प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने दर्शन को ‘ज्ञान के प्रति प्रेम’ कहा है। परम्परा से दर्शन को बुद्धि के प्रयोग द्वारा ज्ञान की खोज माना गया है।
दर्शन का कार्य है कि वह धार्मिक विश्वास और नैतिक मान्यताओं के आधारों को प्रकाश में लाकर उनकी परीक्षा करे। विशिष्ट दार्शनिक क्रिया आलोचनात्मक मनन या विमर्श है। दार्शनिक चिंतन एक चेतन वैचारिक प्रक्रिया है। इस वैचारिक प्रक्रिया से जो ज्ञान का उत्पन्न होता है वही िंचतन का मौलिक स्वरूप है। तर्कशास्त्र में भी जो ज्ञान हम प्राप्त करते हैं वह कुछ इसी प्रकार का होता है। दार्शनिक िंचतन के अन्तर्गत हमारे सामान्य ज्ञान पर आधारित कुछ भी प्रश्न हो सकते हैं और हमारा चिंतन उसकी वैधता या औचित्य के सम्बन्ध में प्रश्न उठाता है।
विषय चाहे ज्ञान से सम्बन्धित हो, चाहे सत् से अथवा मूल्य से दार्शनिक चिंतन सदैव एक आत्म चेतन वैचारिक प्रक्रिया है। जिससे हम मान्य वस्तुओं पर आलोचनात्मक दृष्टि डालते हैं और कुछ महत्त्वपूर्ण अथवा सामान्य प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करते हैं।
जहाँ तक जैन न्याय के अध्ययन की उपयोगिता का प्रश्न है वहाँ भी दर्शन सम्बन्धी सभी उपयोगितायें चरितार्थ होती है। न्याय शब्द ‘नि’ उपसर्ग पूर्व ‘इण्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है प्रमाण—मार्ग। न्याय के द्वारा हम खूब अच्छी तरह जीवाजीवादिक पदार्थों को यथावस्थितरूप से जानते हैं और प्रमाण मार्ग का भी यही कार्य है। इस प्रकार जैन न्याय का अर्थ हुआ कि पदार्थों की यथावस्थिति का ज्ञान जिस माध्यम से हो वही जैन न्याय हैं
जैन न्याय के क्षेत्र में आचार्य उमास्वामी से लेकर आज तक एक लम्बी परम्परा मिलती है। इन आचार्यों के ग्रंथ जैन न्याय को अति समृद्ध बनाते हैं। हम जैन न्याय के कतिपय सूत्रों को लेते हुए उसके अध्ययन की उपयोगिता पर प्रकाश डालेंगे।
न्याय विषय में आचार्यों में तत्त्व परीक्षा के लिए प्रमाणरूपी कसौटी तैयार की है। यदि इन प्रमाणों से जांच कर पदार्थों का निर्णय किया जाए तो निश्चय ही व्यक्ति मत मतान्तरों की चकाचौंध से भ्रमित नहीं होगा। मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए जीवादिक तत्त्वों का निर्णय होना आवश्यक है। जिसके लिए जैन न्याय में वर्णित प्रमाणों का ज्ञान करना प्रत्येक आत्महितैषी के लिए आवश्यक है।
आचार्य माणिक्यनन्दि का ‘परीक्षामुख’ जैन न्याय का एक प्रमाणभूत ग्रंथ है। ‘परीक्षामुख’ के मंगलाचरण में प्रमाणों की उपयोगिता का निदर्शन करते हुए आचार्य लिखते हैं—
‘प्रमाणादर्थसंसिद्धि:’
प्रमाण अर्थात् सच्चे ज्ञान से पदार्थों का निर्णय होता है। प्रमाणों के द्वारा संशयादि का निराकरण होता है तथा वस्तु तत्त्व का सही निर्णय होता है।
प्रमाणों के ज्ञान की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए पुन: सूत्ररूप में आचार्य का कथन है कि ‘‘प्रमाण हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ है।’’ इस संसार में सुख और सुख का कारण हित है तथा दु:ख और दु:ख का कारण अहित है। प्रमाण चूँकि हित की प्राप्ति व अहित के परिहार में समर्थ है अत: प्रमाण का ज्ञान मानवकल्याणकारी सिद्ध होता है।
‘स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्।’
जो अपने को जानता है और दूसरे अन्य पदार्थों का भी निश्चयात्मक ज्ञान कराता है वही प्रमाण है। यह प्रमाण ही सच्चा ज्ञान है।
