यहाँ हम जैन तार्किकों और उनके द्वारा रचे गये न्यायग्रन्थों का संक्षेप में परिचय देंगे, जिससे यह मालूम हो सकेगा कि वैदिक और बौद्ध तर्कग्रन्थकारों की तरह जैन तर्कग्रंथकार भी न्यायग्रन्थों के रचने में पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी भारत-भारती का भण्डार समृद्ध किया है।
आचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानंदि इनका इसी नाम से उल्लेख किया है। १०वीं-११वीं शताब्दी के शिलालेखों तथा इस समय में अथवा उत्तरकाल में रचे गये साहित्य में इनके ‘उमास्वामी’ और ‘उमास्वाति’ ये दो नाम भी प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी है।
ये सिद्धान्त, दर्शन और न्याय तीनों विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका रचा एकमात्र सूत्रग्रन्थ ‘तत्त्वार्थसूत्र’ है, जिस पर पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक एवं भाष्य, विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं भाष्य और श्रुतसागर सूरि विरचित तत्त्वार्थवृत्ति ये चार विशाल टीकाएँ लिखी हैं।
श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेन गणी की तत्त्वार्थव्याख्या ये दो टीकायें भी रची गयी हैं। उत्तरवादी आचार्यों ने इसका बड़ा महत्त्व घोषित करते हुए लिखा भी है कि जो इस दश अध्यायों वाले तत्त्वार्थसूत्र का एक बार भी पाठ करता है उसे एक उपवास का फल प्राप्त होता है।१ यह सिद्धान्त और दर्शन के साथ न्याय का भी ग्रन्थ है।२ इसका जैन परम्परा में वही महत्त्व है, जो गीता, कुरान, बाइबिल को क्रमश: हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई परम्परा में माना जाता है।
ये आचार्य गुद्धपिच्छ के बाद आचार्य कुन्दकुन्द के समान प्रभावशाली और जैन दार्शनिकों में अग्रणी तार्किक हुए हैं। उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है। इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अस्तित्व ईसा की दूसरी-तीसरी शती में माना जाता है। स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैनन्याय का सर्वप्रथम आद्य विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-
१. आप्तमीमांसा (देवागम) २. युक्त्यनुशासन ३.स्वयम्भूस्तोत्र ४.रत्नकरण्ड श्रावकाचार और ५.जिनशतक।
इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं। पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरणार्थ इनका ‘गन्धहस्ति-महाभाष्य’ बहुचर्चित है। जीवसिद्धि, प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका के उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। श्रद्धेय पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का ‘स्वामी समन्तभद्र’ में शोधपूर्ण परिचय दिया है।
आचार्य सिद्धसेन तार्किक हुए हैं। इन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ मानती हैं। इनका समय वि.सं. चौथी-पाँचवीं शती माना जाता है। इनकी महत्त्वपूर्ण रचना ’सन्मति’ अथवा ‘सन्मतिसूत्र’ है। इसमें सभी सांख्य, योग आदि के वादों की चर्चा और उनका समन्वय बड़े तर्कपूर्ण ढंग से किया गया है। इसमें इन्होंने ज्ञान व दर्शन के युगपद्वाद और क्रमवाद के स्थान में अभेदवाद की युक्तिपूर्वक सिद्धि की है, यह उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त ग्रन्थांत में मिथ्यादर्शनों (एकान्तवादों) के समूह को ‘अमृतसार’, ‘भगवान’ ‘जिनवचन’ जैसे विशेषणों के साथ उल्लिखित करके उसे ‘भद्र’ सबका कल्याणकारी कहा है। ध्यान रहे कि उन्होंने सापेक्ष एकान्तों के समूह को भद्र कहा है, निरपेक्ष एकान्तों के समूह को नहीं, क्योंकि जैनदर्शन में निरपेक्षता को मिथ्या और सापेक्षता को सम्यक् कहा गया है तथा सापेक्षता ही वस्तु का स्वरूप है और वह ही अर्थक्रियाकारी है। आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्तमीमांसा (का. १०८) में यही प्रतिपादन किया है।
आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद विक्रम सम्वत् की छठी और ईसा की पाँचवी शती के बहुश्रुत विद्धान हैं। ये तार्किक, वैयाकरण, कवि और स्तुतिकार हैं। तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गयी विशद व्याख्या ‘सर्वार्थसिद्धि’ में इनकी दार्शनिकता और तार्किकता अनेक स्थलों पर उपलब्ध होती है। इनका एक न्यायग्रन्थ ‘‘सार संग्रह’ है, जिसका उल्लेख आचार्य वीरसेन ने किया है और उसमें किये गये नय— लक्षण को ‘धवला’ टीका में उदधृत किया है। जैनन्द्रव्याकरण, समाधिशतक, इष्टोपदेश, निर्वाणभक्ति आदि अनेक रचनाएँ इन्होंने लिखी हैं।
ये छठी शताब्दी के वादि-विजेता, प्रभावशाली तर्किक हैं। आचार्य विद्यानन्दि ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ.२८०) में इन्हें ‘त्रिषष्टेवार्दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।’ तिरेसठ वादियों का विजेता और ‘जल्पनिर्णय’ ग्रन्थ का कर्ता बतलाया। ‘जल्पनिर्णय’ एक शास्त्रार्थ ग्रन्थ है, जिसमें दो प्रकार के जल्पों (वादों) का विवेचन किया। परन्तु यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। विद्यानन्दि को सम्भवत: प्राप्त था और उनके अनुसार इन्होंने इसमें दो प्रकार के वादों (तात्त्विक एवं प्रातिभ) का प्रतिपादन किया है।
ये विक्रम की छठी-सातवीं शती के जैन नैयायिक हैं। इनका एक मात्र ग्रन्थ ‘त्रिलक्षणकदर्शन’ प्रसिद्ध है। पर यह अनुपलब्ध है। चूहों, दीमकों या व्यक्तियों द्वारा यह कब समाप्त कर दिया गया, कहा नहीं जा सकता? अकलंक, अनन्तवीर्य, वादिराज आदि उत्तरवर्ती जैन तार्किकों ने इसका उल्लेख किया है। बौद्ध तार्किक तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित (ई. ८वीं शती ) ने तो इनवेâ नामोल्लेख और बिना नामोल्लेख के साथ इनकी अनेक कारिकायें भी उद्धृत की हैं और उनका खण्डन किया है। सम्भव है ये कारिकाएँ उनके उसी ‘त्रिलक्षणकदर्शन’ ग्रन्थ की होें।
आचार्य अकलंकदेव ईसा की सातवीं-आठवीं शती के तीक्ष्णबुद्धि एवं महान प्रभावशाली तार्किक हैं। ये जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। जैनधर्म के अनेकान्त, स्याद्वाद, आदि सिद्धान्तों पर जब तीक्ष्णता से बौद्ध और वैदिक विद्धानों द्वारा दोहरा प्रहार किया जा रहा था तब सूक्ष्मप्रज्ञ अकलंकदेव ने उन प्रहारों को अपने वादविद्या-कवच से निरस्त करके अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंगी आदि सिद्धान्तों को सुरक्षित किया था तथा विरोधियों को सबल जबाब दिया था। इन्होंने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और जैन न्याय पर बडे जटिल एवं दुरूह ग्रन्थों की रचना की है। इनके वे न्यायग्रन्थ निम्न है-
१. न्यायविनिश्चय, २. सिद्धि-विनिश्चय, ३. प्रमाण संग्रह, ४. लघीयस्त्रय, ५ देवागम विवृति (अष्टशती) ६. तत्त्वार्थवार्तिक व उसका भाष्य आदि।
इनमें तत्त्वार्थवार्तिक व भाष्य तत्त्वार्थसूत्र की विशाल, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें अकलंकदेव ने सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य का अनुसरण करते हुए सिद्धान्त, दर्शन और न्याय तीनों का विशद विवेचन किया है। विद्यानन्दि ने सम्भवत: इसी कारण-‘सिद्धेर्वात्रा कलंकस्य महतो न्यायवेदिन:’ (त.श्लो.पृ. २७७) वचनों द्वारा अकलंक को ‘महान्यायवेत्ता’- जस्टिस (न्यायाधीश) कहा है।
