेद का उद्देश्य व्याधिग्रस्त लोगों की व्याधि दूर करना और स्वस्थ पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना है तथाहि—‘‘इह खल्वायुर्वेद प्रयोजनम् व्याध्युपस्टष्टानां व्याधि परिमोक्ष:, स्वस्थस्य रक्षणं च सुश्रुत’’ अर्थात् रोगग्रस्त को रोग से मुक्त करना और स्वस्थ जीव की रक्षा करना आयुर्वेद का उद्देश्य है। यहां पर व्याधि शब्द दूषित हुए वातादि दोष जन्य ज्वरादि शारीरिक रोगों, और संसार परम्परा के जनक रागद्वेष क्रोधादि मानसिक विकारों का बोधक है। इन दोनों प्रकार के रोगों को दूर करना न केवल भौतिक खान—पान और प्रवृत्ति निवृत्ति पर निर्भर है, अपितु वैचारिक शुभ शुद्ध समीचीन प्रवृत्ति की भी अपेक्षा रखता है। इस दिशा में जैनाचार को महत्त्व देना अनिवार्य है। आचार शब्द का व्यापक अर्थ इस क्षेत्र में आचार्यों ने स्वीकार किया है। ‘‘आ समन्तात् चरणमाचार:’’ अर्थात् व्यक्ति का जो अन्तरंग और बहिरंग समीचीन क्रिया कलाप होता है उसे आचार कहा है। व्रत, नियम, उपवास सामायिक, संध्यावंदन आदि सभी धार्मिक नियमों व क्रियाओं का समावेश इसमें हो जाता है। यह सबका सब आचार—विचार आयुर्वेद के सदवृत्त (सदाचार) में भी है। यही शुभ प्रवृत्ति उत्कर्ष करती हुई जब अभ्यासवश निवृत्ति का रूप धारण कर लेती है और इसके मूल नायक जीव की अपने गन्तव्य चरम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करा देती है तभी यह आचार अपने सही रूप में चरितार्थ होता है। आयुर्वेद भी इसी लक्ष्य (लौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय) की प्राप्ति में फलितार्थ होता है। अपने कथन के प्रमाण में आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध अन्यतम आचार्य, वाग्भट संहिता के लेखक वाग्भट का निम्न श्लोक ही पर्याप्त होगा।
समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रिय मन: स्वस्थ इत्यभिधीयते।। (वाग्भट सू.)
जिस व्यक्ति के वात—पित्त—कफ दोष समान है, रस रक्तादि धातुओं का निर्माण व मल मूत्र का विसर्जन स्वाभाविक रूप में होता है, तथा मन इन्द्रियाँ और आत्मा प्रसन्न है वह स्वस्थ है। यहाँ संसारावस्था में मन और आत्मा की प्रसन्नता न केवल इच्छानुरूप आहार पर निर्भर है, अपितु आकुलता के उत्पादक रागद्वेषादि दोषों की कमी व अभाव की अपेक्षा रखती है। फिर आत्मा की आत्यन्तिक प्रसन्नता तो और उसके नायक जीव का नाम स्वस्थ है। ‘‘स्वे आत्मनि तिष्ठतीति स्वस्थ:।’’ स्पष्ट है कि जैनाचार का आयुर्वेद से अंगांगिभाव सम्बन्ध है। इसका समर्थन आयुर्वेद के प्रसिद्ध जैनेतर ग्रंथ सुश्रुत में भी मिलता है। यथा—
तद् दुख संयोगो व्याध्य उच्यन्ते। ते चतुर्विधा—आगन्तव:, शारीरा: मानसा:, स्वाभाविकाश्चेति। तेषामागन्तवोभि—घातनिमित्ता। शारीरा स्त्वन्तपान मूला वातपित्तकफशोणितसन्निपात वैषम्यनिमित्ता। मानसास्तु क्रोधशोकभयहर्षविषादेर्ष्याभ्यसूयादैन्यमात्सर्यकामलोभप्रभृतय: इच्छाद्वेष भेदैर्भवन्ति। स्वाभाविकास्तु क्षुत्पिपासाजरामृत्युनिद्रा प्रभुतय:।।
(१) आगंतुक (अभिघात चोट, अभिषंग अभिचार से पैदा होने वाली)
(२) शारीरिक—ज्वर रक्तपित्त आदि
(३) मानसिक क्रोध, लोभ, हर्ष ईर्ष्या आदि।
(४) स्वाभाविक—भूख, प्यास, बुढ़ापा, नींद, मृत्यु आदि इन्हें दूर करना आयुर्वेद का लक्ष्य है। यही उद्देश्य जैनाचार का भी है।