अब यह तो स्थापित हो चुका है कि प्रमाण से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है। सच्चाई वास्तविकता या पदार्थ का यथावत् जानने का निर्णय दो प्रकार से होता है—प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष क्या है—
‘स्पष्टं प्रत्यक्षम्।’ (प्रमाणनयतत्त्वालोक २/२)
निर्मल असन्दिग्ध स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष प्रमाण की असन्दिग्धता या निर्मलता अनुभव से जानी जा सकती है। अनुभव से उदाहरण के लिए ‘जयपुर’ शहर के बारे में अगर आप किसी से सुनें तो ज्ञान तो होगा परन्तु जब आप उस नगर को स्वयं जाकर देखोगे तो वह ज्ञान अत्यन्त निर्मल व असन्दिग्ध होगा। तो यह है प्रत्यक्ष ज्ञान की जीवन में उपयोगिता।
परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम की गणना की जाती है।
‘प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम्।’
स्मृति पूर्व में अनुभूत विषयों की ही होती है। इस प्रकार स्मृति प्रत्यक्ष पर आधारित है। प्रत्यभिज्ञान यानि पहचान। प्रत्यभिज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि पूर्व में जिस पदार्थ को देखा है उसी को स्मरण करके ‘हाँ, यह वही है’’ इस प्रकार का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। तर्क प्रमाण में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और प्रत्यक्ष तीनों की आवश्यकता पड़ती है। आगम प्रमाण में संकेत और उसका स्मरण दोनों ही कारण बनते हैं। तात्पर्य यह है कि इन पाँचों प्रमाणों को अपने पूर्व वाले प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए इन्हें परोक्ष प्रमाण कहा जाता है।
‘अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम्।’
प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति है तथा परम्परा फल हान अर्थात् त्याग, उपादान अर्थात् ग्रहण और उपेक्षा अर्थात् उदासीनता है।
किसी भी प्रमाण के द्वारा सर्वप्रथम प्रमेय के ज्ञान द्वारा अज्ञान की निवृत्ति होती है तत्पश्चात् वस्तु का त्याग, ग्रहण अथवा उपेक्षा का भाव जाग्रत होता है।
‘य: प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो।’ —परीक्षामुख
जो जानता है उसी का अज्ञान दूर होता है। अज्ञान का निवारण श्रेयस का मार्ग प्रतिष्ठित करता है। इस प्रकार जैन न्याय का अध्ययन परम कल्याणकारी माना जा सकता है। जैन न्याय के अध्ययन का उपयोग विज्ञान व तकनीकी की भाँति हमारी भौतिक सम्पत्ति एवं संवृद्धि में हो सकता है सीधे मदद न करे परन्तु इसके अध्ययन से उत्पन्न सद्गुणों के कारण हमारे जीवन में इसकी व्यावहारिक उपादेयता भी सिद्ध होती है। हमारी िंचतन शक्ति के विकास से हमारे देश व हमारे समाज को अपरम्पार लाभ होता है। िंचतन शक्ति का विकास हमारे राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य को भी प्रभावित करता है। अत: इस दृष्टि से इसकी प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता। बौद्धिक प्रखरता जैन न्याय की मुख्य देन मानी जा सकती है जिसके माध्यम से मनुष्य देश व समाज की मूलभूत समस्याओं के प्रति जागरूक होता है। मानवीय गरिमा, व्यक्ति की स्वतन्त्रता, समानाधिकार, उदारवादी, लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसे विचारों से ही आज हमारा राजनीतिक, सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन निर्धारित होता है।
हर विषय की अपनी पारिभाषिक शब्दावली होती है। जैन न्याय की भी है। अत: यदि जैन दर्शन के न्याय-ग्रंथों के अध्ययन से पूर्व इस पारिभाषिक शब्दावली को पढ़-समझ लिया जाये तो बहुत लाभ हो सकता है।