आचार्य हरिभद्र विक्रम की आठवीं शती के विश्रुत दार्शनिक एवं नैयायिक हैं। इन्होंने
१.अनेकान्तजयपताका, २. अनेकान्तवादप्रवेश, ३.शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४. षड्दर्शनसमुच्चय आदि ग्रन्थ रचे हैं।
यद्यपि इनका कोई न्याय का स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है किन्तु इनके इन दर्शनग्रन्थों में न्याय की भी चर्चा हमें स्पष्ट मिलती है। उनका षड्दर्शनसमुच्चय तो ऐसा दर्शनग्रन्थ है, जिसमें भारतीय प्राचीन छहों दर्शनों का विवेचन सरल और विशद रूप में किया गया है तथा जैनदर्शन को अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। इसके द्वारा जैनेतर विद्वानों को जैनदर्शन का सही आकलन हो जाता है।
इनका समय नौवीं शती माना जाता है। इन्होंने न्यायशास्त्र का एकमात्र ग्रन्थ ‘न्यायावतार’ लिखा है, जिसमें जैन दृष्टि से न्यायविद्या का ३२ कारिकाओं में सांगोपांग निरूपण किया है। इनकी रची कुछ द्वात्रिंशतिकाएँ भी हैं जिनमें तीर्थंकरों की स्तुति के साथ जैनदर्शन और जैनन्याय का दिग्दर्शन किया गया है।
इनके इस नाम से ही ज्ञात होता है कि ये वादीरूपी हाथियों को पराजित करने के लिए िंसह के समान थे। इनकी स्याद्वाद पर लिखी महत्त्वपूर्ण कृति ‘स्याद्वादसिद्धि’ है। इसमें स्याद्वाद पर प्रतिवादियों द्वारा दिये गये दूषणों का परिहार करके उसकी युक्तियों से प्रतिष्ठा की है। इनका समय विक्रम की नौवीं शती है। इनके रचे क्षत्रचूडामणि (पद्य) और गद्यचिन्तामणि (गद्य) ये दो काव्यग्रन्थ भी हैं, जिनमें तीर्थंकर महावीर के समकालीन मोक्षगामी क्षत्रियमुकुट जीवन्धरकुमार का पावन चरित्र निबद्ध है।
ये विक्रम संवत् नौवीं शती के प्रतिभासम्पन्न तार्किक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह पर विशाल व्याख्याएँ लिखी हैं। सिद्धिविनिश्चय पर लिखी ‘सिद्धिविनिश्चयालंकार’ व्याख्या उपलब्ध है, परन्तु प्रमाणसंग्रह पर लिखा ‘प्रमाणसंग्रहभाष्य’ अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयालंकार में अनेक स्थलों पर विशेष जानने के लिए किया है। इससे इसका अधिक महत्त्व जान पड़ता है।
अन्वेषकों को इसका पता लगाना चाहिए।इन अनन्तवीर्य ने अकलंक के पदों का जिस कुशलता और बुद्धिमत्ता में मर्म खोला है उसे देखकर आचार्य वादिराज (ई.१०२५) और प्रभाचन्द्र (ई.१०४३) कहते हैं कि यदि अनन्तवीर्य अकलंक के दुरूह एवं जटिल पदों का मर्मोद्घाटन न करते तो उनका अर्थ समझने में हम असमर्थ रहते। उनके द्वारा किये गये व्याख्यानों के आधार से ही हम (प्रभाचन्द्र और वादिराज) क्रमश: लघीयस्त्रय की व्याख्या (लघीयस्त्रयालंकार-न्यायकुमुदचन्द्र) और न्यायविनिश्चय की टीका (न्यायविनिश्चयालंकार अथवा न्यायविनिश्चयविवरण) लिख सके हैं।
आचार्य विद्यानन्द उन सारस्वतों में गणनीय हैं, जिन्होंने एक से एक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। इनका समय ई. ७७५-८४० है। इन्होंने अपने समग्र ग्रन्थ प्राय: दर्शन और न्याय पर ही लिखे हैं, जो अद्वितीय और बड़े महत्त्व के हैं। ये दो तरह के हैं-१. टीकात्मक और २. स्वतंत्र। टीकात्मक ग्रन्थ निम्न हैं-
१.तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (सभाष्य), २. अष्टसहस्री (देवागमालंकार) और ३. युक्त्यनुशासनालंकार प्रथम टीका
आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र पर पद्यवार्तिक और उसके विशाल गद्य-भाष्य के रूप में है। द्वितीय टीका आचार्य समन्तभद्र के देवागम (आत्मामीमांसा) पर गद्य में लिखी अष्टसहस्री है। ये दोनों टीकाएँ अत्यन्त दुरूह, क्लिष्ट और प्रमेयबहुल है, साथ ही गम्भीर और विस्तृत भी हैं। तीसरी टीका स्वामी समन्तभद्र के ही दूसरे तर्कग्रन्थ युक्त्यनुशासन पर रची गयी है। यह मध्यम परिणाम की है और विशद है।
इनकी स्वतन्त्र कृतियाँ निम्नप्रकार हैं—
१.विद्यानन्दमहोदय, २. आप्तपरीक्षा, ३. प्रमाण-परीक्षा, ४. पत्र परीक्षा, ५. सत्यशासन-परीक्षा और ६. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र।
इस तरह इनकी नौ कृतियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें ‘विद्यानन्द महोदय’ को छोड़कर सभी उप्ालब्ध एवं प्रकाशित हैं। सत्यशासन परीक्षा अपूर्ण है, जिससे वह विद्यानन्द की अन्तिम अवस्था की रचना प्रतीत होती है। विद्यानन्द और उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व आदि पर विस्तृत ऊहापोहपूर्वक विमर्श आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना तथा ‘जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र-परिशीलन’ (पृ. २६२-३१२) में किया गया है। वह द्रष्टव्य है।
ये अकलंकदेव के उत्तरवर्ती और आचार्य विद्यानन्द के पूर्ववर्ती अर्थात् आठवीं-नौवीं शताब्दी के विद्वान हैं। विद्यानन्द (७७५-८४०) ने इनका और इनके ‘वादन्याय’ का अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. २८०). प्रमाणपरीक्षा४ (पृ.४९) और पत्रपरीक्षा (पृ.५)५ नामोल्लेख किया है तथा ‘वाद-न्याय’ से कुछ कारिकाएँ उद्धृत की हैं। एक जगह (त.श्लो.पृ.२८० में) तो विद्यानन्द ने इन्हें ‘वादन्यायविचक्षण’ भी कहा है। इससे इनका वादन्यायवैशारद्य प्रकट होता है।
इनका ‘वादन्याय’ एक वाद-विषयक महत्त्वपूर्ण तर्कग्रन्थ है, जो आज उपलब्ध नहीं है, जिसके केवल उल्लेख ही मिलते हैं। बौद्ध विद्वान धर्मकीर्त्ति (ई. ६३५) ने भी एक ‘वादन्याय’ रचा है और जो उपलब्ध है। आश्चर्य नहीं कि कुमारनन्दि को अपना ‘वादन्याय’ रचने की प्रेरणा उसी से मिली हो। यह सच है कि जैनों ने अपने वाङ्मय की रक्षा करने में घोर प्रमाद किया तथा उसकी उपेक्षा की है। आज भी यही स्थिति है।
इनका समय वि.सं. नौवीं शती है। इन्होेंने ‘बृहत्सर्वज्ञसिद्धि’ और ‘लघुसर्वज्ञसिद्धि’ ये दो तर्कग्रन्थ रचे हैं और दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों विद्वत्तापूर्ण रचनाओं से आचार्य अनन्तकीर्ति का पाण्डित्य एवं तर्कशैली अनुपमेय प्रतीत होती है। इनकी एक रचना ’स्वत:- प्रामाण्यभंग’ भी है, जो अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्य (प्रथम) ने सिद्धिविनिश्चयालंकार में किया है।
ये नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य हैं। इनके गुरु रामनन्दि, दादागुरु वृषभनन्दि और परदादागुरु पद्मनन्दि थे। इनके कई शिष्य हुए। आद्य विद्या शिष्य नयनन्दि थे, जिन्होंने ‘सुदंसणचरिउ’ एवं ‘सयल-विहिविहाण’ कृतियाँ लिखी हैं, इनमें नयनन्दि ने अपने को उनका आद्य विद्या शिष्य तथा उन्हें ‘पंडितचूड़ामणि’ एवं ‘महापण्डित’ कहा है। नयनन्दि वि. सं. १९०० (ई. १०४३) में राजा भोज (धाराधीश) के समय में हुए, उन्होंने अपनी गुरु-शिष्य-परम्परा उक्त दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में दी है। इनके तथा अन्य प्रमाणों के अनुसार माणिक्यनन्दि का समय ई. १०२८ सिद्ध है। प्रभाचन्द्र (१०४३) ने भी न्यायशास्त्र इन्हीं माणिक्यनन्दि से पढ़ा था तथा इनके ‘परीक्षामुख’ पर विशालकाय ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’ नाम की व्याख्या लिखी है, जिसके अन्त में उन्होंने भी माणिक्यनन्दि को अपना न्यायविद्यागुरु बताया है।
