तवायारो वारसविहो, अब्भंतरो छव्विहो बाहिरो छव्विहो चेदि तत्थ बाहिरो अणसणं आमोदरियं१ वित्तिपरिसंखा रसपरिच्चाओ सरीर-परिच्चाओ विवित्तसयणासणं चेदि। तत्थ अब्भंतरो पायच्छित्तं विणओ वेज्जावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सग्गो चेदि। अब्भंतरं बाहिरं बारसविहं तवोकम्मं ण कदं णिसण्णेण, पडिक्कंतं, तस्स मिच्छा मे दुक्कडंं।।३।।
छह अभ्यंतर छह बाहिर से बारहविध तप आचार कहा।
उनमें से अनशन अमोदर्य वृतपरिसंख्या रसत्याग कहा।।
तनुपरित्याग-तनुक्लेश विविक्त शयनासन तप बाह्य कहे।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत स्वाध्याय ध्यान व्युत्सर्ग कहे।।
इन बारह तप को नहीं किया परिषह से पीड़ित छोड़ दिया।
तप किरिया में जो हानी की वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।३।।
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा।
कायस्स वि परितावो विवत्तिसयणासणं छट्ठं।।३४६।।
अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं।।३४६।।
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो।।३६०।।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये अभ्यन्तर तप हैं।।३६०।।
इसी प्रकार १२ तप का यही क्रम धवला पु. १३ में पृ. ५४ से ८८ तक है।
आगे तत्त्वार्थसूत्र में अन्तर हुआ है। पुन: आगे के सभी आचार्यों ने प्राय: यही तत्त्वार्थसूत्र का क्रम लिया है। तत्त्वार्थसूत्र में यह क्रम है-
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तप:।।१९।।
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।२०।।
इन दोनों में केवल बाह्य तप में ‘कायक्लेश’ तप को तथा अभ्यंतर तप में ‘ध्यान’ तप को श्री गौतम स्वामी ने श्री कुंदकुंददेव ने व श्री धवलाकार ने पाँचवें नम्बर पर लिया है तथा श्री उमास्वामी आचार्य ने इन दोनों तपों को छठे नम्बर पर रखा है। हमारे लिए दोनों कथन मान्य हैं क्योंकि हमारे व आपके लिए सभी पूर्वाचार्य प्रमाण हैं। धवला टीका में षट्खण्डागम जैसे महान ग्रंथों में भी जहाँ दो आचार्यों के दो मत आ गये हैं, वहाँ वैâसा समाधान है। देखिए-
षट्खण्डागम धवला पुस्तक १ में पृ. १९७ पर कषायों के क्षय के क्रम में दो आचार्यों के अलग-अलग मत आये, तो प्रश्न हुआ कि एक ही कथन सत्य होगा न कि दोनों ?…..
तब श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘‘दोण्हं वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चेत् ? केवली सुदकेवली वा जाणादि ण अण्णो तहा णिण्णयाभावादो। वट्टमाण-कालाइरिएहि वज्जभीरुहि दोण्हं पि संगहो कायव्वो अण्णहा वज्जभीरुत्त-विणासादो त्ति।’’
शंका-दोनों प्रकार के वचनों में से किस वचन को सत्य माना जाये ?
समाधान-इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता। क्योंकि, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है इसलिये पापभीरु वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिये अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जायेगा।१
शंका-बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों को यहाँ सूत्र में वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं दी ?
समाधान–‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो।’ यहाँ गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।२
आश्चर्य होता है कि धवला टीकाकार ने कह दिया कि इसका समाधान ‘श्री गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।’ किन्तु आज श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित प्रतिक्रमण पाठ में ही परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन देखा जा रहा है, यह उचित नहीं है।
मूलाचार में देवियों की आयु के बारे में अंतर है। यथा-
इसकी टीका में श्री वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य कहते हैं-
‘‘……द्वौ अपि उपदेशौ ग्राह्यौ सूत्रद्वयोपदेशात्, द्वयोर्मध्ये एकेन सत्येन भवितव्यं, नात्र संदेहमिथ्यात्वं, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति संदेहाभावात्। छद्मस्थैस्तु विवेक: कर्र्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति।’’
दोनों ही उपदेश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। यद्यपि यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिये। इस विषय में संशयमिथ्यात्व भी नहीं है, क्योंकि ‘जो अर्हंतदेव द्वारा प्रणीत है वही सत्य है’ इस प्रकार से संशय का अभाव है, क्योंकि छद्मस्थों को यह विवेक करना शक्य नहीं है इसलिये मिथ्यात्व के भय से ही दोनों को ग्रहण करना चाहिये।
इन सभी प्रमाणों से यह निश्चित हो जाता है कि हम और आप सभी साधु-साध्वी, विद्वान् तथा श्रावकगण किसी भी ग्रंथ में परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन का साहस न करें, जहाँ ऐसे दो तरह के प्रकरण हों, वहाँ वैसा ही रखें व श्रद्धान करें। यदि अपना मन्तव्य भी देना है, तो टिप्पण में दे सकते हैं।
इन बारह तपों के विषय में ‘द्वादशतप’ नाम से पृथक् पुस्तक में विस्तार से पढ़ें।
श्री गौतमस्वामी आदि कृत
बाह्य तप अभ्यंतर तप
१. अनशन १. प्रायश्चित्त
२. अवमौदर्य २. विनय
३. वृत्तपरिसंख्यान ३. वैयावृत्य
४. रसपरित्याग ४. स्वाध्याय
५. कायक्लेश ५. ध्यान
६. विविक्तशय्यासन ६. व्युत्सर्ग
श्री उमास्वामी आदि कृत
बाह्य तप अभ्यंतर तप
१. अनशन १. प्रायश्चित्त
२. अवमौदर्य २. विनय
३. वृत्तपरिसंख्यान ३. वैयावृत्य
४. रसपरित्याग ४. स्वाध्याय
५. विविक्तशय्यासन ५. व्युत्सर्ग
६. कायक्लेश ६. ध्यान