न्याय-जिसके द्वारा वस्तु-स्वरूप का सम्यक् ज्ञान हो, उसे न्याय कहते हैं।
उद्देश्य-जिस वस्तु का विवेचन करना हो उसका नाम मात्र कथन करना ही उद्देश्य है।
लक्षण निर्देश-निर्दोष लक्षण को बतलाने का नाम लक्षण निर्देश है।
अव्याप्ति-लक्ष्य के एकदेश में ही पाये जाने को अव्याप्ति कहते हैं।
अतिव्याप्ति-लक्ष्य और लक्ष्य के बाहर अलक्ष्य में भी पाये जाने का नाम अतिव्याप्ति है।
असम्भव-लक्ष्य में सर्वथा न पाये जाने का नाम असंभव है।
लक्षण-परस्पर मिली-जुली अनेक वस्तुओं में से एक अभीष्ट वस्तु को अलग कर देने वाले हेतु (चिन्ह विशेष) को लक्षण कहते हैं।
परीक्षा-परस्पर विरुद्ध अनेक युक्तियों की प्रबलता एवं दुर्बलता का निर्धारण करने के लिए सावधानीपूर्वक जो विचार किया जाता है, उसे परीक्षा कहते हैं।
प्रमाण-जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व को एकदम सही रूप में जाना जाता है, पहचाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं।
समारोप-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का सामूहिक नाम समारोप है।
संशय-विरुद्ध अनेक कोटियों को स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय है।
विपर्यय-विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय है।
अनध्यवसाय-‘कुछ है’—इस प्रकार के अनिश्चयात्मक ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं।
प्रत्यक्ष प्रमाण-विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-जो ज्ञान इन्द्रियोें और मन की सहायता से होता है, उसे लोकव्यवहार में प्रत्यक्षरूप से प्रसिद्ध होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष-सर्वत: निर्मल ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
विकल प्रत्यक्ष-जो कुछ ही पदार्थों को विषय करता है, वह विकल प्रत्यक्ष है।
सूक्ष्म-जो स्वभाव से विप्रकृष्ट (दूर) हों, उन्हें सूक्ष्म कहते है। जैसे—परमाणु आदि।
अन्तरित-जो काल से विप्रकृष्ट (दूर) हों, उन्हें अन्तरित कहते हैं। जैसे—सुमेरु पर्वत आदि।
परोक्ष प्रमाण-अविशद (अस्पष्ट, अनिर्मल) ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
स्मृति-जो ज्ञान पूर्वानुभूत वस्तु को ‘वह’ इस रूप से विषय बनाता है, उसे स्मृति कहते हैं।
प्रत्यभिज्ञान-जो ज्ञान प्रत्यक्ष दर्शन और स्मृति के संकलन (जोड़) रूप होता है, उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं।
तर्क-व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं।
व्याप्ति-साध्य और साधन में गम्य-गमक भाव को बतलाने वाले सुनिश्चित संबंध को ही व्याप्ति कहते हैं। जैसे—धुएँ की अग्नि के साथ व्याप्ति है।
अविनाभाव-अविनाभाव का अर्थ है—साध्य के बिना साधन का न होना।
अनुमान-साधन (या हेतु) से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।
हेतु (साधन)-जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) हो, उसे साधन कहते हैं।
साध्य-साध्य शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्ध होता है। इन्हें क्रमश: अबाधित, इष्ट और अप्रसिद्ध भी कहते हैं।
प्रमेय-जो प्रमाण के द्वारा जाना जाये, उसे प्रमेय कहते हैं।
अन्वय-जहाँ साध्य के साथ साधन की व्याप्ति दिखाई जावे, वह अन्वय दृष्टान्त है।
व्यतिरेक-जहाँ साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखाया जावे, वह व्यतिरेक दृष्टान्त है।
आप्त-जो वीतराग (मोह-राग-द्वेष आदि दोषों से रहित), सर्वज्ञ और परम हितोपदेशक हो, वही आप्त है।
आगम-आप्त के वचनों से होने वाला अर्थज्ञान आगम है।