माणिक्यनन्दि की एकमात्र कृति ‘परीक्षामुख’ है, जो न्यायविद्या का प्रवेशद्वार है। खासकर अकलंकदेव के जटिल न्यायग्रन्थों में। तात्पर्य यह कि अकलंकदेव ने अपने न्यायविनिश्चयादि कारिकारूप न्यायग्रन्थों में जो दुरूह रूप में जैनन्याय को निबद्ध किया है उसे संक्षेप में गद्य सूत्रबद्ध करने का श्रेय इन्हीं आचार्य माणिक्यनन्दि को प्राप्त है। इन्होंने जैनन्याय को इसमें बड़ी सरल एवं विशद भाषा में उसी प्रकार ग्रथित किया है जिस प्रकार मालाकार माला में यथायोग्य स्थान पर प्रवाल रत्न आदि को गूँथता है। इस पर प्रभाचन्द्र ने ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’, लघुअनन्तवीर्य ने ‘प्रमेयरत्नमाला’, अजितसेन ने ‘न्यायमणिदीपिका’, चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने ‘अर्थप्रकाशिका’ और ‘प्रमेयरत्नालंकार’ नाम की टीकाएँ लिखी हैं। इससे न्यायसूत्रग्रन्थ का महत्त्व प्रकट है।
आचार्य देवसेन ने प्राकृत में नयचक्र लिखा है। संभव है इसी का उल्लेख आचार्य विद्यानन्दि ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवर्तिक (पृ.२७६) में किया हो और उससे ही नयों को विशेष जानने की सूचना की है।इनका समय विक्रम की नौवीं शती माना जाता है। देवसेन नयमर्मज्ञ विशिष्ट मनीषी थे।
ये न्याय, व्याकरण, काव्य, भक्ति आदि साहित्य की अनेक विधाओं में पारंगत थे और ‘स्याद्वादविद्यापति’ कहे जाते थे। ये अपनी इस उपाधि से इतने अभिन्न थे कि इन्होंने स्वयं और उत्तरवर्ती ग्रंथकारों ने इसी उपाधि से उल्लेख किया है। इन्होंने अपने ‘पार्श्वनाथचरित्र ’ की समाप्ति का समय शक सं. ९४७, ई. १०२५ दिया है। अत: इनका समय ई. १०२५ है। पार्श्वचरित के अतिरिक्त इन्होंने न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय ये दो न्यायग्रन्थ लिखे है।
न्यायविनिश्चय विवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय की विशाल और महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। प्रमाणनिर्णय मौलिक तर्कग्रन्थ है। वादिराज वादि विजेता के अतिरिक्त बड़े अर्हद्भक्त भी थे। ‘एकीभाव स्तोत्र’ के अन्त में वे बड़े स्वाभिमान से कहते हैं कि जितने वैयाकरण हैं वे वादिराज के बाद हैं, जितने तार्किक हैं वे वादिराज के पीछे हैं तथा जितने काव्यकार हैं वे भी उनके पश्चाद्वर्ती हैं और तो क्या, भक्तिक लोग भी भक्ति में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। यथा-
वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकिंसह:।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहाय:।।
प्रभाचन्द्र जैन साहित्य में तर्कग्रन्थकार के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। ये आचार्य माणिक्यनन्दि के शिष्य और उन्हीं के परीक्षामुख पर विशालकाय एवं विस्तृत व्याख्या ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’ लिखने वाले अद्वितीय मनीषी हैं। इन्होंने अकलंक के दुरूह ‘लघीयस्त्रय’ नाम के न्यायग्रन्थ पर भी बहुत ही विशद और विस्तृत टीका लिखी है, जिसका नाम ‘न्यायकुमुदचन्द्र’ है। न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: जैनन्यायरूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चन्द्र है।
इसमें प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय की कारिकाओं, उनकी स्वोपज्ञवृत्ति और उसके दुरूह पद-वाक्यादि की विशद व्याख्या तो की ही है, किन्तु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला है। इसी प्रकार इन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है और परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र व उसके पदों का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है।
