भारतीय दर्शन में प्रमाण और नय संबंधी विवक्षा भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। नय के संबंध में सूक्ष्म एवं महत्त्वपूर्ण विचार जैनदार्शनिकों ने किया है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है।
पदार्थ का यथार्थ समग्ररूपेण ज्ञान जिससे होता है वह प्रमाण है और जो प्रमाण से जाने हुए पदार्थों के एक अंश को जाने उसे नय कहते हैं। वक्ता की विवक्षा विशेष को नय कहते हैं। यह पदार्थ के सम्पूर्ण स्वरूप का द्योतक न होकर उसके किसी धर्म विशेष का यथार्थरूप से ज्ञान कराता है।
प्रमाण के द्वारा सम्यक् प्रकार से ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश अर्थात् धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता है अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है वह नय है।
प्रत्येक नय सापेक्ष रहकर ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप की सत्ता को बनाये रखने में समर्थ होता है, किन्तु निरपेक्ष होने पर कथंचित् वस्तु के अस्तित्व के ही द्योतक हो जाते हैं एवं दुर्नय बन जाते हैं। सापेक्षता ही नय का प्राण है। आ. सिद्धसेन के अनुसार-वे सभी नय मिथ्या हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक् होते है।
मूलत: नय के दो भेद जैनाचार्योें ने किये हैं-प्रथम द्रव्यार्थिक या निश्चय नय, द्वितीय पर्यायार्थिक या व्यवहार नय।
द्रव्यार्थिक नय-जो पदार्थ के शाश्वत, अबाधित एवं प्रमाण सिद्ध स्वरूप का कथन करता है और जो पदार्थ के यथार्थ त्रिकाली स्वभाव या उपादान की मुख्यता करके कथन करता है वह द्रव्यार्थिक या निश्चय नय कहलाता है। निश्चय को आगम में भूतार्थ कहा गया है, क्योंकि वह जीव के त्रिकाली शुद्ध टंकोत्कीर्ण स्वभाव को ही अपना विषय स्वीकार करता है। परन्तु वर्तमान विकारी पर्याय की भी सर्वथा उपेक्षा न कर उसे गौणरूप में स्वीकारता है। शुद्ध दशा को प्रगट करने के लिए पुरुषार्थ करने की ओर प्रेरित करता है।
पर्यायार्थिक नय-जो वस्तु में सदाकाल परिवर्तित होने वाली गुण विशेष अर्थात् पर्याय को अपना विषय बनाते है। अथवा संयोगी पर्याय या निमित्त को जो प्रधान कर कथन करता है उसे पर्यायार्थिक या व्यवहार नय कहते हैं। व्यवहार नय कर्म के संबधों से होने वाली वर्तमान अशुद्ध पर्याय का दिग्दर्शन करता है, यह नय जीव की पूर्ण शुद्ध दशा को गौण कर वर्तमान समय में होने वाली विकारी पर्याय को अपना मुख्य विषय बनाता है।
शक्ति की अपेक्षा आत्मा पूर्ण शुद्ध है किन्तु वर्तमान समय में उसकी जो रागद्वेषादिरूप विभाव परिणति हो रही है इसका कारण उसके साथ रहने वाला द्रव्य कर्म, जिसके कर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणु आत्मा की (रागद्वेषादिरूप) विभाव परिणति से आत्मा के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रह रहे हैं, इस कथन को पर्यायार्थिक नय स्वीकार करता है।
द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-
नैगम नय, संग्रह नय, व्यवहार नय। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं-ऋजुसूत्र नय, शब्द नय, समभिरूढ नय तथा एवंभूत नय।
१. नैगमनय-जो नय पदार्थ में उत्पन्न होने वाले अथवा उत्पन्न हो चुकने वाले संकल्प को वर्तमान समय में ग्रहण करता है, उसे नैगमनय कहते हैं। यह पदार्थ में भूतकाल में उत्पन्न हुई एवं भविष्यत् काल में उत्पन्न होने वाली पर्यायों की अपेक्षा वर्तमान पदार्थ को उस रूप कहता है। इसकी अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं-
भूत नैगमनय-जो नय भूतकाल संबंधी पर्याय को वर्तमान काल में आरोपण करके संस्थापन करके कहता है, उसको भूत नैगमनय कहते हैं। जैसे आज दीपावली के दिन श्री महावीर स्वामी मोक्ष गये।
भावी नैगम नय-जो नय आगामी काल भविष्य में होने वाली पर्याय को वर्तमान काल में कथन करता है। भावी नैगम नय हैं। जैसे-श्री अरहंत भगवान अभी सिद्ध नहीं हैं, आगामी काल में होवेंगे। उन अरहन्त भगवान को जो नय सिद्धरूप से कथन करता है, वह भावी नैगमनय है।
वर्तमान नैगमनय-प्रारंभ किये गये किसी कार्य को ईषत् निष्पन्न (थोड़ी बनी हुई) अथवा अनिष्पन्न (बिल्कुल नहीं बनी हुई) वस्तु को पूर्ण कह देना वर्तमान नैगम नय है। जैसे-पुरुष भात बनाने की सामग्री इकट्ठी कर रहा था, किसी ने पूछा-क्या कर रहे हो ? तो कहता है कि भात बना रहा हूँ।