प्रमाणाभास-जो प्रमाण नहीं है, पर प्रमाण जैसा प्रतीत होता है। अथवा प्रमाण माना जाता है, उसे प्रमाणाभास कहते हैं।
अनुमानाभास-जो अनुमान नहीं, पर अनुमान जैसा प्रतीत होता है अथवा अनुमान माना जाता है, वह अनुमानाभास है।
हेत्वाभास-जो हेतु नहीं है, पर हेतु जैसा प्रतीत होता है, उसे हेत्वाभास कहते हैं।
नय-प्रमाण द्वारा परिगृहीत वस्तु के एक देश (अंश, भाग, गुण, धर्म, पक्ष, आयाम) को जानना या कहना नय है।
निक्षेप-वस्तु को किस रूप से जाना जाये, उसे निक्षेप कहते हैं। निक्षेप की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु चार प्रकार की है-नामरूप, स्थापनारूप, द्रव्यरूप और भावरूप।
नयाभास-जो नय नहीं है, पर नय जैसा प्रतीत होता है, उसे नयाभास कहते हैं। तात्पर्य यह है कि नय प्रमाणपरिगृहीत वस्तु के एक देश को ग्रहण करता है अत: वस्तु के एक पक्ष का कथन करते हुए भी उसके अपर पक्ष का निराकरण नहीं करता, मात्र उसे गौण करता है, परन्तु नयाभास उस अपर पक्ष का निराकरण या अभाव ही कर देता है। नय और नयाभास में यही मूल अन्तर है।
न्याय का अर्थ लोक में रूढ़ या प्रसिद्ध नीतिवाक्य भी होता है। ये नीतिवाक्य दृष्टान्त की तरह विषय को बोधगम्य बनाते हैं। ये अनेकानेक होते हैं, परन्तु इनमें से कतिपय प्रमुख इस प्रकार हैं—
१. अंधचटकन्याय—इसके अर्थ का हिन्दी मुहावरा भी बहुत प्रसिद्ध है—अन्धे के हाथ बटेर लगना। यह ‘घुणाक्षर न्याय’ के समान है।
२. अंधपरंपरान्याय—इसका अर्थ है अंधानुकरण। इसका प्रयोग तब होता है जब लोग बिना विचारे दूसरों का अन्धानुकरण करते हैं और यह नहीं जानते कि इस प्रकार का अनुकरण उन्हें अंधकार में फंसा देगा।
३. अशोकवनिकान्याय—अशोक वृक्षों के उद्यान का न्याय। रावण ने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, परन्तु उसने और स्थानों को छोड़कर इसी वाटिका में क्यों रखा—इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया जा सकता। सारांश यह हुआ कि जब मनुष्य के पास किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं दिया जा सकता।
४. अश्मलोष्ट न्याय—पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय। मिट्टी का ढेला रुई की अपेक्षा कठोर है परन्तु वही कठोरता मृदुता में बदल जाती है जब हम उसकी तुलना पत्थर से करते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्ति बड़ा महत्त्वपूर्ण समझा जाता है जब उसकी तुलना उसकी अपेक्षा निचले दर्जे के व्यक्तियों से की जाती है, परन्तु यदि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर व्यक्तियों से तुलना की जाय तो वही महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नगण्य बन जाता है। ‘पाषाणेष्टकन्याय’ भी इसी प्रकार प्रयुक्त किया जाता है।
५. कदंबकोरक (गोलक) न्याय—कदंब वृक्ष की कली का न्याय—कदंब वृक्ष की कलियाँ साथ ही खिल जाती हैं, अत: जहाँ उदय के साथ ही कार्य भी होने लगे, वहाँ इस न्याय का उपयोग करते हैं।
६. काकतालीय न्याय—कौवे और ताड़ के फल का न्याय। एक कौवा एक वृक्ष की शाखा पर जाकर बैठा ही था कि अचानक ऊपर से एक फल गिरा और कौवे के प्राण—पखेरु उड़ गये, अत: जब कभी कोई घटना शुभ हो या अशुभ, अप्रत्याशित रूप से अकस्मात् घटती है, तब इसका उपयोग होता है।
७. काकदंतगवेषण न्याय—कौवे के दाँत ढूँढना। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है, जब कोई व्यक्ति व्यर्थ अलाभकारी या असंभव कार्य करता है।
