जैन धर्म है, जाति नहीं है। जाति, गोत्र और धर्म इन तीनों को समझना अति आवश्यक है। वर्तमान में जैनधर्मानुयायियों में चौरासी जातियाँ सुनी जाती हैं। अग्रवाल, पोरवाड़, खंडेलवाल, पद्मावती पुरवाल, परवार, लमेचू, चतुर्थ, पंचम, बघेरवाल,शेतवाल आदि। गोत्रों में प्रत्येक जाति के गोत्र अलग-अलग हैं। जैसे कि अग्रवाल में गोयल, सिंगल, मित्तल आदि। खण्डेलवाल में सेठी, रांवका, गंगवाल आदि।
अतएव जाति और गोत्र अलग हैं तथा धर्म अलग है। फिर भी कुछ व्यवस्था की दृष्टि से ‘जनगणना’ में जाति के कालम में जैन लिखाना आवश्यक हो गया है।
मेरा तो यही कहना है कि सभी जैनकुल में जन्में लोगों को अपने नाम के साथ ‘जैन’ लगाना अति आवश्यक है। प्राय: मारवाड़ में और दक्षिण में श्रावक नाम के साथ गोत्र लगाते हैं ‘जैन’ नहीं लगाते हैं अत: जैन जनगणना में अतीव अल्प दिखते हैं।
एक बार तीर्थंकर पत्रिका में छपा था-
जैन जो ‘जैन’ नहीं लिखते, उनकी संख्या एक करोड़ चौदह लाख है।
ऐसे जैन, जो अपने नाम के साथ ‘जैन’ शब्द का प्रयोग नहीं करते, प्रादेशिक उपनाम लिखते हैं, कोई आंचलिक भाषा बोलते हैं तथा सामान्यत: काश्तकार-खेती करने वाले हैं, संख्या में एक करोड़ चौदह लाख हैं। ये पूरे देश में पैâले हुए हैं और किस्म-किस्म के उपनामों से पहचाने जाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ये महाराष्ट्र में १५ लाख, बिहार, बंगाल, उड़ीसा में ३५ लाख, कर्नाटक में १५ लाख, गुजरात में १२ लाख, तमिलनाडु में
२ लाख, मध्यप्रदेश में १५ लाख, राजस्थान में १० लाख तथा अन्य राज्यों में १० लाख हैं।
इसलिए नाम के साथ ‘जैन’ लगाना चाहिए। जैसे कि-वैâलाशचंद जैन, गोयल। हीरालाल जैन, गंगवाल आदि।