२. संग्रह नय-जो नय विशेष की उपेक्षा कर सामान्यरूप में पर्याय को ग्रहण करता है, उसे संग्रह नय कहते हैं-जैसे-सत् कहने से छहों द्रव्यों को ग्रहण करना।
३. व्यवहार नय-संग्रह नय के द्वारा सामान्यरूप से ग्रहण किये गये पदार्थों को जो भेदरूप से ग्रहण करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। यह नय तब तक भेद करता जाता है, जहां तक ये किये जा सकते हैं। जैसे-सत् करने पर समस्त द्रव्य संग्रहीतरूप से कहे जा सकते हैं परन्तु व्यवहारनय उन्हें छ: द्रव्यरूप भेदों में बांटेगा।
१. ऋजुसूत्रनय-जो नय मात्र वर्तमान समय की पर्याय को ग्रहण करता है, उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-
सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय-जो नय वर्तमान एक समय की पर्याय को ग्रहण करता है, उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय कहते हैं।
स्थूल ऋजुसूत्र नय-जो नय किसी निश्चित काल तक रहने वाली पर्याय को वर्तमान समय में स्वीकार करके उसे अपना विषय बनाता है, उसे स्थ्ाूल ऋजुसूत्र नय कहते हैं।
जैसे-मनुष्य की पर्याय को अपना विषय बनाना। यद्यपि मानव शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है किन्तु इस परिवर्तन की उपेक्षा कर एक निश्चित काल तक रहने की अपेक्षा वह स्थूल ऋजुसूत्रनय का विषय है।
२. शब्दनय-जो लिंग कारक एवं वचन की अपेक्षा शब्दों को अलग मानता है, उसमें भेद करता है उसे शब्द नय कहते हैं। जैसे-दारा, स्त्री, कलत्र यद्यपि ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं किन्तु शब्द नय इन तीनों में लिंग की दृष्टि से भेद स्वीकार करता है। इस नय के अनुसार दारा पुल्लिंग का, स्त्री शब्द स्त्रीलिंग का एवं कलत्र शब्द नपुंसक लिंग का है। अत: एकार्थवाची होते हुए भी भिन्न-भिन्न हैं।
३. समभिरूढ नय-जो नय किसी शब्द विशेष के अन्वय या निरुक्ति आदि अर्थ को ग्रहण न कर रूढ़ अर्थात् प्रचलित अर्थ को ही ग्रहण करता है, उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे-पंकज, इसका निरुक्ति अर्थ ‘पंक’ अर्थात् कीचड़ ‘ज’ अर्थात् उत्पन्न होने वाला। चूँकि कमल एवं सिंघाड़ा दोनों कीचड़ में उत्पन्न होते है। अत: पंकज शब्द कहने से दोनों का बोध होना चाहिए। किन्तु यह नय पंकज शब्द के रूढ़ अर्थ कमल को ही स्वीकार करता है कि न पूर्णत: उसके निरुक्ति अर्थ का।
४. एवंभूत नय-जो क्रिया जिस अर्थ में व्यवहृत होती है, उसे उस रूप में ही स्वीकार करने वाले नय को एवंभूत नय कहते हैं। जैसे-किसी मनुष्य को उसी समय पुजारी कहना जब वह पूजा कर रहा हो।
(१) किसी मनुष्य को शिकारी (हिंसक) लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।
(२) जब वह मनुष्य प्राणीवध करने का विचार कर सामग्री संग्रह करता है, तब वह संग्रह नय से नारकी है।
(३) जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष और बाण लेकर मृगों की खोज में भटकता फिरता है, तब उसे व्यवहारनय से नारकी कहा जाता है।
(४) आखेट स्थान पर बैठकर मृगों पर आघात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त वह शिकारी ऋजुसूत्र नय से नारकी कहा जाता है।
(५) जब जीव प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह घात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त शिकारी शब्दनय से नारकी कहा जाता है।
(६) जब मनुष्य के नरक (गति व आयु) कर्म का बंध होकर नारक कर्म से संयुक्त हो जाये, तभी वह समभिरूढ़ नय से नारकी कहा जाता है।
(७) जब वही मनुष्य नरक गति में पहुँचकर नरक के दु:ख अनुभव करने लगता है, तभी वह एवंभूत नय से नारकी कहा जाता है।
णिच्छयववहारणया मूलमभेया णयाण सव्वाणंं।
णिच्छयसाहणहेऊ दव्वयपज्जत्थिया मुणह।।४।।
सम्पूर्ण नयों के निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो मूल भेद हैं। निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन अर्थात् व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिकनय है।
इसी की टिप्पणी में निश्चयनया: · द्रव्यस्थिता:। व्यवहारनया: · पर्यायस्थिता: ऐसा कहा है अर्थात् निश्चयनय द्रव्य में स्थित है और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। इसी बात को श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
व्यवहारनय: किल पर्यायाश्रितत्वात्…। निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्…।
यहाँ पर व्यवहारनय पर्याय के आश्रित होने से पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव का अवलंबन लेकर प्रवृत्त होता है। इसलिये वह दूसरे के भावों को दूसरे का कहता है किन्तु निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है अत: वह परभावों को पर के कहता है और उन सबका निषेध करता है।’’
अन्यत्र भी यही सूचना है-यथा-
द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च।
तत्र न खल्वेकन-यायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता ।
भगवान ने दो नय कहे हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमें से भगवान का उपदेश एक नय के आश्रित नहीं है किन्तु उभयनय के ही आश्रित है।
धवला में भी कहते हैं-
‘तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है और उन्हीं के वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिकनय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं।’’
इसलिए निश्चय-व्यवहारनयों को अच्छी तरह समझने के लिये सर्वप्रथम द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय को समझ लेना भी आवश्यक हो जाता है। आलाप पद्धति में श्री देवसेन आचार्य ने नयों और उपनयों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। न अति संक्षेप और न अति विस्तार से, वह विवेचन अवश्य ही हृदयंगम करने योग्य है। उसमें द्रव्यार्थिकनय के १०, पर्यायार्थिकनय के ६, नैगमनय के ३, संग्रहनय के २, व्यवहारनय के २, ऋजुसूत्रनय के २, शब्दनय का १, समभिरूढ़नय का १ और एवंभूतनय का १, ऐसे सब २८ भेद हो जाते हैं। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का लक्षण व उनके भेदों को देखिये-
अन्य अपेक्षा से द्रव्यार्थिकनय के दश भेद
द्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।
द्रव्य ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका वह द्रव्यार्थिकनय है। इसके १० भेद हैं-
१. कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्य को विषय करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्धात्मा है।
२. उत्पाद-व्यय को गौण करके सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-द्रव्य नित्य है।
३. भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-निजगुण, निजपर्याय और निजस्वभाव से द्रव्य अभिन्न है।
४. कर्मोपाधि की अपेक्षा से वस्तु को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-कर्मजनित क्रोधादिभावरूप आत्मा है।
५. उत्पाद-व्यय से सापेक्ष को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय होता है। जैसे-एक ही समय में द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप है।
६. भेद कल्पना से सापेक्ष द्रव्य को विषय करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुण हैंं।
७. अन्वय सापेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-गुणपर्याय स्वभाव द्रव्य है।
८. स्वद्रव्य आदि के ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है जैसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव, इन स्वचतुष्टय की अपेक्षा से द्रव्य अस्तिरूप है।
९. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय है जैसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से द्रव्य नास्तिरूप है।
१०. परमभाव को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है, जैसे-ज्ञानस्वरूप आत्मा है।
पर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:।
पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका, वह पर्यायार्थिकनय है। इसके ६ भेद हैं-
१. अनादि-नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-मेरु आदि रूप पुद्गल की पर्यायें नित्य हैं।
२. सादि-नित्य पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-सिद्ध पर्याय नित्य है।
३. ध्रौव्य को गौण करके उत्पाद-द्रव्य को ग्रहण करने के स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-समय-समय में पर्यायें विनाशशील हैं।
४. सत्ता को सापेक्ष करने रूप स्वभाव वाला नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप पर्यायें होती हैं।
५. कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों की पर्यायें सिद्ध पर्याय सदृश शुद्ध हैं।
६. कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों के जन्म और मरण होता है।
आगे चलकर द्रव्यार्थिकनय के भेदों का व्युत्पत्ति अर्थ कहकर उसके मूल दो भेद किये हैं।