प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्या ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं। इनके बाद इन व्याख्याओं जैसा कोई मौलिक या व्याख्याग्रन्थ नहीं लिखा गया। जैन न्यायाकाश में समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्र और विद्यानंद के बाद प्रभाचन्द्र जैसा कोई अति प्रसिद्ध जैन तार्किक हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता । इनका समय ई. १०४३ है।
अभयदेव ने सिद्धसेन के ‘सन्मतिसूत्र’ पर ‘सन्मतितर्कटीका’ लिखी है। इसमें स्याद्वाद और अनेकान्त पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इनका समय ईसा की बारहवीं शती है। अभयदेव प्रभाचन्द्र से अधिक प्रभावित है। और इनकी इस टीका पर प्रभाचन्द्र की उक्त दोनों व्याख्याओं का अमिट प्रभाव है।
इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर ही मध्यम परिणाम की विशद एवं सरल वृत्ति लिखी है, जिसे –प्रमेयरत्नमाला’ कहा जाता है। विद्यार्थियों और जैनन्याय के जिज्ञासुओं के लिए यह बड़ी उपयोगी एवं बोधप्रद है। इन्होंने ‘परीक्षामुख’ को अकलंक के दुरवगाह न्यायग्रन्थसमुच्चयरूप समुद्र का मन्थन करके निकाला गया ‘न्याय- विद्यामृत’ बतलाया है। वस्तुत: अनन्तवीर्य का यह कथन सर्वथा युक्त है। हमने स्वयं ‘परीक्षामुख और उसका उद्गम’ शीर्षक शोध लेख में अनुसन्धानपूर्वक निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि यथार्थ में परीक्षामुख अकलंक के न्यायग्रन्थों का दोहन है। विद्यानन्द के ग्रन्थों का भी उस पर प्रभाव रहा है। इनका समय वि.सं. की बारहवीं शती है।
देवसूरि ‘वादि’ उपाधि से विभूषित हैं। इनके प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार’ और उसकी व्याख्या ‘स्याद्वादरत्नाकर’ ये दो तर्कग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर आचार्य माणिक्यनन्दि के ‘परीक्षामुख का शब्दश: और अर्थश: पूरा प्रभाव है। इसके छह परिच्छेद तो परीक्षामुख की तरह ही हैं और अन्तिम दो नयपरिच्छेद तथा वादपरिच्छेद परीक्षामुख से ज्यादा है, जो परीक्षामुख (६/७३,७४) की सूचना पर आधारित हैं।
ये न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त और योग-इन सभी विषयों के प्रखर विद्वान थे। इनका न्याय-ग्रन्थ ‘प्रमाण-मीमांसा’ विशेष प्रसिद्ध है। इसके सूत्र और उनकी स्वोपज्ञ टीका दोनों ही सरल और बोधप्रद है। जैनन्याय के प्राथमिक अभ्यासी के लिए परीक्षामुख और न्यायदीपिका की तरह इसका भी अभ्यास उपयोगी है। ये वि.सं. १२वीं, १३वीं (ई. १०८९-११७३) शती के यशस्वी विद्वान हुए हैं।
ये वि.सं. बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के जैन नैयायिक हैं। इनकी एकमात्र उपलब्ध कृति ‘विश्वतत्त्वप्रकाश’ है। ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण और बोधप्रद है। इसका प्रकाशन जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से हो चुका है।
इनका समय वि. सं. तेरहवीं शती है। इन्होंने विद्यानन्द की अष्टसहस्री पर पदबोधिका टिप्पणी लिखी है, जो अष्टसहस्री के कठिन पदों के अर्थबोध में सहायक है। इसका नाम ‘अष्टसहस्री-विषमपदतात्पर्यटीका’ है। यह स्वतन्त्र रूप से अभी अप्रकाशित है। किन्तु अष्टसहस्री के पाद टिप्पणियों में इसकी टिप्पणियां प्रकाशित हैं, जिनके सहारे पाठक अष्टसहस्री के उन पदों का अर्थ कर लेते हैं जो क्लिष्ट और प्रसंगोपात्त हैं।
ये वि.सं. तेरहवीं शती के तार्किक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के तर्कग्रन्थ लघीयस्त्रय पर ‘लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति’ नामकी स्पष्टार्थबोधक लघुकाय वृत्ति लिखी है, जो माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है पर अब वह अलभ्य है। उसका एक अच्छा आधुनिक सम्पादन के साथ संस्करण निकलना चाहिए। इसकी तर्कपद्वति सुगम एवं आकर्षक है।
इनका समय वि.सं. की तेरहवीं शती है। इनकी एकमात्र तर्ककृति ‘स्याद्वादरत्नाकरावतारिका’ है, जो प्रकाशित है और स्याद्वाद पर अच्छा प्रकाश डालती है।
इन्होंने हेमचन्द्र की ‘अन्ययोगव्यवच्छेदिका’ नाम की द्वात्रिंशतिका पर ‘स्याद्वादमंजरी’ व्याख्या लिखी है। यह विद्वत्प्रिय है। मल्लिषेण विक्रम की चौदहवीं शती के तार्किक हैं।
अन्तिम जैन तार्किकों में ये अधिक लोकप्रिय और उल्लेखनीय हैं। इनकी ‘न्यायदीपिका’६ एक ऐसी महत्त्वपूर्ण एवं यशस्वी न्याय कृति है जो न्यायशास्त्र में प्रवेश करने के लिए बहुत ही सुगम और सरल है। न्यायशास्त्र के प्राथमिक अभ्यासी इसी के माध्यम से अकलंक और विद्यानन्द के दुरूह एवं जटिल न्यायग्रन्थों में प्रवेश करते हैं।
न्याय का ऐसा कोई विषय नहीं छूटा, जिसका न्यायदीपिका में धर्मभूषणयति ने संक्षेप में और सरल भाषा में प्रतिपादन न किया हो। प्रमाण, प्रमाण के भेदों, नय और नय के भेदों के अलावा अनेकान्त, सप्तभंगी, वीतरागकथा, विजिगीषुकथा, जैसे विषयों का भी इस छोटी सी कृति में समावेश कर उनका संक्षेप में विशद निरूपण किया गया है। अनुमान का विवेचन तो ग्रन्थ के बहुभाग में निबद्ध है और बड़े सरल ढंग से उसे दिया है। वास्तव में यह अभिनव धर्मभूषण की प्रतिभा, योग्यता और कुशलता की परिचायिका अनुपम कृति है। इनका समय ई. १३५८ से १४१८ है।
परीक्षामुख के प्रथम सूत्र पर इन्होंने ‘प्रमेयकण्ठिका’ नाम की वृत्ति लिखी है। यह न्याय विद्या की एक अति लघु रचना है। प्रमाण पर इसमें संक्षेप में प्रकाश डाला गया है यह अध्येतव्य है। यह वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट से प्रकाशित है।
इनकी एकमात्र रचना ‘प्रमाणप्रमेयकलिका’ है।७ इसमें इन्होंने तत्त्व सामान्य की जिज्ञासा करते हुए उसके दो भेद-१. प्रमाणतत्त्व और २. प्रमेयतत्त्व बतलाकर उनका समीक्षापूर्वक विशद विवेचन किया है। कृति सुन्दर और सुगम है। ग्रन्थकार का समय वि.स. १७८७ है।
ये वि.सं. की अठारहवीं शती के जैन तार्किक हैं। इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर बहुत ही विशद एवं प्रौढ़ व्याख्या ‘प्रमेयरत्नालंकार’ लिखी है, जो मैसूर यूनिवर्सिटी से प्रकाशित है। रचना तर्कपूर्ण है। इसमें नव्यन्याय के भी अनेक स्थलों पर दर्शन होते हैं। चारुकीर्ति की विद्वता और पाण्डित्य दोनों इसमें समाविष्ट हैं। इन्हीं अथवा दूसरे चारुकीर्ति की ‘अर्थप्रकाशिका’ भी है, जो प्रमेयरत्नमाला की संक्षिप्त व्याख्या है। ये ‘पण्डिताचार्य’ की उपाधि से विभूषित थे।
इनकी ‘सप्तभंगीतरंगिणी’ नाम की सुबोध तर्ककृति है, जिसमें सप्तभंगों का अच्छा विवेचन किया गया है। यह दर्शन और न्याय दोनों की प्रतिपादिका है। इनका समय वि. की अठारहवीं शती है।
ये वि.सं. की अठारहवीं शती के तार्किक हैं। इन्होंने ‘परीक्षामुख’ पर ‘न्यायमणिदीपिका’ नाम की व्याख्या लिखी है, जो परीक्षामुख की पांचवीं टीका है। इसका उल्लेख चारुकीर्ति ने ‘प्रमेयरत्नालंकार’ (पृ. ४.१८१) में किया है।
ये वि.सं. अठारहवीं शती के प्रौढ़ जैन तार्किक हैं। इन्होंने निम्न तर्कग्रन्थ रचे है- १. अष्टसहस्री- तात्पर्यविवरण,
२ जैन तर्कभाषा, ३. न्यायालोक, ४. ज्ञानबिन्दु, ५. अनेकान्तव्यवस्था, ६.न्यायखण्डनखाद्य, ७. अनेकान्त प्रवेश,
८. शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका और ९. गुरुतत्त्व विनिश्चय।
चारुकीर्ति विमलदास और यशोविजय ये तीन अन्तिम तार्किक ऐसे हैं, जिन्होने अपने न्याय ग्रंथों में नव्यन्याय को भी अपनाया है, जो नैयायिक गङ्गेश उपाध्याय से उद्धृत हुआ और पिछले तीन-चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन में रहा ।
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित जैनदर्शन और जैनन्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया है, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएं भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन प्रस्तुत किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं।
उदाहरण के लिए जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि न्याय प्रभाकर श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९६९—७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ अष्टसहस्री का शब्दश: हिन्दी अनुवाद करके भगवान महावीर के शासन में अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया है। इसकी हिन्दी टीका का नाम है—‘‘स्याद्वाद चिन्तामणि’’ इसमें हिन्दी अनुवाद के साथ—साथ जगह—जगह विशेषार्थ एवं अनेकानेक क्लिष्ट विषयों के सारांश सरल भाषा में दिये हैं।
तीन भागों में जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर से प्रकाशित इन ग्रंथों को अध्ययन करके न्यायतीर्थ, न्यायाचार्य आदि की परीक्षाएं देकर उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। ४०० ग्रंथों की लेखिका इन ज्ञानमती माताजी को दो बार भारत के मान्य विश्वविद्यालयों के द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधियों से अलंकृत किया जा चुका है।
इसी प्रकार न्यायाचार्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी, न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डॉ. पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, पं. दलसुख भाई मालवणिया आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य है। श्री ज्ञानमती माताजी एवं क्षु. गणेश प्रसाद वर्णी ने अनेक छात्रों को जैनदर्शन एवं न्याय में प्रशिक्षित किया है। श्री कौन्देय ने आ. विद्यानन्दि के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य का सात खण्डों में हिन्दी रूपांतर किया है। श्री संघवी ने प्रमाण मीमांसा, ज्ञानबिन्दु, सन्मतितर्क, जैन तर्कभाषा आदि ग्रन्थों का वैदुष्यपूर्ण सम्पादन व उनकी प्रस्तावनाएँ लिखी हैं।
उनके भाषा टिप्पण, विभिन्न ग्रन्थों के तुलनात्मक उद्धरण और परिशिष्टों का संयोजन महत्त्वपूर्ण है। डॉ. पं महेन्द्रकुमार ने न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धीविनिश्चयटीका, न्यायकुमुदचन्द्र (लघीस्त्रयालंकार), प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुखालंकार), अकलंकग्रन्थत्रय, तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य, तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरकृत) आदि के विद्वत्तापूर्ण सम्पादन के साथ उनकी अनुसंधानपूर्ण प्रस्तावनाएं लिखी हैं।
हिन्दी भाषा में लिखा उनका ‘जैन दर्शन’ मौलिक कृति है। श्री मालवणिया ने कई ग्रन्थों का सम्पादन एवं उनकी शोधपूर्ण प्रस्तावनाएं लिखी हैं। उनका ‘आगमयुग का जैन दर्शन’ मौलिक रचना है। पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री का ‘जैनन्याय’ उल्लेखनीय है।