किसी ने पूछा—धर्म और विज्ञान एक दूसरे के संपूरक हैं या विघटक ? उत्तर मिला—पूरक हैं। मनुष्य को जीवन में जितनी आवश्यकता धर्म की है। उतनी ही विज्ञान की भी है। क्योंकि मनुष्य को गति विज्ञान से मिलती है जबकि धर्म इसे दिशा प्रदान करता है। विज्ञान के पास गति तो है किन्तु दिशा नहीं अत: जीवन में धर्म और विज्ञान का संतुलित समन्वय आज की सर्वोपरिजरूरत है।
किसी भाई ने पूछा—धर्म बड़ा है या विज्ञान ? दूसरे ने उसी से पूछ लिया—माँ बड़ी है या बेटा ? उनका उत्तर था—माँ ! लेकिन यह उत्तर अधूरा है। माँ बड़ी है यह कथन स्थूल हैं। अनेकांत शैली में कथंचित, बेटा बड़ा है क्योंकि बेटे के बिना किसी स्त्री को माँ संज्ञा प्राप्त नहीं होती है। सन्तान को जन्म देने से पूर्व वह किसी की पत्नी थी, माँ नहीं। दुनिया कहती हैं कि माँ ने बेटे को जन्म दिया किन्तु कथंचित् पुत्र ने भी माँ को जन्म दिया है।
धर्म बड़ा है या विज्ञान ? इसका भी उत्तर यही है कि कथंचित् धर्म बड़ा है एवं कथंचित् विज्ञान बड़ा है। अपने—अपने स्थान पर दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। हाँ इतना अवश्य है कि अकेला विज्ञान विनाशकारी सिद्ध हो सकता है अत: विज्ञान पर धर्म का अंकुश जरूरी है। जैसे बेटे पर पिता का अंकुश बेटे के जीवन में विकास के नये—नये द्वार खोलता है वैसे ही धर्म द्वारा नियंत्रित विज्ञान जीवन में सर्वतोमुखी विकास करने में समर्थ होता है। जैसे अंकुश रहित हाथी और लगाम रहित घोड़ा बेकाबू हो जाता है वैसे ही धर्म रहित विज्ञान उच्छंखल हो जाता है।
आज के वैज्ञानिक से यदि यह पूछा जाए कि उसका लक्ष्य क्या है ? तो वह कहता है कि हम एक ऐसी रेलगाड़ी में बैठे हैं जिसका एक्सीलेटर तो निरंतर दबता जा रहा है किन्तु उसके ब्रेक पर कोई काबू नहीं है। पता नहीं आगे क्या होने वाला है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि अगर जीवन में सुख और शांति को पाना चाहते हैं तो बिना ब्रेक के विज्ञान पर धर्म का ब्रेक लगाना जरूरी है।
धर्म जीवन है और विज्ञान जीवन की गति है।
धर्म जीवन का प्रयोग है तो विज्ञान प्रयोगशाला है। धर्म जीवन की बुनियाद है और विज्ञान जीवन का शिखर है। धर्म जीवन की शक्ति है और विज्ञान अभिक्रांति है। धर्म शाश्वत है और विज्ञान समय की आवश्यकता है। जब इस धरती पर भौतिक विज्ञान नहीं था धर्म तो तब भी था और जब भौतिक विज्ञान नहीं होगा धर्म तब भी रहेगा अर्थात् धर्म की सत्ता त्रैकालिक है।
जब जीवन में धर्म गौण होकर विज्ञान मुख्य हो जाता है तब जीवन कितना फीका व नीरस हो जाता है इसको समझने के लिए निम्न उदाहरण है—
अमेरिका में एक व्यक्ति ने पांच सितारा होटल की पंद्रहवीं मंजिल से कूदकर आत्म हत्या कर ली। उसने मरने से पूर्व पत्र में लिखा—मैंने जो चाहा मिल गया। अच्छी शिक्षा मिली, अच्छी पत्नी मिली नौकरी आदि सब मिल गया। अब मेरे जीने की कोई चाह नहीं है अत: मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। उसकी सूची में धर्म का नाम ही नहीं था इसलिए वह आत्महत्या करने को बाध्य हो गया। धर्म तो जीवन से हताश व्यक्ति को जीने की प्रेरणा देता है।
आज से सदियों पूर्व भगवान महावीर व उत्तरवर्ती आचार्यो ने आत्मा की प्रयोगशाला में बैठकर जिन तथ्यों की उद्घोषणा की थी वे आज भी विज्ञान की कसौटी पर खरे उतर रहे हैं। अल्बर्ट आइन्सटाइन की ‘‘थ्योरी आफ रिलेटिविटी (सापेक्षकता का सिद्धांत)’’ कुछ नया नहीं है। भगवान महावीर इन्हीं सब बातों को २५०० वर्ष पूर्व बता चुके हैं।
जहाँ पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक पैदा होते हैं वहीं भारत में तीर्थंकर ऋषि मुनि जन्म लेते हैं। ऋषि मुनि आत्मा की तह में जीने वाले होते हैं इसलिए वे विश्व को अध्यात्म का प्रसाद बाँटते हैं और वैज्ञानिक पुद्गल के तल पर जीते हैं इसलिए वे भौतिक संसाधनों का आविष्कार करते हैं।
भौतिक ज्ञान को विज्ञान कहते हैं, तत्त्व निर्णय को दर्शन कहते हैं। जिस मार्ग पर चलने से आत्मिक शान्ति मिलती है व शाश्वत सुख का मार्ग प्रशस्त होता है, उसको धर्म कहते हैं।
मूर्त की खोज—विज्ञान है। अमूर्त का अनुभव—धर्म है।
जो भी दृश्य या सूक्ष्म—दृश्य है—वह पुद्गल की पर्याय (Manifestation of Matter) है, जो संयोग/वियोग के गुण धर्म से जुड़ा है। परन्तु जो अदृश्य है वह चेतना है, अभौतिक है, शाश्वत है। यही चेतना ज्ञान और दर्शन के गुण से युक्त, आत्मा है।
जो अणु और परमाणु की शक्ति का चितेरा है—वह विज्ञान है। जो चेतना की शक्ति से आन्दोलित है वह धर्म है। विज्ञान—बाहर की खोज पर खड़ा है। धर्म आत्म अन्वेषण की अभिव्यक्ति है। परन्तु खोज चाहे बाहर की हो या भीतर की, कार्य–कारण सिद्धान्त पर खड़ी है।
विज्ञान कहता है–भगवान् से क्या लेना देना, हम तो प्रकृति का नियम खोजते हैं। जैनधर्म भी यही कहता है—हम उस नियन्ता को नमन करते हैं, जो भौतिक जगत से भिन्न अलौकिक है। हमारा नियन्ता—आत्म पुरुषार्थ है। जो हम कर रहे हैं, वही भोग रहे हैं। अच्छा या बुरा–किसी अन्य का दिया हुआ नहीं है, बल्कि हमारे ही कर्म और कर्म के फल हैं। कार्य और उसके फल का एक—दूसरे के साथ सीधा संबंध है, जो कर्म करने के पश्चात् उसी क्षण से मिलना प्रारम्भ हो जाता है।
जैन दर्शन की भाँति विज्ञान भी संसार को शाश्वत स्वयं सिद्ध मानता है। यदि जैनदर्शन में जड़ एवं चेतन दो मुख्य द्रव्य माने हैं, तो विज्ञान भी इन्हें जड़त्व (Inertial Mass) तथा ऊर्जा (Energy) से संबोधित करता है। दोनों का मूल सिद्धान्त है—जड़ चेतन का द्वैतवाद। परिणमन दोनों द्रव्यों का स्वभाव है। जो ‘उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य युक्त’’ है। जैनदर्शन का ‘‘उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य’’ सिद्धान्त विज्ञान का भी मूल सिद्धान्त है, जो (Law of Conservation of Mass) और (Law of Conservation of Energy) के नाम से जाने जाते हैं।
विज्ञान शक्ति है/ऊर्जा है, तो धर्म–जीवन की उस शक्ति को दिशा देता है। धर्म है—‘विवेक की आँख’। विज्ञान के साथ यदि विवेक की आँख जुड़ जाये तो विज्ञान—‘श्रेयस’ बन जाता है। धर्म और विज्ञान में मित्रता चाहिए, समन्वय चाहिए।
अकेला विज्ञान—भोग संस्कृति परोस रहा है। वह आराम दे सकता है—आत्मिक सुख नहीं।
जीवन में जहाँ विज्ञान की इति है, वहां से धर्म की शुरुआत है। एक विज्ञानी (Scientist) ऐसे ‘धर्मयुग’ की प्रतीक्षा में बैठा है, जो अंधविश्वासों की चुनौती स्वीकारता हुआ, परीक्षण एवं तथ्यों पर आधारित हो। सारांश है—कि आज विज्ञान का आध्यात्मीकरण चाहिए और अध्यात्म का विज्ञानीकरण हो।
जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। यह तथ्यों/तर्कों और आत्मपरीक्षण की कसौटी पर कसा हुआ धर्म है। यहाँ क्रियाकाण्ड को प्रश्रय नहीं है। कर्म सिद्धांत जो जैनदर्शन की रीढ़ है, वह सत्य/तथ्य परक विज्ञान की पृष्ठभूमि पर आधारित है।
जीवन—दोनों तरफ पैâला है : बाहर भी, भीतर भी। इसलिए जीवन विज्ञान और धर्म दोनों से जुड़ा है। यदि विज्ञान—जीवन का वृक्ष है तो धर्म—उस वृक्ष का मूल है, जो उस वृक्ष में फल—फूल उगाने की सम्भावना लिए है। जीवन की सम्पूर्णता—दोनों के समन्वय में है। क्योंकि विज्ञान अभिमुख है—शक्ति की ओर, और धर्म संकल्पित है शांति के लिए। आवश्यकता है–उस अभिनव शक्ति की जो शांति/समता/आनंद से जुड़ी हो।
आण्विक–शक्ति विज्ञान की उपलब्धि है जिसे ध्वंसात्मक और सृजनात्मक—दोनों बनाया जा सकता है यदि यह शक्ति–विवेक से जुड़ जाए तो सृजनशील हो सकती है और यही शक्ति निरंकुश हो जाए तो मानव के लिए संघातक है।
जैनधर्म की आध्यात्मिकता को विज्ञान की आँख से देखकर वैज्ञानिक—विश्लेषण निम्न तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है—
(१) धर्म और गणित।
(२) जैनधर्म में पुद्गल और आधुनिक परमाणुवाद।
(३) विज्ञान के आलोक में अमूर्त—पदार्थ (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) की अवधारणाएँ।
(४) मंत्र/ध्यान एवं भाव—रसायन में विज्ञान की पहुँच।
(५) जैनधर्म और वनस्पति विज्ञान।
कहा जाता है कि ‘मेथेमेटिक्स इज द क्वीन ऑफ ऑल साइन्सेज—अर्थात् विज्ञान का मूल गणित है।
प्राचीन भारत में जैन दार्शनिकों / आचार्यों का गणित के क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्य काफी महत्व रखता है। लोगरिथ्म का जनक सर जॉन नेपियर (ई. १५वीं शती) को मानते हैं। परन्तु दिगम्बर जैनों के प्राचीन ग्रंथ ‘धवला’ में (अर्धच्छेद) (लघुरिथ्म) की कल्पना ही नहीं की उसका गुणाकार, भागाकार लॉग टू डिफरण्ट बेसेजम e में उपयोग आदि का सुस्पष्ट रीति में विशद वर्णन है। ईसा की ९वीं शती में महावीराचार्य हुए, जिन्होंने ‘गणितसार संग्रह’ जैसा अप्रतिम ग्रंथ लिखा। नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती के ‘गोम्मटसार’ में वर्णित गणित को देखकर आश्चर्य होता है।
आज के संख्याशास्त्र का मूल जैन सिद्धांत में है। श्री पी. सी. महालनबीस ने ज्यूरिच में पठित अपने शोध—प्रबंध में कहा है कि आधुनिक सांख्यकी में मूलभूत सिद्धातों की तार्किक भूमिका हमें स्याद्वाद के तार्किक सिद्धांत में उपलब्ध होती है। जैनधर्म द्वारा नित्यत्ववाद, आधुनिक सांख्यकी के सम्भावनावाद (Theory of Probability) इकाई और समूह संबंध की धारणा, एसोसिएशन कोरिलेशन, कोनकोमिटेन्ट वेरिएशन का सिद्धान्त अनिश्चित परिणाम धारणा आदि विचारों की तार्किक पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। जैन ज्यामिती, बीजगणित एवं अंकगणित आदि का विस्तृत विवरण—‘षट्खण्डागम’ और ‘जम्बूदीवपण्णत्ति संगहो ’ की भूमिकाओं में दिया गया है।
आचार्य उमास्वामी के ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ के पाँचवे अध्याय में षड्द्रव्यों में अजीव (पुद्गल—Matter) आकाश (Space) काल (Time), धर्मद्रव्य (Non-Material Media, Media for Propagation of Matter and Energy) तथा अधर्म—द्रव्य का ४२ सूत्रों में पूर्णतया विज्ञान सम्मत वर्णन है।
पुद्गल (मूर्तिक/रूपी) के एक अविभाज्य कण को स्निग्ध या रूक्ष कणों के रूप में बताया गया है, जो ऋणात्मक विद्युन्मय कण इलेक्ट्रॉन और धनात्मक विद्युन्मय कण पोजीट्रॉन कण है, जिनका परमाणु संरचना में मूलकणों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक विज्ञान—परमाणु की आन्तरिक संरचना में इलेक्ट्रॉन्स केन्द्रक से चारों ओर विभिन्न ऊर्जा स्तरों में तीव्र गति से घूमते रहते हैं।
स्कन्धों (Molecules) के निर्माण में यह सूत्र दृष्टव्य है—
‘‘स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्ध:’’ अर्थात् स्निग्ध/रूक्षकण आपस में स्पृष्ट होते हैं और उनका बंध रूप परिणमन ही स्कन्ध की रचना करता है। प्रो. एिंडग्टन ने अपनी पुस्तक ‘‘साइंस एण्ड कल्चर’’ में इस तथ्य को उद्घाटित किया है। ‘‘निगेट्रॉन—कण प्रोटोन की तरह भारी परन्तु ऋणात्मक विद्युन्मय हैं। वास्तव में यह रूक्ष कण का रूक्ष कण से सम्मिलन का उदाहरण है। इसी प्रकार पोजीट्रॉन कण परस्पर मिलकर प्रोटोन कण बनाते हैं, जो स्निग्ध का स्निग्ध कण से सम्मिलन का उदाहरण है।
‘
न जघन्यगुणानाम्’’ जिनमें एक ही अंश स्निग्ध का अथवा रूक्ष का पाया जाता है, उनका परस्पर बंध नहीं होता। आधुनिक विज्ञान मानता है कि परमाणु संरचना में अंतिम ऊर्जा स्तर (लोएस्ट एनर्जी लेवल) के मूलकण आपस में नहीं मिलते। अत: रूक्ष या स्निग्ध कण स्वतंत्र अवस्था में भी पाये जाने चाहिए। प्रयोग—धातुओं को विद्युत द्वारा गर्म किए जाने पर निर्वात में, उनसे इलेक्ट्रॉन के पुंज निर्गत होते हैं। एण्डरसन ने कास्मिक किरणों को ऋण विद्युन्मय कणों का पुंज ही बताया है। ये प्रयोग सूत्र नं ३३ को सत्यापित करती है।
(१) स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गला:’’ सभी पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं आधुनिक विज्ञान चार भौतिक प्रविधियों द्वारा जैन दर्शन में वर्णित आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान कराता है—कठोर से (मृदु कठिन), घनत्व से (गुरू, लघु), ताप से (शीत, उष्ण), तथा रवे (Crystal) की संरचना में (स्निग्ध और रूक्ष)। रस के संबंध में लंदन के प्रो. विनिफ्रेड कूलिस ने अपने शोध निबंध में वर्णित किया कि जीभ पर स्वाद का प्रक्षेपण (Projection) लेन्स द्वारा देखा जा सकता है जैसे—मिष्ट स्वाद जीभ के अग्रभाग पर, कड़वा स्वाद जीभ के पिछले भाग पर अनुभव किया जाता है। जैनदर्शन में पाँच मूल रंगों का वर्णन है—नीला, पीला, सफेद, काला और लाल। सी. वी. रमन के वर्ण संबंधी प्रयोगों से उक्त तथ्य प्रमाणित है। जैसे–जैसे वस्तु का ताप बढ़ता है उत्सर्जित प्रकाश तरंगों की तरंग—दैर्ध्य के परिवर्तन से रंग परिवर्तित होते जाते हैं।
(२) पुद्गल परमाणु की गतिशीलता—जैनधर्म के अनुसार परमाणु में एक समय में चौदह राजू गमन करने की शक्ति बतलायी है। प्रकाश—पिण्डों का वेग ३ ² १०१० सेमी प्रति सेकेण्ड नाप लिया गया है। ये प्रकाश—पिण्ड—फोटॉन कहलाते हैं, जो पुद्गल के रूप है। विद्युत चुम्बकीय तरंग आदि परमाणु की गतिशीलता के द्योतक है। परमाणु रचना में इलेक्ट्रॉन का अपने ओरविट्स में घूमते रहना, उक्त तथ्य का प्रमाण है।
(३) पुद्गल अनन्त शक्ति का खजाना—आइन्स्टाइन के संहति—ऊर्जा सूत्र (E = mc x 2) जहाँ E= ऊर्जा, M= द्रव्यमान एवं C प्रकाशवेग है, ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्तु का द्रव्यमान ऊर्जा में बदला जा सकता है—१० ग्राम यूरेनियम धातु, जब शक्ति में रूपान्तरित होती है तो ३ हजार टन कोयला जलाने जितनी उष्णता उत्पन्न होती है।
एनीहिलेशन ऑफ एनर्जी घटना द्वारा ऊर्जा को द्रव्यमान में बदला जा सकता है। डॉ. भाभा ने कांस्मिक किरणों के सैद्धान्तिक विवेचन में प्रकाशकण जो—(अल्फा) कणों से मिलकर बनते हैं शक्ति का रूप है। जब फोटॉन—अन्य शक्ति में परिवर्तित होता है, तब परिणाम में, अतिरिक्त ऊर्जा निकलती है। यह पुद्गल की शक्ति का द्योतक है।
(४) ‘‘शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोंद्योतवन्तश्च’’ सूत्र के अनुसार शब्द, बंध सूक्ष्मता, मोटापन, आकृति, भेद, तम (अंधकार), छाया, आपप, उद्योत (प्रकाश) ये सभी पुद्गल की पर्यायें हैं।
वैशेषिक दर्शन का मत है कि शब्द—आकाश द्रव्य का गुण है, परन्तु आधुनिक विज्ञान ने जैनदर्शन के सिद्धांत का समर्थन किया। ध्वनि ऊर्जा को बांधना, पकड़ना, प्रेषित करना, उसे सघन/विरल करना संभव है। छाया—प्रतिबिम्ब का रूप है तम—प्रकाश का अभाव नहीं है जैसा कणाद आदि दार्शनिकों ने कहा था, क्योंकि अंधकार में भी इनफ्ररेड और अल्ट्रा बैगनी किरणें गुजरती रहती हैं। जिनका प्रभाव फोटोग्राफिक प्लेट पर देखा जा सकता है।
(५) जैन दर्शन का परमाणुवाद तथा क्वांटम फिजिक्स—मूर्त पुद्गल का अमूर्त आत्मा के साथ बंधन संभव करने के उद्देश्य से ही भगवान महावीर ने मूर्त परमाणु को एक प्रदेशी कहा। परमाणु प्रदेश तथा आत्म प्रदेश के मिलन को बंध की संज्ञा दी। मूर्त द्रव्य (Mass) तथा अमूर्त द्रव्य (Energy) के बीच होने वाले बंध या (Interaction) के रहस्यों को जानने के उद्देश्य से ही सन् १८८९ से १९२५ के वर्षकाल में क्वांटम फिजिक्स का विकास हुआ। इसके अनुसार परमाणु एक प्रकार का (Electron Cloud) है जो न्यूनतम क्षेत्र में फैला है इस विद्युत फैलाव (Charge Distribution) का केन्द्र परमाणु है। यही विद्युत क्षेत्र ‘परमाणु प्रदेश’ है। परमाणु को ‘एक प्रदेशी’ कहना जैनाचार्यों की दूरदर्शिता, क्वांटम् फिजिक्स के ज्ञान को सिद्ध करता है।
१९२४ में ‘डीब्रोली’ (फ़्रांसिसी वैज्ञानिक) ने (Wave Nature of Matter) का सिद्धान्त रखा, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। इस सिद्धान्त के अनुसार परमाणु द्विगुणी है अर्थात् उसमें Mass तथा Energy दोनों के गुण है। भगवान महावीर ‘परमाणु प्रदेश’ इसी सिद्धान्त का एक स्वरूप है।
संसार सृष्टि के छह उपादानों में पुद्गल (Matter) केवल रूपी/मूर्त पदार्थ है शेष जीव (आत्मा), धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल और आकाश अरूपी पदार्थ हैं। इन षड्द्रव्यों में चार अरूपी अजीव द्रव्यों को आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त संक्षेप में यहाँ आख्यापित करते हैं।
(१) धर्मद्रव्य—(पंचास्तिकाय में धर्म द्रव्य का वर्णन इस प्रकार है)—
‘‘यह न तो स्वयं चलता है, न किसी को चलाता है, केवल गतिशील जीव/अजीव स्कन्धों/अणुओं की गति में सहकारी एवं उदासीन कारण होता है। जीव के गमनागमन, अतिसूक्ष्म पुद्गलों के प्र्ासारित होने, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा मनो/भाव वर्गणाओं में धर्मास्तिकाय निमित्त कारण है। यह वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से रहित एक अखण्ड है और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है।
सर्वप्रथम माइकेलसन वैज्ञानिक ने प्रकाश का वेग ज्ञात करते समय एक ऐसे ही अखण्ड—द्रव्य की परिकल्पना की थी, जो पूर्ण प्रत्यास्थ, लचीला, अत्यंत हल्का (Weightless) और प्रकाश कणों के चलाने में सहायक माध्यम की तरह व्यवहार करता है। उसका नाम ‘ईथर’ दिया जो धर्म द्रव्य के गुणों से साम्यता रखता है।
डॉ. ऐ. एस. एिंडग्टन ने अपनी पुस्तक (The Nature of Physical World) में तथा सापेक्षवाद के सिद्धांत का अध्ययन करते हुए उन्होंने ईथर को एक अभौतिक, लोकव्याप्त अखण्ड द्रव्य की मौजूदगी को स्वीकार किया।
(२) अधर्म द्रव्य—यह धर्मद्रव्य की भांति है—अखण्ड, लोक में परिव्याप्त घनत्व रहित, अभौतिक/अपरमाण्विक पदार्थ है। परन्तु गुण धर्म से स्थिति में सहायक कारण है आधुनिक विज्ञान में इसकी तुलना गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से की जा सकती है, क्योंकि लोक की वस्तुओं में ठहराव (Medium of Rest) गुरुत्वाकर्षण के कारण स्वीकार किया गया है।
(३) आकाश द्रव्य—इसका काम जीव/अजीव द्रव्यों को अवगाहना देना है और यह एक स्वतंत्र द्रव्य है। लोकाकाश में सभी द्रव्य रहते हैं और अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य—धर्म, अधर्म, काल तथा जीव द्रव्य नहीं होते हैं।
आइन्स्टीन के विश्व विषयक सिद्धांत में समस्त आकाश अवगाहित है, परन्तु डच वैज्ञानिक ‘डी. सीटर’ का मानना है कि शून्य, (पदार्थ—रहित) आकाश की विद्यमानता की सम्भावना को सिद्ध करता है।
अनेकांतवाद के सिद्धान्त से आइन्स्टीन का विश्व—लोकाकाश की ओर संकेत करता है, जबकि डी. सीटर का विश्व—अलोकाकाश की ओर संकेत करता है।
वैज्ञानिक डॉ. पोइनकोर ने सांत आकाश और उसके परे क्या है, का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने विश्व को एक विशाल गोले के समान माना है जिसके केन्द्र में उष्ण तापमान है, जो सतह की ओर क्रमश: घटता जाता है और उसकी अंतिम सतह पर वास्तविक शून्य होता है। केन्द्र से सतह की ओर जाने पर पदार्थों का विस्तार क्रमश: कम होना प्रारंभ हो जायेगा और गति भी घटती जायेगी। इस प्रकार आधुनिक विज्ञान आकाश द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता को सिद्ध करता है।
(४) काल द्रव्य—पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य—उदासीन कारण होता है। आचार्य उमास्वामी ने ‘कालश्च’ सूत्र के द्वारा इसे स्वतंत्र द्रव्य माना। जिसका अविभागी कण—‘समय’ है। विज्ञान के कालाणु (Unit of time) को, एक इलेक्ट्रॉन को मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में लगा समय माना है ऐसा काल द्रव्य—‘‘सोऽनन्त समय:’’ (४०—५) अर्थात् वह कालद्रव्य अनंत समय वाला होता है।
प्रो. एडिण्टन ने कहा—‘‘टाइम इज मोर टिपिकल ऑफ फिजिकल रिएलिटी दैन मैटर’’ (Time is more typical of Physical reality than matter)।
प्रत्येक वस्तु—तीन दैशिक दिक् आयामों के साथ चौथे ‘काल’ आयाम से भी युक्त होती है, अत: वस्तु को काल से पृथक् अस्तित्व वाला नहीं मान सकते। मिन्को के चतुर्थ आयाम सिद्धांत (Four Dimensional theory) ने एक नयी दृष्टि देकर वस्तु के परिवर्तन में ‘समय’ आयाम को भी सम्मिलित किया है। जैन दर्शन भी यही कहता है—
‘‘वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य’’।।२२—५।। तत्त्वार्थसूत्र।
अर्थात् काल द्रव्य का उपकार—वर्तना (ध्रौव्य), परिणाम और क्रिया आदि है। पदार्थ की आयु का विस्तार और संकुचन—परत्व/अपरत्व है। आयु की दीर्घता का अल्पता में और अल्पता का दीर्घता में बदल जाना परत्व/अपरत्व है।
एक वैज्ञानिक उदाहरण से यह स्पष्ट किया जाता है :
एक नक्षत्र की पृथ्वी से दूरी ४० प्रकाश वर्ष है अर्थात् पृथ्वी से वहाँ तक प्रकाश को जाने में ४० वर्ष लगेंगे। प्रकाश वेग · ३० लाख किमी/सेकण्ड है। यदि एक रॉकेट २ लाख ४० हजार कि.मी./से. वेग से चले तो ५० वर्ष में वहाँ पहुँचेगा। परन्तु काल का संकुचन (जगेराल्ड के संकुचन नियमानुसार) १०.६ के अनुसार ६ ² ५० /१० · ३० वर्ष ही लगेंगे।
इस प्रकार काल—गति से भी प्रभावित होता है।
श्वेताम्बर परम्परा में काल को—औपचारिक द्रव्य के रूप में जीव/अजीव की पर्याय माना, जबकि दिगम्बर परम्परा में स्पष्ट वास्तविक द्रव्य माना है।
लोगागासपदेसे एक्केक्के जेट्ठिया हु एक्केक्का।
रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंख दव्वाणि।।
अर्थात् कालाणु, रत्नराशि के समान लोकाकाश के एक—एक प्रदेश में एक एक रूप में स्थित है। सापेक्ष विवेचन करें तो विशेष मतभेद नजर नहीं आता। क्योंकि वर्तना परिणामादि—काल के लक्षण भी हैं और पदार्थ की पर्यायें भी। पर्यायें—पदार्थरूप ही होती है।
काल को निश्चय काल और व्यवहार काल के रूप में परिगणित किया जाता है ‘कालाणु’ निश्चय काल है, जबकि समयादि का विभाजन—व्यवहार काल हैं
व्यवहार काल की गणना आगम में इस प्रकार की गयी है—
(१) संख्यात समय · १ आवलिका।
(२) संख्यात आवलिका · १ उच्छ्वास (प्राण)
(३) ७ प्राण · १ स्तोक
(४) ७ स्तोक · १ लव
(५) ७ लव · १ मुहूर्त · ४८ मिनट
जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है, उन ध्वनि—समुदाय को मन्त्र कहा जाता है। ऊँ, ह्रीं, क्लीं, ब्लूं आदि बीजाक्षर हैं, इनमें विस्फोटक शक्ति होती है। इनके अर्थ नहीं होते, बल्कि इनके उच्चारण से अद्भुत शक्ति की तरंगे, उद्गम होती हैं।
मंत्र—शब्द—उच्चारण का विज्ञान है। जो कषाय—भावों को मंद (विरल) बनाता है तथा अशुभ भावों को शुभ भावों में बदल देता है।
ॐ शब्द का लम्बा जोर से उच्चारण बहुत वैज्ञानिक है।
इससे मूलाधार से नाड़िया व अपान वायु ऊपर की ओर खिंचती है साथ ही प्राण वायु अंदर जाती है। नाभि केन्द्र (जहां मणिपुर चक्र होता है) हल्के से पीठ की ओर दबता है तथा हृदय के पास अनाहत चक्र होता है, जहाँ प्राण वायु का कुम्भक होता है। ‘ह्रीं’ के उच्चारण से भी मणिपुर चक्र पर विशेष दबाव पड़ता है। ये ऊर्जा केन्द्र हैं—इससे शरीर की आभा बढ़ती है।
णमोकार मंत्र में ‘ण’ का १० बार उच्चारण होता है।
‘ण’ बोलने से जीभ की नोंक का पिछला भाग, तालु से लगकर रगड़ता है। तालु मस्तिष्क की निचली परत है। लयबद्ध घर्षण से तालु व जीभ कोशिकाओं में क्षोभशीलता व कपाली—तंत्रिकाओं में परिस्पंदन होता है। जीभ ऋण व तालु धन विद्युत का केन्द्र माना जाता है।
इन दोनों के घर्षण से—धन व ऋण विद्युत का मिलन होने से ऊर्जा का निर्माण होता है, जो आज्ञा चक्र को जाग्रत करता है और नाड़ियाँ उनसे भर जाती हैं। योगीजन की दिव्यता का यही कारण होता है। उनकी संपूर्ण नाड़ियां अमृत से सम्पूरित हो जाती हैं। जिससे साधक—दृढ़ इच्छा शक्ति वाला, नियंत्रक, कुशाग्र, बुद्धि/निर्णय क्षमता वाला बनता है।
णमोकार मंत्र के जाप्य से साधक श्रुतज्ञान के विकल्प ध्यान से आगे उठता हुआ निर्विकल्प ध्यान की ओर बढ़ता है।
इस प्रकार ‘णमोकार’ मंत्र की वैज्ञानिकता असंदिग्ध है।
तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में जीव सृष्टि का वर्गीकरण दिया गया है। एकेन्द्रिय प्राणी पांच वर्गों में विभाजित किये गये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। पहले चार के संबंध में इन्हें चेतनारूप मानने में विज्ञान मौन है, जबकि जैनदर्शन उनमें जीवत्व मानता है। डॉ. जगदीश चन्द्र वसु के प्रायोगिक परीक्षणों के उपरान्त वनस्पतियों में जीवत्व, भाव—विभाव, अच्छ—बुरे का ज्ञान, आज का विज्ञान मानने लगा है।
वर्तमान युग विज्ञान का युग कहलाता है, क्योंकि जिन वस्तुओं की हमारे पूर्वजों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, वैज्ञानिकों ने उनको मूर्तरूप दे दिया है। आज का मनुष्य, विशेष कर युवा वर्ग, प्रत्येक बात को विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखता है, कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह बात ठीक है या गलत है। अब हम इसी सम्बन्ध में कुछ विचार करेंगे।
धर्म का लक्ष्य हमें सच्चा सुख प्राप्त कराना है। विज्ञान का लक्ष्य भी मनुष्य को अधिक से अधिक शारीरिक सुख प्राप्त कराना है। साधारण दृष्टि से देखने पर दोनों का लक्ष्य एक ही दिखलाई देता है; परन्तु कुछ अधिक गहराई से विचार कर हमें पता चलेगा कि सुख के सम्बन्ध में दोनों की मान्यताएँ भिन्न—भिन्न हैं।
धर्म का लक्ष्य एक प्रकार का अनुपम, अतीन्द्रिय, सच्चा व स्थायी सुख प्राप्त कराना है। धर्म ऐसे सच्चे व स्थायी सुख की प्राप्ति का विश्वास दिलाता है, जो स्वाधीन है तथा जिसके लिये किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है, अत: इसके द्वारा प्रदत्त सुख, निर्बल व बलवान, निर्धन व धनवान सबकी पहुँच के भीतर है, जबकि विज्ञान द्वारा प्रदत्त शारीरिक सुख पराधीन होता है, क्योंकि उसके लिये भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है।
अत: विज्ञान के द्वारा प्रदत्त सुख का उपभोग केवल भौतिक साधनों से सम्पन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। एक बात और धर्म संसार के प्रत्येक प्राणी, चाहे वह मनुष्य हो या छोटा सा कीट—पतंग, सबके लिये सच्चे सुख का मार्ग दिखलाता है; जबकि विज्ञान का लक्ष्य केवल मनुष्य मात्र तक ही सीमित है। धर्म के माध्यम से प्राप्त सुख से किसी भी अन्य प्राणी को तनिक सा भी कष्ट नहीं मिलता, जबकि विज्ञान के द्वारा प्रदत्त बहुत से शारीरक सुख तो पशु जगत के कष्टों—उनकी हिंसा पर ही आधारित होते हैं।
एक तथ्य और भी ध्यान देने योग्य है। विज्ञान के द्वारा प्रदत्त सुख के साधनों से, सुख के साथ—साथ कष्ट मिलने की भी सम्भावना रहती है; जैसे विज्ञान ने मनुष्य की सुख—सुविधा के लिये उसे विद्युतशक्ति दी, परन्तु इसी विद्युत—स्पर्श से हम प्रतिदिन मनुष्यों को मरते हुए भी देखते हैं। विज्ञान ने मनुष्यों को ईंधन से चलने वाले वाहन दिये, परन्तु उन वाहनों से निकलने वाले धुंए ने पृथ्वी के वायुमण्डल को ही दूषित कर दिया है, जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये खतरा उत्पन्न हो गया है।
इसी विज्ञान ने मनुष्य की सुख—सुविधा के लिये वायुयान दिये परन्तु उन्हीं वायुयानों की दुर्घटनाओं के फलस्वरूप हजारों व्यक्तियों की मृत्यु होती रहती है अत: हम देखते हैं कि विज्ञान अभी तक हमको निरापद तथा व्यवधान—रहित सुख देने में समर्थ नहीं हो सकता; जबकि चौथी विचारधारा हमको निरापद तथा शाश्वत सुख प्राप्त कराने का उद्घोष करती है।
एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात और भी है। धर्म अपने अनुयायियों पर अिंहसा तथा विवेक का अंकुश रखता है, अत: इस विचारधारा के द्वारा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का तनिक सा भी कष्ट पहुँचाने का भय नहीं है। परन्तु विज्ञान पर अभी तक कोई अंकुश नहीं है, अत: उससे जितना सुख मिलने की आशा है उससे अधिक कष्ट मिलने की संभावना है। वैज्ञानिकों ने वायुयान मनुष्य की सुख—सुविधा के लिये ब्ानाये थे परन्तु उन्हीं वायुयानों से मनुष्य पर मौत और आग बरसायी जा रही है।
जो विज्ञान मनुष्य को सुख और सुविधा पहुँचाने के लिये नये—नये अनुसंधान और आविष्कार करता है, उसी विज्ञान ने ऐसे बम तैयार किये जिनसे हिरोशिमा और नागासाकी जैसे नगर देखते—देखते ही नष्ट भ्रष्ट हो गये, वहाँ के हजारों नागरिक कुछ ही क्षणों में काल के गाल में समा गये और उनसे भी अधिक व्यक्ति सदैव के लिये अपंग तथा असाध्य रोगों से ग्रस्त हो गये। और आज तो वैज्ञानिकों ने उन बमों से भी हजारों गुने अधिक शक्तिशाली बम तैयार कर लिये हैं।
आज विभिन्न राष्ट्रों के पास इतने बम इकट्ठे हो गये हैं कि उन बमों से हमारी जैसी एक नहीं, अपितु ऐसी कई—कई पृथ्वियाँ, कुछ क्षणों में नष्ट भ्रष्ट हो सकती हैं। इन तथ्यों को देखते हुए आज के बुद्धिजीवी सोच रहे हैं कि यदि विज्ञान पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं लगा, तो कदाचित् ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण समय आ जाये, जब कि कुछ ही व्यक्तियों के अविवेकपूर्ण निर्णय से यह पृथ्वी ही नष्ट—भ्रष्ट हो जाये।
इन सब तथ्यों को देखते हुए हमें यह निर्णय करना है कि हमें धर्म के द्वारा प्रदत्त स्वाधीन, सच्चा व स्थायी तथा विश्व के समस्त प्राणियों के लिये ये निरापद सुख प्राप्त करना है, जिसका मार्ग संसार के प्रत्येक प्राणी के लिये खुला है।
उपर्युक्त कथन का अभिप्राय किसी भी तरह से वैज्ञानिक उपलब्धियों का मूल्यांकन कम करना नहीं है। उस पर अिंहसा धर्म का अंकुश अपेक्षित है ताकि वैज्ञानिक अनुसंधानों का सृजनात्मक उपयोग ही हो।