अत: यह स्पष्ट है कि जैनाचार बिना आयुर्वेद अधुरा है। जहाँ तक आहार व औषध के रूप में मद्य मांस, मधु, के सेवन का प्रतिपादन और तन्निमित्त मात्र िंहसा के समर्थन का प्रश्न है, वह आयुर्वेद के प्रणेता आचार्यों के निजी दर्शन व संप्रदाय का है। जिससे बचा नहीं जा सकता। दार्शनिक क्षेत्र के विवाद की तरह आयुर्वेदिक क्षेत्र में इतना मतवैषम्य आश्चर्यजनक और अस्वाभाविक नहीं। आयुर्वेद और जैनाचार की प्रवृत्ति व उद्देश्य समान हैं। इसमें दो मत नहीं हो सकते। जैनायुर्वेदिक ग्रंथ ‘कल्याण कारक’ में भी स्वास्थ्य का विश्लेषण इसी प्रकार किया है। तथाहि—
अथेह भव्यस्य नरस्य साम्प्रतं, द्विधैव तत्स्वास्थ्य मुदाहृतं जिनै:।
प्रधानमाद्यं परमार्थमित्यतो, द्वितीय मन्यद् व्यवहार सम्भवम्।।
अर्थात् परमार्थ स्वास्थ्य (आध्यात्मिक स्वास्थ्य) और व्यवहार स्वास्थ्य (शारीरिक स्वास्थ्य) के भेद से स्वास्थ्य दो प्रकार का जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इन दोनों प्रकार के स्वास्थ्यों की सिद्धि सम्यगाचार विचार व व्यवहार से ही हो सकती है। यह सर्व सम्मत राय है।
उपलब्ध आयुर्वेद संहिताओं के स्वस्थ वृत्त या स्वास्थ्य के नियमों का परिशीलन या पठन करते समय इसमें व धर्म के अंगभूत आचारशास्त्र के नियमोपनियमों में भेद कर सकना मुश्किल है। जैन गृहस्थाचार, जिसका मूल सप्तव्यसन का त्याग और श्रावक के १२ व्रत (पंचाणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और ३ गुणव्रत) हैं, इनका इसी नाम से उल्लेख यद्यपि स्वास्थ्य संरक्षक या स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेदिक आचार में नहीं है, किन्तु वे वही हैं, केवल नाम मात्र का अन्तर है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता। जैनाचार में जिस प्रकार ऐहिलौकिक सुख सामग्री व अभ्युदय प्राप्त करने का, उनके भोग करने का सीमित विधान है और आध्यात्मिक आत्यान्तिक सुख (मोक्ष) को मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य माना है बिल्कुल यही स्थिति आयुर्वेदाचार में भी है। उदाहरण के तौर पर सुप्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रंथ ‘वाग्भट’ और ‘चरक संहिता’ के कुछ उद्धरण यहां दिये जाते हैं।
सुखार्था: सर्वभूतानां मता: सर्वां प्रवृत्तय:।
सुखं च न बिना धर्मात्तस्माद्धर्म वरोभवेत्।।
हिंसास्तेयान्यथा कामं मैथुन्यं परूषानृते।
संभिन्नालाप व्यापादमभिध्यादृग्विपर्ययम्।।
पापं कर्मेतिदशधा कायवाङ्मानसैस्त्यजेत्।
अवृत्ति व्याधिशोकार्तमनुवर्तेत शक्तित:।।
आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकाम्।
संपद्धिपत्स्वेकमना हेतावोर्ष्येत्फलेन तु।।
कालेहितं मितं ब्रूयादविस्म्वादिमपेशलम्।
अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम्।।
आर्द्रसंतानता त्याग: कायवाक्चेतसां दम:।
स्वार्थबुद्धि परार्थेषु पर्याप्तमिति सद्वृतम्।।
नक्तं दिनानि मे यान्ति कथं भूतस्य सम्प्रति।
दु:खभाग् न भवत्येवं नित्यं सन्निहित स्मृति:।।
इत्याचार: समासेन यं प्राप्तोति समाचरन्।
आयुरारोग्यमैश्वर्य यशोलोकांश्च शाश्वतान्।।
(वाग्भट सूत्रस्थान)
