जिसके द्वारा वस्तु तत्त्व का निर्णय किया जाता है वह दर्शनशास्त्र है। कहा भी है-
‘‘दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्।’’
इस लक्षण से दर्शनशास्त्र तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षास्वरूप हैं जो कि तत्त्वों का निर्णय कराने वाले हैं। जैसे-यह संसार नित्य है या अनित्य ? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या
नहीं ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? इसका पुुनर्जन्म होता है या नहीं ? ईश्वर की सत्ता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देना दर्शन का काम है।
जैनदर्शन-जैनधर्म अनादिनिधन है। इसकी स्थापना किसी ने भी नहीं की है। इस धर्म में प्रत्येक प्राणी को परमात्मा बनने का अधिकार दिया गया है और उसके उपाय बतलाये गये हैं इसीलिए इसे ‘‘सार्वधर्म’’ या ‘‘सर्वोदय तीर्थ’’ भी कहते हैं। इसका मौलिक सिद्धान्त है ‘‘अनेकान्त’’।
‘‘अनेके अन्ता धर्मा यस्मिन् इति अनेकान्त:’’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनेक-अनन्त धर्म माने गये हैं। जैसे-जीव नित्य है, अनित्य है, एक है, अनेक है, शुद्ध है, अशुद्ध है इत्यादि।
ये सब धर्म नयों की अपेक्षा से एक ही जीव में घटित किये जाते हैं। जैसे कि जीव द्रव्यार्थिक नय से नित्य है क्योंकि इसका पुनर्जन्म सिद्ध है। जीव पर्यायार्थिकनय से अनित्य है क्योंकि इसकी मनुष्य पर्याय का नाश होकर देवपर्याय प्रगट होती है। जीव द्रव्य दृष्टि से एक है, नाना पर्यायों को धारण करने वाला होने से अनेक है। निश्चयनय से शुद्ध है, व्यवहार नय से अशुद्ध है, संसारी है इत्यादि। इस प्रकार अपेक्षाकृत परस्पर विरोधी भी सभी धर्म एक साथ एक द्रव्य में रह जाते हैं। उदाहरणस्वरूप एक मनुष्य किसी का पिता है तो किसी का पुत्र भी है, किसी का चाचा है तो किसी का भतीजा भी है, किसी का मित्र है तो किसी का शत्रु भी है, इसी का नाम अनेकान्त है।
प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है। रत्नत्रयरूप पुरुषार्थ के बल से कोई भी आत्मा अपने आपको परमात्मा बना लेता है। ऐसे अनंतानंत जीव परमात्मा हो चुके हैं। संसार में जीवराशि इनसे भी अधिक अनन्तानन्त है। जैसे-मोक्ष के कारण और मोक्ष को जानना आवश्यक है, उसी प्रकार से संसार और संसार के कारणों का जानना भी अति आवश्यक है, तभी उससे छूटा जा सकता है।
संसार-जैन सिद्धान्त के अनुसार यह संसार अनादिनिधन है, इसका कर्ता, धर्ता, पोषक एवं संहारक कोई भी ईश्वर, परमात्मा आदि नहीं है। प्रत्येक जीव स्वयं अपने अच्छे-बुरे कार्यों से शुभ-अशुभ कर्मों का बंध कर लेता है, पुन: समय के अनुसार उसी के फल का भोक्ता बन जाता है। श्री विद्यानंदि आचार्यदेव ने कहा है-
‘‘अपने पूर्वोपार्जित कर्म के निमित्त से आत्मा के अगले भव की प्राप्ति का होना संसार है।१’’ अथवा-
‘‘संसरण करने को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। यह संसरण परिवर्तन या परिभ्रमण जिन जीवों के पाया जाता है वे जीव संसारी हैं। परिवर्तन के ५ भेद हैं-द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन।२’’ संक्षिप्त वर्णन यहाँ देते हैं-
द्रव्य परिवर्तन-मिथ्यात्व और कषाय के आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गलों को प्रतिसमय ग्रहण करता रहता है। लोक में सर्वत्र कार्मण वर्गणायें भरी हुई हैं, उनमें से अपने योग्य को ही ग्रहण करता है। आयु कर्म सदा नहीं बंधता है अत: सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ही प्रतिसमय ग्रहण करता रहता है और आबाधा काल पूरा हो जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ देता है। किसी जीव ने विवक्षित समय में ज्ञानावरणादि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ग्रहण किया और अबाधा काल बीत जाने पर उन्हें छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि भावों को लेकर, उसी जीव के वैसे ही परिणामों से पुन: कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। इसी तरह किसी विवक्षित समय में उसी जीव ने औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म पुद्गल स्कंध को ग्रहण किया और भोगकर छोड़ दिया। पूर्वोक्त क्रम से जब वे ही नोकर्म उसी रूप, रस आदि को लेकर उसी जीव के द्वारा पुन: नोकर्म से ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। इसी प्रकार द्रव्यपरिवर्तन के कर्मद्रव्य परिवर्तन और नोकर्मद्रव्य परिवर्तन ऐसे दो भेद हो जाते हैं। कहा भी है-पुद्गल परिवर्तन रूप संसार में इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रमश: अनंत बार ग्रहण किया और छोड़ा है।
क्षेत्र परिवर्तन-लोकाकाश के ३४३ राजू प्रमाण क्षेत्र में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके हैं और मर चुके हैं। कहा भी है-समस्त लोक में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ क्षेत्र रूप संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक अवगाहनाओं को लेकर यह जीव क्रमश: उत्पन्न न हुआ हो।
काल परिवर्तन-अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरा है।
भव परिवर्तन-नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर गै्रवेयक पर्यन्त के सब भवों में यह जीव मिथ्यात्व के आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है।
भाव परिवर्तन-इस जीव ने मिथ्यात्व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के स्थानों को प्राप्त कर भाव संसार में भ्रमण किया है। इस प्रकार अनेक दु:खों की उत्पत्ति के कारण इन पांच प्रकार के संसार में यह जीव मिथ्यात्वरूपी दोष के कारण अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक परिभ्रमण करता रहता है। जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है तब यह पंच परावर्तन समाप्त हो जाता है।
जीव को संसार में परिभ्रमण कराने का कारण कर्म है। इसे प्रकृति, शील और स्वभाव भी कहते हैं। इस जीव और कर्म का अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। जैसे कि सुवर्ण पाषाण में किट्ट और कालिमा का मिश्रण प्रारंभ से ही रहता है। इस जीव और कर्मों का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है।१ ‘‘अहं’’ प्रत्यय से-‘‘मैं खाता हूँ, मैं सोता हूँ,’’ इत्यादि ज्ञान से जीव का अस्तित्व जाना जाता है और दीन, दरिद्री, धनी आदि होने से कर्म का अस्तित्व प्रसिद्ध है।
यह जीव कर्मों के उदय से राग, द्वेष आदि परिणाम करता है और राग, द्वेष आदि परिणाम से कर्मों का बंध हो जाता है। इन परिणाम रूप भाव कर्म और कर्मबंध रूप द्रव्य कर्म का परस्पर में कार्य-कारणभाव संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। यह कर्मबंध कतिपय भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनन्त है।
जिनके द्वारा आत्मा पराधीन किया जाये उसे कर्म कहते हैं।
सामान्य से कर्म एक है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा उसके दो भेद हो जाते हैं। ज्ञानावरण आदि रूप पुद्गल द्रव्य का पिण्ड द्रव्य कर्म है और द्रव्य पिण्ड में फल देने की जो शक्ति है वह ‘‘भाव कर्म’’ है अथवा उस शक्ति में उत्पन्न हुए अज्ञान, राग, द्वेष, क्रोध आदि रूप जो परिणाम हैं वे ही भाव कर्म हैं।