८. काकाक्षि गोलक, न्याय—कौवे की आँख के गोलक का न्याय। एक दृष्टि, एकाक्ष आदि शब्दों से यह कल्पना की जाती है कि कौवे की आँख तो एक ही होती है, परन्तु वह आवश्यकता के अनुसार उसे एक गोलक से दूसरे गोलक में ले जा सकता है। इस न्याय का उपयोग उस समय होता है जब वाक्य में किसी शब्द या पदोच्चय का जो केवल एक ही बार प्रयुक्त हुआ है, आवश्यकता होने पर दूसरे स्थान पर भी अध्याहार कर लें।
९. कूपयंत्रघटिका न्याय—रहँट टिंडर न्याय। इसका उपयोग सांसारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है। जैसे रहँट के चलते समय कुछ िंटडर तो पानी से भरे हुए ऊपर को जाते हैं, कुछ खाली हो रहे हैं और कुछ बिल्कुल खाली होकर नीचे को जा रहे हैं।
१०. घट्टकुटाप्रभातन्याय—चुंगी घर के निकट पौ फटी का न्याय। कहते हैं कि एक गाड़ीवान चुंगी देना नहीं चाहता था, अत: वह ऊबड़—खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया परन्तु दुर्भाग्यवश रात भर इधर—उधर घूमता रहा, जब पौ फटी तो देखता क्या है कि वह ठीक चुंगीघर के पास ही खड़ा है, विवश हो उसे चुंगी देनी पड़ी, इसलिए जब कोई किसी कार्य को जानबूझ कर टालना चाहता है, परन्तु अन्त में उसी को करने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय इस न्याय का प्रयोग होता है।
११. घुणाक्षर न्याय—लकड़ी में घुणकीटों द्वारा निर्मित अक्षर का न्याय। किसी लकड़ी में घुन लग जाने अथवा किसी पुस्तक में दीमक लग जाने से कुछ अक्षरों की आकृति से मिलते—जुलते चिह्न अपने आप बन जाते हैं, अत: जब कोई कार्य अनायास व अकस्मात् हो जाता है तब इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
१२. दण्डाक्षर न्याय—डंडे और पूड़े का न्याय। डंडा और पूड़ा एक ही स्थान पर रखे गये थे। एक व्यक्ति ने कहा कि डंडे को तो चूहे घसीट कर ले गये और खा गये, तो दूसरा व्यक्ति स्वभावत: यह समझ लेता है कि पूड़ा तो खा ही लिया गया होगा, क्योंकि वह उसके पास ही रखा था। इसलिए जब कोई वस्तु दूसरी के साथ विशेष रूप से अत्यन्त संबद्ध होती है और एक वस्तु के संबंध में हम कुछ कहते हैं तो वही बात दूसरी वस्तु के साथ भी अपने आप लागू हो जाती है।
१३. देहलीदीपन्याय—देहली पर स्थापित दीपक का न्याय। जब दीपक को देहली पर रख दिया जाता है तो इसका प्रकाश देहली के दोनों ओर होता है, अत: यह न्याय उस समय प्रयुक्त किया जाता है जब एक ही वस्तु दो स्थानों पर काम आवे।
१४. नृपनापितपुत्र न्याय—राजा और नाई के पुत्र का न्याय। कहते हैं कि एक नाई किसी राजा के यहाँ नौकर था। एक बार राजा ने उससे कहा कि मेरे राज्य्ा में जो लड़का सबसे सुन्दर हो उसे लाओ। नाई बहुत दिनों तक इधर—उधर भटकता रहा परन्तु उसे ऐसा कोई बालक नहीं मिला जैसा राजा चाहता था। अन्त में थककर और निराश होकर वह घर लौटा। उसे अपना काला कलूटा लड़का ही अत्यन्त सुन्दर लगा वह उसी को लेकर राजा के पास गया। पहले तो उस काले—कलूटे बालक को देख कर राजा को बड़ा क्रोध आया परन्तु यह विचार कर कि मानव मात्र अपनी वस्तु को ही सर्वोत्तम समझता है, उसे छोड़ दिया। सर्व: कांतमात्मीयं पश्यति। हिन्दी में भी कहते हैं—अपनी छाछ को कौन खट्टा बताता है।
१५. पंकप्रक्षालन न्याय—कीचड़ धोकर उतारने का न्याय। कीचड़ लगने पर उसे धो डालने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि मनुष्य कीचड़ लगने ही न देवे। इसी प्रकार भयग्रस्त स्थिति में पँâस कर उससे निकलने का प्रयत्न करने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि उस भयग्रस्त स्थिति में कदम ही न रखें। ‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’ हिन्दी में भी कहते हैं—सौ दवा से एक परहेज अच्छा।