प्राचीनतम चरक संहिता का यही प्रकरण पढ़ते समय यही कल्पना होती है कि यह सद्वृत्त किसी जैनाचार ग्रंथ का है। गृहस्थ के १२ व्रतों का मूलरूप एवं उनके अतिचार का प्राय: समस्त वर्णन इसमें है। इसके अलावा और जैनाचार क्या है ? रही मोक्ष की बात सो आयुर्वेद शास्त्र में भी अन्ततोगत्वा लक्ष्य यही रखा गया है, क्योंकि इसकी नींव वैशेषिक व सांख्य दर्शन पर है जो परम आस्तिक व आत्मा की नित्यता के पोषक हैं। आत्मा की चरम शुद्ध अवस्था भी वे स्वीकार करते हैं। देखिये चरक के सद्वृत्त का कुछ अंश जो मूलत: जैनाचार से मेल खाता है—
नानृतं ब्रूयात। नान्यस्वमाददीत। नान्यस्त्रिभिलेषेत्। नान्यश्रियम्। न कुर्यात्पापम्। नान्यदोषान्ब्रूयाद्। नान्यरहस्यआगममयेत्। न भूमिं त्विलिखेत। न छिन्दयात्तृणम्। न लोष्टं मृन्दीयात्। न नियमं भिन्द्यात्। न मद्यद्यूतवेश्याप्रसंगरूची: स्यात्। नैक: सुखी। नेन्द्रिय वशग: स्यात्। ब्रह्मचर्यज्ञानदानमैत्री कारुण्यहर्षोपेक्षा प्रशमपरश्च स्यात्। (चरक अ. ८)
ऊपर के आयुर्वेदिक उद्धरणों की भाषा व अर्थ बहुत सरल है। अतएव उसका हिन्दी अनुवाद न कर इतना संकेत मात्र पर्याप्त होगा कि यह सारा वर्णन जैनाचार का ही अंग है। अिंहसादिक पांच अणुव्रतों का सैद्धान्तिक विश्लेषण, अनर्थदण्डव्रत व उसके भेदों का अविकल स्वरूप, और औषधादिक चारों दानों की उपादेयता, नैक : सुखी स्यात् के रूप में जैनदर्शन के अन्यतम स्तंभ ‘अपिरग्रहवाद’ को गागर में सागर के रूप में भर दिया है। नेन्द्रिय वशग: स्यात् कहकर समग्र इन्द्रिय संयम, ‘आत्मवत्ससततं पश्येदपि कीट पिपीलिकाम्’ का निर्देशकर समूचा प्राणि संयम बता दिया है। ‘िंहसास्तेयान्यथाकामं मैथुन्ये परुषानृते सम्भिन्नालाप व्यापादमभिध्यादृग्विपर्ययम्।’’ पापं कर्मेति दशधा कायवाङ्मानसैत्यजेत्’। इनमें जैनाचार के सभी पाप कर्मों का त्याग और इनके विपरीत उत्तम क्षमादिक दश धर्मों के मन, वचन, काय से पालन करने का स्पष्ट निर्देश है। ‘सर्वधर्मेषु, मध्यमांगति अनुयायात्’ यह संकेत जैनदर्शन की रीढ़ अनेकांतवाद एवं स्यादवाद को स्वीकार करने का आदेश देता है। सारांश यह है कि आयुर्वेद न केवल चिकित्सा प्रणाली या पैथी मात्र है अपितु जीवन विज्ञान है। जीव के हितावह तथ्यों को स्वीकार और अहितकर दुष्कृत्यों का त्याग किये बिना वह ठहर नहीं सकता। आयुर्वेद में ऐसी बातों को सद्वृत्त—स्वस्थ वृत्त कहा है। जबकि किसी धार्मिक क्षेत्र में इसे आचार संज्ञा दी गई है।
जैनसिद्धान्त की भाँति आयुर्वेद का भी अन्तिम लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है। यह प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है। इस तथ्य के प्रमाण स्वरूप चरकसंहिता का निम्न पद्य देखिये और उसकी तुलना, जैनाचार्यवादीभिंसह की आत्म कल्याण की भावना से करिये। कितना साम्य दोनों में है। नक्तं दिनानि में यांति कथंभूतस्य सम्भ्रति। दु:खभाग् न भवत्येवं नित्यं सन्निहित स्मृति:।।
इत्याचार: समासेन यंप्राप्नोति समाचरन्।
आयुरारोग्यमैश्वर्य यशोलाभांश्च शाश्वतान्।। (चरक सूत्र)
को हं कीदृग्गुण: क्वत्य: किं प्राप्य: किं निमित्तक:।
इत्यूह: प्रत्यहं नो चेदस्थानेहि मतिर्भवेत्।। (क्षत्रचूड़ामणि)