कर्म के सामान्य से ८ भेद हैं। इनके उत्तर भेद १४८ हैं अथवा कर्मों के असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हैं।
आठ कर्म के नाम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।
ज्ञानावरण-जो आत्मा के ज्ञानगुण को ढक दे, प्रगट न होने दे, जैसे-देवता के मुख पर पड़ा हुआ वस्त्र।
दर्शनावरण-जो आत्मा का दर्शन न होने दे, जैसे-राजा का पहरेदार।
वेदनीय-जो जीव को सुख-दु:ख का वेदन-अनुभव कराये, जैसे-शहद लपेटी तलवार की धार।
मोहनीय-जो आत्मा को मोहित-मूर्च्छित कर दे, जैसे-मदिरापान।
आयु-जो जीव को उस-उस पर्याय में रोके रखे, जैसे-सांकल अथवा काठ का यंत्र।
नाम-जो अनेक तरह के शरीर की रचना करे, जैसे-चित्रकार।
गोत्र-जो ऊंच-नीचपने को प्राप्त करावे, जैसे-कुंभकार।
अन्तराय-जो दाता और पात्र में अन्तर-व्यवधान करे, जैसे-भं
डारी दान देते समय राजा को रोक देता है।
इन ८ कर्मों के उत्तर भेद-ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अन्तराय के ५ ऐसे कुल १४८ हैं।
मतिज्ञानावरण – जो जीव के मतिज्ञान को आवृत करे-ढके।
श्रुतज्ञानावरण – जो श्रुतज्ञान का आवरण करे।
अवधिज्ञानावरण – जो अवधिज्ञान का आवरण करे।
मनःपर्ययज्ञानावरण – जो मन:पर्यय ज्ञान का आवरण करे।
केवलज्ञानावरण – जो जीव के पूर्ण ज्ञान को प्रकट न होने दे।
चक्षुदर्शनावरण – जो चक्षु से दर्शन नहीं होने देवे।
अचक्षुदर्शनावरण – जो नेत्र के सिवाय दूसरी चारों इंद्रियों से सामान्यावलोकन नहीं होने देवे।
अवधिदर्शनावरण – जो अवधि द्वारा दर्शन न होने देवे।
केवलदर्शनावरण – जो त्रिकाल में रहने वाले सब पदार्थों के दर्शन का आवरण करे।
स्त्यानगृद्धि- जिसका उदय होने पर यह जीव नींद में ही उठकर बहुत पराक्रम का तो काम करे, परन्तु जाग्रत होने पर उसे भान नहीं रहे कि क्या किया था, उसे स्त्यानगृद्धि निद्रा कहते हैं।
निद्रानिद्रा-जिसके उदय से गहरी निद्रा से आँख की पलक नहीं उघाड़ सके।
प्रचलाप्रचला-जिसके उदय से मुख से लार बहती रहे, हाथ वगैरह अंग चलते रहें।
निद्रा दर्शनावरण-जिसके उदय से मद, खेद आदि दूर करने के लिए केवल सोना हो।
प्रचला दर्शनावरण-जिसके उदय से शरीर की क्रिया आत्मा को चलावे, निद्रा में कुछ काम करे उसकी याद भी रहे।
सातावेदनीय-जिसके उदय से देवादि गति में जीव को शारीरिक तथा मानसिक सुखों की प्राप्ति रूप साता का वेदन-अनुभव करावे।
असातावेदनीय-जिसके उदय से अनेक प्रकार के नरकादि गति के दु:खों का अनुभव होवे।
मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेद
मोहनीय के मूल में दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय।
दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति।
मिथ्यात्वकर्म-जिसके उदय से मिथ्या श्रद्धान हो, सर्वज्ञ कथित वस्तु के यथार्थ स्वरूप में रुचि न हो।
सम्यक् मिथ्यात्व-जिसके उदय से परिणामों में वस्तु का यथार्थ श्रद्धान और अयथार्थ श्रद्धान दोनों ही मिले हुए हों।
सम्यक्प्रकृति-जिसके उदय से जीव के सम्यक्त्व गुण का घात तो न हो परन्तु परिणाम में चल, मलिन दोष आ जावें उसे सम्यक् प्रकृति कहते हैं। यह प्रकृति मिथ्यात्व प्रकृति का कुछ धुला हुआ अंश है।
चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-कषाय वेदनीय, नोकषाय वेदनीय।
कषाय के सोलह भेद हैं-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। इनके क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार-चार भेद कर देने से सोलह भेद हो जाते हैं।
अनन्तानुबन्धी क्रोध-अनन्त नाम संसार का है और उसका जो कारण है वह अनन्तानुबन्धी है। जिसके उदय से अनन्त संसार के लिए कारणभूत क्रोध उत्पन्न होवे, वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है।
अनन्तानुबन्धी मान-जिसके उदय से अनन्त संसार के लिए कारणभूत मान कषाय उत्पन्न होवे।
अनन्तानुबन्धी माया-जिसके उदय से विशेष मायाचार प्रवृत्ति हो।
अनन्तानुबन्धी लोभ-जिसके उदय से तीव्र लोभ बना रहे। यह अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व गुण का घात करती है।
अप्रत्याख्यानावरण-जो ‘‘अ’’ अर्थात् ‘‘ईषत्’’ थोड़े से भी प्रत्याख्यान-त्याग को न होने देवे, एक देशव्रत को भी न होने देवे, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। यह कषाय जीव के अणुव्रतों को नहीं होने देती। इसके भी क्रोध, मान आदि चारों भेद घटित कर लेना चाहिए।
प्रत्याख्यानावरण-जिसके उदय से प्रत्याख्यान-पूर्ण त्याग का आवरण हो, महाव्रत नहीं हो सके। इसके भी क्रोध आदि चारों भेद होते हैं।
संज्वलन-जिसके उदय से ‘‘सं’’ एक रूप होकर ‘‘ज्वलति’’ प्रकाश करे-जिसके उदय से कषाय अंश से मिला हुआ संयम रहे। कषाय रहित निर्मल यथाख्यात संयम न हो सके। इसमें भी क्रोध आदि चारों भेद होते हैं। इस प्रकार से कषाय वेदनीय के १६ भेद कहे।
नव नोकषाय-जो ‘‘नो’’ ईषत्-थोड़ा हो-प्रबल हो उसे नोकषाय कहते हैं।
हास्य-जिसके उदय से हास्य प्रकट हो।
रति-जिसके उदय से देश, धन, पुत्रादि में विशेष प्रीति हो।
अरति-जिसके उदय से देश आदि में अप्रीति हो।
शोक-जिसके उदय से इष्ट के वियोग होने पर क्लेश हो।
भय-जिसके उदय से उद्वेग हो।
जुगुप्सा-जिसके उदय से ग्लानि या अपने दोष को ढकना और दूसरे के दोष को प्रकट करना हो।
स्त्रीवेद-जिसके उदय से स्त्री संबंधी भाव, मायाचार की अधिकता, नेत्र विभ्रम आदि द्वारा पुरुष के साथ रमने की इच्छा हो।
पुरुषवेद-जिसके उदय से स्त्री में रमण की इच्छा आदि परिणाम हों।
नपुंसकवेद-जिसके उदय से स्त्री, पुरुष दोनों में रमण करने की इच्छा आदि मिश्रित भाव हों।
इस तरह से नव नोकषाय और सोलह कषाय मिलकर पच्चीस भेद चारित्रमोहनीय के और तीन दर्शन मोहनीय के सब मिलकर मोहनीय के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं।
नरकायु-जो आत्मा को नरक शरीर में रोके रखे।
तिर्यञ्चायु-जो आत्मा को तिर्यञ्च पर्याय में रोके रखे।
मनुष्यायु-जो आत्मा को मनुष्य शरीर में रोके रखे।
देवायु-जो आत्मा को देव शरीर में रोके रखे।
गति नामकर्म-जिसके उदय से यह जीव एक पर्याय से दूसरी पर्याय को ‘‘गच्छति’’-प्राप्त हो वह गति नामकर्म है। उसके चार भेद हैं-जिसके उदय से जीव नारकी के आकार, तिर्यञ्च शरीराकार, मनुष्य शरीराकार अथवा देव शरीराकार हो उसे क्रम से नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति तथा देवगति कहते हैं।
जाति नामकर्म-जो उन गतियों में अव्यभिचारी सदृश धर्म से जीवों को इकट्ठा करे। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि जीव समान स्वरूप होकर आपस में एक-दूसरे से मिलते नहीं यह तो हुआ अव्यभिचारीपना और एकेन्द्रियपना सब एकेन्द्रियों में सदृश है यह हुआ सदृशपना, यह अव्यभिचारी धर्म एकेन्द्रियादि जीवों में रहता है अत: एकेन्द्रियादि जाति शब्द से कहे जाते हैं।
जातिकर्म के पांच भेद हैं-जिसके उदय से यह आत्मा एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अथवा पंचेन्द्रिय कहा जाय उसे क्रम से एकेन्द्रिय जाति, दो इन्द्रिय जाति, तीन इन्द्रिय जाति, चार इन्द्रिय जाति तथा पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म कहते हैं।
शरीर नामकर्म-जिसके उदय से शरीर बने। शरीर के पांच भेद हैं-जिसके उदय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर उत्पन्न हो उसे क्रम से औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर तथा कार्मण शरीर कहते हैं।
बन्धन नामकर्म-शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार वर्गणारूप पुद्गल स्कन्ध के प्रदेशों का आपस में संबंध हो उसे बन्धन कहते हैं। उसके औदारिक बंधन, वैक्रियिक बंधन, आहारक बंधन, तैजस बंधन, कार्मण बन्धन ऐसे पाँच भेद हैं।
संघात नामकर्म-जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के परमाणु आपस में मिलकर छिद्ररहित बंधन को प्राप्त होकर एक रूप हो जावें उसे संघात नामकर्म कहते हैं। इसके भी औदारिक संघात, वैक्रियिक संघात, आहारक संघात, तैजस संघात, कार्मण संघात, इस तरह पांच भेद हैं।
संस्थान नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बने। उसके छह भेद हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन एवं हुण्डक संस्थान।
समचतुरस्र संस्थान-जिसके उदय से अंगोपांगों की लम्बाई, चौड़ाई सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार ठीक-ठीक बनी हो।
न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान-जिसके उदय से शरीर का आकार न्यग्रोध के (वटवृक्ष के) सरीखा नाभि के ऊपर मोटा और नाभि से नीचे पतला हो।
स्वाति संस्थान-जिसके उदय से स्वाति नक्षत्र के अथवा सर्प की वामी के समान ऊपर से पतला और नाभि के नीचे मोटा हो।
कुब्जक संस्थान-जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो।
वामनसंस्थान-जिसके उदय से बौना शरीर हो।
हुंडकसंस्थान-जिस कर्म के उदय से शरीर के अंगोपांग किसी खास शक्ल के न हों।
अंगोपांग-जिसके उदय से अंग-उपांगों का भेद हो, उसके तीन भेद हैं-औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग।
संहनन नामकर्म-जिनके उदय से हाडों के बन्धन में विशेषता हो। संहनन के छह भेद हैं-वङ्कावृषभनाराच, वङ्कानाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित, असंप्राप्तसृपाटिका।
वज्रर्षभनाराच संहनन-जिस कर्म के उदय से ऋषभ (बेठन) नाराच (कीला) संहनन (हाड़ों का समूह) वज्र के समान हो अर्थात् इन तीनों व्ाâा किसी से छेदन-भेदन न हो सके।
वङ्कानाराच-जिस कर्म के उदय से वङ्का की हड्डियां और वङ्का की कीली हों परन्तु नसों में जाल वङ्का के समान नहीं हो।
नाराच संहनन-जिसके उदय से शरीर में वज्ररहित बेठन और कीली सहित हाड़ हो।
अर्धनाराच संहनन-जिसके उदय से हाड़ों की सन्धियाँ आधी कीलित हों।
कीलित संहनन-जिसके उदय से हाड़ परस्पर कीलित हों।
असंप्राप्तसृपाटिका संहनन-जिसके उदय से जुदे-जुदे हाड़ नसों से बंधे हों-परस्पर में कीले हुए न हों।
वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में गंध हो। गंध के दो भेद हैं-सुरभि गंध, असुरभि गंध।
रस नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में रस हो, उसके पांच भेद हैं-तिक्त रस, कटु रस, कषाय रस, अम्ल रस, मधु रस।
स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में स्पर्श हो, उसके आठ भेद हैं-कर्क स्पर्श, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष।
आनुपूर्व्य नामकर्म-जिसके उदय से विग्रहगति में मरण से पहले के शरीर के आकार से आत्मा के प्रदेश बने रहें अर्थात् पहले शरीर के आकार का नाश न हो। उसके चार भेद हैं-
नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य-जिसके उदय से नरकगति को प्राप्त होने के सन्मुख जीव के शरीर का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीराकार रहे। इसी प्रकार तिर्यञ्च प्रायोग्यानुपूर्व्य, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्य में भी समझना चाहिए।
अगुरुलघु नामकर्म-जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर मिले जो लोहे के गोले की तरह भारी न हो और आक की रुई की तरह हल्का न हो।
उपघात-जिसके उदय से बड़े सींग अथवा मोटा पेट इत्यादि अपने ही घातक अंग हों।
परघात-जिसके उदय से तीक्ष्ण सींग, नख, सर्प आदि की दाढ़ इत्यादि पर के घात करने वाले शरीर के अवयव हों।
उच्छ्वास-जिस कर्म के उदय से श्वासोच्छ्वास हो।
आतप-जिसके उदय से पर को आताप करने वाला शरीर हो। यह आतप नामकर्म का उदय सूर्यबिंब के विमान के पृथ्वीकायिक बादर जीव के रहता है, उसके मात्र किरणों में ही ऊष्णता रहती है, मूल में नहीं।
उद्योत-जिस कर्म के उदय से प्रकाश रूप शरीर हो। यह उद्योत कर्म चन्द्रबिंब के विमान में स्थित एकेन्द्रिय बादर पृथ्वीकायिक जीव के होता है, जुगनू आदि के भी इस कर्म का उदय रहता है।
विहायोगति-जिसके उदय से आकाश में गमन हो, उसके दो भेद हैं-प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति।
त्रस नामकर्म-जिसके उदय से दो इन्द्रियादि जीवों की जाति में जन्म हो।
बादर-जिसके उदय से ऐसा शरीर हो जो कि दूसरे को रोके और दूसरे से आप रुके।
पर्याप्ति-जिसके उदय से जीव अपने-अपने योग्य आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियों को पूर्ण करे।
प्रत्येक-जिसके उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो।
स्थिर-जिसके उदय से शरीर के रसादि धातु और वात, पित्त आदि धातु, उपधातु अपने-अपने ठिकाने पर स्थिर रहें। इससे शरीर में रोग शांत रहता है।
शुभ नामकर्म-जिसके उदय से मस्तक वगैरह शरीर के अवयव और शरीर सुन्दर हो।
सुभग-जिस कर्म के उदय से दूसरे जीवों को अच्छा लगने वाला शरीर हो।
सुस्वर-जिसके उदय से कांति सहित शरीर हो।
यशस्कीर्ति-जिसके उदय से अपना पुण्य गुण जगत में प्रगट हो।
निर्माण-जिसके उदय से शरीर के अंगोपांगों की रचना ठीक-ठीक हो।
तीर्थंकर-जो श्रीमत् अर्हन्त पद का कारण हो। इस प्रकृति के बंध हो जाने से जीव तीनों लोकों में आश्चर्य और क्षोभ उत्पन्न करने वाला महान् भगवान कहलाता है।
स्थावर-जिसके उदय से एकेन्द्रिय, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में जन्म हो।
सूक्ष्म-जिसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर हो जो कि न तो किसी को रोके और न किसी से रुके।
अपर्याप्त-जिसके उदय से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण न हो अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त अवस्था हो।
साधारण-जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों।
अस्थिर-जिसके उदय से धातु और उपधातु अपने-अपने ठिकाने पर न रहें। इससे शरीर रुग्ण (रोगी) रहता है।
अशुभ-जिसके उदय से शरीर के मस्तक आदि अवयव सुन्दर न हों।
दुर्भग-जिसके उदय से रूपादि गुण सहित होने पर भी दूसरे को अच्छा न लगे।
दु:स्वर-जिसके उदय से स्वर अच्छा न हो।
अनादेय-जिसके उदय से प्रभारहित शरीर हो।
अयश:कीर्ति-जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा न हो।
इस प्रकार से नामकर्म के ९३ भेद हुए ।
उच्चगोत्र-जिसके उदय से लोकपूजित कुल में जन्म हो।
नीचगोत्र-जिसके उदय से लोकनिंदित कुल में जन्म हो।
दानांतराय-जिसके उदय से दान देना चाहे परन्तु न दे सके।
लाभान्तराय-जिसके उदय से लाभ की इच्छा होते हुए भी न हो सके।
भोगांतराय-जिसके उदय से पुष्पादि और अन्नादि वस्तुओं को भोगना चाहें परन्तु भोग न सकें।
उपभोगांतराय-जिसके उदय से स्त्री आदि उपभोग्य वस्तु का उपभोग न कर सके।
वीर्यान्तराय-जिसके उदय से अपनी शक्ति प्रगट करना चाहे परन्तु प्रगट न कर सके। इस प्रकार आठ कर्मों के १४८ भेद होते हैं।
पुण्य-पाप प्रकृतियाँ-इन कर्मों में प्रशस्त-अप्रशस्त ऐसे दो भेद भी होते हैं-जो प्रकृतियां सांसारिक सुख देवें वे पुण्य प्रकृतियां हैं एवं अशुभ फल देने वाली पाप प्रकृतियां हैं।
पुण्य प्रकृतियाँ-साता वेदनीय-१, तिर्यञ्च, मनुष्य, देवायु-३, उच्चगोत्र-१, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी २, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी-२, पंचेन्द्रिय जाति, शरीर-५, ब्ांधन-५, संघात-५, अंगोपांग-३, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श-२०, समचतुरस्रसंस्थान-१, वज्रर्षभनाराच संहनन-१, अगुरूलघु, परघात, आतप, उद्योत और उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और त्रस आदि-१२ (निर्माण, त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और तीर्थंकर) इस प्रकार से ६८ प्रकृतियाँ पुण्य रूप हैं।
पाप प्रकृतियां-चारों घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ-४७, नीचगोत्र-१, असातावेदनीय-१, नरकायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी ये ५, एकेन्द्रियादि जाति-४, समचतुरस्र को छोड़कर ५ संस्थान, पहले संहनन के सिवाय ५ संहनन, अशुभ वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श ये २०, उपघात-१, अप्रशस्त विहायोगति-१, स्थावर आदि १०, ये १०० पाप प्रकृतियां हैं। इस प्रकार ६८±१००·१६८ भेद हो गये। पहले १४८ प्रकृतियाँ ही गिनाई हैं। मतलब यह है कि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण की जो बीस प्रकृतियाँ हैं वे पुण्य और पाप दोनों में सम्मिलित हो जाती हैं।
इन कर्मों के निमित्त से ही यह आत्मा संसार में नाना प्रकार के सुख-दु:ख को भोगता रहता है। यह स्वयं ही अपने मन, वचन, काय से जैसी प्रवृत्ति करता है उसी के अनुसार कर्म आकर आत्मा से चिपक जाते हैं।
किन-किन शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों से कौन-कौन से कर्मों का आना होता है उन्हीं का कुछ स्पष्टीकरण दिखाते हैं-
आत्मा में कर्मों का आना आस्रव कहलाता है।
आत्मा के जिन भावों से कर्मों का आना होता है उन भावों को भावास्रव कहते हैं और कर्मों का जाना द्रव्यास्रव है। यहाँ भावास्रव के भेदों को कहते हैं-
ज्ञानावरण – दर्शनावरण कर्म के आस्रव-ज्ञान और दर्शन में किये गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं।
प्रदोष-किसी धर्मात्मा के द्वारा की गई तत्त्वज्ञान-सच्चे ज्ञान की प्रशंसा का नहीं सुहाना प्रदोष है।
निन्हव-किसी कारण से ज्ञान को छुपाना निन्हव है या जिस गुरू से पढ़े हैं उनका नाम नहीं बताकर किसी अन्य का बता देना भी निन्हव है।
मात्सर्य-किसी शास्त्र को जानते हुए भी ‘‘यह भी पंडित हो जाएगा’’ ऐसे भाव से उसे नहीं पढ़ाना मात्सर्य है।
अन्तराय-किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है।
आसादन-दूसरे के द्वारा प्रकाशित होने योग्य ज्ञान को रोक देना आसादन है।
उपघात-सच्चे ज्ञान में दोष लगाना उपघात है।
ये छहों कारण यदि दर्शन के विषय में किये जावें तो दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है और यदि ज्ञान के विषय में किये जावें तो ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
वेदनीय के दोनों भेदों के आस्रव पृथक्-पृथक् कहते हैं।
असातावेदनीय के आस्रव-दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन इनको स्वयं करना, दूसरों में उत्पन्न कराना अथवा स्व-पर दोनों में करना-कराना, इससे असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
दु:ख-पीड़ारूप परिणाम का होना दु:ख है।
शोक-अपने उपकारी किसी का वियोग हो जाने पर जो विकलता होती है उसे शोक कहते हैं।
ताप-संसार में अपनी निन्दा आदि के हो जाने से पश्चाताप करना ताप है अथवा क्लेश से संतप्त होना भी ताप है।
आक्रन्दन-अश्रुपात करते हुए रोना आक्रन्दन है।
वध-किसी के आयु आदि प्राणों का नाश कर देना वध है।
परिदेवन-संक्लेश परिणामों के निमित्त से इस तरह रोना कि सुनने वाले के हृदय में दया उत्पन्न हो जाए तो परिदेवन है।
यद्यपि शोक आदि दु:ख के ही भेद हैं फिर भी दु:खों की जातियाँ बतलाने के लिए यहाँ मध्यम रूप से छह कारण बतलाये हैं तथा और भी दु:ख आदि कारणों से असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-तब तो उपवास करना-कराना, केशलोंच करना, शिष्यों को दण्ड देना, फटकारना, प्रायश्चित्त देना आदि कारणों से भी असातावेदनीय कर्म के आस्रव हो जावेंगे ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि मुनिगण कर्म निर्जरा के लिए ही उपवास, केशलोंच आदि करते-कराते हैं तथा शिष्यों को संसार दु:ख से छुटाकर मोक्षसुख प्राप्त कराने के लिए ही अपराध होने पर उन्हें दण्ड, फटकार या प्रायश्चित्त आदि देते हैं। जैसे कि कुशल वैद्य या डॉक्टर किसी के फोड़े को चीरते हुए भी सद्भाव के निमित्त से पाप का भागी नहीं है उसी प्रकार से साधुगण या माता-पिता, गुरु आदि हित की भावना से अनुशासन करते हैं अत: उन्हें असातावेदनीय का आस्रव नहीं होता है।
सातावेदनीय के आस्रव-भूत अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सरागसंयम आदि, योग, शान्ति और शौच, इनसे सातावेदनीय का आस्रव होता है।
भूत अनुकम्पा-भूत-संसार के समस्त प्राणी इन पर दया करना, उनके कष्ट को अपने कष्ट के समान समझना भूतानुकम्पा है।
व्रती अनुकम्पा-अणुव्रती गृहस्थ या महाव्रती मुनि आदि व्रती हैं। इनमें दया करना व्रती अनुकंपा है। इनमें यथायोग्य भक्ति और वात्सल्यभावपूर्वक उपकार की भावना रहती है इसलिए सभी प्राणियों में से इन्हें अलग कर कहा है।
दान-स्व और पर के उपकार हेतु योग्य वस्तु का देना दान है। इसके आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान ऐसे चार भेद हैं।
सरागसंयम-पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त होना तथा छहकाय के जीवों की हिंसा न करना संयम है, सरागी का संयम सरागसंयम है अथवा रागसहित संयम सरागसंयम है। यह संयम छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर दशवें गुणस्थानवर्ती मुनियों तक होता है।
‘‘आदि शब्द’’ से यहाँ पर संयामासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तप को भी ग्रहण करना चाहिए।
संयमासंयम-दर्शन प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक देशव्रत पालन करना संयमासंयम है। यह श्रावकों में होता है।
अकामनिर्जरा-कारावास आदि में संक्लेश रहित होकर भोगोपभोग का त्याग करने से बिना इच्छा के नियम आदि निभाने से अकामनिर्जरा होती है।
बालतप-मिथ्यात्व सहित तपश्चर्या करना बाल तप है इसे ही अज्ञान तप कहते हैं।
योग-इन सबको अच्छी तरह धारण करना योग कहलाता है।
क्षान्ति-क्रोधादि कषाय के अभाव को क्षान्ति कहते हैं, यही क्षमा है।
शौच-लोभ का त्याग करना शौच है तथा अर्हद्भक्ति, बाल, वृद्ध तपस्वियों-मुनियों की वैयावृत्ति आदि भी सातावेदनीय आस्रव के कारण हैं।
अर्हत् भक्ति-जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं और जो सर्वज्ञ, हितोपदेशी तथा वीतरागी हैं उन्हें अर्हन्त कहते हैं, इनकी पूजा अर्चना करना।
तपस्वी-अट्ठाईस मूलगुणधारी दिगम्बर साधु तपस्वी कहलाते हैं। इनकी भक्ति करना, इन्हें आहार आदि देना, इनकी वैयावृत्ति-सेवा, शुश्रूषा आदि करना। इन सब कार्यों से सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय।
दर्शनमोहनीय के आस्रव-केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद करना।
इनमें अविद्यमान भी दोषों को प्रगट करना-झूठे आरोप लगाना। इन सब कार्यों से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है।
केवली अवर्णवाद-जिनके चार घातिया कर्म नष्ट होकर केवलज्ञान प्रगट हो चुका है वे केवली हैं। इनके अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनंतसुख और अनन्तवीर्य ये चार अनन्त चतुष्टय प्रगट हो चुके हैं अत: इनमें जन्म, जरा, भूख, प्यास आदि अठारह दोष नहीं हैं। ऐसे केवली भगवान् भी ग्रास खाकर आहार ग्रहण करते हैं, इत्यादि कहना केवली का अवर्णवाद है।
श्रुत अवर्णवाद-केवली भगवान् के द्वारा उपदिष्ट और सप्तऋद्धि युक्त गणधरों द्वारा रचित ग्रन्थ श्रुत कहलाते हैं। श्रुत में मांस भक्षण आदि का वर्णन है ऐसा कहना श्रुत का अवर्णवाद है।
संघ अवर्णवाद-रत्नत्रय से सहित साधुओं का समूह संघ है अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इन चतुर्विध समुदाय को संघ कहते हैं। उनके प्रति ये शूद्र हैं, अपवित्र हैं-घिनावने हैं, इत्यादि कहना साधुओं को झूठे आरोप लगाना संघ का अवर्णवाद है।
धर्म अवर्णवाद-जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित दयामयी धर्म ही सच्चा धर्म है। उसके प्रति यह धर्म निर्गुण है, इसके धारण करने वाले मरकर असुर हो जावेंगे, इत्यादि कहना अवर्णवाद है।
देव अवर्णवाद-भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी और वैमानिक ये चार प्रकार के देव हैं। ये देव मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं इत्यादि कहना देव का अवर्णवाद है।
इन सबको झूठा दोष लगाने से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है, जो कि आगे चलकर उदय में आने पर सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होने देता है।
चारित्रमोहनीय के आस्रव-कषाय के उदय होने से तीव्र परिणामों से चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव होता है।
अनन्तानुबंधी आदि जिस-जिस जाति के क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों में से जिस-जिस कषाय का उदय आता है उस-उस कषाय की तीव्रता हो जाती है तो पुन: उस समय उसी-उसी कषाय के लिए आस्रव हो जाता है जो कि आगे चलकर उदय में आने पर अणुव्रत, महाव्रत आदि चारित्र को प्रगट नहीं होने देता है।
स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न कराना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले वेष और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
हास्य-सत्य धर्म का उपहास करना, दीन मनुष्य की हंसी उड़ाना, कुत्सित राग को बढ़ाने वाला हँसी-मजाक करना, बहुत बकने की आदत रखना और बहुत हँसने का स्वभाव होना, इन सब कार्यों से हास्य नोकषाय का आस्रव है।रति-नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में लगे रहना, व्रत और शील के पालन में रुचि नहीं रखना आदि रति नोकषाय के प्रमुख आस्रव हैं।
अरति-दूसरों में अरति हो और रति का विनाश हो ऐसी प्रवृत्ति करना और पापी लोगों की संगति करना आदि अरति नोकषाय के आस्रव के कारण हैं।
शोक-स्वयं शोकातुर होना, दूसरों के शोक को बढ़ाना तथा शोक करते हुए मनुष्यों का अभिनंदन करना-उन्हें अच्छा कहना, आदि शोक नोकषाय के आस्रव के कारण हैं।
भय-स्वयं डरना और दूसरे को भय पैदा कराना आदि भय नोकषाय के आस्रव के कारण हैं।
जुगुप्सा-सुखकर-अच्छी क्रिया से और अच्छे आचार से घृणा करना, दूसरों को झूठे आरोप लगाने में रुचि रखना आदि ये जुगुप्सा नोकषाय के आस्रव के कारण हैं।
स्त्रीवेद-असत्य बोलने की आदत होना, दूसरों को ठगने में तत्पर रहना, दूसरों के छिद्र ढूंढ़ना और राग की अधिकता होना आदि स्त्रीवेद के आस्रव के कारण हैं।
पुरुषवेद-क्रोध का अल्प होना, ईर्ष्या नहीं करना, स्वस्त्री में संतोष रखना आदि पुरुषवेद के आस्रव के कारण हैं।
नपुंसकवेद-प्रचुर मात्रा में कषाय करना, गुप्त इन्द्रियों का विनाश करना और परस्त्री में बलात्कार करना आदि नपुंसक वेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
इस प्रकार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के आस्रव के कारण कहे हैं, अब आयु आस्रव के कारण कहते हैं।
नरकायु के आस्रव के कारण-बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव होता है। प्राणियों को दु:ख पहुंचाने वाली प्रवृत्ति करना आरंभ है। यह वस्तु मेरी है, इस प्रकार की ममकार बुद्धि परिग्रह है। बहुत आरम्भी और बहुत परिग्रही नरकायु का आस्रव कर लेता है। हिंसा आदि क्रूर कार्यों में निरंतर प्रवृत्ति करना, दूसरे का धन अपहरण करना, इंद्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना और मरणकाल में कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि का होना ये सब नरकायु के आस्रव के कारण हैं।
तिर्यञ्चायु के आस्रव के कारण-माया तिर्यञ्च आयु के आस्रव का कारण है। चारित्रमोहनीय के उदय से जो आत्मा में कुटिल भाव पैदा होता है वह माया है अर्थात् निकृति-ठगना, इस मायाचारी से तिर्यञ्चायु का आस्रव होता है। धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उसका प्रचार करना, शील रहित जीवन होना, हमेशा दूसरोें को ठगने में लगे रहना अथवा झूठा विश्वास दिलाना, धोखेबाजी करना, मरण समय नील या कापोत लेश्या का होना और आर्तध्यान से मरण करना आदि तिर्यञ्चायु के आस्रव के कारण हैं।
मनुष्यायु के आस्रव के कारण-अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह रखने से मनुष्यायु का आस्रव होता है, इसके लिए और भी कारण हैं। स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, कषायों का मंद होना तथा मरण काल में संक्लेश परिणाम का नहीं होना आदि मनुष्य आयु के आस्रव हैं। स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का कारण है। आशय यह है कि बिना किसी के समझाए-बुझाए मृदुता अपने जीवन में स्वभाव से ही हो तो भी मनुष्यायु का आस्रव होता है।
देवायु के आस्रव के कारण-सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बाल तप ये देव आयु के आस्रव के कारण हैं।
सरागसंयम-दिगम्बर मुनियों के २८ मूलगुण आदि रूप संयम सरागसंयम है। सरागसंयमी के देवायु का आस्रव ही होता है।
संयमासंयम-अणुव्रती आदि श्रावकों से लेकर क्षु¼क-ऐलक तक के व्रत संयमासंयम हैं।
क्योंकि इनके त्रस जीवों की हिंसा का तो सर्वथा त्याग है और स्थावर हिंसा का त्याग नहीं है। इन श्रावकों के भी देवायु का आस्रव होता है।
अकाम निर्जरा-कारावास आदि में पराधीन रहने पर जो बिना इच्छा के भूख, प्यास आदि सहन करनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमि पर सोना पड़ता है, मल मूत्र को रोकना पड़ता है और संताप आदि होता है ये सब अकाम ‘इच्छा के बिना’ होते हैं और इन कार्यों से कर्मनिर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है, इनसे भी देवायु का आस्रव होता है।
बालतप-मिथ्यात्व से सहित, मोक्षमार्ग में उपयोगी न पड़ने वाले, अधिक कायक्लेश करने वाले व्रत करना, मायाचार से युक्त व्रतादि, तपश्चरण आदि करना बालतप है, उससे भी देवायु का आस्रव होता है। सम्यक्त्व भी देवायु के आस्रव का कारण है।
सम्यग्दर्शन से सहित मनुष्य या तिर्यञ्च को देवायु का आस्रव होता है और उसके भी भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देवों से अतिरिक्त वैमानिक देवों की आयु का ही आस्रव होता है।
नामकर्म के शुभ-अशुभ ये दो भेद हैं।
अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण-योग वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं।
योग वक्रता-मन, वचन, काय की कुटिलता योगों की वक्रता है।
विसंवाद-जो स्वर्ग ओर मोक्ष के योग्य समीचीन क्रियाओं का आचरण कर रहा है, उसके विपरीत मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से उसे रोक देना कि ‘ऐसा मत करो’ इससे विपरीत ऐसा करो इत्यादि, सो यह विसंवाद है।
इन दोनों से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है तथा मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त का स्थिर न रहना, माप-तौल के बांट घट-बढ़ रखना, दूसरों की निंदा करना और अपनी प्रशंसा करना आदि से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण-योगों की सरलता और अविसंवाद ये शुभ नामकर्म के आस्रव हैं। योग सरलता-मन, वचन, काय की सरलता होना।
अविसंवाद-धर्मानुकूल आचरण करने वाले को ‘आप ऐसा ही करो’ इत्यादि कहना अविसंवाद है। इन दोनों से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है। ऐसे ही धार्मिक पुरुषों का व स्थानों का दर्शन करना, उनका आदर-सत्कार करना, सद्भाव रखना, संसार से भयभीत रहना और प्रमाद का त्याग करना आदि। ये सब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं।
तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण-तीर्थंकर नामकर्म अनन्त और अनुपम प्रभाव वाला है, अचिन्त्य विभूति विशेष का कारण है और तीन लोक की विजय करने वाला है।
दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील व्रतों में अनतिचार, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य, अरिहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व ये सोलहकारण भावनाएं तीर्थंकर कर्म के आस्रव के कारण हैं।
दर्शनविशुद्धि-जिनेन्द्रदेव अरिहंत परमेष्ठी द्वारा कथित निर्ग्रन्थ स्वरूप मोक्षमार्ग का श्रद्धान करना दर्शनविशुद्धि है। यह आठ अंग सहित और पच्चीस मल दोष रहित होता है।
विनयसंपन्नता-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ये मोक्षमार्ग हैं, इनमें, इनके साधन गुरू आदि के प्रति अपने योग्य आचरण आदि के द्वारा आदर सत्कार करना विनय है और इससे युक्त होना विनयसंपन्नता है।
शीलव्रत-अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोध आदि का त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति रखना शीलव्रतेष्वनतिचार है।
अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-जीवादि पदार्थ रूप स्वतत्वविषयक सम्यग्ज्ञान में निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है।
संवेग-संसार के दु:खों से निरन्तर डरते रहना संवेग है।
शक्तितस्त्याग-त्याग-दान, यह तीन प्रकार का है-आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान१। उत्तम आदि पात्रों में शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक आहार आदि देना शक्तितस्त्याग है।
शक्तितस्तप-अपनी शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना तप है अर्थात् अनशन आदि बारह प्रकार के तप को करना शक्तितस्तप है।
साधुसमाधि-जैसे भंडार में आग लग जाने पर बहुत उपकारी होने से आग को शांत किया जाता है उसी तरह अनेक प्रकार के व्रत और शीलों के भंडार ऐसे मुनियों को यदि किसी कारणवश विघ्न उपस्थित हो जाए तो उसका संधारण करना-विघ्न शांत करके उन्हें अपने तपश्चरण में निराकुल कर देना यह साधुसमाधि है।
वैयावृत्य-गुणी पुरुषों आचार्य, उपाध्याय आदि तपस्वियों के रोग आदि दु:ख आ जाने पर निर्दोष विधि से उसे दृूर करना, उनके अनुकूल सेवा-शुश्रूषा आदि करना वैयावृत्त्य है।
अर्हद्भक्ति-सर्वज्ञ, हितोपदेशी और वीतरागी ऐसे अरिहंतदेव के प्रति भावों की विशुद्धिपूर्वक अनुराग रखना, उनकी पूजा, स्तुति आदि करना अर्हद्भक्ति है।
आचार्यभक्ति-जो दिगम्बर मुनि चतुर्विध संघ के अधिपति हैं, शिष्यों को शिक्षा, दीक्षा आदि देकर उन पर अनुग्रह करते हैं, वे आचार्य हैं, उनके प्रति अनुराग रखना, उनकी पूजा, भक्ति आदि करना बहुश्रुतभक्ति है।
प्रवचनभक्ति-चतुर्विध संघ को प्रवचन कहते हैं। उनके प्रति भावविशुद्धियुक्त अनुराग होना प्रवचनभक्ति है।
आवश्यक अपरिहाणि-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग मुनियों की ये षट्आवश्यक क्रियायें हैं तथा देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम और तप और दान ये श्रावक की षट् आवश्यक क्रियायें हैं। अपने-अपने पद के अनुरूप समय-समय पर आवश्यक क्रियाओं को करते रहना आवश्यक अपरिहाणि है।
मार्गप्रभावना-ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा इनके द्वारा धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है।
प्रवचनवत्सलत्व-जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचन वत्सलत्व है।
ये सोलहकारण भावनाएं हैं। इनकी सम्यक् प्रकार से भावना करने पर ये तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण हैं। ये सभी मिलकर तो कारण हैं ही कदाचित् कतिपय भावनाएं भी यदि दर्शनविशुद्धि से सहित हैं तो भी तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव की कारण हैं।
इस तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव-बंध करके यह जीव आगे तृतीय भव में तीर्थंकर महापुरुष हो जाता है। तब उसके देवों द्वारा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पांच कल्याणक मनाये जाते हैं।
गोत्रकर्म के उच्च, नीच के अपेक्षा दो भेद हैं-
नीच गोत्र के आस्रव के कारण-परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भवन ये नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं।
परनिन्दा-पर के सच्चे या झूठे दोष प्रकट करना परनिन्दा है।
आत्मप्रशंसा-अपने विद्यमान या अविद्यमान गुणों को प्रकट करना आत्मप्रशंसा है।
सद्गुणोच्छादन-दूसरों के सच्चे गुणों को भी ढक देना-प्रकट नहीं होने देना सद्गुणोच्छादन है।
असद्गुणोद्भावन-अपने अविद्यमान भी गुणों को प्रकट करते रहना असद्गुणोद्भावन है।
ये सब नीच गोत्र आस्रव के कारण हैं। परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोद्भावन और असद्गुणोच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं।
परप्रशंसा-दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना।
आत्मनिंदा-अपने दोषों की निंदा करना।
सद्गुणोद्भावन-दूसरोें के सच्चे गुणों को प्रकट करना।
असद्गुणोच्छादान-अपने अविद्यमान या विद्यमान भी गुणों को प्रकट नहीं करना।
नम्रवृत्ति-गुणों में श्रेष्ठजनों में विनय से नम्र रहना नम्रवृत्ति है।
अनुत्सेक-ज्ञानादि की अपेक्षा श्रेष्ठ रहते हुए भी उसका मद नहीं करना अहंकार रहित होना अनुत्सेक है।
ये सब उच्चगोत्र के आस्रव के कारण है।
अन्तराय के आस्रव के कारण-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनमें विघ्न डालना पांच प्रकार के अन्तराय के आस्रव के कारण हैं।
दान की निंदा करना, द्रव्यसंयोग-देवों को चढ़ाई गई नैवेद्य का भक्षण, पर के वीर्य का अपहरण, धर्म का उच्छेद, अधर्म का आचरण, दूसरों का निरोध, बंधन, कर्ण छेदन, गुह्य छेदन, नाक काटना और आंख फोड़ना आदि अंतराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।१
ज्ञानावरण आदि कर्मों के जो तत्प्रदोष, निन्हव आदि पृथक्-पृथक् आस्रव बतलाए हैं वे अपने-अपने कर्म के स्थिति और अनुभाग बंध के कारण होते हैं। उक्त आस्रव आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य सब कर्मों के प्रकृति और प्रदेश बंध के कारण समान रूप से हैं क्योंकि आयु का बंध सदा नहीं होता है।
बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ऐसे चार भेद होते हैं।
प्रकृतिबंध-कर्मों में जो ज्ञानादि को ढ़कने का स्वभाव है वह प्रकृति बंध है।
स्थिति बंध-ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत न होना, काल की अवधि पड़ जाना स्थिति बंध है।
अनुभाग बंध-ज्ञानावरणादि कर्मों में तीव्र या मंद आदि फल देने की शक्ति का होना अनुभाग बंध है।
प्रदेश बंध-ज्ञानावरणादि कर्म रूप पुद्गल स्कंधों के परमाणुओं को प्रदेश बंध कहते हैं।
इनमें से प्रकृति और प्रदेश बंध योगों से होता है आैर स्थिति तथा अनुभाग बंध कषाय से होता है।
कर्मबंध के ५ कारण भी माने गये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।अत
त्त्व श्रद्धान् का नाम मिथ्यात्व है। षट्काय जीवों की रक्षा नहीं करना और पांच इन्द्रिय तथा मन को वश में नहीं रखना अविरति है। कुशल कार्य में अनादर करना प्रमाद है। जो आत्मा को कषे, दु:ख देवे वे कषाय हैं। मन, वचन, काय से आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन होना योग है।
ये कर्मबंध के कारण ही संसार के कारण हैं अथवा मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन आदि से उल्टे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार के कारण हैं। उपर्युक्त कथित सभी कारण इन तीनों में ही गर्भित हो जाते हैं।
‘‘सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है।
छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा।
सछहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो१।।१९।।
छह द्रव्य, नव पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व ये जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये हैं। इनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है।
द्रव्य का लक्षण-‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्यम्’’-गुण और पर्यायों के समूह का नाम द्रव्य है। जो द्रव्य के साथ रहें वे गुण कहलाते हैं और जो क्रम से हों वे पर्यायें हैं। द्रव्य के छह भेद हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
जीव द्रव्य-‘‘उपयोगो लक्षणम्’’ जीव का लक्षण उपयोग है। इसके दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग।
पुद्गल द्रव्य-जिसमें हमेशा पूरण और गलन पाया जाए वह पुद्गल द्रव्य है। इसके दो भेद हैं-अणु और स्कंध।
धर्मद्रव्य-जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकरी हो वह धर्म द्रव्य है। जैसे-मछली को चलने में जल सहकारी है।
अधर्मद्रव्य-जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहकारी हो वह अधर्म द्रव्य है। जैसे-चलते हुए पथिक को ठहरने में वृक्ष की छाया सहकारी है।
आकाश द्रव्य-जो समस्त द्रव्यों को अवकाश-‘स्थान’ देता है, वह आकाश द्रव्य है। इसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश।
जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांचों द्रव्य पाए जाते हैं वह लोकाकाश है। उसके बाहर चारों तरफ अनंतानंत अलोकाकाश है।
काल द्रव्य-जो सभी द्रव्यों के परिणमन-परिवर्तन में सहायक हो वह कालद्रव्य है। इसके दो भेद हैं-निश्चयकाल और व्यवहारकाल।
वर्तना लक्षण वाला निश्चय काल है और घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि व्यवहार काल हैं।
एक-एक द्रव्य कितने हैं-जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं। पुद्गल द्रव्य भी जीव से अनंतगुणे अनंतानन्त हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक तथा अखण्ड हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं।
इन एक-एक द्रव्य के प्रदेश की संख्या-एक जीव द्रव्य, धर्म, अधर्म और लोकाकाश, इनके प्रत्येक के असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल के एक से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं और काल द्रव्य एक प्रदेशी है।
अस्तिकाय-जो अस्ति-विद्यमान हो अर्थात् सत् लक्षण वाला हो उसे ‘‘अस्ति’’ कहते हैं और बहुत प्रदेशी को ‘‘काय’’ कहते हैं। प्रारंभ के पांच द्रव्य ‘‘अस्तिकाय’’ हैं। काल द्रव्य ‘‘अस्ति’’ तो है किन्तु काय-बहुप्रदेशी नहीं है इसीलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहते हैं, अत: पांच द्रव्य ही अस्तिकाय हैं।
जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय।
मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य-जीव द्रव्य संसार अवस्था में मूर्तिक और सिद्ध अवस्था में अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष चार द्रव्य अमूर्तिक हैं।
वस्तु के यथार्थ स्वभाव को तत्त्व कहते हैं। उनके सात भेद हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
जीव-जिमसें ज्ञान, दर्शन रूप भाव प्राण और इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास रूप द्रव्य प्राण पाये जाते हैं वह जीव है।
अजीव-इससे विपरीत लक्षण वाला अजीव तत्त्व है।
आस्रव-राग, द्वेष आदि भावों के कारण आत्मप्रदेशों में कर्मों का आना आस्रव है। इसके दो भेद हैं-भावास्रव और द्रव्य आस्रव।
आत्मा के जिन भावों से कर्म आते हैं उन भावों को भावास्रव और पुद्गलमय कर्म परमाणुओं के आने को द्रव्यास्रव कहते हैं।
बंध-आये हुये कर्मों का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना बंध है। इसके भी दो भेद हैं-भावबंध और द्रव्यबंध।
आत्मा के जिन परिणामों से कर्मबंध होता है, वह भावबंध और परमाणुओं का आत्मा के प्रदेशों में दूध-पानी के सदृश एकमेक हो जाना द्रव्य बंध है।
संवर-आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है। उसके भी दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर।
जिन समिति, गुप्ति आदि भावों से कर्म रुक जाते हैं वह भावसंवर है और पुद्गलमय कर्मों का आना रुक जाना द्रव्य संवर है।
निर्जरा-आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है। इसके भी दो भेद हैं-भावनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा।
आत्मा के जिन तपश्चरण आदि भावों से कर्म झड़ते हैं वे परिणाम भाव निर्जरा हैं और पौद्गलिक कर्मों का एकदेश निजीर्ण होना द्रव्य निर्जरा है।
मोक्ष-सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना मोक्ष है। इसके भी दो भेद हैं-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष।
आत्मा के जिन भावों से संपूर्ण कर्म अलग हो जाते हैं वह भावमोक्ष है और संपूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना द्रव्यमोक्ष है।
नव पदार्थ-इन्हीं सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को मिला देने से नव पदार्थ कहलाते हैं। जो आत्मा को पवित्र करे या सुखी करे उसे पुण्य कहते हैं और जिसके उदय से जीव को दु:खदायक सामग्री मिले वह पाप है।
इन सात तत्त्वों में से आस्रव और बंध तत्त्व संसार के कारण हैं तथा संवर और निर्जरा तत्त्व मोक्ष के लिए कारण हैं, ऐसा समझकर आस्रव और बंध के कारणों से बचना चाहिए तथा संवर और निर्जरा के कारणों को प्राप्त करना चाहिए।
संशय, विपरीत और अनध्यवसाय इन तीन दोषों से रहित पदार्थों का जैसे का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, इन चारों वेद रूप भी यह सम्यग्ज्ञान है।
किसी एक महापुरुष के चरित्र के प्रतिपादक और त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन करने वाले, पुण्य के कारणभूत बोधि समाधि के स्थान ऐसे शास्त्र प्रथमानुयोग हैं।
लोक-अलोक के विभाग को, काल के परिवर्तन को और चारों गतियों को दर्पण के समान बतलाने वाले शास्त्र करणानुयोग हैं।
गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों के प्रतिपादक शास्त्र चरणानुयोग हैं।
जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को तथा बंध-मोक्ष को कहने वाले शास्त्र द्रव्यानुयोग हैं।
इन चारों अनुयोगों के शास्त्रों का सतत पठन-पाठन करते रहने से सच्चे ज्ञान की वृद्धि होती है। आत्मा में शांति बढ़ती है और राग, द्वेष की परम्परा क्षीण होती है।
समीचीन आचरण ही सम्यक्चारित्र है अथवा पाप की नाली के समान हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों से विरक्त होना सम्यक्चारित्र है। इसके सकल चारित्र और विकल चारित्र की अपेक्षा दो भेद हैं।
इन पाँचों पापों को पूर्णतया त्याग कर देने से महाव्रत रूप सकल चारित्र हो जाता है। यह महाव्रत रूप चारित्र मुनियों के ही होता है। इस सकल चारित्र के पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह भेद भी होते हैं।
इन पांचों पापों का अणुरूप-एकदेश त्याग करने से अणुव्रत रूप विकल चारित्र होता है। यह विकल चारित्र गृहस्थों के होता है।
अहिंसा अणुव्रत-जो मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक त्रस जीवों का घात नहीं करना है वह अहिंसा अणुव्रत है।
सत्याणुव्रत-जो स्थूल असत्य स्वयं नहीं बोलता है, न दूसरों से बुलवाता है और ऐसा सत्य भी नहीं बोलता है कि जो धर्म की हानि या पर की विपत्ति के लिए हो जावे, वह एकदेशरूप सत्याणुव्रती है।
अचौर्य अणुव्रत-जो पर की कोई भी धन, संपत्ति या वस्तु रखी हुई हो, भूली हुई हो या गिर गई हो उसको उसके मालिक के बिना दिए नहीं ग्रहण करना वह अचौर्य अणुव्रत है।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत-जो पाप के भय से पर की स्त्री का त्याग कर देता है अर्थात् अपने से छोटी को पुत्री, बराबर को बहन और बड़ी को माता के समान समझता है, अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष रखता है वह ब्रह्मचर्याणुव्रती है।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत-धन, धान्य आदि परिग्रह का परिमाण करके उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।
ये पांच अणुव्रत नियम से स्वर्ग को प्राप्त कराने वाले हैं अर्थात् इस भव में नाना सुख, संपत्ति और यश को देकर परभव में स्वर्ग को देने वाले हैं ‘‘क्योंकि अणुव्रत और महाव्रतों को धारण करने वाला जीव देवायु का ही बन्ध करता है।’’ शेष तीन आयु के बंध हो जाने पर ये व्रत हो ही नहीं सकते हैं। इन पांच अणुव्रतों में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मिलाकर बारह व्रत भी होते हैं जो कि विकल चारित्ररूप हैं।
उपसंहार-इस प्रकार से प्रारंभ में उठाये गये प्रश्नों का उत्तर इस जैनदर्शन में समुचित रूप से मिल जाता है। यथा-
प्रश्न-१. संसार नित्य है या अनित्य ?
उत्तर-चतुर्गति रूप संसार नाना जीवों की अपेक्षा नित्य है। एक किसी भव्य जीव की अपेक्षा अनित्य भी है क्योंकि भव्य जीव संसार का अंत कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न-२. संसार की सृष्टि का कर्ता कोई है या नहीं ?
उत्तर-यह संसार की सृष्टि अनादिनिधन है, इसका कर्ता कोई भी ईश्वर आदि नहीं है। हाँ, प्रत्येक जीव अपने किये गए शुभाशुभ कर्म के अनुसार अपनी-अपनी सृष्टि का निर्माण करता रहता है और जब वह ही स्वयं कर्मों का नाश कर देता है तब अपनी संसार की सृष्टि ‘रचना’ का संहार कर देता है।
प्रश्न-३. आत्मा का स्वरूप क्या है ?
उत्तर-आत्मा का स्वरूप ज्ञान और दर्शन है। इसी से यह जानता और देखता है। संसार में कर्मों के आवरण से ज्ञान-दर्शन अल्प-अल्प दिख रहे हैं। जब कर्मों का आवरण नष्ट हो जाता है तब आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्थात् सारे चराचर लोक-अलोक को जानने-देखने वाला हो जाता है। तभी यह परमात्मा और ईश्वर कहलाने लगता है।
प्रश्न-४. आत्मा का पुनर्जन्म है या नहीं ?
उत्तर-जब तक यह आत्मा संसारी है तब तक पुनर्जन्म को धारण करता ही रहता है और जब मुक्त हो जाता है तब कभी भी पुन: इस संसार में अवतार-‘जन्म’ नहीं लेता है।
प्रश्न-५. ईश्वर की सत्ता है या नहीं ?
उत्तर-अनन्त जीव कर्मों का नाश कर सिद्ध परमात्मा हो चुके हैं। उनमें अनंत गुण प्रकट हो जाने से वही ईश्वर, परमपिता, परमेश्वर, महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, भगवान, तीर्थंकर, महावीर और परम पुरुष आदि नामों से कहे जाते हैं इसलिए जैन सिद्धान्त के अनुसार अनन्त ईश्वर हैं। हाँ, सृष्टि का कर्ता कोई ईश्वर नहीं है क्योंकि सर्व कर्म से मुक्त हुये कृतकृत्य ईश्वर को पुन: संसार के किसी भी कार्य से प्रयोजन नहीं रहा है। वे अपने अनंत, अव्याबाध सुख में लवलीन हो रहे हैं, वे मात्र इस संसार के ज्ञाता द्रष्टा ही हैं।
यहाँ पर यह विशेष ज्ञातव्य है कि जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्त अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त आदि हैं। ये सिद्धान्त प्राणी मात्र के लिए हितकर हैं इसलिए यह धर्म सार्वधर्म या सार्वभौम अथवा सर्वोदय तीर्थ कहलाता है। जैनधर्म की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-
‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’ जो कर्म शत्रुओं को जीत लेता है वह ‘‘जिन’’ है और ‘‘जिनो देवता यस्येति जैन:’’ ये जिन हैं देवता जिसके, वे जैन हैं तथा ‘‘संसार दु:खत: प्राणिन: उद्धृत्य उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’’ जो प्राणियों को संसार के दु:खों से निकालकर उत्तम सुख में धर देता है-पहुंचा देता है वह धर्म है।
ऐसे धर्म की छत्रछाया में आने वाले जीव नियम से अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेते हैं और
सदा-सदा के लिए सुखी हो जाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।