१६. पिष्टपेषण न्याय—पिसे हुए को पीसना। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई किये हुए कार्य को ही दुबारा करने लगता है, क्योंकि पिसे को पीसना व्यर्थ कार्य है—कृतस्य करणं वृथा।
१७. बीजांकुर न्याय—बीज और अंकुर का न्याय। कार्य—कारण जहाँ अन्योन्याश्रित होते हैं वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। बीज से अंकुर निकला और फिर अंकुर से ही बीज की उत्पत्ति हुई, अत: न बीज के बिना अंकुर हो सकता है और न अंकुर के बिना बीज।
१८. लोहचुम्बक न्याय—लोहे और चुंबक का आकर्षण न्याय। यह प्रकृतिसिद्ध बात है कि लोहा चुंबक की ओर आकृष्ट होता है, इसी प्रकार प्राकृतिक घनिष्ठ संबंध या निसर्गवृत्ति की बदौलत सभी वस्तुएँ एक दूसरे की ओर आकृष्ट होती हैं।
१९. वह्निधूम न्याय—धुएं से अग्नि का अनुमान। धुएं और अग्नि की अवश्यंभावी सहवर्तिता नैसर्गिक है, अत: जहाँ धुंआ होगा वहाँ आग अवश्य होगी। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जहाँ दो पदार्थों में कारण—कार्य या दो व्यक्तियों का अनिवार्य संबंध बताया जाय।
२०. वृद्धकुमारीवाक्य (वर) न्याय—बूढ़ी कुमारी को वरदान का न्याय। इस प्रकार का वरदान माँगना जिसमें वह सभी बातें आ जाय जो एक व्यक्ति चाहता है। महाभाष्य में कथा आती है कि एक बुढ़िया कुमारी को इन्द्र ने कहा कि एक ही वाक्य में जो वरदान चाहो मांगो, तब बुढ़िया बोली—पुत्रा मे बहुक्षीरघृतमोदनं कांचनपायां भुंजीरन् अर्थात् मेरे पुत्र सोने की थाली में घी—दूध युक्त दूध भात खायें। इस एक ही वरदान में बुढ़िया ने पति, धन धान्य, पशु, सोना—चाँदी सब कुछ माँग लिया। अत: जहाँ एक ही प्राप्ति से सब कुछ प्राप्त हो वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है।
२१. शाखाचंद्र न्याय—शाखा पर वर्तमान चन्द्रमा का न्याय। जब किसी को चन्द्रमा का दर्शन कराते हैं तो चन्द्रमा के दूर स्थित होने पर हम यही कहते हैं, देखो सामने वृक्ष की शाखा के ऊपर चाँद दिखाई देता है। अत: यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई वस्तु दूर होकर भी निकटवर्ती किसी पदार्थ से संसक्त होती है।
२२. सिंहावलोकन न्याय—सिंह का पीछे मुड़ कर देखना। यह उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई व्यक्ति आगे चलने के साथ–साथ अपने पूर्वकृत कार्य पर भी दृष्टि डालता रहता है। जिस प्रकार िंसह शिकार की तलाश में आगे भी बढ़ता जाता है, परन्तु साथ ही पीछे मुड़कर भी देखता रहता है।
२३. सूचीकटाह न्याय—सुई और कड़ाही का न्याय। यह उस समय प्रयुक्त किया जाता है, जब दो बातें एक कठिन और एक अपेक्षाकृत आसान करने को हों, तो उस समय आसान कार्य को पहले किया जाता है, जैसे कि जब किसी व्यक्ति को सुई और कड़ाही दो वस्तुएँ बनानी हैं तो वह सुई को पहले बनावेगा, क्योंकि कड़ाही की अपेक्षा सुई को बनाना आसान या अल्पश्रमसाध्य है।
२४. स्थूणनिखनन न्याय—गड्ढा खोदकर उसमें थूणी जमाना। जब किसी मनुष्य को कोई थूणी अपने घर में लगानी होती है तो मिट्टी कंकड़ आदि बार-बार डाल कर और कूटकर वह उस थूणी को दृढ़ बनाता है, इसी प्रकार वादी भी अपने अभियोग की पुष्टि में नाना प्रकार के तर्क और दृष्टान्त उपस्थित करके अपनी बात का और भी अधिक समर्थन करता है।
२५. स्वामिभृत्य न्याय—स्वामी और सेवक का न्याय। इसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब पालक और पाल्य, पोषक और पोष्य के सम्बन्ध को बतलाना होता है या ऐसे ही किन्हीं दो पदार्थों का संबंध बतलाया जाता है।