आयुर्वेद कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने दिन रात के कर्मों का लेखा प्रतिदिन करना चाहिये। ऐसा करने से वह पाप कर्मों से बचकर पुण्य कमों एवं आत्म कल्याण के मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है। ‘‘जैनाचार्य वादीभिंसह’’ भी यही कहते हैं ‘‘मैं कौन हूँ, मेरे गुण क्या हैं ? कहां रहा हूँ ? क्या मेरा लक्ष्य है ? मेरी यह अवस्था और लक्ष्य किम्निमित्तक है ? इस प्रकार विचार विमर्श यदि जीव प्रतिदिन नहीं करता है तो वह अपने लक्ष्य से भ्रष्ट होकर दुर्गति को प्राप्त होता है।’’ महानुभाव ! बताइये क्या अन्तर है दोनों के तत्त्व विश्लेषण में ? कुछ नहीं।
जैन धर्मानुयायी प्रत्येक विवेकशील पुरुष भगवान से प्रार्थना करता है, कामना करता है कि भगवान मेरी प्रवृत्तियां भावना कैसी रहे। मेरी भावना के रूप में विस्तार से और निम्न श्लोक के रूप में अति संक्षेप से हर एक जैनी इसे जानता है। आयुर्वेद और उसके पंडित लोग (वैद्य) इसी भावना के पोषक होते हैं। यह केवल शब्द भेद रखने वाले दोनों पक्षों के नीचे लिख दो पद्यों से सुस्पष्ट हो जाता है।
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषुजीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थभावो विपरीत वृत्तौ सदा ममात्मा विदधातुदेव।।
मैत्री कारूण्यमार्तेषु शक्ये प्रतिरूपेक्षणम्।
प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यबुद्धिश्चश्युर्विधा।। (चरक)
सब प्राणियों से मैत्री भाव, गुणीजनों में आदरभाव और प्रमोद, दु:खीजनों के प्रति दयाभाव और अपने विरोधियों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। आयुर्वेद भी यही कहता है। सर्व पुरुषों के प्रति मित्रता, रोग ग्रस्त जीवों के प्रति करुणाभाव (दु:ख दूर करने की भावना) साध्य रोग या रोगी के प्रति उत्साह अथवा रुचि और असाध्य रोगियों के प्रति उपेक्षाभाव वैद्य के होना चाहिये।
संक्षेप में संसार के समग्र दु:ख—सुख के मूल कारण की और आयुर्वेद सम्बन्धी महर्षि चरक की मान्यता के द्योतक तथा प्रसिद्ध आचार्य वाग्भट के सार्वदेशिक स्वास्थ्य के प्ररूपक उद्धरणों को यहाँ दिया जा रहा है—
समग्रं दु:खमायतमविज्ञाने द्वयात्रयम्।
सुखं समग्रं विज्ञाने विमले च प्रतिष्ठितम्।। (चरक)
संसार के सभी प्रकार के मानसिक व शारीरिक रोगों का मूल स्रोत अज्ञान है। जबकि सभी प्रकार के सुखों का उद्गम मनुष्य का निर्मल ज्ञान या विवेक है। इन दु:खों को दूर करने और सुखों को प्राप्त करने हेतु व्यक्ति को विवेकशील होकर सदाचारी बनना अनिवार्य है। समूचे जैनाचार का उपसंहार आचार्य वाग्भट कितने सुन्दर संक्षिप्त शब्दों में करते हैं।
आर्द्र सन्तानता (सर्वसत्वेषुकृपालुत्वम्) त्याग: कायवाक् चेतसां दम:।
स्वार्थबुद्धि परर्थेषु पर्याप्तमिति सद्वृतम्।।
संसार के समस्त प्राणियों के प्रति करुणा भाव (अनुकम्पा) अनावश्यक परिग्रह का त्याग, मन वचन काय पर सुशासन। दूसरे के प्रति आत्मसद्भावना, इतना ही सदाचार का स्वरूप है। अत: स्पष्ट है कि कि सार्वत्रिक पाये जाने वाले मत वैषम्य के तुल्य आयुर्वेद व जैनाचार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण आंशिक मत वैचित्र्य होते हुए भी उनके समोद्देश्य व भावना मूलक पवित्र सम्बन्ध से इंकार नहीं किया जा सकता। वे परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं।